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ग़ज़ल
अहद-ए-जवानी रो रो काटा पीरी में लीं आँखें मूँद
या'नी रात बहुत थे जागे सुब्ह हुई आराम किया
मीर तक़ी मीर
ग़ज़ल
निकल कर दैर-ओ-काबा से अगर मिलता न मय-ख़ाना
तो ठुकराए हुए इंसाँ ख़ुदा जाने कहाँ जाते
क़तील शिफ़ाई
ग़ज़ल
अज्ञात
ग़ज़ल
दिल में भी मिलता है वो काबा भी उस का है मक़ाम
राह नज़दीक की ऐ अज़्म-ए-सफ़र पैदा कर