वामिक़ जौनपुरी
ग़ज़ल 35
नज़्म 13
अशआर 39
मोहब्बत की सज़ा तर्क-ए-मोहब्बत
मोहब्बत का यही इनआम भी है
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इक हल्क़ा-ए-अहबाब है तन्हाई भी उस की
इक हम हैं कि हर बज़्म में तन्हा नज़र आए
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ज़बाँ तक जो न आए वो मोहब्बत और होती है
फ़साना और होता है हक़ीक़त और होती है
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तेरी क़िस्मत ही में ज़ाहिद मय नहीं
शुक्र तो मजबूरियों का नाम है
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सरकशी ख़ुद-कशी पे ख़त्म हुई
एक रस्सी थी जल गई शायद
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