अब्दुल वहाब सुख़न
ग़ज़ल 27
नज़्म 2
अशआर 19
किताब-ए-दिल का मिरी एक बाब हो तुम भी
तुम्हें भी पढ़ता हूँ मैं इक निसाब की सूरत
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नए हैं वस्ल के मौसम मोहब्बतें भी नई
नए रक़ीब हैं अब के अदावतें भी नई
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ये सानेहा भी हो गया है रस्ते में
जो रहनुमा था वही खो गया है रस्ते में
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शायद कि ये ज़माना उन्हें पूजने लगे
कुछ लोग इस ख़याल से पत्थर के हो गए
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