क़मर जलालवी
ग़ज़ल 60
अशआर 43
ज़रा रूठ जाने पे इतनी ख़ुशामद
'क़मर' तुम बिगाड़ोगे आदत किसी की
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शुक्रिया ऐ क़ब्र तक पहुँचाने वालो शुक्रिया
अब अकेले ही चले जाएँगे इस मंज़िल से हम
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ज़ब्त करता हूँ तो घुटता है क़फ़स में मिरा दम
आह करता हूँ तो सय्याद ख़फ़ा होता है
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सुना है ग़ैर की महफ़िल में तुम न जाओगे
कहो तो आज सजा लूँ ग़रीब-ख़ाने को
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- ग़ज़ल देखिए
आएँ हैं वो मज़ार पे घूँघट उतार के
मुझ से नसीब अच्छे है मेरे मज़ार के
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क़ितआ 7
पुस्तकें 7
चित्र शायरी 1
वीडियो 61
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