aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere
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सड़क की दूसरी तरफ़ माल गोदाम था जो इस कोने से उस कोने तक फैला हुआ था। दाहिने हाथ को लोहे की छत के नीचे बड़ी बड़ी गांठें पड़ी रहती थीं और हर क़िस्म के माल अस्बाब के ढेर से लगे रहते थे। बाएं हाथ को खुला मैदान था जिसमें बेशुमार रेल की पटड़ियां बिछी हुई थीं। धूप में लोहे की ये पटड़ियाँ चमकतीं तो सुल्ताना अपने हाथों की तरफ़ देखती जिन पर नीली नीली रगें बिल्कुल इ...
ये 1919 ई. की बात है भाई जान, जब रूल्ट ऐक्ट के ख़िलाफ़ सारे पंजाब में एजिटेशन हो रही थी। मैं अमृतसर की बात कर रहा हूँ। सर माईकल ओडवायर ने डिफ़ेंस आफ़ इंडिया रूल्ज़ के मातहत गांधी जी का दाख़िला पंजाब में बंद कर दिया था। वो इधर आ रहे थे कि पलवाल के मुक़ाम पर उनको रोक लिया गया और गिरफ़्तार कर के वापस बम्बई भेज दिया गया। जहां तक मैं समझता हूँ भाई जान, अगर अं...
मगर बेगम जान से शादी कर के तो वो उन्हें कुल साज़-ओ-सामान के साथ ही घर में रख कर भूल गए और वो बेचारी दुबली पतली नाज़ुक सी बेगम तन्हाई के ग़म में घुलने लगी।न जाने उनकी ज़िंदगी कहाँ से शुरू होती है। वहाँ से जब वो पैदा होने की ग़लती कर चुकी थी, या वहाँ से जब वो एक नवाब बेगम बन कर आईं और छपर-खट पर ज़िंदगी गुज़ारने लगीं। या जब से नवाब साहब के यहाँ लड़कों का ज़ोर बंधा। उनके लिए मुरग़न हलवे और लज़ीज़ खाने जाने लगे और बेगम जान दीवान-ख़ाने के दर्ज़ों में से उन लचकती कमरों वाले लड़कों की चुस्त पिंडलियाँ और मुअत्तर बारीक शबनम के कुरते देख-देख कर अंगारों पर लोटने लगीं।
पहले सब मिल कर एक ऐसे दुश्मन से लड़ते थे जिनको उन्होंने पेट और इनाम-ओ-इकराम की ख़ातिर अपना दुश्मन यक़ीन कर लिया था। अब वो ख़ुद दो हिस्सों में बट गए थे। पहले सब हिंदुस्तानी फ़ौजी कहलाते थे। अब एक पाकिस्तानी था और दूसरा हिंदुस्तानी। उधर हिंदुस्तान में मुसलमान हिंदुस्तानी फ़ौजी थे। रब नवाज़ जब उनके मुतअल्लिक़ सोचता तो उसके दिमाग़ में एक अजीब गड़बड़ सी पैदा हो जाती और जब वो कश्मीर के मुतअल्लिक़ सोचता तो उसका दिमाग़ बिल्कुल जवाब दे जाता...
ham ko aksar ye KHayaal aataa hai us ko dekh karye sitaara kaise Galatii se zamii.n par rah gayaa
Human beings have a natural desire to earn fame. But doing so in an unscrupulous manner disqualifies him from being a human being in the real sense. The good and bad aspects of fame are presented here in this selection.
Apparently, humorous poetry is there to make you laugh but it has many dimensions that we generally do not know about. Reform is a hidden agenda of humorous poetry and the poet indulges into reformative act by choosing to satirize the subject. We have a small selection for you here.
The poetry of humour and satire has multiple dimensions and makes sense to readers at different planes. This poetry makes you laugh but it also drives you to taste the bitterness of life. This selection of verses will help you see life from close quarters and appreciate its richness and variety through humour and satire.
