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मेडिकल डॉक्टर / लंदन में प्रवास

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हिलाल फ़रीद के शेर

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मिरी दास्ताँ भी अजीब है वो क़दम क़दम मिरे साथ था

जिसे राज़-ए-दिल बता सका जिसे दाग़-ए-दिल दिखा सका

जवाब इस सवाल का भी दे ज़रा मुझे

उड़ा के लाई है यहाँ पे क्यूँ हवा मुझे

हम ख़ुद भी हुए नादिम जब हर्फ़-ए-दुआ निकला

समझे थे जिसे पत्थर वो शख़्स ख़ुदा निकला

उस अजनबी से वास्ता ज़रूर था कोई

वो जब कभी मिला तो बस मिरा लगा मुझे

आज फिर दब गईं दर्द की सिसकियाँ

आज फिर गूँजता क़हक़हा रह गया

जाम-ए-इश्क़ पी चुके ज़िंदगी भी जी चुके

अब 'हिलाल' घर चलो अब तो शाम हो गई

आज हम से पूछिए कैसा कमाल हो गया

हिज्र के ख़ौफ़ में रहे और विसाल हो गया

इस अक़्ल की मारी नगरी में कभी पानी आग नहीं बनता

यहाँ इश्क़ भी लोग नहीं करते यहाँ कोई कमाल नहीं होता

जब वक़्त पड़ा था तो जो कुछ हम ने किया था

समझे थे वही यार हमारा भी करेगा

बाहर जो नहीं था तो कोई बात नहीं थी

एहसास-ए-नदामत मगर अंदर भी नहीं था

पानी पे बनते अक्स की मानिंद हूँ मगर

आँखों में कोई भर ले तो मिटता नहीं हूँ मैं

अपने दुख में रोना-धोना आप ही आया

ग़ैर के दुख में ख़ुद को दुखाना इश्क़ में सीखा

पहले भी जहाँ पर बिछड़े थे वही मंज़िल थी इस बार मगर

वो भी बे-लौस नहीं लौटा हम भी बे-ताब नहीं आए

ही बिजलियाँ ही बारिशें ही दुश्मनों की वो साज़िशें

भला क्या सबब है बता ज़रा जो तू आज भी नहीं सका

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