जिला-वतन
स्टोरीलाइन
यह साझा संस्कृति की त्रासदी की कहानी है। उस साझा संस्कृति की जिसे इस महाद्वीप में रहने-बसने वालों के सदियों के मेलजोल और एकता का प्रसाद माना जाता है। इस कहानी में रिश्तों के टूटने, खानदानों के बिखरने और अतीत के उत्कृष्ट मानवीय मूल्यों के चूर-चूर हो जाने की त्रासदी प्रस्तुत की गई है।
सुंदर लाला। सजे दुलाला। नाचे सिरी हरी कीर्तन में...
नाचे सिरी हरी कीर्तन में...
नाचे...
चौखट पर उकड़ूँ बैठी राम-रखी निहायत इन्हिमाक से चावल साफ़ कर रही थी। उसके गाने की आवाज़ देर तक नीचे ग़मों वाली सुनसान गली में गूँजा की। फिर डॉक्टर आफ़ताब राय सद्र-ए-आ'ला के चबूतरे की ओर से बड़े फाटक की सिम्त आते दिखलाई पड़े।
“बंदगी भय्यन साहेब…”, राम-रखी ने घूँघट और ज़ियादा तवील करके आवाज़ लगाई।
“बंदगी... बंदगी…”, डॉक्टर आफ़ताब राय ने ज़ीने पर पहुँचते हुए बे-ख़याली से जवाब दिया।
“राजी-खुसी हो भय्यन साहेब…”, राम-रखी ने अख़्लाक़न दरयाफ़्त किया।
“और क्या... मुझे क्या हुआ है जो राज़ी-ख़ुशी न हूँगा। ये सूप हटा बीच में से”, उन्होंने झुँझला कर कहा।
“भय्यन साहेब नाज फटक रही थी।”
“तो नाज फटकने के लिए तुझे गाड़ी भर रास्ता चाहिए। चल हटा सब चीज़...”
डॉक्टर आफ़ताब राय ने दुनिया-भर की डिग्रियाँ तो ले डाली थीं। लेकिन हालत ये थी कि ज़री-ज़री सी बात पर बच्चों की तरह ख़फ़ा हो जाया करते थे। राम-रखी पर बरसते हुए वो ऊपर आए और मूँढे पर पैर टिका कर उन्होंने अपनी बहन को आवाज़ दी... जी जी... जी-ई-ई... जी-ई-ई-ई... (छोरा है अब तलक मोरा भय्यन... हेम-किरन प्यार से कहा करतीं)
दालान के आगे खुली छत पर नीम की डालियाँ मुंडेर पर झुकी पछुवा हवा में सरसरा रही थीं। शाम की गहरी कैफ़ीयत मौसम की उदासी के साथ-साथ सारे में बिखरी थी। दिन भर नीचे महुवा के बाग़ में शहद की मक्खियाँ भिनभिनाया करतीं। और हर चीज़ पर ग़ुनूदगी ऐसी छाई रहती। आम अब पीले हो चले थे। “ठकुराइन की बगिया” में सुबह से लेकर रात गए तक रूँ-रूँ करता रहट चला करता।
“आवत हिन भय्यन साहेब...” हेम-किरन ने दालान का पीतल के नक़्श-ओ-निगार वाला किवाड़ खोलते हुए ग़ल्ले के गोदाम में से बाहर आकर जवाब दिया और कुंजियों का गुच्छा सारी के पल्लू में बाँध कर छन से पुश्त पर फेंकती हुई सहंची में आ गईं।
“जय राम जी की भय्यन साहेब…”, रसोइये, ने चौके में से आवाज़ लगाई... “कटहल की तरकारी खय्यौ भय्यन साहिब...?”
“हाँ। हाँ ज़रूर खैबा भाई…”, डॉक्टर आफ़ताब राय मूँढे पर से हट कर टहलते हुए तुलसी के चबूतरे के पास आ गए।
सहंची में रंग-बिरंगी मूर्तियाँ और गोल पत्थर सालग-राम से लेकर बजरंग बली महराज तक सेंदूर से लिपी-पुती और गंगा जल से नहाई-धोई क़रीने से सजी थीं। हेम-किरन थीं तो बड़ी सख़्त राम भगत लेकिन बाक़ी के सभी देवी देवताओं से समझौता रखती थीं कि न जाने कौन किस समय आड़े आ जाए। सब से बनाए रखनी चाहिए। अभी सरीन रमाकांत खेल के मैदान से लौटेंगे। आठ बजे खेमा कत्थक के तोड़े सीख कर जमुना महराज के हाँ से वापिस आएगी। फिर चौके में खाना परोसा जाएगा। (पीतल के बर्तन ठंडी चाँदनी में झिलमिलाएँगे। नीचे आँगन में राम-रखी कोई कजरी शुरू’ कर देगी) यहाँ पर बिल-आख़िर अम्न था और सुकून।
अब खेम नीचे पक्के गलियारे में से चलती हुई ऊपर आ रही थी (ठकुराइन की बगिया में से अभी उसने करौंदे और कमरखें और मकोह तोड़ कर जल्दी-जल्दी मुँह में ठूँसे थे। धाकर दाधी नाकत ता... धाकर दा... अरे बाप रे! उसने मुंडेर पर से ऊपर झाँक कर दमयंती से कहा…, “मामा आए हैं। भाग जा वर्ना मामा मुझे मारेंगे कि हर समय खेलती है।” दमयंती भाग गई।
खेम छत पर आई। लंबे से ढीले ढाले फ़्राक में मलबूस, जिस पर मोतियों से ख़ूब तितलियाँ और फूल-पत्ते बने थे, ख़ूब खींच कर बालों की मेंढियां गूँधे, हाथों में छन-छन चूड़ियाँ बजाती खेमवती राय-ज़ादा अपने इतने प्यारे और इतने सुंदर मामा को देखकर बेहद ख़ुश हुई।
“नमस्ते मामा...अभी किताबें लाती हूँ बस ज़रा मुँह हाथ धो आऊँ...”
“चल चुड़ैल... बहाने-बाज़... सबक़ सुना पहले…”, डॉक्टर आफ़ताब राय ने प्यार से कहा (लेकिन ये कुछ तजुर्बा उन्हें था कि अपने से कम-उ'म्र लोगों से और कुन्बे बिरादरी वालों से ये घर गृहस्ती और लाड प्यार के मकालमे वो ज़ियादा कामयाबी से अदा न कर पाते थे)
“तुझे तो मैं इंटरमीडिएट में भी हिसाब दिलाऊँगा। देखती जा…”
(उन्होंने फिर मामा बनने की सई की।)
“अरे बाप रे…”, खेम ने मस्नूई ख़ौफ़ का इज़हार किया।
“और तू ने चूड़ियाँ तो बड़ी ख़ूबसूरत ख़रीदी हैं री...”
“ही ही ही... मामा..”, खेम ने दिली मसर्रत से अपनी चूड़ियों को देखा।
“और तू सारी भी तो पहना कर कि फ़्रॉक ही पहने फिरेगी... बावली सी...” (उन्होंने अपनी बुजु़र्गी का एहसास ख़ुद अपने ऊपर तारी करना चाहा।)
“जी मामा…”, खेम के ज़हन में वो सारियाँ झमाझम करती कौंद गईं जो माँ के संदूक़ों में ठुँसी थीं। वो तो ख़ुदा से चाहती थी कि कल की पहनती आज ही वो सारियाँ पहन डाले। मगर हेम-किरन ही पर अंग्रेज़ियत सवार थी। एक तो वो ये नहीं भूली थीं कि थीं तो वो जौनपूर के उस ठेठ, दक़ियानूसी सरिउस्तवा घराने की बिटया... पर उनका ब्याह हुआ था इलाहाबाद के इतने फ़ैशनेबुल कुन्बे में जिसके सारे अफ़राद सिविल लाईन्ज़ में रहते थे। और जूते पहने-पहने खाना खाते थे। और मुसलमानों के साथ बैठ कर चाय-पानी पीते थे। और विधवा हुए उनको अब सात बरस होने को आए थे और तब से वो मैके ही में रहती थीं। लेकिन महल्ले पर उनका रो'ब था। क्योंकि वो इलाहाबाद के राय-ज़ादों की बहू थीं...
