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नज़्म
मुझ से पहली सी मोहब्बत मिरी महबूब न माँग
राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा
अन-गिनत सदियों के तारीक बहीमाना तिलिस्म
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
ग़ज़ल
आ गया गर वस्ल की शब भी कहीं ज़िक्र-ए-फ़िराक़
वो तिरा रो रो के मुझ को भी रुलाना याद है
हसरत मोहानी
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ग़ज़ल
सवाल-ए-वस्ल पर उन को अदू का ख़ौफ़ है इतना
दबे होंटों से देते हैं जवाब आहिस्ता आहिस्ता
अमीर मीनाई
नज़्म
सुब्ह-ए-आज़ादी (अगस्त-47)
बदल चुका है बहुत अहल-ए-दर्द का दस्तूर
नशात-ए-वस्ल हलाल ओ अज़ाब-ए-हिज्र हराम
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
याद
यूँ गुमाँ होता है गरचे है अभी सुब्ह-ए-फ़िराक़
ढल गया हिज्र का दिन आ भी गई वस्ल की रात