भगत राम
अभी-अभी मेरे बच्चे ने मेरे बाएं हाथ की छंगुलिया को अपने दाँतों तले दाब कर इस ज़ोर का काटा कि मैं चिल्लाए बग़ैर ना रह सका और मैंने गु़स्सो में आकर उसके दो, तीन तमांचे भी जड़ दिए बेचारा उसी वक़्त से एक मासूम पिल्ले की तरह चिल्ला रहा है। ये बच्चे कम्बख़्त देखने में कितने नाज़ुक होते हैं, लेकिन उनके नन्हे-नन्हे हाथों की गिरिफ़्त बड़ी मज़बूत होती है। उनके दाँत यूँ दूध के होते हैं लेकिन काटने में गिलहरियों को भी मात करते हैं। इस बच्चे की मासूम शरारत से मेरे दिल में बचपन का एक वाक़ेआ उभर आया है, अब तक मैं उसे बहुत मामूली वाक़ेआ समझता था और अपनी दानिस्त में, मैं उसे क़त’अन भुला चुका था। लेकिन देखिए ये ला-शऊर का फ़ित्ना भी किस क़दर अजीब है। इसके साए में भी कैसे-कैसे खु़फ़िया अजाइब मस्तूर हैं। बज़ाहिर इतनी सी बात थी कि बचपन में मैंने एक दफ़ा अपने गाँव के एक आदमी ‘भगत रामֺ’ के बाएं हाथ का अँगूठा चबा डाला और उसने मुझे तमांचे मारने के बजाय सेब और आलूचे खिलाए थे। और बज़ाहिर मैं उस वाक़ए को अब तक भूल चुका था, लेकिन ज़रा इस भानमती के पिटारे की बवाल-अज़बियाँ मुलाहिज़ा फ़रमाईए।
ये मामूली सा वाक़िया एक ख़्वाबीदा नाग की तरह ज़हन के पिटारे में दबा है और जूँ ही मेरा बच्चा मेरी छंगुलियां को दाँतों तले दबाता है और मैं उसे पीटता हूँ। ये पच्चीस, तीस साल का सोया हुआ नाग बेदार हो जाता है और फन फैलाकर मेरे ज़हन की चार-दीवारी में लहराने लगता है। अब कोई उसे किस तरह मार भगाए, अब तो दूध पिलाना होगा, ख़ैर तो वो वाक़आ भी सन लीजिए जैसा कि मैं अभी अर्ज़ कर चुका हूँ ये मेरे बचपन का वाक़आ है। जब हम लोग रंगपुर के गाँव में रहते थे। रंगपुर के गाँव तहसील जोड़ी का सदर मुक़ाम है, इसलिए उसकी हैसियत अब तक एक छोटे मोटे क़स्बे की है, लेकिन जिन दिनों हम वहां रहते थे रंगपुर की आबादी बहुत ज़्यादा ना थी। यही कोई ढाई तीन सौ घरों पर मुश्तमिल होगी। जिनमें बेशतर घर ब्राह्मणों और खत्रियों के थे। दस, बारह घर जुलाहों के और कुम्हारों के होंगे। पाँच, छः बढ़ई इतने ही चमार और धोबी। यही सारे गाँव में ले दे के आठ, दस घर मुस्लमानों के होंगे लेकिन उनकी हालत ना-गुफ़्ता सी थी। इसलिए यहाँ तो उनका ज़िक्र करना भी बेकार सा मालूम होता है।
गाँव की बिरादरी के मुखिया लाला काशी राम थे। यूं तो ब्राह्मणी समाज के उसूलों के मुताबिक़ बिरादरी का मुखिया किसी ब्राह्मण ही को होना चाहीए था और फिर ब्राह्मणों की आबादी भी गाँव में सबसे ज़्यादा थी। पर बिरादरी ने लाला काशी राम को जो ज़ात के खत्री थे अपना मुखिया चुना था फिर वो सबसे ज़्यादा लिखे पढ़े थे यानी नए शहर तक पढ़े थे। जो ख़त डाकिया नहीं पढ़ सकता था उसे भी वो अच्छी तरह पढ़ लेते थे। तमक हण्डी, नालिश, सुमन, गवाही, निशानदेही के इलावा नए शहर की बड़ी अदालत की भी कार्रवाई से वो बख़ूबी वाक़िफ़ थे। इसलिए गाँव का हर फ़र्द अपनी मुसीबत में चाहे वो ख़ुद लाला काशी राम की ही पैदा-कर्दा क्यों ना हो, लाला काशी राम ही का सहारा ढूंढता था। और लाला जी ने आज तक अपने किसी मक़रूज़ की मदद करने से इनकार न किया। इसीलिए वो गाँव के मुखिया थे और गाँव के मालिक थे और रंगपुर से बाहर दूर-दूर तक जहाँ तक धान के खेत दिखाई देते थे। लोग उनका जिस गाते थे।
ऐसे शरीफ़ लाला का मँझला भाई था लाला बंशी राम , जो अपने बड़े भाई के हर नेक काम में हाथ बटाता था लेकिन गाँव के लोग उसे इतना अच्छा नहीं समझते थे क्योंकि उसने अपने ब्रहमन धरम को त्याग दिया था और गुरू नानक जी के चलाए हुए पंथ में शामिल हो गया था। उसने अपने घर में एक छोटा सा गुरू-द्वारा भी तामीर किराया था और नए शहर से एक नेक सूरत, नेक तबीय्यत, नेक सीरत ग्रंथी को बुला कर उसे गाँव में सिक्ख मत के प्रचार के लिए मामूर कर दिया था।