दूसरे ये कि ये फ़्रॉक का फ़ैशन डॉक्टर सेन गुप्ता के हाँ से चला था। डॉक्टर सेन गुप्ता ज़िले के सिविल हस्पताल के अस्सिटेंट सर्जन थे। और हस्पताल से मुलहक़ उनके पीले रंग के उजाड़ से मकान के सामने उनकी पाँचों बेटियाँ रंग-बिरंगे फ़्रॉक पहने दिन-भर ऊधम मचाया करतीं।
शाम होती तो आगे आगे डॉक्टर सेन गुप्ता धोती का पल्ला निहायत नफ़ासत से एक उँगली में सँभाले, ज़रा पीछे उनकी बीबी सुर्ख़ किनारे वाली सफ़ेद सारी पहने, फिर पाँचों की पाँचों लड़कियाँ सीधे-सीधे बाल कंधों पर बिखराए चली जा रही हैं, हवा-ख़ोरी करने। ओफ़्फ़ोह। क्या ठिकाना था भला। बस हर बंगाली घराने में ये लड़कियों की फ़ौज देख लो।
हेम-किरन को डॉक्टर सेन गुप्ता से बड़ी हम-दर्दी थी। खेम की इन सबसे बहुत घुटती थी। ख़ुसूसन मुंडेरा से, और स्कूल के ड्रामे के दिनों में तो बस खेम और मुंदेरा ही सब पर छाई रहतीं। क्या-क्या ड्रामे महादेवी कन्या पाठशाला ने ना कर डाले... ‘नल-दमयंती’ और ‘शकुन्तला हरीश चंद्र’, और ‘राज रानी मेरा...’ और ऊपर से डांस अलग... गुर्बा भी हो रहा है कि आर तेरे गंगा पार जमुना बीच में ठाड़े हैं नंद लाल... और आपका ख़ुदा भला करे राधा कृष्णा डाँस भी लीजिए कि मैं तो गिरिधर आगे नाचूँगी।
जी हाँ और वो गगरी वाला नाच भी मौजूद है कि चलो-चलो सुखी सुखियारी री चलो पनघट भरवा पानी... और साथ-साथ मुंदेरा सेन गुप्ता है कि फ़र्राटे से हार्मोनियम बजा रही है।
ऐसे होने को तो मुसलमानों का भी एक स्कूल था। अंजुमन-ए-इस्लाम गर्ल्ज़ स्कूल। वहाँ ये सब ठाठ कहाँ। बस बारह वफ़ात की बारह वफ़ात मीलाद शरीफ़ हो जाया करता। उसमें खड़े हो कर लड़कियों ने ख़ासी बे-सुरी आवाज़ों में पढ़ दिया, “तुम ही फ़ख़्र-ए-अंबिया हो । या-नबी सलाम अलैका... चलिए क़िस्सा ख़त्म” एक मर्तबा एक सर-फिरी हेड मिस्ट्रेस ने जो नई-नई लखनऊ से आई थी। ‘रूप-मति बहादुर’ ख़्वातीन के सालाना जल्से में स्टेज करवा दिया तो जनाब-ए-आली लोगों ने स्कूल के फाटक पर पिकटिंग कर डाली। और रोज़नामा सदा-ए-हक़ ने पहले सफ़्हे पर जली हुरूफ़ में शाए' किया,
“मिल्लत-ए-इस्लामिया की ग़ैरत का जनाज़ा...
गर्ल्ज़ स्कूल के स्टेज पर निकल गया।’’
मुसलमानो तुमको ख़ुदा के आगे भी जवाब देना होगा, बनात-ए-इस्लाम को रक़्स-ओ-सुरूद की ता'लीम। स्कूल को बंद करो।
(ये सब क़िस्से खेम की मुसलमान सहेली किशोरी उसे सुनाया करती थी जो पड़ोस में रहती थी। सद्र-ए-आ'ला के चबूतरे के आगे वाले मकान में वो इस्लामिया गर्ल्ज़ स्कूल में पढ़ती थी। उसका बड़ा भाई असग़र अब्बास, सरीन और रमाकांत के साथ हॉकी खेलने आया करता था। वैसे पढ़ते वो लोग भी अलग-अलग थे। सरीन और रमाकांत डी.ए.वी. कॉलेज में थे। असग़र अब्बास फ़ैज़-ए-इस्लाम किंग जॉर्ज इंटर में।)
“क्यों री। एफ़.ए. करने कहाँ जाएगी। जुलाई आ रही है। बनारस जाएगी या लखनऊ...?” डॉक्टर आफ़ताब राय ने चौके में बैठते हुए सवाल किया।
अब ये एक ऐसा टेढ़ा और अचानक सवाल था जिसका जवाब देने के लिए खेमवती हरगिज़ तैयार न थी। दोनों जगहों से मुतअ'ल्लिक़ उसे काफ़ी इन्फ़ार्मेशन हासिल थी। लेकिन दो टूक फ़ैसला वो फ़िलहाल किसी एक के हक़ में ना कर सकती थी। बनारस में एक तो ये कि चूड़ियाँ बहुत उ'म्दा मिलती थीं। लेकिन लखनऊ को भी बहुत सी बातों में फ़ौक़ियत हासिल थी। मसलन सिनेमा थे। और दस सिनेमाओं का एक सिनेमा तो ख़ुद महिला विद्यालय था। जहाँ उसे भेजने का तज़किरा मामा ने किया था। पर्दा ग़ालिबन उसे ब-हर सूरत हर जगह करना था। ताँगे पर पर्दा यहाँ भी हेम-किरन अपने और इसके लिए बँधवाती थीं। और मामा जो इतना बड़ा डंडा लिए सर पर थे।
ये मामा उसके आज तक पल्ले न पड़े। विलायत से अन-गिनत डिग्रियाँ ले आए थे। यूनीवर्सिटी में प्रोफ़ेस्री करते थे। तारीख़ पर किताबें लिखते थे। फ़ारसी में शे'र कहते थे। चूँ-चूँ का मुरब्बा थे खेम मामा।
रहे रमाकांत और सरीन। तो रमाकांत तो शाइ'र आदमी था। सारे मक़ामी मुशाइरों में जाकर दो ग़ज़ले सेह ग़ज़ले पढ़ डालता। और हज़रत नाशाद जौनपूरी के नाम-ए-नामी से याद किया जाता। सरीन उसके बर-अ'क्स बिल्कुल इंजीनियर था। इस साल वो भी इंटर कर के बनारस इंजीनियरिंग कॉलेज चला जाएगा। बाक़ी के सारे कुंबे बिरादरी के बहन-भाई यूँही बकवास थे। इस सिलसिले में उसकी गवय्याँ किशोरी या'नी किशोर-आरा बेगम के बड़े ठाठ थे। उसके बे-शुमार रिश्ते के भाई थे और सब एक से एक सूरमा। यहाँ किसी के सूर मापने का सवाल ही पैदा न होता था। किसी ने आज तक उससे ये न कहा कि चल खेम तुझे सर्कस या नौटंकी ही दिखला दें... (नौटंकी के दिनों में रसोय्या तक लहक-लहक कर गाता... अब यही है मैंने ठानी... लाऊँगा नौटंकी रानी…)
कहाँ किशोरी के माजिद भाई हैं तो उसके लिए लखनऊ से चूड़ियाँ लिए चले आते हैं। इकराम भाई हैं तो किशोरी उनके लिए झपा-झप पुल ओवर बुन रही है। अशफ़ाक़ भाई हैं तो किशोरी को बैठे अंग्रेज़ी शाइ'री पढ़ा रहे हैं। उन भाइयों और खेम के भाइयों में ज़मीन आसमान का फ़र्क़ था। कहाँ की चूड़ियाँ और पुल ओवर। यहाँ तो जूतियों में दाल बटती थी।
हेम-किरन को घर के काम-धंदों ही से फ़ुर्सत ना मिलती। आफ़ताब राय उनके लिए बड़ा सहारा थे। वो हर तीसरे चौथे महीने लखनऊ से आकर मिल जाते। रहने वाले उनके भय्यन साहेब जौनपूर ही के थे। पर यहाँ उनकी किसी से मुलाक़ात ना थी। ‘ज़िले के रोअसा और मक़ामी अमायदीन-ए-शहर’ में उनका शुमार था। पर आपका ख़याल अगर ये है कि डॉक्टर आफ़ताब राय जौनपूर के उन मोअ'ज़्ज़िज़ीन के साथ अपना वक़्त ख़राब करेंगे तो आप ग़लती पर हैं। हुक्काम से उनकी कभी ना बनी। इंटेलेक्चुअल आदमी थे। उन सिविल सर्विस और पुलिस वालों से क्या दिमाग़-सोज़ी करते।
