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ग़ज़ल
हम-वतन था आश्ना था रात-दिन मिलता था वो
उस में कुछ थी ऐसी बातें अजनबी लगता था वो
सैय्यद नियाज़ अली नियाज़
ग़ज़ल
हिर्ज़-ए-जाँ समझते हैं हम वतन की मिट्टी को
अपने घर के ख़ारों को हम गुलाब लिक्खेंगे
बख़्श लाइलपूरी
ग़ज़ल
वतन में आँख चुराते हैं हम से अहल-ए-वतन
तड़पते रहते हैं ग़ुर्बत में हम वतन के लिए
वहशत रज़ा अली कलकत्वी
ग़ज़ल
हस्ती में भी तो भूला न अहल-ए-अदम को मैं
ग़ुर्बत में याद आए मुझे हम-वतन तमाम
अबुल बक़ा सब्र सहारनपुरी
ग़ज़ल
हम-वतन ख़ाक-ए-वतन क्यूँ न हो प्यारी कि हमें
बा'द-अज़-मर्ग भी जाना है इसी मिट्टी में