लाला बंशी राम के सिक्ख बन जाने से गाँव में झटके और हलाल का सवाल पैदा हो गया था मुस्लमानों और सिक्खों के लिए तो गोया एक मज़हबी सवाल था लेकिन भेड़ बकरियों और मुर्गे-मुर्ग़ियों के लिए तो ज़िंदगी और मौत का सवाल था। लेकिन इन्सानों के नक्कार-ख़ाने में जानवरों की आवाज़ कौन सुनता है।
लाला बंशी राम के छोटे भाई का नाम था भगत राम ये वही शख़्स है जिसका अँगूठा मैंने बचपन में चबा डाला था किस तरह ये तो बाद में बताऊँगा। अभी तो उसका किरदार देखिए... यानी कि सख़्त लफंगा, आवारा, बदमाश था ये शख़्स। नाम था भगत राम लेकिन दरअसल ये आदमी राम का भगत नहीं, शैतान का भगत था। रंगपुर के गाँव में आवारगी, बदमाशी ही नहीं, ढिटाई और बेहयाई का नाम अगर ज़िंदा था तो महज़ भगत राम के वजूद से, वर्ना रंगपुर तो ऐसी शरीफ़ रूहों का गाँव था कि ग़ालिबन फ़रिश्तों को भी वहां आते हुए डर मालूम होता होगा।
नेकी और पाकीज़गी और इबादत का हल्का-हल्का सा नूर गोया हर ज़ी-नफ़स के चेहरे से छनता नज़र आता था। कभी कोई लड़ाई ना होती थी, क़र्ज़ा वक़्त पर वसूल हो जाता था। वर्ना ज़मीन क़ुर्क़ हो जाती थी। और लाला काशी राम फिर रुपया देकर अपने मक़रूज़ को फिर काम पर लगा देते थे। मुस्लमान बेचारे इतने कमज़ोर थे और तादाद में इस क़दर कम थे उनमें लड़ने की हिम्मत ना थी सब बैठे मस्जिदों के मिनारों और उसके कंगूरों को ख़ामोशी से ताका करते, क्योंकि गाँव में उन्हें अज़ान देने की भी मुमानअत थी।
कुमेरों और अछूतों का सारा धंदा दो जन्मे लोगों से वा-बस्ता था। और वो चूँ तक ना कर सकते थे उसके इलावा उन्हें ये एहसास भी ना था कि ज़िंदगी इसके इलावा कुछ और भी हो सकती है। बस जो है वो ठीक है, यही मुस्लमान समझते थे, यही ब्राह्मण, यही खत्री, यही चमार और सब मिलकर भगत राम को गालियाँ सुनाते थे क्योंकि उसकी कोई कल सीधी ना थी।
भगत राम लठ गँवार था। बात करने में अक्खड़, देखने में अक्खड़, कुंदा, ना-तराश, बड़े-बड़े हाथ पाँव, बड़े बड़े दाँत, बत्तीसी हर वक़्त खुली हुई, लबों से राल टपकती हुई। जब हँसता तो हंसी के साथ मसूड़ों की भी पूरी-पूरी नुमाइश होती। गाँव में हर शख़्स का सर घुटा हुआ था और हर हिंदू के सर पर चोटी थी। लेकिन भगत राम ने बलोचों की तरह लंबे-लंबे बाल बढ़ाए थे, और चोटी ग़ायब थी। बालों में बड़ी कसरत से जुएँ होतीं, जिन्हें वो अक्सर घर के बाहर बैठ कर चुना करता था। सरसों का तेल सर में दो तीन बार रचाया जाता, गले में फूलों के हार डाले जाते और बीच में से सीधी मांग निकाल कर और ज़ुल्फ़ें सँवार कर वो सर-ए-शाम गाँव के चश्मों का तवाफ़ किया करता। अपनी इन बुरी हरकतों से कई बार पिट चुका था लेकिन इसका उस पर कोई असर ना हुआ था। बड़ी मोटी खाल थी उसकी और फिर मेरा ख़्याल है कि उसके शऊर मैं ज़मीर की आग कभी रोशन ही न हुई थी। वो शरारा नापैद था जो हैवान को इन्सान बना देता है। भगत राम सौ फ़ीसदी हैवान था और इसी लिए गाँव वाले ब्रहमन और खत्री अमीर और ग़रीब, हिंदू और मुस्लमान, सुनार और चमार सब उससे नफ़रत करते थे।
लेकिन चूँकि लाला काशी राम का छोटा भाई था और बज़ाहिर गाँव के सबसे बड़े घर का एक मुअज़्ज़िज़ फ़र्द। इसलिए अपनी ना-पसंदीदगी के बावजूद गाँव के लोग उसके वजूद को और उसके वजूद की मज़बूही हरकात को बर्दाश्त करते थे, और आज तक करते चले आए थे। लेकिन जब हम रंगपुर में आए उस वक़्त भगत राम के बड़े भाई ने परेशान हो कर उसे अपने घर से निकाल दिया था। और तवे का एक घराट उसके सपुर्द कर दिया था जहाँ भगत राम काम करता था और वो रात को सोता भी वहीं था। क्योंकि घराट तो दिन रात चलता है ना जाने किस वक़्त किसे आटा पिसवाने की ज़रूरत दरपेश हो, और वो चादर में या भेड़ खाल में मकई या गंदुम के दाने डाले घराट पर चला आए। और फिर उसके इलावा ये भी तो है कि दिन-भर में गेहूँ जितना भी जमा होता है या जो अनाज अभी पिस नहीं जाता वो भी वहीं घराट पर धरा रहता है, और उसकी निगहबानी के लिए भी