जगन्नाथ जैन आई.सी.एस. जब नया-नया हाकिम-ए-ज़िला' हो कर आया तो उसने कई बार उनको क्लब में बुला भेजा। पर ये हरगिज़ ना गए। रईस-उद्दीन काज़मी डिस्ट्रिक्ट ऐंड सेशन जज ने दावत की। उसमें भी ना पहुँचे। और तो और विलायत वापस जाते वक़्त मिस्टर चार्ल्स मार्टिन ने कवी्न विक्टोरिया गर्वनमेंट इंटर कॉलेज की प्रिंसिपलशिप पेश की।
लेकिन खेम के मामा ने उसे भी रद्द कर दिया। यूँ तो ख़ैर कांग्रेसी होना कोई ख़ास बात नहीं। शहर और क़स्बा जात का हर हिंदू जो सरकारी मुलाज़िम ना था घर पर तिरंगा लगाता था और हर मुसलमान के अपने दसियों मश्ग़ले थे। अहरार पार्टी थी, शिया कॉन्फ़्रेंस थी, डिस्ट्रिक्ट कांग्रेस कमेटी में मुसलमान भरे हुए थे। मुस्लिम लीग का तो ख़ैर उस वक़्त किसी ने नाम भी न सुना था, पर बहुत से मुसलमान अगर इंसाफ़ की पूछिए तो कुछ भी ना थे, या शाइ'री करते थे। या मजलिसें पढ़ते थे।
तो कहने का मतलब ये कि कोई ऐसी तशवीश-नाक बात ना थी। पर डॉक्टर आफ़ताब राय की ज़ियादा-तर लोगों से कभी ना पटी। अरे साहेब यहाँ तक सुना गया है कि त्रिपुरा कांग्रेस के मौक़े पर उन्होंने सबको खरी-खरी सुना दी। गो ये रावी को याद नहीं कि उन्होंने क्या कहा था।
ज़िला’ की सोसाइटी जनाना सर पर मुश्तमिल थी। उन्हीं से डॉक्टर आफ़ताब राय कोसों दूर भागते थे। वस्त-ए-शहर में महाजनों, साहूकारों और ज़मीनदारों की ऊँची हवेलियाँ थीं। ये लोग सरकारी फ़ंडों में हज़ारों रुपया चंदा देते। स्कूल खुलवाते, मुजरे और मुशायरे और दंगल करवाते। जलसे-जुलूस और सर-फुटव्वल भी उन्ही की ज़ेर-ए-सरपरस्ती मुनअ'क़िद होते। हिंदू-मुसलमानों का मुआ'शरा तक़रीबन एक था। वही तेज-त्योहार। मेले-ठेले। मुहर्रम, राम-लीला। फिर वही मुक़द्दमे-बाज़ियाँ। मुअक्किल, गवाह, पेशकार, सम्मन, अदालतें, साहब लोगों के लिए डालियाँ।
शहर के बाहर ज़िला’ का हस्पताल था। लक़-ओ-दक़ हरी घास के मैदानों में बिखरी हुई उदास पीले रंग की इमारतें। कच्चे अहाते। नीम के दरख़्तों की छाँव में आउट-डोर, मरीज़ों के हुजूम। गर्द-आलूद यक्कों के अड्डे। सड़क के किनारे बैठे हुए दो-दो आने में ख़त लिख कर देने वाले बहुत बूढ़े और शिकस्ता-हाल मुंशी जो धागों वाली ऐ'नकें लगाए धुँदली आँखों से राहगीरों को देखते। फिर गलियाँ थीं जिनके ग़मों के फ़र्श पर पानी बहता था।
सियाही-माइल दीवारों पर कोयले से इश्तिहार लिखे थे। हकीम मार्का धागा ख़रीदिये। परी ब्रांड बीड़ी पियो। एक पैसा बाप से लो... चाय जाकर माँ को दो... आ गया। आ गया। आ गया... साल-ए-रवाँ का सनसनी-ख़ेज़ फ़िल्म ‘राजा’ आ गया, जिसमें मिस माधुरी काम करती है।
फिर साया-दार सड़कों के परे आम और मौलसिरी में छिपी हुई हुक्काम-ए-ज़िला’ की बड़ी-बड़ी कोठियाँ थीं। अंग्रेज़ी क्लब था। जिसमें बे-अंदाज़ा ख़ुन्की होती। चुप-चाप और साए की तरह चलते हुए मुअद्दब और शाइस्ता ‘बेरे’ अंग्रेज़ और काले साहब लोगों के लिए ठंडे पानी की बोतलें और बर्फ़ की बालटियाँ लाकर घास पर रखते, नीले पर्दों की क़नातों के पीछे टेनिस की गेंदें सब्ज़े पर लुढ़कती रहतीं।
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और सिविल लाईन्ज़ की इस दुनिया में ऊपर से आई कंवल कुमारी जैन जगन्नाथ जैन, आई.सी.एस. की बालों कटी बीवी जिसने लखनऊ के मशहूर अंग्रेज़ी कॉलेज इज़ाबेला थौबर्न में पढ़ा था और जो गेंद-बल्ला खेलती थी। क्लब में बड़ी चहल-पहल हो गई।
गिनती की कुल तीन तो मैमें ही थीं क्लब में। क्वीन विक्टोरिया गर्वनमेंट इंटर कॉलेज के अंग्रेज़ प्रिंसिपल की मैम एक। ज़नाना हस्पताल की बड़ी डॉक्टरनी मैम मिस मिककंज़ी दो। और ए.पी. मिशन गर्ल्ज़ हाई स्कूल की बड़ी उस्तानी मिस सालफ़र्ड जो चुन चुनय्या मैम कहलाती थी कि नौकरों पर चिल्लाती बहुत थी। इन तीन के अ'लावा डॉक्टरनी मैम की छोटी बहन मिस ओलियो मिककंज़ी थी। जो अपनी बहन से मिलने नैनीताल से आई हुई थी और ज़िला’ के ग़ैर शादी-शुदा हुक्काम के साथ टेनिस खेलना उसका ख़ास मश्ग़ला था और उसमें ऐसा कुछ उसका जी लगा था कि अब वापिस जाने का नाम ना लेती थी।
शाम होते ही वो क्लब में आन मौजूद होती और वे मिस्टर सक्सेना और वे मिस्टर फ़रहत अ'ली। और वे मिस्टर पांडे। सभी तो उसके चारों तरफ़ खड़े दाँत निकोसे हँस रहे हैं।
इस एक मिसया ने भाई लोगों को तिगुनी का नाच नचा रखा था। बाक़ी-मांदा हज़रात भी कहते थे कि मियाँ क्या मज़ाइक़ा है। जौनपूर ऐसी डल जगह पर मिस मिककंज़ी का दम ही ग़नीमत जानो। अब ग़ौर करने का मक़ाम है कि मिस शब्बीरा हिमायत अ'ली जो दूसरी लेडी डॉक्टर थीं उनका तो नाम सुन कर ही जी बैठ जाता था। मगर वो ख़ुद बे-चारी बड़ी सपोर्टिंग आदमी थीं। बराबर जी-दारी से टेनिस खेलने आया करतीं।
लखनऊ के किंग जॉर्ज की पढ़ी हुई थीं। लंदन जा कर एक ठो डिप्लोमा भी मार लाई थीं, लेकिन क्या मजाल जो कभी बद-दिमाग़ी दिखला जावें। लोग कहते थे, साहब बड़ी शरीफ़ डाक्टरनी है। बिल्कुल गाय समझिए, गाय। जी हाँ अब ये दूसरी बात है कि आप ये तवक़्क़ो' करें कि हर लेडी डॉक्टर अफ़्सानों और नावेलों की रिवायत के मुताबिक़ बिल्कुल हूर-शमाइल मह-वश परी-पैकर हो। अच्छी आदमी का बच्चा थीं। बल्कि एक मर्तबा तो डिस्ट्रिक्ट जज मिस्टर काज़मी की बेगम साहिब ने मिस्टर फ़रहत अ'ली से तजवीज़ भी की थी कि भय्या आज़ादी का ज़माना है, मिस शब्बीरा ही से ब्याह कर लो। ये जो साल के साल छुट्टियों में तुम्हारी अम्माँ तुम्हें लड़कियाँ देखने के लिए नैनीताल मसूरी भेजा करती हैं। इस दर्द-ए-सर से भी नजात मिलेगी और क्या।
रावी कहता है कि फ़रहत अ'ली ने जो उन दिनों बड़े मा'र्के का सुप्रिंटेंडेंट पुलिस लगा हुआ था। बेगम काज़मी के सामने कान पकड़ कर उठक-बैठक की थी। और थर-थर काँपा था। और दस्त-बस्ता यूँ गोया हुआ था कि आइंदा वो मिस शब्बीरा हिमायत से जो गुफ़्तगू करेगा । वो सिर्फ़ चार जुमलों पर मुश्तमिल होगी। आदाब अर्ज़। आप अच्छी तरह से हैं? जी हाँ मैं बिल्कुल अच्छी तरह हूँ। शुक्रिया, अर्ज़।
