हिलाल फ़रीद के शेर
मिरी दास्ताँ भी अजीब है वो क़दम क़दम मिरे साथ था
जिसे राज़-ए-दिल न बता सका जिसे दाग़-ए-दिल न दिखा सका
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जवाब इस सवाल का भी दे ज़रा मुझे
उड़ा के लाई है यहाँ पे क्यूँ हवा मुझे
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हम ख़ुद भी हुए नादिम जब हर्फ़-ए-दुआ निकला
समझे थे जिसे पत्थर वो शख़्स ख़ुदा निकला
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टैग : मिर्ज़ा ग़ालिब
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उस अजनबी से वास्ता ज़रूर था कोई
वो जब कभी मिला तो बस मिरा लगा मुझे
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आज फिर दब गईं दर्द की सिसकियाँ
आज फिर गूँजता क़हक़हा रह गया
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जाम-ए-इश्क़ पी चुके ज़िंदगी भी जी चुके
अब 'हिलाल' घर चलो अब तो शाम हो गई
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आज न हम से पूछिए कैसा कमाल हो गया
हिज्र के ख़ौफ़ में रहे और विसाल हो गया
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इस अक़्ल की मारी नगरी में कभी पानी आग नहीं बनता
यहाँ इश्क़ भी लोग नहीं करते यहाँ कोई कमाल नहीं होता
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जब वक़्त पड़ा था तो जो कुछ हम ने किया था
समझे थे वही यार हमारा भी करेगा
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बाहर जो नहीं था तो कोई बात नहीं थी
एहसास-ए-नदामत मगर अंदर भी नहीं था
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पानी पे बनते अक्स की मानिंद हूँ मगर
आँखों में कोई भर ले तो मिटता नहीं हूँ मैं
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अपने दुख में रोना-धोना आप ही आया
ग़ैर के दुख में ख़ुद को दुखाना इश्क़ में सीखा
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पहले भी जहाँ पर बिछड़े थे वही मंज़िल थी इस बार मगर
वो भी बे-लौस नहीं लौटा हम भी बे-ताब नहीं आए
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न ही बिजलियाँ न ही बारिशें न ही दुश्मनों की वो साज़िशें
भला क्या सबब है बता ज़रा जो तू आज भी नहीं आ सका
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