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नज़्म
यूँ न था मैं ने फ़क़त चाहा था यूँ हो जाए
और भी दुख हैं ज़माने में मोहब्बत के सिवा
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
यूरोप में बहुत रौशनी-ए-इल्म-ओ-हुनर है
हक़ ये है कि बे-चश्मा-ए-हैवाँ है ये ज़ुल्मात
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
गुल हुई जाती है अफ़्सुर्दा सुलगती हुई शाम
धुल के निकलेगी अभी चश्मा-ए-महताब से रात
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
क़ल्ब ओ नज़र की ज़िंदगी दश्त में सुब्ह का समाँ
चश्मा-ए-आफ़्ताब से नूर की नद्दियाँ रवाँ!
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
ये पर्बत है ख़ामोश साकिन
कभी कोई चश्मा उबलते हुए पूछता है कि उस की चटानों के उस पार क्या है
मीराजी
नज़्म
कमाल-ए-नज़्म-ए-हस्ती की अभी थी इब्तिदा गोया
हुवैदा थी नगीने की तमन्ना चश्म-ए-ख़ातम से
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
ये दश्त-ए-दहर में हमदर्दियों का सरचश्मा
क़ुबूलियत का ये जज़्बा ये काएनात ओ हयात
फ़िराक़ गोरखपुरी
नज़्म
ये रूप सर से क़दम तक हसीन जैसे गुनाह
ये आरिज़ों की दमक ये फ़ुसून-ए-चश्म-ए-सियाह
फ़िराक़ गोरखपुरी
नज़्म
बा-चश्म-ए-नम है आज ज़ुलेख़ा-ए-काएनात
ज़िंदाँ-शिकन वो यूसुफ़-ए-ज़िंदाँ चला गया
असरार-उल-हक़ मजाज़
नज़्म
दादा अब्बा का अब चश्मा बकरे को नहीं पहनाते हम
नाना अब्बा की लठिया अब हम ने छुपाना छोड़ दिया