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aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

jis ke hote hue hote the zamāne mere

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अनवर कैफ़ी

1946

अनवर कैफ़ी

ग़ज़ल 9

अशआर 8

ये तो हो सकता है कि दोनों की मंज़िल एक हो

फिर भी उस के हम-सफ़र होने की फ़रमाइश कर

ग़रीब भूक की ठोकर से ख़ून ख़ून हुए

किसी अमीर को अब तो लहू की बास आए

ये दौर मोहब्बत का लहू चाट रहा है

इंसान का इंसान गला काट रहा है

दिल से निकली हुई हर आह की तासीर में

माँग ले रब से मुझे और मिरी तक़दीर में

जो कर रहे थे ज़माने से गुमरही का सफ़र

उन्हीं के नाम किया हक़ ने बंदगी का सफ़र

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