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ग़ज़ल
जब वो जमाल-ए-दिल-फ़रोज़ सूरत-ए-मेहर-ए-नीमरोज़
आप ही हो नज़ारा-सोज़ पर्दे में मुँह छुपाए क्यूँ
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
रख़नों से दीवार-ए-चमन के मुँह को ले है छुपा या'नी
इन सूराख़ों के टुक रहने को सौ का नज़ारा जाने है
मीर तक़ी मीर
ग़ज़ल
काश अब बुर्क़ा मुँह से उठा दे वर्ना फिर क्या हासिल है
आँख मुँदे पर उन ने गो दीदार को अपने आम किया
मीर तक़ी मीर
ग़ज़ल
मुँह से हम अपने बुरा तो नहीं कहते कि 'फ़िराक़'
है तिरा दोस्त मगर आदमी अच्छा भी नहीं