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शेर
है ख़ाल यूँ तुम्हारे चाह-ए-ज़क़न के अंदर
जिस रूप हो कनहय्या आब-ए-जमन के अंदर
इंशा अल्लाह ख़ान इंशा
ग़ज़ल
अपने गेसू-ए-रसा से यार रस्सी की तरह
बाँधता है आशिक़-ए-चाह-ए-ज़क़न के हाथ पाँव
वज़ीर अली सबा लखनवी
मर्सिया
ये चाह-ए-ज़क़न है चह ज़मज़म के बराबर
इस बीनई अक़्दस का मुझे ध्यान गुर आया
मीर मुज़फ़्फ़र हुसैन ज़मीर
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ग़ज़ल
गया जो तालिब-ए-चाह-ए-ज़कन दिल-ए-बेताब
कुएँ पे तिश्ना-लब आता है आब हो कि न हो
पंडित दया शंकर नसीम लखनवी
ग़ज़ल
शौक़ की आग नफ़स की गर्मी घटते घटते सर्द न हो
चाह की राह दिखा कर तुम तो वक़्फ़-ए-दरीचा-ओ-बाम हुए