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इज्तिबा रिज़वी

1908 - 1991 | छपरा, भारत

इज्तिबा रिज़वी के शेर

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अफ़्सुर्दगी भी हुस्न है ताबिंदगी भी हुस्न

हम को ख़िज़ाँ ने तुम को सँवारा बहार ने

ज़बाँ से दिल का फ़साना अदा किया गया

ये तर्जुमाँ तो बनी थी मगर बना गया

हज़ार आरज़ू हो तुम यक़ीं हो तुम गुमाँ हो तुम

क़फ़स-नसीब रूह की उमीद-ए-आशियाँ हो तुम

ये कैसा माजरा है हर मुसव्विर नक़्श-ए-हैरत है

तिरी तस्वीर जब खींची मिरी तस्वीर उतर आई

आग पानी से भाप उठती रही

हम समझते रहे मोहब्बत है

इंसान को दिल मिला मगर क्या

अंधे के हाथ में दिया है

ख़ूब तमाशा हम को बनाया आप तमाशा आप हुए

हम को रुस्वा करने निकले कैसे रुस्वा आप हुए

एक दिन रिंदों ने मस्जिद में नमाज़ के पढ़ी

दूसरे दिन उसे मय-ख़ाना बना कर छोड़ा

हूँ वो क़तरा कि नहीं याद समुंदर मुझ को

मगर आती है इक आवाज़ बराबर मुझ को

दिल की धड़कन जो है मदार-ए-हयात

इक ज़रा तेज़ हो तो आफ़त है

मैं अभी चुप हूँ तो मयख़ाने में ख़ामोशी है

कोई पैग़ाम तो दे लब-ए-साग़र मुझ को

घूमते कटता है कूचे में तिरे दिन का दिन

बैठे कट जाती है चौखट पे तिरी रात की रात

मिरे साज़-ए-नफ़स की ख़ामुशी पर रूह कहती है

आई मुझ को नींद और सो गया अफ़्साना-ख़्वाँ मेरा

फ़ित्ने जगा के दहर में आग लगा के शहर में

जा के अलग खड़े हुए कहने लगे कि हम नहीं

जीने के लिए बुलवाएँ तुम्हें तुम मरते दम आओ भीड़ लिए

जीने की तमन्ना कौन करे मरने को तमाशा कौन करे

आग है बिजली आग हैं ज़र्रे आग है सूरज आग हैं तारे

हम ने की थी शोख़-निगाही आप ने क्यों आलम को जलाया

हम तो आशुफ़्ता-सरी से सँवरने पाए

आप से क्यों सँवारा गया गेसू अपना

सुनते सुनते उन्हें नींद गई नादाँ दिल ने

शिकवा-ए-हिज्र को अफ़्साना बना कर छोड़ा

ख़िरद को ख़ाना-ए-दिल का निगह-बाँ कर दिया हम ने

ये घर आबाद होता इस को वीराँ कर दिया हम ने

ये हमारी आप की दूरियाँ ये कभी कभी की हुज़ूरियाँ

हैं अजब तरह की लगावटें रह-ओ-रस्म-ए-दूर-ओ-दराज़ में

घुँघट उलटो कि तुम्हें पूज के काफ़िर हो जाए

दिल-ए-बद-बख़्त जो ईमान से भी शाद नहीं

इस हिर्स-ओ-हवस के मेले में हम जिंस-ए-मोहब्बत लाए हैं

सब सस्ते माल के गाहक हैं ये महँगा सौदा कौन करे

ख़िरद वालों को कहने दो कि हैं सात आसमाँ सर पर

जुनूँ वालो ज़रा हिम्मत करो बस एक ज़ीना है

पुकारते हैं कि गूँज इस पुकार की रह जाए

दुआ दुआ तो कही जाएगी असर सही

चुराने को चुरा लाया मैं जल्वे रू-ए-रौशन से

मगर अब बिजलियाँ लिपटी हुई हैं दिल के दामन से

ऐसी आबाद तिरी बज़्म है जान-ए-नशात

