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नज़्म
दरख़्त-ए-ज़र्द
हमेशा से बपा इक जंग है हम उस में क़ाएम हैं
हमारी जंग ख़ैर ओ शर के बिस्तर की है ज़ाईदा
जौन एलिया
ग़ज़ल
जो शरफ़ हम को मिला कूचा-ए-जानाँ से 'फ़राज़'
सू-ए-मक़्तल भी गए हैं उसी पिंदार के साथ
अहमद फ़राज़
मर्सिया
ख़ुद फ़ितना ओ शर पढ़ रहे हैं फ़ातिहा-ए-ख़ैर
कहते हैं अनल-अब्द लरज़ कर सनम-ए-दैर
मिर्ज़ा सलामत अली दबीर
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नज़्म
औरत
शरफ़ में बढ़ के सुरय्या से मुश्त-ए-ख़ाक उस की
कि हर शरफ़ है इसी दर्ज का दुर-ए-मकनूँ
अल्लामा इक़बाल
तंज़-ओ-मज़ाह
एक शायर: ये आपकी ज़र्रा नवाज़ी है वगरना,
वो आएं घर में हमारे ख़ुदा की क़ुदरत है