मुसीबत ये थी कि जहाँ किसी शामत के मारे ने किसी ग़ैर-मुंसलिक ख़ातून-ए-मोहतरम से सोशल गुफ़्तगू के दौरान में इन चार जुमलों से तजावुज़ किया तो बस समझ लीजिए ऐक्टीविटी हो गई।
तो ग़रज़ कि रावी दरिया को यूँ कूज़े में बंद करता है कि कँवल कुमारी के मियाँ का तक़र्रुर उस जगह पर हुआ (अंग्रेज़ हाकिमों की इस्तिलाह में सूबे का ज़िला' स्टेशन कहलाता था) और नए हाकिम-ए-ज़िला’ के ए'ज़ाज़ में कँवर निरंजन दास रईस-ए-आ'ज़म जौनपूर ने (कि ये सारा का सारा एक नाम था) अपने बाग़ में बड़ी धूम की दावत की। चबूतरे पर ज़र-तार शामियाना ताना गया। रात गए तक जल्सा रहा।
बीबियों के लिए अंदर अलाहिदा दावत थी। मिसरानियों ने क्या-क्या खाने न बनाए। मुसलमान मेहमानों के लिए बावले डिप्टियों के वहाँ से बावर्ची बुलवाए गए थे (बावले डिप्टियों का एक ख़ानदान था। जिसमें अ'र्सा हुआ एक डिप्टी साहिब का दिमाग़ चल गया था। इसके बा'द से वो पूरा ख़ानदान बावले डिप्टियों का घराना कहलाता था)
कहार आवाज़ लगाते। अजी बावले डिप्टियों के हाँ से सवारियाँ आई हैं उतरवा लो। मोहरियों से कहा जाता, अरे बावले डिप्टियों के हाँ न्योता देती आना री राम-रखी झाड़ू पीटी।
हेम-किरन ऐसे तो कहीं आती जाती ना थीं। पर रानी निरंजन दास की ज़बरदस्ती पर वो भी दा'वत में आ गई थीं। कलक्टर की बीवी, से मिलने के लिए अ'माइदीन-ए-शहर की बीवियों ने क्या-क्या जोड़े न पहने थे। लेकिन जब ख़ुद कँवल कुमारी को देखा तो पता चला कि ये तो पूरी मैम है। ग़ज़ब ख़ुदा का हाथों में चूड़ियाँ तक ना थीं। नाक की कील तो गई चूल्हे भाड़ में, हल्के नीले रंग की सारी पहने, गाव-तकिए से ज़रा हट कर बैठी, वो सबसे मुस्कुरा-मुस्कुरा कर बातें करती रही।
“ए लो बिटिया तुमने तो सुहाग की निशानी ही को झाड़ू पीटे फ़ैशन की भेंट कर दिया।”
सद्र-ए-आ'ला की बेगम ने नाक पे उँगली रख कर उससे कहा, “ए हाँ सच तो है। क्या डंडा ऐसे हाथ लिए बैठी हो। दूर पारछाईं फ़ोएं देखे ही से होल आता है!”, बेगम काज़मी ने भी साद किया।
खेम की तो बहर-हाल आज ई'द थी। उसने तेज़ जामुनी रंग की बनारसी सारी बाँधी थी। पाँव में राम-झोल पहने थे। सोने की कर्धनी और दूसरे सारे गहने-पाते अलाहिदा कुन्दन का छपका, और मगर किशोरी भी पहन आई थी। लेकिन किशोरी की अम्माँ (जो मुहल्ले में बड़ी भावज के नाम से याद की जाती थीं) बिन-ब्याही लड़कियों के ज़ियादा सिंगार पिटार की क़तई’ क़ाइल ना थीं।
उनके यहाँ तो लड़कियाँ बालियाँ माँग तक बालों में ना काढ़ सकती थीं। पर अब ज़माने की हवा के ज़ेर-ए-असर नई पौद की लड़कियों ने सीधी और आड़ी माँगें काढ़नी शुरू’ कर दी थीं। खेम दूर से बैठी कँवल कुमारी को देखती रही। कितनी सुंदर है और फिर एम. ए. पास। एम. ए. पास लड़की खेम और किशोरी की नज़रों में बिल्कुल देवी-देवता का दर्जा रखती थी।
कँवल कुमारी जैन सारी मेहमान बीबियों से हँस-हँस कर सख़्त ख़ुश-अख़्लाक़ी से गुफ़्तगू करने में मसरूफ़ थी (और सारी हाज़िरात-ए-महफ़िल ने उसी वक़्त फ़ैसला कर लिया था कि ये लड़की साबिक़ कलक्टर की बीवी उस चुड़ैल मिसेज़ भार्गवा से कहीं ज़ियादा अच्छी और मिलनसार है, रानी बिटिया है बिल्कुल)
दालान के गमलों की ओट में खेम और किशोरी बैठी थीं। और मिनट-मिनट पर हँसी के मारे लोट-पोट हुई जाती थीं। अब एक बात हो तो बतलाई जाए। दसियों थीं। मसलन मोटी मिसरानी की चाल ही देख लो। और ऊपर से कँवर निरंजन दास साहिब-ए-ख़ाना की स्टेट के मैनेजर साहिब लाला गणेश महाशय बार-बार ड्योढ़ी में आन कर ललकारते, “अजी पर्दा कर लो कहार अंदर आ रहे हैं।” तो उनके हलक़ में से ऐसी आवाज़ निकलती जैसे हार्मोनियम के पर्दों को बरसाती हवा मार गई हो।
अब के से जब मामा लखनऊ से घर आए तो खेम ने दा'वत की। सारी दास्तान उनके गोश-गुज़ार कर दी, कँवल कुमारी ऐसी। और कँवल कुमारी वैसी। मामा चुपके बैठे रहे।
3
खेम जब रात का खाना खा कर सोने चली गई। और सारे घर में ख़ामोशी छा गई तो डॉक्टर आफ़ताब राय छत की मुंडेर पर आ खड़े हो गए। बाग़ अब सुनसान पड़े थे। गर्मियों का मौसम निकलता जा रहा था। और गुलाबी जाड़े शुरू’ होने वाले थे। पुरवाई हवा आहिस्ता-आहिस्ता बह रही थी। नीचे ठकुराइन की बगिया वाली गली के बराबर से मुसलमानों का महल्ला शुरू’ होता था, उसके बा'द बाज़ार था। जिसमें मद्धम गैस और लालटेन की रौशनियाँ झिलमिला रही थीं। फिर पुलिस लाईन्ज़ के मैदान थे। उसके बा'द कचहरी और सिविल लाईन्ज़।
सिविल लाईन्ज़ में हाकिम-ए-ज़िला’ की बड़ी कोठी थी। जिस पर यूनियन जैक झटपटे की नीम-तारीकी में बड़े सुकून से लहरा रहा था। सारे शहर में ये थकी हुई ख़ामोशी छाई थी। सामने सुलतान हुसैन शर्क़ी के ऊँचे फाटक और मस्जिदों के बुलंद मीनार रात के आसमान के नीचे सदियों से इसी तरह साकित और सामित खड़े थे। ज़िंदगी में बे-कैफ़ी थी और उदासी, और ज़िल्लत थी और शदीद गु़लामी का एहसास था।
उ'म्र-भर आफ़ताब राय ने यूँही सोचा था कि अब वो और कुछ न करेंगे। लेकिन दुनिया मौजूद थी। वो काम भी करते, खाना भी खाते। साल में चार दफ़ा’ जौनपूर आकर जीजी से दिमाग़-सोज़ी भी करते। ज़िंदगी के भारीपन के बावजूद गाड़ी थी कि चले जा रही थी।
कँवल कुमारी उस मंज़र के परे मौलसिरी के झुंड के दूसरी तरफ़ यूनियन जैक के साए में बिराजती थी। बहुत से लोग हैं कि जो रास्ता सोचा इख़्तियार कर लिया। आराम से उस पर चलते चले गए। यहाँ किसी रास्ते का तअ'य्युन ही ना हो पाता था। एक के बा'द एक सब इधर-उधर निकल गए थे। आफ़ताब राय वहीं के वहीं थे।
“कँवल कुमारी...? लाहौल वला-कू़वत...”
