जावेद अनवर
ग़ज़ल 13
नज़्म 14
अशआर 10
निकल गुलाब की मुट्ठी से और ख़ुशबू बन
मैं भागता हूँ तिरे पीछे और तू जुगनू बन
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बे-तुकी रौशनी में पराए अंधेरे लिए
एक मंज़र है तेरे लिए एक मेरे लिए
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शाम प्यारी शाम उस पर भी कोई दर खोल दे
शाख़ पर बैठी हुई है एक बेघर फ़ाख़्ता
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सुनो कि अब हम गुलाब देंगे गुलाब लेंगे
मोहब्बतों में कोई ख़सारा नहीं चलेगा
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हर एक हद से परे अपना बोरिया ले जा
बदी का नाम न ले और नेकियों से निकल
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