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नज़्म
शिकवा
थी न कुछ तेग़ज़नी अपनी हुकूमत के लिए
सर-ब-कफ़ फिरते थे क्या दहर में दौलत के लिए
अल्लामा इक़बाल
ग़ज़ल
आज फिर मक़्तल में क़ातिल कह रहा है बार बार
आएँ वो शौक़-ए-शहादत जिन के जिन के दिल में है
बिस्मिल अज़ीमाबादी
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ग़ज़ल
असरार-उल-हक़ मजाज़
नज़्म
मगर ज़ुल्म के ख़िलाफ़
हम सर-ब-कफ़ उठे हैं कि हक़ फ़तह-याब हो
कह दो उसे जो लश्कर-ए-बातिल के साथ है
साहिर लुधियानवी
नज़्म
ख़ून फिर ख़ून है
ख़ाक-ए-सहरा पे जमे या कफ़-ए-क़ातिल पे जमे
फ़र्क़-ए-इंसाफ़ पे या पा-ए-सलासिल पे जमे
साहिर लुधियानवी
नज़्म
इबलीस की मजलिस-ए-शूरा
जिस ने इस का नाम रखा था जहान-ए-काफ़-अो-नूँ
मैं ने दिखलाया फ़रंगी को मुलूकियत का ख़्वाब