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ग़ज़ल
दो तीन झटके दूँ जूँ ही वहशत के ज़ोर में
ज़िंदाँ में टुकड़े होवें सलासिल के चार पाँच
बहादुर शाह ज़फ़र
ग़ज़ल
मज़े ऐश ओ तरब लज़्ज़त लगे यूँ टूट कर गिरने
कि जैसे टूट कर मेवों के होवें ढेर आँधी में
नज़ीर अकबराबादी
ग़ज़ल
जब बन पड़ी तो शैख़-जी शैख़ी न मारें क्या
हम से भी फिर तो होवें करामातें ठीक-ठीक
नज़ीर अकबराबादी
ग़ज़ल
नज़ीर अकबराबादी
ग़ज़ल
नसब हो या हसब दोनों मुबारक होवें ज़ाहिद को
तुझे तो है फ़क़त 'मर्दां' शह-ए-अबरार से मतलब
मरदान सफ़ी
ग़ज़ल
हर बुल-हवस उस जिंस का होता हैगा ख़्वाहाँ
जाँ-बाख़्ता-ख़्वाँ होवें ख़रीदार-ए-मोहब्बत