सिलसिला-ए-मुकालिमात-ए-ख़ुद-कलामी
कब से इस आतिश-ए-नफ़स का
ये दबिस्तान-ए-क़दीम
चल रहा था ना-गहाँ
निकला नतीजा
इम्तिहान इल्म-ए-अस्मा का
तभी से
रह गई हो कर मुक़फ़्फ़ल ये इमारत
और छुट्टी पर मोअल्लिम
अपने हुजरे में मुक़ीम
आदम-ए-ख़ाकी की पैदाइश से पहले
जिन का कहना था ज़मीं पर
ख़ून बहाएगा ये नाहक़
और मचाएगा फ़साद
अब वही पेशेनगो उमीद-वार
इस के गुन गाते हुए थकते नहीं
इम्तिहान-गाह-ए-मुक़द्दर हो तो ऐसी
जिस में पुर-ताब-ओ-तवाँ हम
कार-परदाज़ान-ए-फ़ितरत ला-जवाब
और आदम उस की तीनत में तो गोया
हल-शुदा पहले से थे सारे सवाल
जिन मज़ाहिर की तरफ़ देखा नज़र भर कर
मआ'नी के दमक अठे उन्हीं में मुज़्मिरात
हिकमत-ए-अश्या के साँचे में ढली
बे-साख़्ता इस्म-आफ़रीनी मर्हबा
ख़ाक-ए-बे-मिक़दार के ज़र्रात में
जौहर-ए-नुत्क़-ओ-बयाँ ऐसा भी मख़्फ़ी है
किसे मा'लूम था
इम्तिहाँ ख़त्म
और मस्जूद-ए-मलाइक बन गई इंसाँ की ज़ात
मैं ने लेकिन शेवा-ए-इंकार अपनाया
कि मैं आतिश-ए-निहाद
मर्तबे में ख़ाक-ए-उफ़्तादा से बरतर
अस्ल में वाला गुहर
चाहे अफ़्लाक-ओ-ज़मीन पर
फैल कर छा जाए ये मुश्त-ए-ग़ुबार
हर्बा तस्ख़ीर लेकिन कारगर मुझ पर भी हो इस का
यही इक मरहला है मा'रके का
इम्तिहाँ ये सख़्त-तर है
कामयाबी इस में भी पाए यही
उमीद-वार ख़ुश-गुमाँ
आसाँ नहीं
मेरी अपनी इक लुग़त है
जिस में अस्मा के मआ'नी बार-बार
इक नई ता'बीर के आईना-दार
मंसब-ए-आज़ादगी आदम का
इक परवाना-ए-ग़ारत-गरी
इस में लिखा है
और आगाही
तबाही के वसाएल तक रसाई का जवाज़
इस में छपा है
अल-ग़रज़ इस खेल का मोहरा वही
इल्म-ए-अस्मा है मगर
इक पुर-फ़ुसूँ तक़लीब-कारी का शिकार
इक पुर-फ़ुसूँ तक़लीब-कारी का शिकार
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