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ग़ज़ल
मेरे लबों पे मोहर थी पर मेरे शीशा-रू ने तो
शहर के शहर को मिरा वाक़िफ़-ए-हाल कर दिया
परवीन शाकिर
ग़ज़ल
रुख़-ए-रौशन से नक़ाब अपने उलट देखो तुम
मेहर-ओ-मह नज़रों से यारों की उतर जाएँगे
शेख़ इब्राहीम ज़ौक़
ग़ज़ल
अमीर ख़ुसरो
नज़्म
इस वक़्त तो यूँ लगता है
इक बैर न इक मेहर न इक रब्त न रिश्ता
तेरा कोई अपना, न पराया कोई मेरा