जैसी का'बे की सहर जैसी ख़राबात की रात

हमारे ख़ौफ़ की ख़ल्लाक़ियाँ ख़ुदा की पनाह

वो बिजलियाँ हैं नज़र में जो आसमाँ में नहीं

शाम हुई जले चराग़ उठ गए राह से फ़क़ीर

जिन का कहीं कोई नहीं रह गए रहगुज़ार में

खंडर में माह-ए-कामिल का सँवरना इस को कहते हैं

तुम उतरे दिल में जब दिल को बयाबाँ कर दिया हम ने

दिया है ग़म कि निचोड़े कभी कभी दिल को

ज़मीन-ए-चश्म-ए-हवस वर्ना कैसे तर होगी

रूह की गूँज बना लेती है ख़ुद अपना मक़ाम

मुझ को देखो कि हुआ दार भी मिम्बर मुझ को

लिखा हुआ इन्ही ज़र्रात के सहीफ़ों में

मिरा फ़साना है लेकिन मिरी ज़बाँ में नहीं

रस्ते की दूकान पे रहरव एक निशानी छोड़ चला

जिस कूज़े से प्यास बुझाई उस कूज़े को तोड़ चला

इन्ही रफ़ीक़ान-ए-सुस्त-रौ से बुरे-भले रस्म-ओ-राह निभती

मगर किया दिल ने उन का पीछा जो हर क़दम छोड़े जा रहे हैं

कभी इस सम्त को भी बहर-ए-तमाशा निकलो

दिल का हैरत-कदा ऐसा कोई वीराँ भी नहीं

तजल्ली बे-नक़ाब और कोर आँखें क्या क़यामत है

कि सूरज सामने है और सियह-बख़्ती नहीं जाती

मा'नी-ओ-सूरत वहदत-ओ-कसरत ज़र्रा-ओ-सहरा आप हुए

आप तो कुछ होते ही नहीं थे कहिए क्या क्या आप हुए

अपनी तस्वीर-ए-मजाज़ी कोई रख दो कि कहीं

कारवान-ए-निगह-ए-शौक़ को मंज़िल हो जाए

होश-ओ-ख़िरद में आग लगा दी ख़िरमन-ए-कैफ़-ओ-कम को जलाया

शो'ला बने और सीने से लिपटे आप जले और हम को जलाया

ख़ुदा-परस्ती का बीज बो कर ख़ुदी का दिल में फ़रोग़ देखो

यहीं से झूटे ख़ुदा उगे हैं बड़ी ख़तरनाक ये ज़मीं है

क्यों हैं तूफ़ान की ज़द में हरम-ओ-दैर-ओ-कुनिश्त

इन मज़ारों पे तो मुद्दत से चराग़ाँ भी नहीं

रह सके ख़ुदी में मस्त हो सके ख़ुदा में जज़्ब

मुफ़्त हुए ज़लील-ओ-ख़्वार कूचा-ए-ए'तिबार में

ये किब्र-ओ-नाज़ अब क्या जब सर-ए-बाज़ार तुम निकले

मगर हाँ ये कहो बहुतों ने देखा कम ने पहचाना

ज़ोहद की आस्तीं टटोल देख कहाँ सनम नहीं

संग-ए-सियाह ना-गुज़ीर वर्ना हरम हरम नहीं

रोज़-ए-अज़ल से आप की मेरी कैसी रस्म-ओ-राह निभी

अव्वल अव्वल हम हुए शैदा आख़िर शैदा आप हुए

उजाड़ हो भी चुका मिरा दिल मगर अभी दाग़दार भी है

यही ख़िज़ाँ थी बहार-दुश्मन जो यादगार-ए-बहार भी है

होश-ओ-ख़िरद में आग लगा दी ख़िरमन-ए-कैफ़-ओ-कम को जलाया

शो'ला बने और सीने से लिपटे आप जले और हम को जलाया

जल्वे की भीक दे के वो हटने लगे थे ख़ुद

दामन पकड़ लिया निगह-ए-ए'तिबार ने

पुकारती रह गई हक़ीक़त पड़ा रहा जुस्तुजू का सहरा

ठहर गए हम ख़ुदा की मस्जिद बना के कू-ए-बुताँ से आगे

सज्दा वो है ब-रब्ब-ए-का'बा

जिस को क़ैद-ए-हरम नहीं है

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