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ग़ज़ल
जावेद अख़्तर
ग़ज़ल
काश अब बुर्क़ा मुँह से उठा दे वर्ना फिर क्या हासिल है
आँख मुँदे पर उन ने गो दीदार को अपने आम किया
मीर तक़ी मीर
ग़ज़ल
गो दावा-ए-तक़्वा नहीं दरगाह-ए-ख़ुदा में
बुत जिस से हों ख़ुश ऐसा गुनहगार नहीं हूँ
अकबर इलाहाबादी
ग़ज़ल
अहल-ए-ज़बाँ तो हैं बहुत कोई नहीं है अहल-ए-दिल
कौन तिरी तरह 'हफ़ीज़' दर्द के गीत गा सके
हफ़ीज़ जालंधरी
ग़ज़ल
क़ैद में याक़ूब ने ली गो न यूसुफ़ की ख़बर
लेकिन आँखें रौज़न-ए-दीवार-ए-ज़िंदाँ हो गईं