तो एक आदमी का वहाँ मौजूद होना ज़रूरी है। यही सोच कर लाला काशी राम ने अपने छोटे भाई भगत राम को अपने घराट का काम सौंप दिया और लाला काशी राम का घराट गाँव में सबसे नामी घराट था। यानी तक़रीबन सारे गाँव का अनाज वहीं पिसवाया जाता था एक और घराट भी था लेकिन वहाँ बि-उमूम मुस्लमानों, अछूतों, और कुमेरों के लिए अनाज पीसा जाता था। या जब कभी बड़ा घराट चलते-चलते रुक जाता और उसकी मुहीब चक्की काम करने से इनकार कर देती या जब पाटों की सतह पर पथरीले दंदाने बनाने के लिए उन्हें दिया जाता तो उस सूरत में दूसरे घराट वालों को चंद रोज़ के लिए अच्छी आमदनी हो जाती थी। ब-सूरत-ए-दीगर बड़े घराट पर ग्राहकों की भीड़ लगी रहती।
जब बड़ा घराट चलता था उस वक़्त किसी मुस्लमान, किसी कुमेरे, किसी अछूत की ये जुर्रत ना थी, जुरर्त तो क्या कभी उनके ज़हन में ये ख़्याल भी ना आया था कि उनका अनाज कभी बड़े घराट पर पिस सकता है।
शुरू-शुरू में जब भगत राम ने काम सँभाला तो उसने भी चंद रोज़ तक यही वतेरा इख़्तियार किया। लेकिन बाद में उसके मिज़ाज के ला-उबाली पन ने बल्कि यूं कहीए कि शैतान पन ने ज़ोर मारा और उसने सोचा... चलो जी क्या है। इसमें जो आए आटा पिसा कर ले जाये। इन फ़ित्र के दो पाटों में धरा ही क्या है और ये आख़िर अनाज ही तो है जिसे कुत्ता भी खाता है। इस से घराट की आमदनी में इज़ाफ़ा भी होगा और दूसरे घराट का हाल जो पहले ही बहुत पतला है और भी पतला हो जाएगा। और ऐन-मुमकिन है कि दूसरा घराट बिलकुल ही बंद हो जाये। जाने उसने क्या सोचा। ब-हर-हाल उसने कोई ऐसी ही बुरी बात सोची होगी जो उसने गाँव के चमारों और कुमेरों को भी अपने घराट पर से आटा पिसाने की दावत दी।
पहले तो लोगों ने बड़ी शद्द-ओ-मद से इनकार किया... भला ऐसा भी हो सकता है? क्या कहते हो लाला, हम रइय्यत हैं, तुम राजा हो, ये तुम्हारा घराट है, हमारा घराट वो है... “हम भला यहाँ आटा पिसाने क्यों आएं? ना बाबा ये काम हमसे ना होगा और जो चाहे हमसे काम ले लो पर हमसे नहीं होने का।”
लेकिन भगत राम ने आख़िर अपनी चालाकियों से उन बेचारों को फुसला ही लिया और उन्हें इस बात पर आमादा कर लिया कि वो अनाज उसी के घराट पर लाया करेंगे और वहीं पिसाया करेंगे।
भला ऐसी बात भी बिरादरी में छिपी रह सकती है। बिरादरी में एक कुहराम मच गया, चीमेगोइयां होने लगी, हर-रोज़ भगत राम से लड़ाई होने लगी, तगड़ा आदमी था इसलिए गालियाँ सह गया, हंस-हंस कर टालता गया। फिर उसने ग़ुस्सा में आ कर दो, चार को पीट दिया फिर एक दिन ख़ुद पीटा गया। ये मुआमला बढ़ते-बढ़ते लाला काशी राम के पास पहुंचा उन्होंने भगत राम को बुला कर डाँटा, समझाया बुझाया, ठंडे दिल से नरमी से पुचकार कर बातें की। ऊंच-नीच समझाई लेकिन जिसके दिल में कमीना पन हो वो धरम-करम की बात कब सुनेगा। भगत राम ने उस कान से निकाल दी। पहले जब भगत राम अपने घर पर रहता था उसके लिए थोड़ी-बहुत रोक-टोक भी थी। ये डर भी था कि बड़े भाई क्या कहेंगे लेकिन अब तो वो रात-दिन घराट पर रहता था। अब उसे वहाँ रोकने वाला कौन था अब वो ख़ुद कफ़ील था उन्ही दिनों वो भांग पीने लगा और एक मुस्लमान फ़क़ीर के हाँ आना जाना शुरू किया, जो इन दिनों अपनी बीवी और एक नौजवान लड़की के साथ नदी किनारे एक तकिए पर आकर ठहरा था।
जूँ-जूँ दिन गुज़रते गए भगत राम घराट के काम-काज से ग़ाफ़िल रहने लगा और दिन का बेशतर हिस्सा तकिए पर चरस गाँजा पीने में गुज़ारने लगा। भाई ने बहुतेरा समझाया ख़ुद गाँव के शरीफ़ मुस्लमानों ने उस पर नफ़रीं के आवाज़े कसे, लेकिन वो तो किसी और ही नशे में चूर था। चंद दिन और गुज़रने और फिर पता चला कि भगत राम ने नए शहर जा कर उस मुस्लमान फ़क़ीर की बेटी से निकाह कर लिया है और इस्लाम क़बूल कर लिया है। सारे गाँव में हलचल सी मच गई।
