aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere
परिणाम "کچھوا"
मंजु कछावा अना
शायर
केकड़ा सरतान है कछवा संग-पुश्तसाक़ पिंडली फ़ारसी मुट्ठी की मुश्त
यूं तो मंटो को मैं इस की पैदाइश ही से जानता हूँ। हम दोनों इकट्ठे एक ही वक़्त 11 मई सन 1912ई. को पैदा हुए लेकिन उसने हमेशा ये कोशिश की कि वो ख़ुद को कछुआ बनाए रखे, जो एक दफ़ा अपना सर और गर्दन अंदर छुपा ले तो आप लाख ढूंढ़ते रहें तो इस का सुराग़ न मिले। लेकिन मैं भी आख़िर उस का हमज़ाद हूँ मैंने उस की हर जुंबिश का मुताला कर ही लिया।लीजिए अब मैं आपको बताता हूँ कि ये ख़रज़ात अफ़साना निगार कैसे बना? तन्क़ीद निगार बड़े लंबे चौड़े मज़ामीन लिखते हैं। अपनी हमा-दानी का सबूत देते हैं। शोपन हावर, फ्राइड, हीगल, नित्शे, मार्क्स के हवाले देते हैं मगर हक़ीक़त से कोसों दूर रहते हैं।
इस काटेज में काफ़ी आदमी रहते थे हालाँकि बादियुन्नज़र में ये जगह बिल्कुल ग़ैर आबाद मालूम होती थी। सबके सब इसी फ़िल्म कंपनियों में मुलाज़िम जो महीने की तनख़्वाह हर सह माही के बाद देती थी और वो भी कई क़िस्तों में। एक एक करके जब उसके साकिनों से मेरा तआ’रुफ़ हुआ तो पता चला कि सब असिस्टेंट डायरेक्टर थे। कोई चीफ़ असिस्टेंट डायरेक्टर, कोई उसका नायब, कोई नायब दर...
इक कछवा इक पत्थर परपत्थर बन के बैठा था
कछवाکچھوا
tortoise, turtle
कछुआ और ख़रगोश
डॉ. ज़ाकिर हुसैन
1970कहानी
Baatuni Kachua
अशरफ़ सबूही
1994
इस्माइल मेरठी
2013नज़्म
कछुआ और ख़रगोश
वेंकट रमन गोड्डा
2005प्रथम बुक्स
Kachhwe
इन्तिज़ार हुसैन
1981अफ़साना
Kachhwa Aur Khargosh
1972
Shumara Number-011
सय्यद मोहम्मद बाक़र नक़वी
1972इस्लाह, खुजवा
Shumara Number-001
अननोन एडिटर
1908इस्लाह, खुजवा
Shumara Number-009
सय्यद अली हैदर
1904इस्लाह, खुजवा
Shumara Number-005
1903इस्लाह, खुजवा
Shumara Number-003
1964इस्लाह, खुजवा
Shumara Number-000
मोहम्मद जाबिर जौरासी
1986इस्लाह, खुजवा
1916इस्लाह, खुजवा
1914इस्लाह, खुजवा
सलीम सिंह के दर पर मैं बेक़रारी और बेताबी से जाता था। इसलिए नहीं कि मैं उससे मिलना चाहता था। मैं वहां अपनी तलाश में जाता था, वो भी मुझसे यूं मिलता जैसे सदियों का बिछड़ा यार मिल रहा हो। दूसरी तीसरी मुलाक़ात में ही वो मुझे 'सवाई साहिब' कहने लगा था। जयपुर के राजा जय सिंह का वो ख़िताब जो उसे औरंगज़ेब के दरबार से मिला था। कछवाहा राज को दूसरे तमाम राजपूत राज...
