इंशा अल्लाह ख़ान इंशा के शेर
अजीब लुत्फ़ कुछ आपस की छेड़-छाड़ में है
कहाँ मिलाप में वो बात जो बिगाड़ में है
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जज़्बा-ए-इश्क़ सलामत है तो इंशा-अल्लाह
कच्चे धागे से चले आएँगे सरकार बंधे
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कमर बाँधे हुए चलने को याँ सब यार बैठे हैं
बहुत आगे गए बाक़ी जो हैं तय्यार बैठे हैं
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पहुँचूँ मैं किस की कोहना हक़ीक़त को आज तक
'इंशा' मुझे मिला नहीं अपना ही कुछ सुराग़
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क्या हँसी आती है मुझ को हज़रत-ए-इंसान पर
फ़े'ल-ए-बद ख़ुद ही करें ला'नत करें शैतान पर
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न छेड़ ऐ निकहत-ए-बाद-ए-बहारी राह लग अपनी
तुझे अटखेलियाँ सूझी हैं हम बे-ज़ार बैठे हैं
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मैं ने जो कचकचा कर कल उन की रान काटी
तो उन ने किस मज़े से मेरी ज़बान काटी
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टैग : बोल्ड पोयम
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कुछ इशारा जो किया हम ने मुलाक़ात के वक़्त
टाल कर कहने लगे दिन है अभी रात के वक़्त
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लैला ओ मजनूँ की लाखों गरचे तस्वीरें खिंचीं
मिल गई सब ख़ाक में जिस वक़्त ज़ंजीरें खिंचीं
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जी की जी ही में रही बात न होने पाई
हैफ़ कि उस से मुलाक़ात न होने पाई
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ये अजीब माजरा है कि ब-रोज़-ए-ईद-ए-क़ुर्बां
वही ज़ब्ह भी करे है वही ले सवाब उल्टा
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कर लेता हूँ बंद आँखें मैं दीवार से लग कर
बैठे है किसी से जो कोई प्यार से लग कर
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साँवले तन पे ग़ज़ब धज है बसंती शाल की
जी में है कह बैठिए अब जय कनहय्या लाल की
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ज़मीं से उट्ठी है या चर्ख़ पर से उतरी है
ये आग इश्क़ की या-रब किधर से उतरी है
नज़ाकत उस गुल-ए-राना की देखियो 'इंशा'
नसीम-ए-सुब्ह जो छू जाए रंग हो मैला
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टैग : नज़ाकत
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याद क्या आता है वो मेरा लगे जाना और आह
पीछे हट कर उस का ये कहना कोई आ जाएगा
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काटे हैं हम ने यूँही अय्याम ज़िंदगी के
सीधे से सीधे-सादे और कज से कज रहे हैं
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हज़ार शैख़ ने दाढ़ी बढ़ाई सन की सी
मगर वो बात कहाँ मौलवी मदन की सी
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न कह तू शैख़ मुझे ज़ोहद सीख मस्ती छोड़
तिरी पसंद जुदा है मिरी पसंद जुदा
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दहकी है आग दिल में पड़े इश्तियाक़ की
तेरे सिवाए किस से हो इस का इलाज आज
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फबती तिरे मुखड़े पे मुझे हूर की सूझी
ला हाथ इधर दे कि बहुत दूर की सूझी
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हर तरफ़ हैं तिरे दीदार के भूके लाखों
पेट भर कर कोई ऐसा भी तरहदार न हो
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गर्मी ने कुछ आग और भी सीने में लगाई
हर तौर ग़रज़ आप से मिलना ही कम अच्छा
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टैग : गर्मी
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सुब्ह-दम मुझ से लिपट कर वो नशे में बोले
तुम बने बाद-ए-सबा हम गुल-ए-नसरीन हुए
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दे एक शब को अपनी मुझे ज़र्द शाल तू
है मुझ को सूँघने के हवस सो निकाल तू
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है ख़ाल यूँ तुम्हारे चाह-ए-ज़क़न के अंदर
जिस रूप हो कनहय्या आब-ए-जमन के अंदर
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सनम-ख़ाना जाता हूँ तू मुझ को नाहक़
न बहका न बहका न बहका न बहका
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ग़ुंचा-ए-गुल के सबा गोद भरी जाती है
एक परी आती है और एक परी जाती है
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जिस ने यारो मुझ से दावा शेर के फ़न का किया
मैं ने ले कर उस के काग़ज़ और क़लम आगे धरा
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चंद मुद्दत को फिराक़-ए-सनम-ओ-दैर तो है
आओ काबा कभी देख आएँ न इक सैर तो है
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उस संग-दिल के हिज्र में चश्मों को अपने आह
मानिंद-ए-आबशार किया हम ने क्या किया
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टैग : हिज्र
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जावे वो सनम ब्रिज को तो आप कन्हैया
झट सामने हो मुरली की धुन नज़्र पकड़ कर
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है नूर-ए-बसर मर्दुमक-ए-दीदा में पिन्हाँ यूँ जैसे कन्हैया
सो अश्क के क़तरों से पड़ा खेले है झुरमुट और आँखों में पनघट
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तू ने लगाई अब की ये क्या आग ऐ बसंत
जिस से कि दिल की आग उठे जाग ऐ बसंत
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टैग : बसंत
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शैख़-जी ये बयान करो हम भी तो बारी कुछ सुनें
आप के हाथ क्या लगा ख़ल्वत-ओ-एतिकाफ़ में
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बैठता है जब तुंदीला शैख़ आ कर बज़्म में
इक बड़ा मटका सा रहता है शिकम आगे धरा
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ख़ूबान-ए-रोज़गार मुक़ल्लिद तेरी हैं सब
जो चीज़ तू करे सो वो पावे रिवाज आज
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हर शाख़ ज़र्द ओ सुर्ख़ ओ सियह हिज्र-ए-यार में
डसते हैं दिल को आन के जूँ नाग ऐ बसंत
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पत्ते नहीं चमन में खड़कते तिरे बग़ैर
करती है इस लिबास में हर-दम फ़ुग़ाँ बसंत
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ख़याल कीजिए क्या काम आज मैं ने किया
जब उन ने दी मुझे गाली सलाम मैं ने किया
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गर शाख़-ए-ज़ाफ़राँ उसे कहिए तो है रवा
है फ़रह-बख़्श वाक़ई इस हद कोहाँ बसंत
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आते नज़र हैं दश्त-ओ-जबल ज़र्द हर तरफ़
है अब के साल ऐसी है ऐ दोस्ताँ बसंत
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न लगी मुझ को जब उस शोख़-ए-तरहदार की गेंद
उस ने महरम को सँभाल और ही तय्यार की गेंद
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हर-चंद कि आसी हूँ प उम्मत में हूँ उस की
जिस का है क़दम अर्श-ए-मुअ'ल्ला से भी बाला
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'इंशा' से शैख़ पूछता है क्या सलाह है
तर्ग़ीब-ए-बादा दी है मुझे ऐ जवाँ बसंत
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हिचकियाँ ले है इस तरह बत-ए-मय
जिस तरह गटकरी में तान फिरे
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लगा दी दौन इस जंगल को बस इक दो ही आहों में
ये धरपत क़हर कुछ इंशा ने दीपक राग का जोड़ा
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काफ़िर समा रहा है सारंग का ये लहरा
तबले की ताल-ओ-सम के हर हर परन के अंदर
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