इज्तिबा रिज़वी के शेर
अफ़्सुर्दगी भी हुस्न है ताबिंदगी भी हुस्न
हम को ख़िज़ाँ ने तुम को सँवारा बहार ने
ज़बाँ से दिल का फ़साना अदा किया न गया
ये तर्जुमाँ तो बनी थी मगर बना न गया
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हज़ार आरज़ू हो तुम यक़ीं हो तुम गुमाँ हो तुम
क़फ़स-नसीब रूह की उमीद-ए-आशियाँ हो तुम
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ये कैसा माजरा है हर मुसव्विर नक़्श-ए-हैरत है
तिरी तस्वीर जब खींची मिरी तस्वीर उतर आई
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आग पानी से भाप उठती रही
हम समझते रहे मोहब्बत है
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इंसान को दिल मिला मगर क्या
अंधे के हाथ में दिया है
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ख़ूब तमाशा हम को बनाया आप तमाशा आप हुए
हम को रुस्वा करने निकले कैसे रुस्वा आप हुए
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एक दिन रिंदों ने मस्जिद में नमाज़ आ के पढ़ी
दूसरे दिन उसे मय-ख़ाना बना कर छोड़ा
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हूँ वो क़तरा कि नहीं याद समुंदर मुझ को
मगर आती है इक आवाज़ बराबर मुझ को
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दिल की धड़कन जो है मदार-ए-हयात
इक ज़रा तेज़ हो तो आफ़त है
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मैं अभी चुप हूँ तो मयख़ाने में ख़ामोशी है
कोई पैग़ाम तो दे ऐ लब-ए-साग़र मुझ को
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घूमते कटता है कूचे में तिरे दिन का दिन
बैठे कट जाती है चौखट पे तिरी रात की रात
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मिरे साज़-ए-नफ़स की ख़ामुशी पर रूह कहती है
न आई मुझ को नींद और सो गया अफ़्साना-ख़्वाँ मेरा
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फ़ित्ने जगा के दहर में आग लगा के शहर में
जा के अलग खड़े हुए कहने लगे कि हम नहीं
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जीने के लिए बुलवाएँ तुम्हें तुम मरते दम आओ भीड़ लिए
जीने की तमन्ना कौन करे मरने को तमाशा कौन करे
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आग है बिजली आग हैं ज़र्रे आग है सूरज आग हैं तारे
हम ने न की थी शोख़-निगाही आप ने क्यों आलम को जलाया
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हम तो आशुफ़्ता-सरी से न सँवरने पाए
आप से क्यों न सँवारा गया गेसू अपना
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सुनते सुनते उन्हें नींद आ गई नादाँ दिल ने
शिकवा-ए-हिज्र को अफ़्साना बना कर छोड़ा
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ख़िरद को ख़ाना-ए-दिल का निगह-बाँ कर दिया हम ने
ये घर आबाद होता इस को वीराँ कर दिया हम ने
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ये हमारी आप की दूरियाँ ये कभी कभी की हुज़ूरियाँ
हैं अजब तरह की लगावटें रह-ओ-रस्म-ए-दूर-ओ-दराज़ में
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घुँघट उलटो कि तुम्हें पूज के काफ़िर हो जाए
दिल-ए-बद-बख़्त जो ईमान से भी शाद नहीं
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इस हिर्स-ओ-हवस के मेले में हम जिंस-ए-मोहब्बत लाए हैं
सब सस्ते माल के गाहक हैं ये महँगा सौदा कौन करे
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ख़िरद वालों को कहने दो कि हैं सात आसमाँ सर पर
जुनूँ वालो ज़रा हिम्मत करो बस एक ज़ीना है
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पुकारते हैं कि गूँज इस पुकार की रह जाए
दुआ दुआ तो कही जाएगी असर न सही
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चुराने को चुरा लाया मैं जल्वे रू-ए-रौशन से
मगर अब बिजलियाँ लिपटी हुई हैं दिल के दामन से
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ऐसी आबाद तिरी बज़्म है ऐ जान-ए-नशात
जैसी का'बे की सहर जैसी ख़राबात की रात