जब उन्होंने भगत राम को स्याह फुंदने वाली सुर्ख़-रंग की ऊंची टोपी पहने हुए देखा, फ़क़ीर तो ख़ैर डर के मारे फिर गाँव में घुसा ही नहीं और ये उसने अच्छा ही किया वर्ना लाला काशी राम और बंशी राम ज़रूर उससे बदला लेने की कोशिश करते लेकिन अपने भाई को अब वो क्या कह सकते थे जो अपनी बीवी को लेकर फिर गाँव में आ गया था और घराट में, अपने बड़े भाई के घराट में आकर बस गया था। दोनों मियाँ बीवी यहीं रहते थे और भगत राम अब बड़ा ख़ुश था और सफ़ेद लट्ठे की शलवार और स्याह चिकन की बास्कट जिस पर कई सौ घुंडीदार बटन लगे हुए थे। गाँव की गलियों में फ़ख़्रिया घूमता था और गाँव की बहू बेटीयों पर बिला इमतियाज़-ए-मज़हब-ओ-मिल्लत आवाज़े कसता था। ऐसा दस नंबर का बदमाश था वो कि जब मेरी माँ मुझे गाली दिया करती तो मेरे ख़साइल का मुक़ाबला भगत राम के औसाफ़-ए-हमीदा से किया करतीं और मैं हमेशा रो देता। भगत राम से मुझे सख़्त चिड़ थी एक तो उसने हमारा धरम छोड़ दिया था। भला ऐसे आदमी का क्या एतबार और भगत राम की शैतानियत देखो मुस्लमान होते ही उसने गाँव के मुस्लमानों को उकसाना शुरू किया कि वो मस्जिद में मिनारे पर चढ़ कर अज़ान दें लेकिन वो तो भला हो मुस्लमानों का, किसी ने उसकी बात नहीं मानी और डरते-डरते कहा कि गाँव में आज तक कभी ऐसा नहीं हुआ है। इस पर वो बदमाश बहुत हंसा और उसने ख़ुद वुज़ू कर के मस्जिद के मिनारे पर चढ़ कर अज़ान दी। और उसकी गूँजती, गरजती हुई आवाज़ वादी की चौ-हदी में, नदी किनारे नाशपातियों के झुण्ड में और दूर-दूर सनोबरों से ढकी हुई पहाड़ीयों की छातीयों में धमक पैदा करती हुई गूंज गई। और गाँव के ब्रहमन और खत्री का दिल एक ना-मालूम ख़ौफ़ से भर गया। “घोर कलजुग है, घोर कलजुग है ये... अब कोई दिन में ज़रूर कल्कि अवतार पैदा होंगे। हे राम... हे राम...” और लाला काशी राम ने ब्रह्मणों से मश्वरा कर के एक बहुत बड़ा यज्ञ किया और प्रायश्चित किया, और अपने छोटे भाई भगत राम को बिरादरी से ख़ारिज और जायदाद से बेदख़ल कर दिया। और पुराने घराट के पानी का बहाव मोड़ कर एक उम्दा सा घराट बनाया।
पुराना घराट जहाँ अब भगत राम और उसकी बीवी रहते थे। अब बड़ी ख़स्ता हालत में थे। गाहक कम होते-होते मादूम हो गए। मुस्लमानों के जो चंद घर बाक़ी रह गए थे उन्होंने भी मदद से हाथ खींच लिया क्योंकि गाँव की समाजी ज़िंदगी में भगत राम ने जा-ब-जा सुराख़ कर दिए थे और उसे कोई पसंद न करता था।
उन्ही दिनों भगत राम की बीवी के हाँ बच्चा होने वाला था। लोग कहते थे कि फ़कीरन ब्याह से पहले ही हामिला थी और वो फ़क़ीर भगत राम को जल देकर फ़रार हो गया था।
कोई कुछ कहता कोई कुछ, जितने मुँह इतनी बातें। हाँ ये बात ज़रूर सच्च थी कि भगत राम हर वक़्त अपनी बीवी की दिल-जूई में मसरूफ़ रहता। वो उसके लिए हर तरह की मेहनत और मशक़्क़त करने पर आमादा था। लेकिन गाँव में अब कोई उसे काम देने के लिए तैयार नहीं था। और ऐसे लोफ़र के लिए भला उस शरीफ़ गाँव में काम करने की क्या सबील हो सकती है।
मुझे वो रात नहीं भूलती जब भगत राम की बीवी के हाँ बच्चा होने वाला था। सुबह ही से भगत राम ने हमारे घर के चक्कर लगाने शुरू किए थे, मेरी माँ की मिन्नतें की थीं, और उसके पाँव पर अपना माथा टेक कर कहा था “तुम चलोगी माँ तो मेरी बीवी बच जाएगी। लेकिन मेरी माँ, जो बड़े-बड़े खत्री घरानों और ब्रह्मणों के घर में दाया बन कर जाती थी... भगत राम को टका सा जवाब दे दिया था।
आधी रात के वक़्त भगत राम ने चीख़-चीख़ कर दुहाई दी लेकिन हम लोगों ने दरवाज़ा नहीं खोला और मिस्ट मार कर सो रहे। दूसरे दिन पता चला कि भगत राम की बीवी ज़चगी में मर गई। बच्चा पैदा नहीं हो सका था। भगत राम बहुत रोया ज़ार-ओ-क़तार रोया, लेकिन वो कोई सच्चे आँसू थोड़े ही थे... किसी इन्सान के आँसू थोड़े ही थे... एक हैवान के आँसू थे। जो यूँ ही अपनी तकलीफ़ पर टिसवे बहा रहा हो क्योंकि चंद दिनों में ही वो उस फ़क़ीरनी को भूल गया था। अब उसने अपना मुस्लमानी नाम भी तर्क कर दिया था अब वो फिर अपने को ख़ुदाबख़्श नहीं, भगत राम कहता था और उसी तरह गाँव की गलीयों में चक्कर लगाता था। लेकिन शाबाश है हिंदुओं को, कि किसी ने उसे मुँह नहीं लगाया। उसके भाई भी उससे बात तक करने के रवादार नहीं हुए और भगत राम अपना सा मुँह लेकर रह गया।