ग़लतीغلطی
fault, mistake, error
''ग़लती''غلطی
A mistake, an error, inaccuracy, an oversight, a slip
Tabeer Ki Ghalati
Maulana Wahiduddin Khan
Islamiyat
Tabeer Ki Ghalti
Tanqeed Qamoos-ul-Mashaheer
Syed Ahmadullah Qadri
Tazkira
Fikr Ki Ghalati
Ateeq Ahmad Qasmi
Ek Ghalti Ka Izala
Mirza Ghulam Ahmad Qadiyani
Gham Ghalat
Shaukat Thanvi
Poetry
Maulvi Ka Ghalat Mazhab
Allama Al-Mashriqi
Lectures
Fikr Ki Ghalti
Deen Ki Siyasi Taabeer
Pahli Ghalati
Khursheed Alam Kakvi
Ghalat Fahmiyon Ka Azala
Syed Hamid Ali
Dec 1966Islamiyat
Ghalat-ul-Awam
Muneer Lakhnavi
Language
Ghalat-ul-Awam-o-Matrook-ul-Kalam
लेकिन तहसीलदार साहब और हेड-मास्टर साहब की नेक नियती यहीं तक महदूद न रही। अगर वह सिर्फ़ एक आ’म और मुहमल सा मश्विरा दे देते कि लड़के को लाहौर भेज दिया जाये तो बहुत ख़ूब था, लेकिन उन्होंने तो तफ़सीलात में दख़ल देना शुरु कर दिया और हॉस्टल की ज़िंदगी और घर की ज़िंदगी का मुक़ाबला कर के हमारे वालिद पर ये साबित कर दिया कि घर पाकीज़गी और तहारत का एक का’बा और ...
और लाजो एक पतली शहतूत की डाली की तरह, नाज़ुक सी देहाती लड़की थी। ज़्यादा धूप देखने की वजह से उसका रंग संवला चुका था। तबीअ’त में एक अजीब तरह की बेक़रारी थी। उसका इज़्तिराब शबनम के उस क़तरे की तरह था जो पारा करास के बड़े से पत्ते पर कभी इधर और कभी उधर लुढ़कता रहता है। उसका दुबलापन उसकी सेहत के ख़राब होने की दलील न थी, एक सेहत मंदी की निशानी थी जिसे देख कर ...
अब काम में उसका जी नहीं लगता था लेकिन इस बेदिली के होते हुए भी वो काहिली नहीं बरतता था। चुनांचे यही वजह है कि घर में कोई भी उसके अंदरूनी इंतिशार से वाक़िफ़ नहीं था। रज़िया थी सो वो दिन भर बाजा बजाने, नई नई फ़िल्मी तरज़ें सीखने और रिसाले पढ़ने में मसरूफ़ रहती थी। उसने कभी मोमिन की निगरानी ही नहीं की थी। शकीला अलबत्ता मोमिन से इधर-उधर के काम लेती थी और कभी-कभी उसे डाँटती भी थी। मगर अब कुछ दिनों से वो भी चंद ब्लाउज़ों के नमूने उतारने में बेतरह मशग़ूल थी। ये ब्लाउज़ उसकी एक सहेली के थे, जिसे नई नई तराशों के कपड़े पहनने का बहुत शौक़ था।
“दाऊ जी कुछ और पूछो।"दाऊ जी ने कहा, "बहुत बे-आबरु होकर तेरे कूचे से हम निकले। इसकी तरकीब-ए-नहवी करो।"
उसका चेहरा जैसा कि मैं बयान कर चुका हूँ बेहद पीला था। उस पर उसकी नाक आँखों और मुँह के ख़ुतूत इस क़दर मद्धम थे जैसे किसी ने तस्वीर बनाई है और उसको पानी से धो डाला है। कभी कभी उसकी तरफ़ देखते देखते उसके होंट उभर से आते लेकिन फिर राख में लिपटी हुई चिंगारी के मानिंद सो जाते। उसके चेहरे के दूसरे ख़ुतूत का भी यही हाल था।आँखें गदले पानी की दो बड़ी बड़ी बूंदें थीं जिन पर उसकी छोरी पलकें झुकी हुई थीं। बाल काले थे मगर उनकी स्याही जले हुए काग़ज़ के मानिंद थी जिनमें भोसलापन होता है। क़रीब से देखने पर उसकी नाक का सही नक़्शा मालूम हो सकता था। मगर दूर से देखने पर वो बिल्कुल चिपटी मालूम होती थी क्योंकि जैसा कि मैं इससे पेशतर बयान कर चुका हूँ, उसके चेहरे के ख़ुतूत बिल्कुल ही मद्धम थे।
