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नज़्म
ज़िंदा रहने के लिए इंसान को कुछ और भी दरकार है
और इस कुछ और भी का तज़्किरा भी जुर्म है
अहमद नदीम क़ासमी
नज़्म
नहीं दरकार कोई मर्तबा दौलत न ज़र मुझ को
ख़ुदावंदा मिरी क़ुर्बानियों का दे अज्र मुझ को