जब वो यूनीवर्सिटी से डॉक्टरेट के लिए विलायत जा रहे थे तो कँवल ने उनसे कहा था, “आफ़ताब बहादुर तुमको अपने ऊपर बड़ा मान है। पर वो मान एक रोज़ टूट जाएगा। जब मैं भी कहीं चली जाऊँगी।”
“तुम कहाँ चली जाओगी...?”
“ओफ़्फ़ोह... लड़कियाँ कहाँ चली जाती हैं...?”
“गोया तुम्हारा मतलब है कि तुम ब्याह कर लोगी।”
“मैं ख़ुद थोड़ा ही ब्याह करती फिरूँगी। अरे अ'क़्ल-मंद दास मेरा ब्याह कर दिया जाएगा।”, उसने झुँझला कर जवाब दिया था।
“अरे जाओ…”, आफ़ताब राय ख़ूब हँसते थे, “मैं इस झाँसे में आने वाला नहीं हूँ। तुम लड़कियों की पसंद भी क्या शै है। तुम जैसी मॉडर्न लड़कियाँ आख़िर में पसंद उसी को करती हैं जो उनके समाजी और मआ'शी मे'यार पर पूरा उतरता है। बाक़ी सब बकवास है। पसंद इज़ाफ़ी चीज़ है तुम्हारे लिए...”
“हाँ... बिल्कुल इज़ाफ़ी चीज़ है। आफ़ताब बहादुर...”, वो ग़ुस्से के मारे बिल्कुल ख़ामोश हो गई थी।
वो चाँद बाग़ में थी। आप बादशाह बाग़ में बड़ी धूम-धाम से बिराजते थे। यूनियन की प्रेज़ीडेंटी करते थे। तक़रीरें बघारते थे। एक मिनट निचले ना बैठते थे ताकि कँवल नोटिस ना भी लेती हो तो ले। वो ए. पी. सेन रोड पर रहती थी और साईकल पर रोज़ चाँद बाग़ आया करती थी। लखनऊ की बड़ी नुमाइश हुई तो वो भी अपने कुंबे के साथ म्यूज़िक कान्फ़्रेंस में गई। वहाँ यूनीवर्सिटी वालों ने सहगल को अपने मुहासरे में ले रखा था। जिस गाने की यूनीवर्सिटी और चाँद बाग़ का मजमा फ़र्माइश करता। वही सहगल को बार-बार गाना पड़ता। भाई आफ़ताब भी शोर मचाने में पेश-पेश। लेकिन अगली सफ़ में कँवल को बैठा देख कर फ़ौरन सिटपिटा कर चुप हो गए और संजीदगी से दोस्तों से बोले कि यार छोड़ो क्या हुल्लड़ मचा रखा है। इस पर इ'ज़्ज़त ने अ'सकरी बिलग्रामी से कहा। (आज उन दोनों प्यारे दोस्तों को मरे भी इतना अ'र्सा हो गया था, मुंडेर पर खड़े हुए आफ़ताब राय को ख़याल आया।)
“उस्ताद ये अपना आफ़ताब जो है ये उस लौंडिया पर अच्छा इम्प्रेशन डालने की फ़िक्र में ग़लताँ-ओ-पेचाँ है। अब ख़ुदा-वंद ताला ही इस पर रहम करे...”
“बी. ए. के बा'द तुम क्या करोगी?”, एक रोज़ आफ़ताब राय ने कँवल से सवाल किया।
“मुझे कुछ पता नहीं…”, कँवल ने कहा था। इसमें गोया ये इशारा था कि मुझे तो कुछ पता नहीं तुम ही कोई प्रोग्राम बनाओ।
लेकिन कुछ अ'रसे बा'द वो सीधे-सीधे विलायत निकल लिये। क्योंकि ग़ालिबन उनकी ज़िंदगी उनके लिए, उनके घर वालों के लिए कँवल के वजूद से कहीं ज़ियादा अहम थी। फिर उनकी आइडियोलोजी थी (यार क्या बकवास लगा रखी है। इ'ज़्ज़त ने डपट कर कहा था।)
पर एक रोज़, लंदन में, जब वो सेंट हाऊस की लाइब्रेरी से घर की ओर जा रहे थे तो राह में उन्हें महीपाल नज़र आया जिसने दूर से आवाज़ लगाई…, “चाय पीने चलो तो एक वाक़िआ’-ए-फ़ाजिआ' गोश-गुज़ार करूँ। कँवल कुमार का जगन्नाथ जैन से ब्याह हो गया। वही जो सन् पैंतीस के बीच का है...।”
लड़कियों की अ'जब बेहूदा क़ौम है। उस रोज़ आफ़ताब राय इस नतीजे पर पहुँचे।
“उनको समझना हमारे-तुम्हारे बस का रोग नहीं। मियाँ वो जो बड़ी इंटेलेक्चुअल की सास बनी फिरती थी, हो गई होगी। अब ग्लैड... जगन्नाथ जैन माई फुट... कौन था ये उल्लू... मैंने कभी देखा है उसे...?” महीपाल के कमरे में पहुँच कर आतिश-दान सुलगाते हुए उन्होंने सवाल किया।
महीपाल राय-ज़ादा खिड़की में झुका बाहर सड़क को देख रहा था। जहाँ ठेले वाले कोकनी दिन भर गला फाड़ कर चिल्लाते रहने के बा'द अब अपने-अपने तर्कारियों के ठेले ढ़केलते हुए सर झुकाए आहिस्ता-आहिस्ता चल रहे थे। शाम का धुंदलका सारे आसमान में बिखर गया था। ज़िंदगी बड़ी उदास है। उसने ख़याल किया था। हाँ, उसने आफ़ताब राय से कहा था, मैंने उसे पटने में देखा था। काला सा आदमी है। ऐ'नक लगाता है। कुछ-कुछ लोमड़ी से मिलती-जुलती उसकी शकल है।
“बेवक़ूफ़ भी है...?”, आफ़ताब राय ने पूछा था।
“ख़ासा बेवक़ूफ़ है…”, महीपाल राय-ज़ादा ने जवाब दिया था।
“फिर कँवल उसके साथ ख़ुश कैसे रह सकेगी?”, आफ़ताब राय ने महीपाल से मुतालिबा किया।
“मियाँ आफ़ताब बहादुर…”, महीपाल ने मुड़ कर उनको मुख़ातिब किया…, “ये जितनी लड़कियाँ हैं ना... जो अफ़्लातून-ए-ज़माँ बनी फिरती हैं। ये बेवक़ूफ़ों के साथ ही ख़ुश रहती हैं। आया अक़्ल में तुम्हारी...?”