एक कछवे के आ गई जी मेंकीजिए सैर ओ गश्त ख़ुश्की की
"ये कैसे?""ये ऐसे कि बनारस के राजा ब्रह्म दत्त की रानी किसी दूसरे मर्द से मिल गई। राजा ने उससे पूछ-गच्छ की तो उसने कहा कि मैं किसी पराए से मिली हूँ तो मैं मरने के बाद चुड़ैल बन जाऊँ और मेरा मुँह घोड़ी का हो जाए और ऐसा हुआ कि रानी मरके सचमुच चुड़ैल बन गई और उसका मुँह घोड़ी का सा हो गया, वो एक बन में जाके एक खोह में रहने लगी। आते-जाते को पकड़ती और खा लेती, एक दिन एक ब्रह्मण तक्षीला से विद्या प्राप्त करके आ रहा था, चुड़ैल उसे कमर पे लाद के अपनी खोह में ले गई, पर ब्रह्मण जवान था जब अंग से अंग मिला तो चुड़ैल गरमा गई, खोह में ले जा के उससे खेलने लगी। ब्रह्मण विद्वान था पर जवान भी तो था, विद्या अपनी जगह, जवानी अपनी जगह, वो भी गरमा गया, चूमा-चाटी की और भोग किया, उस भोग से चुड़ैल को गर्भ रहा, नौ महीने बाद उसने पुत्र जना, ये पुत्र वास्तव में हमारे बुद्धदेव महाराज थे जिन्होंने अबकी बार चुड़ैल के पुत्र के रूप में जन्म लिया था।
गुरू जी बहुत चिल्लाए कि ज़ालिमों क्यों मारे डालते हो। हाय, लेकिन चेले कब मानते थे। गुरूजी की टांगें सूज कर कुप्पा हो गईं। मुद्दतों हल्दी चूना लगाना पड़ा। अब आगे चलिए। कहानी अभी ख़त्म नहीं हुई, लाला पच्छिमी चंद के कई बेटे थे। बड़े होनहार और होशियार। पिशावरी मल, सिंधु राम, लाहौरी मल और ब्लोच राय। लाला जी का देहांत हुआ तो ये टांग उन्होंने विरसे में पाई...
मोहसिन अबदुल्लाह को लेबारेट्री में जगह मिल गई। हिमानशु राय आँ-जहानी के अहकाम के मुताबिक़ स्टूडियो के किसी आला और मुतवस्सित कार-कुन को मलाड (जहां कि ये निगार-ख़ाना था) से दूर रिहाइश इख़्तियार करने की इजाज़त नहीं थी। क़रीब क़रीब सब स्टूडियो के आस-पास ही रहते थे। मोहसिन अबदुल्लाह अपनी बीवी शाहिदा के साथ क़रीब ही एक छोटी सी टूटी फूटी कोठी में मुक़ीम था। मोहसिन लेबारेट्री में बड़ी तवज्जो से काम करता था। हिमानशू राय उस से बहुत ख़ुश था। उस की तनख़्वाह उतनी ही थी जितनी अशोक कुमार की थी। जब वो इस लेबारेट्री में मुलाज़िम हुआ था मगर वो अब कामियाब ऐक्टर बन रहा था। उन दिनों आज़ोरी और मुमताज़ भी वहीं थे। मिस्टर मुकर्जी जो उस वक़्त मिस्टर वाचा साऊंम रिकार्ड सेट के अस्सिटेंट थे, सब ख़ुश-बाश आदमी थे।
सूबेदार रब नवाज़ और उसके जवानों को इस बात का बड़ा दुख था कि दुश्मन का कोई ज़िंदा सिपाही उनके हाथ न आया जिसको वो ख़ातिर ख़्वाह गालियों का मज़ा चखाते। मगर ये मोर्चा फ़तह करने से वो एक बड़ी अहम पहाड़ी पर क़ाबिज़ होगए थे। वायरलैस के ज़रिये से सूबेदार रब नवाज़ ने प्लाटून कमांडर मेजर असलम को फ़ौरन ही अपने हमले के इस नतीजे से मुत्तला कर दिया था और शाबाशी वसूल करली थी।
उनके उस्लूब में ऐसी सादगी और ताज़गी है जिसकी कोई नज़ीर इससे पहले उर्दू अफ़साने में नहीं। बर्रे सग़ीर में कहानी की रिवायत कथा की रिवायत है। दास्तान ने भी इस लिहाज़ से उसी रिवायत को आगे बढ़ाया था कि वो सुनने-सुनाने की चीज़ है। इसके बर-ख़िलाफ़ बीसवीं सदी में अफ़साने का सारा इर्तिक़ा एक तहरीरी सिन्फ़ का इर्तिक़ा है। ये लिखे और पढ़े जाने की चीज़ होकर रह...
“जाओ न मेरी बहनो।” बी आपा ने उसे जगा दिया। और वो चौंक कर ओढ़नी के आँचल से आँसू पोंछती ड्योढ़ी की तरफ़ बढ़ी।“ये... ये मलीदा।” उसने उछलते हुए दिल को क़ाबू में रखते हुए कहा। उसके पैर लरज़ रहे। जैसे वो साँप की बानी में घुस आई हो। और फिर पहाड़ खिसका...! और मुँह खोल दिया। वो एक दम पीछे हट गई। मगर दूर कहीं बारात की शहनाइयों ने चीख़ लगाई। जैसे कोई उनका गला घोंट रहा हो। काँपते हाथों से मुक़द्दस मलीदे का निवाला बना कर उसने राहत के मुँह की तरफ़ बढ़ा दिया।
Jashn-e-Rekhta | 8-9-10 December 2023 - Major Dhyan Chand National Stadium, Near India Gate - New Delhi
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