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सरदार गेंडा सिंह मशरिक़ी

1857 - 1909

सरदार गेंडा सिंह मशरिक़ी

ग़ज़ल 25

अशआर 30

खोला दरवाज़ा समझ कर मुझ को ग़ैर

खा गए धोका मिरी आवाज़ से

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गो हम शराब पीते हमेशा हैं दे के नक़्द

लेकिन मज़ा कुछ और ही पाया उधार में

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जब बोसा ले के मुद्दआ' मैं ने बयाँ किया

बोले ज़ियादा पाँव पसारा कीजिए

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ज़ाहिद मिरी समझ में तो दोनों गुनाह हैं

तू बुत-शिकन हुआ जो मैं तौबा-शिकन हुआ

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फाड़ कर ख़त उस ने क़ासिद से कहा

कोई पैग़ाम-ए-ज़बानी और है

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पुस्तकें 2

 

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