अज़ीम मुर्तज़ा
ग़ज़ल 13
अशआर 17
आज तक याद है वो शाम-ए-जुदाई का समाँ
तेरी आवाज़ की लर्ज़िश तिरे लहजे की थकन
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एक दर्द-ए-हस्ती ने उम्र भर रिफ़ाक़त की
वर्ना साथ देता है कौन आख़िरी दम तक
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कुछ नक़्श तिरी याद के बाक़ी हैं अभी तक
दिल बे-सर-ओ-सामाँ सही वीराँ तो नहीं है
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क्या क्या फ़राग़तें थीं मयस्सर हयात को
वो दिन भी थे कि तेरे सिवा कोई ग़म न था
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तुझ से मिल के भी तेरा इंतिज़ार रहता है
सुब्ह रू-ए-ख़ंदाँ से शाम ज़ुल्फ़-ए-बरहम तक
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