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हमारे ख़ौफ़ की ख़ल्लाक़ियाँ ख़ुदा की पनाह
वो बिजलियाँ हैं नज़र में जो आसमाँ में नहीं
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शाम हुई जले चराग़ उठ गए राह से फ़क़ीर
जिन का कहीं कोई नहीं रह गए रहगुज़ार में
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खंडर में माह-ए-कामिल का सँवरना इस को कहते हैं
तुम उतरे दिल में जब दिल को बयाबाँ कर दिया हम ने
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दिया है ग़म कि निचोड़े कभी कभी दिल को
ज़मीन-ए-चश्म-ए-हवस वर्ना कैसे तर होगी
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रूह की गूँज बना लेती है ख़ुद अपना मक़ाम
मुझ को देखो कि हुआ दार भी मिम्बर मुझ को
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लिखा हुआ इन्ही ज़र्रात के सहीफ़ों में
मिरा फ़साना है लेकिन मिरी ज़बाँ में नहीं
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रस्ते की दूकान पे रहरव एक निशानी छोड़ चला
जिस कूज़े से प्यास बुझाई उस कूज़े को तोड़ चला
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इन्ही रफ़ीक़ान-ए-सुस्त-रौ से बुरे-भले रस्म-ओ-राह निभती
मगर किया दिल ने उन का पीछा जो हर क़दम छोड़े जा रहे हैं
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कभी इस सम्त को भी बहर-ए-तमाशा निकलो
दिल का हैरत-कदा ऐसा कोई वीराँ भी नहीं
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तजल्ली बे-नक़ाब और कोर आँखें क्या क़यामत है
कि सूरज सामने है और सियह-बख़्ती नहीं जाती
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मा'नी-ओ-सूरत वहदत-ओ-कसरत ज़र्रा-ओ-सहरा आप हुए
आप तो कुछ होते ही नहीं थे कहिए क्या क्या आप हुए
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अपनी तस्वीर-ए-मजाज़ी कोई रख दो कि कहीं
कारवान-ए-निगह-ए-शौक़ को मंज़िल हो जाए
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होश-ओ-ख़िरद में आग लगा दी ख़िरमन-ए-कैफ़-ओ-कम को जलाया
शो'ला बने और सीने से लिपटे आप जले और हम को जलाया
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ख़ुदा-परस्ती का बीज बो कर ख़ुदी का दिल में फ़रोग़ देखो
यहीं से झूटे ख़ुदा उगे हैं बड़ी ख़तरनाक ये ज़मीं है
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क्यों हैं तूफ़ान की ज़द में हरम-ओ-दैर-ओ-कुनिश्त
इन मज़ारों पे तो मुद्दत से चराग़ाँ भी नहीं
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रह न सके ख़ुदी में मस्त हो न सके ख़ुदा में जज़्ब
मुफ़्त हुए ज़लील-ओ-ख़्वार कूचा-ए-ए'तिबार में
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ये किब्र-ओ-नाज़ अब क्या जब सर-ए-बाज़ार तुम निकले
मगर हाँ ये कहो बहुतों ने देखा कम ने पहचाना
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ज़ोहद की आस्तीं टटोल देख कहाँ सनम नहीं
संग-ए-सियाह ना-गुज़ीर वर्ना हरम हरम नहीं
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रोज़-ए-अज़ल से आप की मेरी कैसी रस्म-ओ-राह निभी
अव्वल अव्वल हम हुए शैदा आख़िर शैदा आप हुए
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उजाड़ हो भी चुका मिरा दिल मगर अभी दाग़दार भी है
यही ख़िज़ाँ थी बहार-दुश्मन जो यादगार-ए-बहार भी है
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होश-ओ-ख़िरद में आग लगा दी ख़िरमन-ए-कैफ़-ओ-कम को जलाया
शो'ला बने और सीने से लिपटे आप जले और हम को जलाया
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जल्वे की भीक दे के वो हटने लगे थे ख़ुद
दामन पकड़ लिया निगह-ए-ए'तिबार ने
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पुकारती रह गई हक़ीक़त पड़ा रहा जुस्तुजू का सहरा
ठहर गए हम ख़ुदा की मस्जिद बना के कू-ए-बुताँ से आगे
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सज्दा वो है ब-रब्ब-ए-का'बा
जिस को क़ैद-ए-हरम नहीं है
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