शिकस्त
तेरा सौदाई तिरे पास ब-सद-इज्ज़-ओ-नियाज़
दाग़-ए-दिल अपने दिखाने को चला आया था
दिल पे क्या गुज़री ज़माने ने सितम क्या ढाए
अपनी रूदाद सुनाने को चला आया था
था यक़ीं जब दर-ए-महबूब पे पहुँचेंगे तो फिर
चेहरा-ए-ज़ीस्त से धुल जाएगी गर्द-ए-आलाम
अपने दामन में छुपा लेगी फिर आग़ोश-ए-सहर
फिर पज़ीराई को आएगी महकती हुई शाम
आस थी ऐ मिरे महबूब मिरी जान-ए-हज़ीं
तेरे अन्फ़ास की ख़ुशबू से महक जाएगी
तेरे अल्ताफ़-ओ-इनायात की गुल-रेज़ि से
बाग़-ए-हस्ती की तही-दामनी ढक जाएगी
तेरी आँखों में वही प्यार नुमायाँ होगा
तेरे लहजे में लगावट की वही ख़ू होगी
खिल उठेंगे इसी अंदाज़ से आरिज़ के गुलाब
तेरी ज़ुल्फ़ों में इसी चाह की ख़ुशबू होगी
सुर्ख़-रू होंगे ग़म-ए-दिल ग़म-ए-दौराँ दोनों
फिर वही दौर मोहब्बत का पलट आएगा
तेरे क़दमों पे दिल-ए-ज़ार के सज्दे होंगे
तेरी आँखों में वही प्यार सिमट आएगा
दूर होगी ग़म-ए-अय्याम की तपती हुई धूप
तेरी ज़ुल्फ़ों का महकता हुआ साया होगा
मैं ने समझा था तिरी पुर्सिश-ए-ग़म से शायद
दर्द कम होगा ग़म-ए-दिल का मुदावा होगा
क्या ख़बर थी कि तिरा प्यार भी धोका होगा
इक ज़रूरत ने किया था तुझे मजबूर-ए-वफ़ा
मस्लहत-साज़ तबीअ'त को छुपाने के लिए
कर लिया तू ने ख़ुदा को भी मोहब्बत में गवाह
पुर्सिश-ए-ग़म का तो क्या ज़िक्र कि इस महफ़िल में
मैं निगाह-ए-ग़लत-अंदाज़ के क़ाबिल भी नहीं
हासिल-ए-बज़्म जिसे तू ने कभी समझा था
आज वो जान-ए-हज़ीं दर-ख़ुर-ए-महफ़िल भी नहीं
ख़्वाब क्या क्या दिल-ए-दीवाना ने देखे थे 'नियाज़'
क्या भयानक मिली उन ख़्वाबों की ता'बीर हमें
इक नया दर्द मिला हम को शिकस्त-ए-दिल का
इक नए मोड़ पे ले आई है तक़दीर हमें
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