aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere
परिणाम "معدے"
रईस अमरोहवी
1914 - 1988
शायर
राजा मेहदी अली ख़ाँ
1915 - 1966
मीर मेहदी मजरूह
1833 - 1903
बाक़र मेहदी
1927 - 2006
लेखक
नुसरत मेहदी
born.1970
आबाद लखनवी
1813 - 1845
ताबिश मेहदी
1951 - 2025
होश जौनपुरी
1940 - 2003
मेहदी इफ़ादी
1870 - 1921
साग़र मेहदी
1936 - 1980
साहिर लखनवी
1935 - 2019
एस ए मेहदी
मेहदी हसन
1957 - 1999
कलाकार
मेहदी प्रतापगढ़ी
जावेद मेहदी
born.1990
हिन्दुस्तान को इन लीडरों से बचाओ जो मुल्क की फ़िज़ा बिगाड़ रहे हैं और अवाम को गुमराह कर रहे हैं। आप नहीं जानते मगर ये हक़ीक़त है कि हिन्दुस्तान पर ये नाम-निहाद लीडर अपनी-अपनी बग़ल में एक संदूकची दबाए फिरते हैं। जिसमें हर किसी की जेबें कुतर कर रुपया जमा...
याद रखिए वतन की ख़िदमत शिकम-सेर लोग कभी नहीं कर सकेंगे। वज़्नी मेअ्दे के साथ जो शख़्स वतन की ख़िदमत के लिए आगे बढ़े, उसे लात मार कर बाहर निकाल दीजिए।...
एक दिन मिर्ज़ा साहब और मैं बरामदे में साथ साथ कुर्सियाँ डाले चुप-चाप बैठे थे। जब दोस्ती बहुत पुरानी हो जाए तो गुफ़्तुगू की चंदाँ ज़रूरत बाक़ी नहीं रहती और दोस्त एक दूसरे की ख़ामोशी से लुत्फ़-अंदोज़ हो सकते हैं। यही हालत हमारी थी। हम दोनों अपने-अपने ख़्यालात में ग़र्क़...
तो हंस कर बोले कि वतन मालूफ़ में रोटी के हदूद अर्बा यही होते हैं। आख़िर कई फ़ाक़ों के बाद एक दिन हमने ब नज़र हौसला अफ़्ज़ाई कहा, “आज तुमने चावलों का अचार बहुत अच्छा बनाया है।”...
रोटी खाने के मुताल्लिक़ एक मोटा सा उसूल है कि हर लुक़मा अच्छी तरह चबा कर खाओ। लुआब-दहन में उसे ख़ूब हल होने दो ताकि मेअ्दे पर ज़ियादा बोझ ना पड़े और इसकी ग़िजाईयत बरक़रार रहे। पढ़ने के लिए भी यही मोटा उसूल है कि हर लफ़्ज़ को, हर सतर...
फ़िल्म और अदब में हमेशा से एक गहरा तअल्लुक़ रहा है ,अगर बात हिन्दुस्तानी फ़िल्मों की हो तो उनमें इस्तिमाल होने वाली ज़बान, डायलॉगज़ , स्क्रीन राईटिंग और नग़मो में उर्दू का हमेशा से बोल-बाला रहा है जो अब तक जारी है। आज इस कलेक्शन में हमने राजा मेहदी ख़ान के कुछ मशहूर नग़्मों को शामिल किया है । पढ़िए और क्लासिकल गानों का लुत्फ़ लीजिए।
मेहदी हसन की गाई हुईं 10 मशहूर ग़ज़लें
मौत सब से बड़ी सच्चाई और सब से तल्ख़ हक़ीक़त है। इस के बारे मे इंसानी ज़हन हमेशा से सोचता रहा है, सवाल क़ाएम करता रहा है और इन सवालों के जवाब तलाश करता रहा है लेकिन ये एक ऐसा मुअम्मा है जो न समझ में आता है और न ही हल होता है। शायरों और तख़्लीक़-कारों ने मौत और उस के इर्द-गिर्द फैले हुए ग़ुबार में सब से ज़्यादा हाथ पैर मारे हैं लेकिन हासिल एक बे-अनन्त उदासी और मायूसी है। यहाँ मौत पर कुछ ऐसे ही खूबसूरत शेर आप के लिए पेश हैं।
मेदेمعدے
liver
जदीद इबलाग़-ए-अाम
प्रो. मेहदी हसन
पत्रकारिता
Aligarh Tahreek
प्रोफ़ेसर मज़हर मेहदी
साहित्यिक आंदोलन
Akbar Ki Shayari Ka Tanqeedi Mutalla
सुग़रा मेहदी
शायरी तन्क़ीद
सैर कर दुनिया की ग़ाफ़िल
सफ़र-नामा / यात्रा-वृतांत
Aaina-e-Karbala
मेहदी नज़्मी
मर्सिया
Urdu Navelon Mein Aurat Ki Samaji Haisiyat
नॉवेल / उपन्यास तन्क़ीद
Intikhab Mehdi Afadi
फ़िरोज़ अहमद
मज़ामीन / लेख
Falsafa Kya Hai
अशफ़ाक़ सलीम मिर्ज़ा
दर्शन / फ़िलॉसफ़ी
Asri Afsane Ka Fan
मेहदी जाफ़र
अफ़साना तन्क़ीद
Islam Aur Jadeed Maaddi Afkar
मोहम्मद क़ुतुब
इस्लामियात
Ifadat-e-Mehdi
लेख
Farogh-e-Marsiya
असग़र मेहदी अशर
जीवनी
उर्दू तन्क़ीद का सफ़र
आलोचना
उसूल-ए-लुग़त
ऑल इंडिया एजुकेशनल लिटरेरी बुक सोसाइटी रजिस्टर्ड लाहौर
शब्द-कोश
Tasweeri Sahafat
मुंशी, ये मैंने कब कहा था कि लेमन और सोडे में कुछ फ़र्क़ ही नहीं... बहुत फ़र्क़ है... ज़मीन-ओ-आसमान का फ़र्क़ है। एक में मिठास है। ख़ुशबू है। खटास है। यानी तीन चीज़ें सोडे से ज़्यादा हैं। सोडे में तो सिर्फ गैस ही गैस है और वो भी इतनी तेज़...
