तिरा लहजा
तिरा लहजा निहायत ख़ूबसूरत है
तिरे अल्फ़ाज़ में अनमोल अपना-पन झलकता है
तिरी आवाज़ में ग़ज़लों का धीमा-पन महकता है
कोई सुर है कोई लय है तिरी साँसों में सरगम है
पिकासो शेक्सपियर और तू 'ग़ालिब' का संगम है
तिरे नाज़ुक इशारों पर
मिरा मन मोर बन कर रक़्स करता है
तिरा चेहरा अचानक आइने में जब उभरता है
दर-ओ-दीवार कमरे के मुझे महकाने लगते हैं
तिरी आवाज़ में खिड़की के पर्दे गाने लगते हैं
मिरा विज्दान कहता है
ये कमरे में पड़ा गुल-दान कहता है
तिरा लहजा निहायत ख़ूबसूरत है
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