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नज़्म
ख़ाक-ए-सहरा पे जमे या कफ़-ए-क़ातिल पे जमे
फ़र्क़-ए-इंसाफ़ पे या पा-ए-सलासिल पे जमे
साहिर लुधियानवी
नज़्म
ख़ज़ीना हूँ छुपाया मुझ को मुश्त-ए-ख़ाक-ए-सहरा ने
किसी को क्या ख़बर है मैं कहाँ हूँ किस की दौलत हूँ
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
वादी-ए-गुल ख़ाक-ए-सहरा को बना सकता है ये
ख़्वाब से उम्मीद-ए-दहक़ाँ को जगा सकता है ये
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
तेरी वादी के सनोबर मेरे सहरा के बबूल
उन पे इक लर्ज़ा सा तारी उन के मुरझाए से फूल