त्रिलोचन नर्म हो जाता। दरअस्ल मोज़ील उसकी ज़बरदस्त कमज़ोरी बन गई थी। वो हर हालत में उसकी क़ुर्बत का ख़्वाहिशमंद था। इसमें कोई शक नहीं कि मोज़ील की वजह से उसकी अक्सर तौहीन होती थी। मामूली मामूली क्रिस्टान लौंडों के सामने जिनकी कोई हक़ीक़त ही नहीं थी, उसे ख़फ़ीफ़ होना पड़ता था। मगर दिल से मजबूर हो कर उसने ये सब कुछ बर्दाश्त करने का तहय्या कर लिया था।आम तौर पर तौहीन और हतक का रद्द-ए-अमल इंतिक़ाम होता है मगर त्रिलोचन के मुआमले में ऐसा नहीं था। उसने अपने दिल-ओ-दिमाग़ की बहुत सी आँखें मीच ली थीं और कई कानों में रुई ठोंस ली थी। उसको मोज़ील पसंद थी... पसंद ही नहीं जैसा कि वो अक्सर अपने दोस्तों से कहा करता था, गोडे-गोडे उसके इश्क़ में धँस गया था। अब उसके सिवा और कोई चारा नहीं था। उसके जिस्म का जितना हिस्सा बाक़ी रह गया है वो भी इस इश्क़ की दलदल में चला जाये और क़िस्सा ख़त्म हो।
मैंने उस गेंद को जिसे आप ज़िंदगी के नाम से पुकारते हैं, ख़ुद अपने पांव पर कुल्हाड़ी मार कर काटा है। इसमें किसी का कोई क़ुसूर नहीं। वाक़िया ये है कि मैं इस खेल में लज़्ज़त महसूस कर रहा हूँ। लज़्ज़त... हाँ लज़्ज़त... मैंने अपनी ज़िंदगी की कई रातें हुस्न-फ़रोश औरतों के तारीक अड्डों पर गुज़ारी हैं। शराब के नशे में चूर मैंने किस बेदर्दी से ख़ुद को इस हालत में...
उसको सिर्फ़ इतना मालूम था कि उसका बाप रहीम दाद इस जंग में काम आया है। उसकी लाश ख़ुद करीम दाद ने अपने कंधों पर उठाई थी और एक कुवें के पास गढ़ा खोद कर दफनाई थी।गांव में और भी कई वारदातें हुई थीं। सैंकड़ों जवान और बूढ़े क़त्ल हुए थे, कई लड़कियां ग़ायब होगई थीं। कुछ बहुत ही ज़ालिमाना तरीक़े पर बेआबरू हुई थी। जिसके भी ये ज़ख़्म आए थे, रोता था, अपने फूटे नसीबों पर और दुश्मनों की बेरहमी पर, मगर करीम दाद की आँख से एक आँसू भी न निकला।
जगदीश और उसके साथियों ने कृष्ण कुमार को कीचड़ भरे गढ़े में धक्का देकर गिरा दिया था। कीचड़ में बेचारा लतपत् है। लड़के छेड़ रहे हैं, जगदीश आगे बढ़ कर जब उसे उठाने लगता है तो उसका कोट फट जाता है। कृष्ण कुमार से अब बर्दाश्त नहीं हो सकता क्योंकि ये कोट उसे बेहद अ’ज़ीज़ है। ये उसके मरहूम बाप का था जो उसकी माँ ने सँभाल कर उसके लिए रखा हुआ था। जब उसका कोट फट जाता है तो वो दीवानों की तरह उठता है और जगदीश को पीटना शुरू कर देता है। कॉलिज में जगदीश की धाक बैठी हुई थी कि वो बहुत लड़ाका है। कोई उसके मुक़ाबल में नहीं ठहर सकता, मगर जब कृष्ण कुमार उसे बुरी तरह लताड़ता है तो सब लड़के हैरान रह जाते हैं और जगदीश और कृष्ण कुमार दोनों कुश्ती लड़ते लड़ते सतीश कृष्णा कुमारी और निर्मला के पास आ जाते हैं तो ज़बरदस्त घूंसा मार कर जब कृष्ण कुमार जगदीश को गिराता है तो बेइख़्तियार कृष्णा कुमारी के मुँह से निकलता है, “ये क्या वहशियानापन है ?”
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