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नज़्म
अब आगे का तहक़ीक़ नहीं गो सुनने को हम सुनते थे
उस नार की जो जो बातें थीं उस नार के जो जो क़िस्से थे
इब्न-ए-इंशा
नज़्म
जिन का दीं पैरवी-ए-किज़्ब-ओ-रिया है उन को
हिम्मत-ए-कुफ़्र मिले जुरअत-ए-तहक़ीक़ मिले
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
गुम कई सदियों का उस में जज़्बा-ए-तहक़ीक़ है
ये जज़ीरा आदमी के ज़ेहन की तख़्लीक़ है
जगन्नाथ आज़ाद
नज़्म
ये था इक रुख़ साहिब-ए-तहक़ीक़ की तस्वीर का
दूसरा रुख़ भी बयाँ करता हूँ, सुनिए ध्यान से