“क्या बकवास है…”, आफ़ताब राय ने आज़ुर्दगी से कहा।
अब महीपाल राय-ज़ादा को सरीहन ग़ुस्सा आ गया।
उसने झुँझला कर कहा था…, “तो मियाँ तुमको रोका किसने था। उससे ब्याह करने को, जो अब मुझे बोर कर रहे हो। क्या वो तुमसे ख़ुद आकर कहती कि मियाँ आफ़ताब बहादुर मैं तुमसे ब्याह करना चाहती हूँ। ऐं...? और फ़र्ज़ करो अगर वो ख़ुद से ही इंकार कर देती तो क्या क़यामत आ जाती । मियाँ लड़की थी या हव्वा। क्या मारती वो तुमको झाड़ू लेकर... क्या करती...? तुमने लेकिन कह के ही नहीं देखा । ख़ैर चलो... ख़ैरियत गुज़र गई। अच्छा ही हुआ। कहाँ का झगड़ा मोल लेते बेकार में। क्योंकि मेरा मक़ूला है। (उसने उँगली उठा कर आ'लिमाना अंदाज़ में कहा) कि शादी के एक साल बा'द सब शादियाँ एक सी हो जाती हैं... तुमको तो जगन्नाथ जैन का शुक्र-गुज़ार होना चाहिए कि उसने तुमको एक बार-ए-अ'ज़ीम से सुबुक-दोश किया। बल्कि वो तुम्हारे हक़ में बिल्कुल दाफ़े'-ए-बलिय्यात साबित हुआ...”
“बेहूदा हैं आप इंतिहा से ज़ियादा…”, आफ़ताब राय ने झुँझला कर कहा था।
लखनऊ लौट कर एक रोज़ आफ़ताब राय इत्तिफ़ाक़न ए. पी. सेन रोड पर से गुज़रे। सामने कँवल के बाप की सुर्ख़ रंग की बड़ी सी कोठी थी। जिसकी बरसाती पर कासनी फूलों की बेल फैली थी। यहाँ एक ज़माने में कितना ऊधम मचता था। कँवल के सारे बहन भाइयों ने मिलकर अपना ऑर्केस्ट्रा बना रखा था। कोई बाँसुरी बजाता। कोई जल-तरंग। कँवल तबला बजाती, एक भाई वाइलेन का उस्ताद था। सब मिलकर जय जयवंती शुरू’ कर देते। मोरे मंदिर अब लूँ नहीं आए... कैसी चूक भई मो से आली... फिर अर्चना बनर्जी आ जाती और कोयल ऐसी आवाज़ में गाती... आमी पौहोड़ी झोरना मुकर-मुकर बोजोए... बोजोए हो... इतवार को दिन-भर बैडमिंटन खेला जाता, हर समय तो आफ़ताब राय उन लोगों के यहाँ मौजूद रहते थे। और जब एक रोज़ ख़ुद ही चुपके से विलायत खिसक लिए तो उन लोगों का क्या क़ुसूर। वो लड़की को बैंक के सेफ़ डिपाज़िट में तो उनके ख़याल से रखने से रहे और जगन्नाथ जैन ऐसा रिश्ता तो भाई क़िस्मत वालों ही को है।
फिर एक रोज़ अमीनाबाद में उन्होंने कँवल को देखा। वो कार से उतर कर अपनी ससुराल वालों के साथ पार्क के मंदिर की ओर जा रही थी और सुर्ख़ साड़ी में मलबूस थी और आलता उसके पैरों में था। (आली री साईं के मंदिर दिया बार आऊँ। कर आऊँ सोला श्रृंगार... वो गर्मियों की शाम थी। अमीनाबाद जगमगा रहा था। हवा में मोतिया और ख़स की महक थी। और मंदिर का घंटा यकसानियत से बजे जा रहा था)
अब आफ़ताब राय यूनीवर्सिटी में तारीख़ पढ़ाते थे। साथियों की महफ़िल में ख़ूब ऊधम मचाते, टेनिस खेलते और सूफ़ीइज़्म की तारीख़ पर एक मक़ाला लिख रहे थे। मैं वो नहीं हूँ जो मैं हूँ। मैं वो हूँ जो मैं नहीं हूँ। हर चीज़ बाक़ी सारी चीज़ें हैं। भगवान कृष्ण जब अर्जुन से कहते हैं, “ऊपरंस अर्जना...(अरे जा बे, अ'सकरी डाँट बताता। “अगर तुम इस चक्कर में हो कि तुम भी प्रोफ़ेसर डी. पी. मुखर्जी की तरह महागुरू बन के बैठ जाओगे तो तुम ग़लती पर हो। डॉक्टर आफ़ताब राय, तुम्हारा तो हम मारते-मारते हुलिया ठीक कर देंगे।” महीपाल इज़ाफ़ा करता।)
जौनपूर आकर वो खेम को देखते कि तन-दही से कचालू खा रही है। कथक सीख रही है। जल भरने चली री गोइआँ आँ-आँ गाती फिर रही है। ये भी कँवल कुमारी की क़ौम है।
“अरी ओ बावली... बता तो क्या करने वाली है…”, वो सवाल करते।
“पता नहीं मामा…”, वो मा'सूमियत से जवाब देती।
“पता नहीं की बच्ची…”, वो दिल में कहते थे।
छत की मुंडेर पर टहलते-टहलते आफ़ताब राय नीम की डालियों के नीचे आ गए। सामने बहुत दूर सिविल लाईन्ज़ के दरख़्तों में छिपी हुई हाकिम-ए-ज़िला' की कोठी में गैस की रौशनियाँ झिलमिला रही थीं। पुरवाई हवा बहे जा रही थी। ये चाँद रात थी और मुसलमानों के महलों की तरफ़ से मुहर्रम के नक़्क़ारों की आवाज़ें बुलंद होना शुरू’ हो गई थीं।
मुहर्रम आ गया... आफ़ताब राय को ख़याल आया... शायद अब के से फिर सर-फुटव्वल हो। बहुत दिनों से नहीं हुई थी। उन्होंने सोचा।
वैसे अंग्रेज़ की पालिसी ये थी कि जिन ज़िलों में मुसलमानों की अक्सरीयत थी। वहाँ हिंदू अफ़सरों को तैनात किया जाता था। और जहाँ हिंदू ज़ियादा होते थे। वहाँ मुसलमान हाकिमों को भेजा जाता था ताकि तवाज़ुन क़ाएम रहे। ये दूसरी बात थी कि सूबे की छः करोड़ आबादी का सिर्फ़ 13 फ़ीसदी हिस्सा मुसलमान थे। लेकिन इतनी शदीद अक़ल्लीयत में होने के बावजूद तहज़ीबी और समाजी तौर पर मुसलमान ही सारे सूबे पर छाए हुए थे। जौनपूर, लखनऊ, आगरा, अलीगढ़, बरेली, मुरादाबाद, शाहजहाँपूर, वग़ैरह जैसे ज़िलों' में तो मुसलमानों की धाक बैठी ही हुई थी। लेकिन बाक़ी के सारे ख़ित्तों में भी उनका बोल-बाला था। सूबे की तहज़ीब, से मुराद वो कल्चर था जिस पर मुसलमानों का रंग ग़ालिब था। गली-गली, महल्ले-महल्ले, गाँव-गाँव, लाखों मस्जिदें और इमामबाड़े मौजूद थे। मकतब, मदरसे, दरगाहें, क़िले, हवेलियाँ, चप्पे-चप्पे से मुसलमानों की आठ सौ साल पुरानी रिवायात थीं।