चंद रोज़ के बाद भगत राम गाँव छोड़कर कहीं और चला गया। तीन चार महीनों के बाद जो लौटा तो उसके पास दो, तीन दर्जन साँप थे। और बहुत से छछूंदर और नेवले और ऐसे ही बहुत से जानवर। और एक पिंजरे में एक ख़ूबसूरत मैना भी थी जो बहुत अच्छा गाती थी। मैं घंटों उस मैना के पिंजरे के क़रीब जाकर गाना सुना करता था। गाँव के बहुत से लड़के मेरे साथ भगत राम के पास आया करते और अब भगत राम के पास बहुत सी जड़ी बूटीयाँ थीं जिनके मुताल्लिक़ वो कहता था कि दुनिया की हर बीमारी को यूँ चुटकी में दूर कर सकती हैं। आहिस्ता-आहिस्ता लोग उसकी तरफ़ खिंचने लगे और उसे अच्छी ख़ासी आमदनी होने लगी मेरी माँ को जो गाँव की मशहूर दाया थीं और औरतों के हर रोग का ईलाज जानती थीं भगत राम का ये बहरूप बहुत बुरा मालूम हुआ मगर वो अब क्या कर सकती थीं। हाँ जब कभी उन दोनों की मुड़भेड़ हो जाती, वो उसे ख़ूब खरी-खरी सुनातीं। भगत राम ये सलवातें सुनकर हंस देता या अपना सर खुजाने लगता, और फिर एक ज़ोर का क़हक़हा लगा कर आगे चल देता। परले दर्जे का छटा हुआ बदमाश था वो, होते-होते ये हुआ कि... भगत राम की जड़ी बूटियों की धाक सारे गाँव में बंध गई। फिर क़रब ओ ज्वार के पड़ोसी उसके पास आने लगे। अब उसने गाँव के छोटे से बाज़ार में एक चमार की आधी दुकान किराए पर ले ली और वहाँ बैठ कर दवाईयाँ बेचने लगा।
आधी दुकान में मौलू चमार जूतीयाँ बनता था। मौलू चमार और उसकी बीवी और उसकी बेवा बहन राम दुई, बस ये तीनों अफ़राद हर वक़्त जब देखो जूतीयाँ सीते रहते थे। दुकान के दूसरे हिस्से में भगत राम नए ग्राहकों को फांसता था और साँपों का तमाशा दिखाता था और अपनी ज़बान को साँपों से डसवाता था। और ख़ुद संख्या खा कर बताता था कि उस पर ज़हर का कोई असर नहीं होता क्योंकि उसके पास ऐसी तेज़-ब-हदफ़ बूटीयाँ थीं जो क़ातिल से क़ातिल ज़हर के लिए तिरयाक़ का हुक्म रखती हैं। ग़रज़ इसी किस्म की झूटी गप्पें हाँक कर शेख़ियाँ बघार कर वो उजड्ड, गँवार और भोले-भाले देहातियों से टके बटोरता था और मेरी माँ को उसकी बातें सुन सुनकर बहुत ग़ुस्सा आता था। लेकिन हम लोग उसका कुछ बिगाड़ न सकते थे। क्योंकि लोगों को उस पर एतिक़ाद सा हो गया था और अब उसकी जेब में रुपय भी थे। उसने गाँव से बाहर नदी के उस पार मिट्टी का एक कच्चा सा घर भी बना लिया था। जहाँ वो फ़ुर्सत के वक़्त अपना छोटा सा बाग़ीचा बनाने में मसरूफ़ होता। मुझे भगत राम से बड़ी नफ़रत थी और मैं कभी उसके घर न जाता था लेकिन अब वो उस ख़ूबसूरत मैना को जो दुकान के बाहर लटके हुए पिंजरे में गाती रहती थी। अपने घर ले गया था इसलिए में कभी-कभी उसके घर महज़ अपनी मैना को देखने के लिए चला जाया करता। ख़ैरीयत हुई, उसने मुझे टोका नहीं वर्ना मेरा इरादा तो ये था कि अगर उसने मुझे टोका तो गोयपे मैं ढेला रखकर भगत राम का सर फोड़ दूँगा।
भगत राम का काम अब तरक़्क़ी पर था लेकिन उन्ही दिनों उसने एक ऐसी हरकत की कि गाँव के लोग फिर उससे बदज़न हो गए और इस वाक़ए के बाद गाँव में और क़ुरब-ओ-जुवार के गाँव में कभी उसकी साख नहीं बंधी। वाक़िया दरअस्ल ये था कि राम दुई जो कि मौलू चमार की बेवा बहन थी। लाला बंशी राम ने दर-पर्दा भगत राम को कहला भेजा था कि वो कोई ऐसी दवाई दे जिससे राम दुई का हमल इस्क़ात हो जाए लेकिन भगत राम तो एक छटा हुआ बदमाश था। वो भला ऐसे मौके़ पर किसी शरीफ़ आदमी की क्योंकर मदद करता। चुनाँचे उसने साफ़ इनकार कर दिया। उल्टा उसने इस मुआमले की यहाँ तक तशहीर की कि लाला बंशी राम को चंद माह के लिए गाँव छोड़ कर नए शहर जाना पड़ा