तलबगार मर्द था
रात की ज़ुल्फ़-ए-सियह और सँवरती ही रही
रात की ज़ुल्फ़-ए-सियह और सँवरती ही रही
चाँद की बिखरी हुई सर्द शुआओं से अलग
और खम्बों की सुलगती हुई आँखों से अलग
इक नज़र थी जो ख़लाओं में भटकती ही रही
सिलवटें सोच की गहरी हुईं गहरी हो कर
मेरे माहौल पे छाई गईं छाती ही गईं
मेरी बे-ताब नज़र चर्ख़ से टकरा ही गई
और टकराई तो फिर चर्ख़ की रानाई गई
गर्दिशें चाँद सितारों की नज़र आने लगीं
गर्दिशें तेज़ हुईं, तेज़ हुईं, तेज़ हुईं
और फिर तेज़, बहुत तेज़, बहुत तेज़ हुईं
जैसे ये गर्दिशें करते हुए तारे, ये चाँद
कुर्रा-ए-अर्ज़ से यक-बारगी टकराएँगे
और फिर गर्दिशें करता हुआ हर इक तारा
अज़-सर-ए-नौ कुरा-ए-अर्ज़ बना ही लेगा
और फिर गर्दिशें करता हुआ ये ज़र्द सा चाँद
इक उफ़ुक़ अपने लिए और सजा ही लेगा
कुर्रा-ए-अर्ज़ जहाँ मौत न काहिश होगी
इक उफ़ुक़, जिस में तपिश और न सोज़िश होगी
तेज़-तर होती गईं गर्दिशें सय्यारों की
नाचता ही रहा मेहवर पे वो पीला महताब
और हर सम्त इसी गर्दिश-ए-पैहम का ख़रोश
और फिर रह न गया रक़्स के अंदाज़ में जोश
एक परवाना गिरा शम-ए-फ़सुर्दा के क़रीब
एक तारे ने कहा टूट के, लो मैं तो चला
और फिर गर्दिशें करता हुआ
और फिर मैं था वही मरता सुलगता माहौल
रक़्स करते हुए सय्यारों की सई-ए-नाकाम
रात की ज़ुल्फ़-ए-सियह और सँवरती ही रही
- पुस्तक : Naya Saaz Naya Andaz (पृष्ठ 196)
- रचनाकार : Nazish Pratabgarhi
- प्रकाशन : Utaar Pradesh Urdu Academy ( 2009)
- संस्करण : 2009
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