हिंदू मुसलमानों में समाजी सतह पर कोई ज़ियादा फ़र्क़ ना था। ख़ुसूसन देहातों और क़स्बा-जात में औरतें ज़ियादा-तर साड़ियाँ और ढ़ीले पाइजामे पहनतीं। अवध के बहुत से पुराने ख़ानदानों में बेगमात अब तक लहंगे भी पहनतीं थीं। लेकिन ब्याही लड़कियाँ हिंदू और मुसलमान दोनों साड़ी के बजाए खड़े पाइँचों का पाइजामा ज़ेब-तन करतीं। हिंदुओं के यहाँ उसे “इजार” कहा जाता। मश्ग़लों की तक़सीम बड़ी दिलचस्प थी।
पुलिस का अ'मला अस्सी फ़ीसद मुसलमान था। महकमा-ए-ता'लीम में उनकी उतनी ही कमी थी। तिजारत तो ख़ैर कभी मुसलमान भाई ने ढ़ंग से कर के ना दी। चंद पेशे मगर ख़ास मुसलमानों के थे। जिनके दम से सूबे की मशहूर सनअ'तें क़ाएम थीं। लेकिन ख़ुदा के फ़ज़्ल-ओ-करम से कुछ ऐसा मज़बूत निज़ाम था कि सारा मुनाफ़ा' तो बाज़ार तक पहुँचाते-पहुँचाते मिडल में ही मार ले जाता था और जो भाई के पास बचता था उसमें क़र्जे़ चुकाने थे, बिटिया का जहेज़ बनाना था। और हज़ारों क़िस्से थे, आप जानिए।
ज़बान और मुहावरे एक ही थे। मुसलमान बच्चे बरसात की दुआ माँगने के लिए मुँह नीला-पीला किए गली-गली टीन बजाते फिरते और चिल्लाते... बरसो राम धड़ाके से, बुढ़िया मर गई फ़ाक़े से। गुड़ियों की बारात निकलती तो वज़ीफ़ा किया जाता... हाथी घोड़ा पालकी... जय कन्हैया लाल की। मुसलमान पर्दा-दार औरतें जिन्होंने सारी उ'म्र किसी हिंदू से बात न की थी। रात को जब ढ़ोलक लेकर बैठतीं तो लहक-लहक कर अलापतीं…
भरी गगरी मोरी ढ़रकाई शाम... कृष्ण कन्हैया के इस तसव्वुर से उन लोगों के इस्लाम पर कोई हर्फ़ ना आता था। ये गीत और कजरियाँ और ख़्याल, ये मुहावरे, ये ज़बान, उन सबकी बड़ी प्यारी और दिल-आवेज़ मुशतर्का मीरास थी। ये मुआ'शरा जिसका दाएरा मिर्ज़ापूर और जौनपूर से लेकर लखनऊ और दिल्ली तक फैला हुआ था। एक मुकम्मल और वाज़ेह तस्वीर था। जिसमें आठ सौ साल के तहज़ीबी इर्तिक़ा ने बड़े गंभीर और बड़े ख़ूबसूरत रंग भरे थे।
डॉक्टर आफ़ताब राय ने (कि उनका नाम ही इस मुशतर्का तमद्दुन की लताफ़त का एक मज़हर था) एक-बार सोचा था कि वो कभी एक किताब लिखेंगे कि किस तरह पंद्रहवीं सदी में भगती तहरीक के ज़रीए’... लेकिन ज़हन ही को मुकम्मल सुकून कहाँ मयस्सर था। पहले ये कँवल कुमारी कूद पड़ी। फिर उनकी मआ'शी मजबूरियाँ आड़े आईं और उनको विलायत से लौट कर बनारस में लेक्चरर-शिप सँभालनी पड़ी। जहाँ दिन-रात हिन्दी अथवा हिंदुस्तानी के गुण गाए जाते... ये मैं तुमसे कहता हूँ...कि शुद्ध हिन्दी और गऊ-रक्षा, और राम-राज्य ये सबसे बड़ा ख़तरा है। इस ख़तरे से बचोगे। उन्होंने एक दफ़ा’ एक कॉन्फ़्रेंस के पंडाल में चिल्ला कर कहा था।
आफ़ताब राय के साथी मज़ाक़ में उन्हें जौनपूर का क़ाज़ी कहा करते, “ये जो किताब तुम लिखने वाले हो उसका नाम रखना... जौनपूर का क़ाज़ी... उर्फ़, मैं शहर के अंदेशे में दुबला क्यों हुआ...?”
रात की हवा में ख़ुन्की बढ़ चुकी थी। नीम के पत्ते बड़े पुर-असरार तरीक़े से साएँ-साएँ कर रहे थे। हाँ ज़िंदगी में बे-पायाँ उदासी थी और वीराना और तारीकी।
महल्ले के मकानों में मद्धम रौशनियाँ झिलमिला रही थीं।
नीचे बड़ी भावज के मकान के आँगन में मजलिस के लिए जो गैस का हंडा नस्ब किया गया था। उसकी रौशनी रात के उस वीराने में लर्ज़ा-ख़ेज़ मा'लूम होती थी। जैसे महुवे के जंगल में अगिया बैताल और मसान चुपके-चुपके रोते हों।
मजलिसों के गिर्या-ओ-बका की मद्धम आवाज़ें पुरवाई के झोंकों में रुल-मिल कर वक़्फ़े-वक़्फ़े के बा'द यक-लख़्त बुलंद हो जाती थीं। नुक्कड़ पर कुँवर निरंजन दास के हाँ की मुहर्रम की सबील के पास रखी हुई नौबत यकसानियत से बजे जा रही थी।
“आ'शूर की शब लैला अरे सिरहाने शम्अ' रख कर बुआ मुदुन ने तकिया पर किर्म-ख़ुर्दा किताब रख कर पढ़ना शुरू’ किया…, “ए तकती रहें चेहरा अ'ली अकबर का…”, बुग्गन ने बारीक तेज़ आवाज़ में साथ देना शुरू’ किया।
“ए लो दोनों की दोनों सठिया गई हैं…, ए बीवी चाँद-रात को नौवीं तारीख़ के मर्सिए निकाल कर बैठ गईं...?”, बड़ी भावज ने बावर्ची-ख़ाने में से पुकारा।
“तौबा-तौबा कम-बख़्त ऐसी साड़-सत्ती पड़ी है कि अब तो कुछ भी याद नहीं रहता। ए लो मैं तो ऐ'नक लाना ही भूल गई। मुझे कुछ सुझाई थोड़ी दे रहा था... मैंने तो अटकल से पढ़ना शुरू’ कर दिया... ए बहन... ए नियाज़ी बेगम... ज़री अपनी ऐ'नक तो देना…।”, बुआ मुदुन ने तवील साँस भर के कहा।
नियाज़ी बेगम ने अपनी ऐ'नक उतार के दी जो बुआ मुदुन ने नाक की फ़िनिंग पर रख कर फिर से बयाज़ की वरक़-गर्दानी शुरू’ की।”
“ए बुआ मुदुन नज्म-उल-मिल्ल्त की बयाज़ भी लाई हो कि नहीं...?”, बड़ी भावज ने तख़्त के पाए के क़रीब आकर इत्मीनान से बैठते हुए दरयाफ़्त किया।
“लड़कियों से पूछिए... बड़ी भावज... नज्म-उल-मिल्ल्त के नौहे तो यही लोग पढ़त हैं…”, बुग्गन ने जवाब दिया।
“हाँ बेटा हम तो पुराने फ़ेशन के आदमी हैं। अब तो नौहों में भी नए राग-रंग निकले हैं…”, बुआ मुद्दन ने क़द्र-ए-बे-नियाज़ी से इज़ाफ़ा किया। ये लड़कियों पर सफ़ा चोट थी। बुआ मुद्दन ने लड़कियों की नौहा-ख़्वानी को कभी भी ब-नज़र-ए-इस्तिहसान ना देखा।
कुंबे और महल्ले की सारी लड़कियाँ दीवार के सहारे बड़े स्टाइल से सियाह जॉर्जेट के दुपट्टों से सर ढ़ाँपे ख़ामोश बैठी थीं। बुआ मुद्दन के इस ता'ने का उन्होंने हर्गिज़ नोटिस नहीं लिया।
“सवारी उतरवा लो…”, बाहर से राम भरोसे की आवाज़ आई।
“पर्दा कर लो लोगो…! कहार अंदर आते हैं…!”
