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है मिरे पहलू में और मुझ को नज़र आता नहीं
उस परी का सेहर यारो कुछ कहा जाता नहीं
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साक़ी हमें क़सम है तिरी चश्म-ए-मस्त की
तुझ बिन जो ख़्वाब में भी पिएँ मय हराम हो
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दोनों तेरी जुस्तुजू में फिरते हैं दर दर तबाह
दैर हिन्दू छोड़ कर काबा मुसलमाँ छोड़ कर
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न कीजे वो कि मियाँ जिस से दिल कोई हो मलूल
सिवाए इस के जो जी चाहे सो किया कीजे
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दैर में का'बे में मयख़ाने में और मस्जिद में
जल्वा-गर सब में मिरा यार है अल्लाह अल्लाह
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का'बे में वही ख़ुद है वही दैर में है आप
हिन्दू कहो या उस को मुसलमान वही है
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दोस्ती छूटे छुड़ाए से किसू के किस तरह
बंद होता ही नहीं रस्ता दिलों की राह का
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ब-तस्ख़ीर-बुताँ तस्बीह क्यूँ ज़ाहिद फिराते हैं
ये लोहे के चने वल्लाह आशिक़ ही चबाते हैं
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- ग़ज़ल देखिए
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बरहमन दैर को राही हुआ और शैख़ का'बे को
निकल कर उस दोराहे से मैं कू-ए-यार में आया
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शैख़ कहते हैं मुझे दैर न जा काबा चल
बरहमन कहते हैं क्यूँ याँ भी ख़ुदा है कि नहीं
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रहीम ओ राम की सुमरन है शैख़ ओ हिन्दू को
दिल उस के नाम की रटना रटे है क्या कीजे
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काफ़िर हूँ गर मैं नाम भी का'बे का लूँ कभी
वो संग-दिल सनम जो कभू मुझ से राम हो
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जब नशे में हम ने कुछ मीठे की ख़्वाहिश उस से की
तुर्श हो बोला कि क्यूँ बे तू भी इस लाएक़ हुआ
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तमाम ख़ल्क़-ए-ख़ुदा ज़ेर-ए-आसमाँ की समेट
ज़मीं ने खाई व-लेकिन भरा न उस का पेट
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टैग : भूकंप
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रक़ीब जम के ये बैठा कि हम उठे नाचार
ये पत्थर अब न हटाए हटे है क्या कीजे
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जो अज़-ख़ुद-रफ़्ता है गुमराह है वो रहनुमा मेरा
जो इक आलम से है बेगाना है वो आश्ना मेरा
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अरे ओ ख़ाना-आबाद इतनी ख़ूँ-रेज़ी ये क़त्ताली
कि इक आशिक़ नहीं कूचा तिरा वीरान सूना है
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ब-मअ'नी कुफ़्र से इस्लाम कब ख़ाली है ऐ ज़ाहिद
निकल सुबहे से रिश्ता सूरत-ए-ज़ुन्नार हो पैदा
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