और राम दुई के लिए मुँह छुपाना मुश्किल हो गया। ये वाक़िया अब इस क़दर मशहूर हो चुका था कि जब लाला बंशी राम के बड़े भाई काशी राम ने मेरी माँ को जो उनकी ख़ानदानी दाया थी इस नाज़ुक मुआमले को अपने हाथ में लेने के लिए कहा तो उन्होंने भी साफ़ इनकार कर दिया। नतीजा ये हुआ कि बे-चारी राम दुई नौ महीने उस हरामी बेटे को अपने पेट में लिए लिए फिरी और गाँव भर में उसकी बेइज़्ज़ती हुई और हरामी बच्चा उसने अलग जना। इस पर उसकी बिरादरी ने उसे जात बाहर कर दिया। और उसके भाई ने और उसकी बीवी ने उसे घर से बाहर निकाल दिया। उस हालत में जब उस का कोई यार-ओ-मददगार ना था और जब वो कई दिन दरबदर की ठोकरें खाती रही थी और अपने बच्चे को दूध देने के लिए ख़ुद उसकी छातीयों में दूध ना रहा था। वो भगत राम के घर पहुंची वो बदमाश तो जैसे उसके इंतिज़ार में ही था, उसने झट उसे अपने घर में रख लिया और बग़ैर शादी ब्याह किए यूंही वो लोग हंसी ख़ुशी रहने लगे। गाँव में इससे पहले कभी ऐसा ना हुआ था। ये अंधेर-गर्दी, ये बे-राह-रवी... बेशरमी, बे-हयाई अपनी आँखों से तो देखी ना जा सकती थी नतीजा ये हुआ कि भगत राम की दुकान उठवा दी गई और उसे अच्छी तरह जता दिया कि इस वाक़ए के बाद अगर वो कभी गाँव का रुख करेगा तो अपनी जान से हाथ धो बैठेगा।
भगत राम अब अपने घर ही में रहता था और बाग़ीचे और घर के आस-पास जो उसने थोड़ी सी ज़मीन मोल ली थी, उसमें काशतकरी कर के अपना और राम दुई और उसके हरामी बच्चे का पेट पालता था।
बाज़ लोगों का ख़्याल है कि वो बड़ी उदास ज़िंदगी बसर करता होगा। ये ख़्याल बिलकुल ग़लत है। जैसे पक्के घड़े पर पानी का कोई असर नहीं होता उसी तरह इन तमाम वाक़आत ने भगत राम की फ़ितरत पर कोई असर नहीं किया। उसकी सरिश्त में कोई भी तब्दीली वाक़ेअ नहीं हुई। उसे ये एहसास ही नहीं था कि उसने अपने तर्ज़-ए-अमल से अपने माँ-बाप, अपने ख़ानदान, अपने गाँव की इज़्ज़त को पट्टा लगाया है। वो उसी तरह ख़ुश-ओ-ख़ुर्रम और शादाँ-ओ-फ़रहाँ नज़र आता था कि जैसे कभी कुछ हुआ ही नहीं था। जैसे वो अब भी गाँव के अंदर अपने भाई के ख़ूबसूरत घर में रहता हो जिसकी छत टीन की थी। मैंने एक दिन उसे उसके घर में दोपहर के वक़्त देखा था। वो आँगन में एक चारपाई पर लेटा हुआ था। और राम दुई को चूम रहा था मैंने उससे पहले किसी मर्द और औरत को चूमते हुए नहीं देखा था। इसलिए ये मंज़र देखकर मैं तो एक दम भौंचक्का रह गया और मेरे कानों में एक दम मेरी माँ के अल्फ़ाज़ गूंज गए।
“कभी भी भूल कर भगत राम के घर का रुख ना करना वो बड़ा ही बदमाश है।” मेरी माँ ने सच कहा था भला शरीफ़ लोग कहीं ऐसे होते हैं। ग़म-ओ-ग़ुस्से से मेरी आँखों में आँसूं भर आए। मैं वापस जाने को था कि मैना ने मुझे देख लिया और जल्दी से चिल्लाने लगी। “आओ नन्हे मुन्ने बालक मिठाई दूंगी। आओ आओ नन्हे मुन्ने बालक मिठाई दूंगी।” मैना की आवाज़ सुनकर भगत राम जल्दी से उठा और मेरी तरफ़ बढ़ा शायद वो मुझे पकड़ना चाहता था। बदमाश मैं तेरे क़ाबू में आसानी से नहीं आऊँगा। ख़ूनी, डाकू, में रोता हुआ आगे भागा। पीछे-पीछे भगत राम दौड़ता हुआ आ रहा था। “बात सुन, बेटे, बात सुन बेटे।” पर में ऐसा बेवक़ूफ़ ना था कि रुक जाता में भागता गया। यकायक उसने मुझे गर्दन से पकड़ लिया और मैंने किटकिटा कर उसके अंगूठे को अपने दाँतों तले दबा लिया और इतने ज़ोर से काटा कि वो दर्द की शिद्दत से चीख़ उठा मगर उसने मुझे तमांचे नहीं मारे, कुछ नहीं किया लेकिन मुझे छोड़ा भी नहीं। वो मुझे अपने घर के अंदर आँगन में ले गया मुझे गर्दन से पकड़े हुए था कम्बख़्त। मैं अब भाग भी ना सकता था। उसने राम दुई की तरफ़ इशारा करके कहा।
“ये तुम्हारी मौसी हैं इन्हें राम-राम कहो।”
मैंने कहा, “मौसी तुम्हारी होगी, मैं उन्हें राम-राम नहीं कहूँगा।”
उसने हंसकर कहा। “देखो ये तुम्हारा छोटा भाई है मनु, उसके साथ खेलो।”
