सैय्यद मोहम्मद मीर असर के शेर
क्या कहूँ किस तरह से जीता हूँ
ग़म को खाता हूँ आँसू पीता हूँ
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बेवफ़ा कुछ नहीं तेरी तक़्सीर
मुझ को मेरी वफ़ा ही रास नहीं
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जिस घड़ी घूरते हो ग़ुस्सा से
निकले पड़ता है प्यार आँखों में
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अपने नज़दीक दर्द-ए-दिल मैं कहा
तेरे नज़दीक क़िस्सा-ख़्वानी की
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काम तुझ से अभी तो साक़ी है
कि ज़रा हम को होश बाक़ी है
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न कहा जाए कि दुश्मन न कहा जाए कि दोस्त
कुछ समझ में नहीं आता है 'असर' कौन है वो
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तेरे आने का एहतिमाल रहा
मरते मरते भी ये ख़याल रहा
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यार ग़ुस्सा तिरी बला खावे
काम निकले जो मुस्कुराने से
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जन्नत है उस बग़ैर जहन्नम से भी ज़ुबूँ
दोज़ख़ बहिश्त हैगी अगर यार साथ है
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अब तेरी दाद न फ़रियाद किया करता हूँ
रात दिन चुपके पड़ा याद किया करता हूँ
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तू ही बेहतर है आइना हम से
हम तो इतने भी रू-शनास नहीं
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लिया है दिल ही फ़क़त और जान बाक़ी है
अभी तो काम तुम्हें मेहरबान बाक़ी है
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रक़ीब देख सँभल कर के सामने आना
बरहना तेग़ हैं इक दस्त-ए-रोज़गार में हम
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यूँ ख़ुदा की ख़ुदाई बर-हक़ है
पर 'असर' की हमें तो आस नहीं
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किन ने कहा और से न मिल तू
पर हम से भी कभू मिला कर
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उस संग-दिल के दिल में तो नाले ने जा न की
क्या फ़ाएदा जो और के जी में असर किया
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आसूदगी कहाँ जो दिल-ए-ज़ार साथ है
मरने के ब'अद भी यही आज़ार साथ है
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तू कहाँ मैं कहाँ प कहते हैं
कि ये आपस में दोनों रहते हैं
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कुछ न लिक्खा न पढ़ा हूँ वले हूँ मअ'नी-शनास
मुद्दआ तेरा समझता हूँ इबारात से मैं
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यूँ आग में से भाग निकलना नज़र बचा
अपने तईं तो वज़्अ' न भाई शरार की
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दर्द-ए-दिल छोड़ जाइए सो कहाँ
अपनी बाहर तो यहाँ गुज़र ही नहीं
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जूँ अक्स कहाँ मिरा ठिकाना
तेरे जल्वे से जल्वा-गर हूँ
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