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ग़ज़ल
हम मुज़न्निबों में सिर्फ़ करम से है गुफ़्तुगू
मज़कूर ज़िक्र याँ नहीं सौम-ओ-सलात का
मीर तक़ी मीर
ग़ज़ल
रख़नों से दीवार-ए-चमन के मुँह को ले है छुपा या'नी
इन सूराख़ों के टुक रहने को सौ का नज़ारा जाने है
मीर तक़ी मीर
ग़ज़ल
इस दिल के दरीदा दामन को देखो तो सही सोचो तो सही
जिस झोली में सौ छेद हुए उस झोली का फैलाना क्या