मैंने कहा, “में इसके साथ नहीं खेलूंगा, मेरी माँ कहती हैं, राम दुई का बच्चा हरामी है। हरामी है ये बच्चा।”
राम दुई ने बच्चे को अपनी छाती से चिमटा लिया । भगत राम खिल-खिला कर हंस पड़ा और उसके बदसूरत करीहा दाँत और मसूड़े होंटों के बाहर निकल आए कहने लगा। “सेब खाओगे? सेब खाओगे? अलूचे? हा हा हा... हा हा...” मैंने सर हिला कर इनकार कर दिया।”
उसने ज़बरदस्ती बहुत से सेब और अलूचे मेरी जेबों में ठूंस दीए फिर मुस्कुरा कर बोला। “ये मैना तुम्हें अच्छी लगती है न, ले जाओ उसे।”
वो पिंजरा उतार कर मेरे हवाले करने लगा।
मैंने कहा, “कोई थूकता भी है इस तुम्हारी मैना पर, मेरी माँ कहती है कि भगत राम आदमी नहीं हैवान है, वो तो चमार से भी बदतर है, छोड़ो मुझे, मुझे नहीं चाहिए तुम्हारी मैना वैना।”
उसने हंसकर मुझे छोड़ दिया, कहने लगा, “तो अब भाग जाओ।”
उस बदमाश के नीचे से निकल कर जो मैं भगा हूँ तो सीधा घर आकर दम लिया। घर आकर माँ को जो मैंने सारा क़िस्सा सुनाया तो पहले तो मुझ पर बहुत बिगड़ीं फिर भगत राम को उन्होंने ख़ूब-ख़ूब कोसा और सारे सेब और अलूचे उठा कर गली में फेंक दिए।
उसके बाद में कभी भगत राम के घर नहीं गया। चंद महीनों के बाद जब लाला बंशी राम नए शहर से लौटा तो उसने मौलू चमार से कह कर भगत राम पर बदचलनी और अग़वा का मुक़द्दमा दायर करा दिया। छः सात महीने भगत राम जेल में रहा। आख़िर-ए-कार वो बरी हो गया लेकिन जेल में रह कर उसकी सेहत काफ़ी कमज़ोर हो गई थी, और अब वो जेल से छूट कर आया तो लोग कहते थे कि उसके चेहरे पर वो पहली सी बशाशत ना थी। न वो अब पहले की तरह सीना तान कर चलता था। कुछ झुका-झुका सा था, कुछ उदास लेकिन ये कैफ़ीयत भी चंद रोज़ तक रही फिर वो उसी तरह बेशर्म, बे-हया और ढीट बन कर इधर-उधर घूमने लगा। और गाँव-गाँव जा कर अपनी जड़ी बूटियों की तिजारत करने लगा। लेकिन शरीफ़ लोग उसे मुँह नहीं लगाते थे और उसके सॉए से परहेज़ करते थे। हिंदू, मुस्लमान, कुमेरे हर मज़हब और हर जात के लोग उसे आवारा और शोहदा समझते थे और हमारे गाँव में तो उसकी बुराई ज़र्ब-उल-मस्ल बन चुकी थी और माएं हमें दर्स-ए-अख़लाक़ देते वक़्त कहा करती थीं, “देखो जी कोई बुरा काम करोगे तो तुम्हारा भी वही हाल होगा, जो भगत राम का हुआ।”
जैसी बे-मानी, बे-मतलब उसकी ज़िंदगी थी, वैसी ही उसकी मौत थी, बिलकुल मुहमल, ला-यानी।
मैंने उसे मरते हुए नहीं देखा लेकिन जिन लोगों ने उसे मरते हुए देखा है वो भी उसके पागलपन पर आज तक हंसते हैं। कहते हैं मरने से पहले वो हश्शाश बश्शाश था। नदी के किनारे राम दुई के साथ खड़ा था, और उन तूफ़ानी लहरों का तमाशा देख रहा था जो बरसती बारिश की वजह से नदी की सत्ह को गिर्दाब-ए-फ़ना बनाए हुए थीं। यकायक उसने अपने किनारे के क़रीब भेड़ के तीन चार बच्चों को देखा जो उन हलाकत आफ़रीं लहरों की गोद में ख़ौफ़ज़दा आवाज़ में बा आ बा आ कहते हुए बहते चले आ रहे थे। एक लम्हे के लिये भगत राम ने उनकी तरफ़ देखा दूसरे लम्हे में वो नदी की तूफ़ानी लहरों की आग़ोश में था और भेड़ के बच्चों को बचाने की सई कर रहा था। उसी कोशिश में उसने अपनी जान दे दी। दूसरे दिन जब तूफ़ान थम गया तो उसकी लाश नदी के मग़रिबी मोड़ पर तुंग के एक तने से लिपटी हुई पाई गई जिसका आधा हिस्सा पानी में डूबा हुआ था। कैसी जाहिलाना, अहमक़ाना, बेवकूफ़ाना मौत थी। ये हैवानी ज़िंदगी की हैवानी मौत, हुस्न-ए-तरतीब, हुस्न-ए-तवाज़ुन से आरी, भला ऐसी मौत में भी कोई तुक है... लेकिन उसके अच्छे भाईयों ने अच्छा क्या, उसे माफ़ कर दिया, और गो वो बिरादरी से ख़ारिज हो चुका था। और अब वो ना हिंदू रहा था न मुस्लमान ना अछूत फिर भी उन्होंने अपने धरम के मुताबिक़ उससे अच्छा सुलूक किया। वो उसकी लाश को घर ले गए, उसे नहलाया धुलाया और अपने रस्म-ओ-रिवाज के मुताबिक़ इसे श्मशान घाट ले जा कर आग लगा दी मैं उस वक़्त वहीं मौजूद था...
