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वक़्त की चीज़

अली मंज़ूर हैदराबादी

वक़्त की चीज़

अली मंज़ूर हैदराबादी

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    सब जिसे इंतिहा कहें तू उसे इब्तिदा समझ

    हो इसी समझ पे ख़ुश यूँही बढ़ाए जा समझ

    ज़ौक़-ए-सफ़र घटा दे लोग कहें जो ना-समझ

    हासिल-ए-मुद्दआ को भी परतव-ए-मुद्दआ समझ

    और बुलंदियों पे जा राज़ उरूज का समझ

    दिल में है दर्द-ए-क़ौम अगर क़ौम की जल्द ले ख़बर

    क़ौम से हैं जो बे-ख़बर क़ौम की उन को दे ख़बर

    सोच कि अपनी क़ौम से कौन है आज बे-ख़बर

    काम का आदमी मिले या मिले किसे ख़बर

    क्या नहीं तू ख़ुद आदमी ख़ुद को ही काम का समझ

    तेरे हुदूद में कहीं आईं नज़र पस्तियाँ

    लाएक़-ए-ए'तिना हों ग़ैरों की चीरा-दस्तियाँ

    दरख़ोर-ए-इल्तिफ़ात हों क्यों ये ज़लील हस्तियाँ

    जिस की ख़ुदी पे छीन लीं क़ौम की ख़ुद-परस्तियाँ

    ऐसे ख़ुदी-नवाज़ को क़ौम का रहनुमा समझ

    क़ुव्वत-ए-ज़र से जो बशर आई बला को टाल दे

    उस की करामतों में जिस और भी ज़ुल-जलाल दे

    उस से अगर है बद-ज़नी दिल में तो अब निकाल दे

    क़ौम की मुफ़्लिसी को जो मारिज़-ए-शक में डाल दे

    ऐसे भी माल-दार को मक्रमत-आश्ना समझ

    तू रख इतनी हुब-ए-ज़र दिल में मगर ये रख ख़याल

    वक़्त की चीज़ बन गई आज नुमूद-ए-जाह-ओ-माल

    तेरे नुमूद पर करे फ़ख़्र हर एक बा-कमाल

    इज़्ज़त-ए-क़ौम का है जुज़ इज़्ज़त-ए-नफ़्स का सवाल

    अपने भी इर्तिक़ा को तू क़ौम का इर्तिक़ा समझ

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