aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere
1857 - 1909
खोला दरवाज़ा समझ कर मुझ को ग़ैर
खा गए धोका मिरी आवाज़ से
फाड़ कर ख़त उस ने क़ासिद से कहा
कोई पैग़ाम-ए-ज़बानी और है
आशिक़-मिज़ाज रहते हैं हर वक़्त ताक में
सीना को इस तरह से उभारा न कीजिए
शैख़ चल तू शराब-ख़ाने में
मैं तुझे आदमी बना दूँगा
तुम जाओ रक़ीबों का करो कोई मुदावा
हम आप भुगत लेंगे कि जो हम पे बनी है
दीवान-ए-मशरिक़ी
1989
तरजुमा जप जी साहब
हादि ए इरफान
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