लेकिन ये १९२० की बात है। आज १९२४ है और मेरे नन्हे बेटे ने मेरी छंगुलिया को ज़ोर से काट खाया है और मैंने ग़ुस्से में आकर उसे दो, तीन तमांचे जड़ दीए हैं और मासूम बच्चा सोफ़े में मुँह छुपाए रो रहा है, और मैं सोचता हूँ, आज मैं ये सोचता हूँ कि भगत राम तुम जो दस नंबर के बदमाश थे और तुम्हारा कोई मज़हब ना था, तुम जो एक गँवार, उजड्ड, झूटे पंसारी थे और जुड़ी बूटीयां बेचते थे, और लोगों को ठगते थे, और उनसे रुपया बटोरते थे, और एक मुस्लमान फ़क़ीरनी से निकाह किए हुए थे, और एक अछूत बेवा से झूट-मूट का ब्याह रचाए हुए थे। भगत राम तुम तो जेल की हवा खा चुके थे। गाँव भर के माने हुए लफ़ंगे और गुंडे थे... तुम जिससे लोग नफ़रत करते थे। और शायद आज मैं ये सोचता हूँ भगत राम शायद मैंने तुम्हें पहचाना नहीं, शायद मैंने तुम्हें पहचानने में ग़लती की, शायद इन तमाम बड़े आदमीयों से बड़े हो, अच्छे हो, बेहतर हो, जो रेलें बनाते हैं, और लोगों को भूका मर जाने देते हैं, जो ऊँची-ऊँची इमारतें बनाते और ख़ुदा की मख़लूक़ को गलीयों में नंगा फिरने पर मजबूर करते हैं। जो नादार औरतों से उनकी इस्मत छीन कर इस्मत परस्त बनते हैं। जो अपनी वक़्ती बीवियों के लिए क़हबा ख़ाने और अपनी औलाद के लिए यतीम-ख़ाने तामीर करते हैं और समाज के समुंद्र में बैठ कर उन पर लानत भेजते हैं। हाँ तुम इन सब आदमीयों से बड़े हो जो ट्रैक्टर, हवाई जहाज़, स्कूल, मशीन गन, थियेटर, सिनेमा, एम्पायर, बिल्डिंग, नाच घर, नबक़, यूनीवर्सिटी, सलतनत तख़्त-ए-ताऊस, कुतबे, उपनिशद, फ़लसफ़ा, ज़बान, और अदब की तख़लीक़ करते हैं और आदमी की नस्ल को कायनात की तारीकी में हमेशा-हमेशा के लिए हैरान-ओ-परेशान छोड़ देते हैं। तुम इन सब आदमीयों से बड़े हो, अच्छे हो । भगत राम क्योंकि तुम पंसारी हो, जड़ी बूटी फ़रोख़्त करते हो, आवारा मिज़ाज हो, नहीं-नहीं तुम सच-मुच शायर हो, भगत राम, तुम वो शायर हो जो हर सदी में, हर बरस में, हर जगह हर गाँव में पैदा होता है। लेकिन लोग अच्छे लोग, नेक लोग, बड़े लोग उसे समझने से इनकार कर देते हैं तुम वो शायर हो दोस्त, आओ हाथ मिलाओ।
लेकिन भगत राम अब मुझसे हाथ नहीं मिला सकता क्योंकि वो मुर्दा हो चुका है। १९२०ए- की तुग़्यानी में भेड़ के बच्चों को बचाते हुए मर गया था। और वहीं नदी के किनारे उसकी चिता जलाई गई थी और कोई उसकी मौत पर रोया ना था और उसकी चिता से शोले बुलंद हो कर आसमान की तरफ़ बढ़ रहे थे। लाल-लाल शोले, शोलों के पत्ते, शोलों की कलियाँ, शोलों के फूल से खिल रहे थे। और चिता जल रही थी और किसी की आँख में आँसू ना थे और क़ुदरत भी उदास न थी। आसमान साफ़ था, नीला गहरा, ख़ूबसूरत धूप थी, साफ़ थी, खुली हुई चमकदार, नर्म-गर्म और कहीं-कहीं बादलों के सपीद-सपीद सुबुक इंदाम, राज हंस तैर रहे थे, और नदी का पानी गीत गाता हुआ, भंवर बनाता हुआ, लहरों के जाल बुनता हुआ उस की चिता के क़रीब से गुज़र रहा था। और चिता के पास ही खट्टे अनारों के झुण्ड में शोला-ब-दामाँ फूल दमक रहे,। कायनात ख़ुश थी, ख़ुदा ख़ुश था, ख़ुद शायर ख़ुश था, क्योंकि आज उसका दिल शोला बन गया था और उसकी रूह फूल। ये शोले जो तुम्हारे दिल में हैं, ये फूल जो हर जगह हैं, जो तुम्हारे अन्दर हैं और मेरे अंदर हैं, और फिर अंदर, और बाहर, सब जगह, हर जगह और कायनात और शायर और आदमी एक हो गए थे। ऐसी मौत किसे नसीब होती है, भगत राम...
Additional information available
Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.
About this sher
Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.
rare Unpublished content
This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.