अभी वज़ीर-ए-आज़म की गाड़ी आने में बहुत देर है। आप इन्तिज़ार करते-करते उकता जाएँगे इसलिए अगर आप इन छः साड़ियों की ज़िन्दगी के बारे में मुझ से कुछ सुन लें तो वक़्त आसानी से कट जाएगा। उधर ये जो भूरे रंग की साड़ी लटक रही है ये शांता बाई की...
इस इबारत पर इजमाल का अमल कीजिए तो इफ़्तिख़ार जालिब का सा आहंग न पैदा होगा, न उसके इर्तिकाज़ में इज़ाफ़ा होगा क्योंकि अच्छी नस्र में अदम इजमाल की ख़ासियत पढ़ने वाले की फ़िक्र को वाज़ेह रास्तों पर चलाती रहती है। इस वज़ाहत के लिए जितना इर्तिकाज़ ज़रूरी है, नस्र...
एशिया ने दुनिया को दो नेअमतों से रूशनास किया। चाय और चारपाई और उन में ये ख़ासियत मुश्तर्क है कि दोनों सर्दीयों में गर्मी और गर्मियों में ठंडक पहुंचाती हैं। अगर गर्मी में लोग खरी चारपाई पर सवार रहते हैं तो बरसात में ये लोगों पर सवार रहती है और...
نمبر ۸ زبیدہ عرف بیدی بھرے بھرے ہاتھ پیروں والی لڑکی تھی۔ دور سے دیکھنے پر گندھے ہوئے میدے کا ایک ڈھیر دکھائی دیتی تھی۔ گلی کے ایک لڑکے نے اس کو ایک بار آنکھ ماردی۔ بیچارے نے یوں اپنی محبت کی بسم اللہ کی تھی۔ لیکن اس کو لینے...
अगरचे हमा याराँ दोज़ख़ का ख़याल उस ला-मुतनाही सिलसिला-ए-क़ह्र-ओ-ग़ज़ब में लोगों को किसी हद तक तसल्ली का सामान बहम पहुँचाता था, ता-हम मक़हूर बनी-आदम की फ़लक शिगाफ़ सदाएँ तमाम शब कानों में आती रहतीं। माओं की आह-ओ-बुका, बहनों के नाले, बीवियों के नौहे, बच्चों की चीख़-ओ-पुकार शह्र की इस फ़िज़ा...
अब सालिम औरत उसके पेश-ए-नज़र नहीं थी... वो ऐसी औरत चाहता था जो घिस घिस कर शिकस्ता हाल मर्द की शक्ल इख़्तियार कर गई हो। ऐसी औरत जो आधी औरत हो और आधी कुछ भी न हो। एक ज़माना था जब जावेद ‘औरत’ कहते वक़्त अपनी आँखों में ख़ास क़िस्म...
“वो कैसे?” “आप नहीं जानते... जिनके घरों में बीवीयां नहीं होतीं उनको ऐसे लोग बेवक़ूफ़ बनाना जानते हैं।”...
“इसलिए कि इसमें ऐसे तेज़ाबी माद्दे होते हैं जो जिल्द का सत्यानास कर देते हैं।” "मेरी जिल्द तो आज तक सत्यानास नहीं हुई... आपकी जिल्द बहुत ही नाज़ुक होगी।”...
मैंने वज़ाहत चाही तो कहने लगे, "दरअसल ये आ'दत की बात है। ये कमबख़्त काफ़ी भी रिवायती चने और डोमनी की तरह एक दफ़ा मुँह से लगने के बाद छुड़ाए नहीं छूटती। है नाँ।" इस मुक़ाम पर मुझे अपनी मा'ज़ूरी का ए'तिराफ़ करना पड़ा कि बचपन ही से मेरी सेहत...
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