फ़िरीनी की सेनी धम से घड़ौंची पर टिका कर ममोला तेज़ आवाज़ में चिल्लाई…, “छम्मो बेगम आ गईं।”
छम्मो बेगम डोली में से उतरीं। और पाइँचे समेट के पानी से लब्रेज़ नाली को उलांगने के इरादे से आगे बढ़ीं, “अल्लाह रखे बड़ी भावज के हाँ तो हर वक़्त बस बहय्या सी आती रहती है”, उन्होंने ज़रा बे-ज़ारी से कहा।
कहीं ममोला ने ये सुन लिया।
“ए छम्मो बेगम... ज़री ज़बान सँभाल के बात किया कीजिए। बड़ी भावज के दुश्मनों के घर बहय्या आवे। शैतान के कान बहरे... ऐसा तो मैंने आँगन का सारा पानी सूँता है। अपने हाँ नहीं देखतीं। सारी गली को ले के नौबत राय का तलाव बना रखा है। इत्ता-इत्ता पानी आपके घर में खड़ा रहता है। हाँ।”, उसने मुँह-दर-मुँह जवाब दिया।
“ए बी ममोला... ज़री आपे में रहना... मैं ख़ुद से नहीं आ गई। बड़ी भावज ने सौ दफ़ा’ बुलाया कि आकर मजलिस पढ़ जाओ... मजलिस पढ़ जाओ... मैं अपने घर से फ़ालतू नहीं हूँ कि मारी-मारी फिरूँ। और टके की डोमनियों की बातें सुनूँ। हाँ लो भाई डोली वापस करो…”, छम्मो बेगम ने बीच आँगन में खड़े हो कर रजज़ पढ़ा।
बड़ी भावज जल्दी से उठकर बाहर आईं।
“ऐहै... ये क्या कव्वा नोचन मची है। इमामों पर मुसीबत की घड़ी आन पहुँची और तुम लोग हो कि खड़ी झगड़ रही हो... चल निकल ममोला यहाँ से... डव्वो बी जब देखो तब यही फ़ज़ीहता शुरू’ करती है। आओ छम्मो बेगम जम-जम आओ...।”
ड्योढ़ी में कहारों ने ज़ोर से डंडा बजाया। अजी पैसे तो भिजवाइए बेगम साहब...
(अरे दय्या रे... सारी देह दुखन लागत है... राम भरोसे ने दीवार से लग कर माता दीन की बीड़ी सुलगाते हुए इज़हार-ए-ख़याल किया।)
वैसे मुहर्रम की वजह से अब पैसे ख़ूब मिलेंगे। चेहलुम तक दस-दस फेरे एक गली के होते थे और हर फेरा तीन-तीन पैसे। दूर के महल्लों तक आने-जाने के तो दो-दो आने तक हो जाते थे। बस चाँदी थी आजकल भाई राम भरोसे और उनकी बिरादरी की। और रेड़वे जो चल रहे थे वो अलग। रेड़वा एक तरह का लकड़ी का कुर्सी-नुमा ठेला होता था जिसमें चारों तरफ़ पर्दा बाँध दिया जाता था। अंदर दो-दो तीन-तीन सवारियाँ घिस-पिट कर बैठ जाती थीं। और बच्चों की अंग्रेज़ी प्राम की तरह पीछे से धकेला जाता था। और चर्ख़ चूँ करता रेड़वा गलियों के पथरीले फ़र्श पर बड़े ठाठ से चलता। पालकी का किराया बहुत ज़ियादा था। या'नी छः आने फ़ी फेरा। प्राइवेट पालकी चौपहला सद्र-ए-आ'ला के यहाँ था।
छम्मो बेगम इस मा'र्के के बा'द ठुमक-ठुमक चलती आन कर चाँदनी पर बैठ गईं और ऐ'नक लगा कर बड़े ठस्से से चारों तरफ़ नज़र डाली। बुआ मुद्दन ख़ुद बड़ी हाई बुर्द सोज़-ख़्वान थीं। उन्होंने कभी छम्मो बेगम की परवा ना की।
सोज़ ख़त्म हो चुका था। गोटे के फंके लगाती बुआ मुद्दन तमानियत से जाकर एक कोने में बैठ गईं। चटा-पटी की गोट का ऊदा पाएजामा और तोते के परों ऐसे हरे रंग का दुपट्टा ओढ़े और इस शान से दीवार से लग कर बैठती थीं कि दूर से मा'लूम हो जाता था कि हाँ ये रामपूर की मीरयासन हैं। मज़ाक़ नहीं है।
छम्मो बेगम एक तो ये कि सैदानी थीं। दूसरे ये कि बुग्गन सलमा के ब्याह के सिलसिले में उनसे जंग हो चुकी थी। लिहाज़ा वो बुआ मुद्दन को हर्गिज़ ख़ातिर में ना लातीं। बुआ मुद्दन को अगर ये ज़ो'म था कि माल्कोस और सोहनी और बिहाग में वो सोज़ ऐसे पढ़ती हैं कि मजलिस में पिट्टस पड़ जाती है तो छम्मो बेगम को भी अपने ऊपर नाज़-ए-बेजा ना था कि आठवीं तारीख़ वाला मीर अनीस का मर्सिया पूरी राग-दारी के साथ उन जैसा कोई और ना पढ़ सकता था।
छम्मो बेगम ने ता-दर-ता रेशमी ग़िलाफ़ों में से चाँद रात का बयान निकाला और मजमे' को निहायत घूर के देखा।
लड़कियों का गिरोह अपनी जगह पर ज़रा चौकन्ना हो गया। इन लड़कियों पर फ़र्ज़ था कि जब छम्मो बेगम हदीस पढ़ें या वा'ज़ करें तो ये लोग दुपट्टे मुँह में ठूँस कर खिल-खिल कर हँसें। पर ब-ज़ाहिर यही मा'लूम होता कि ज़ार-ओ-क़तार रो रही हैं। और छम्मो बेगम किस क़यामत की हदीस पढ़ती थीं कि कोहराम बपा हो जाता था।
छम्मो बेगम के वा'ज़ बहुत मॉडर्न होते थे। क्या जनाब कब्बन साहब बल्कि ख़ुद क़िबला जार्चवी साहब ऐसे-ऐसे रुमूज़-ओ-नुकात, अंग्रेज़ी फ़ल्सफ़े के वाक़िआ'-ए-शहादत में से ना निकाल सकते। जो छम्मो बेगम पल की पल में दरिया कूज़े में बंद कर के रख देती थीं।
“ऐ साहेबान-ए-मजलिस... जब बारी ता'ला ने अपने नूर के दो हिस्से किए...” वाली तम्हीद से लेकर जब वो इस क्लाइमेक्स तक पहुँचती थीं कि “ए बीबियो... जनाब अब्बास ने रो कर कहा बाली सकीना उट्ठो…”, तो उस वक़्त मजलिस में नाला-ओ-शेवन से क़यामत बपा हो चुकी होती थीं। अंदर बाहर सब कहते थे कि माशाअल्लाह से छम्मो बेगम ने समाँ बाँध दिया। उनकी ज़ोर-ए-ख़िताबत का ये आ'लम था कि मिनटों में बात कहीं से कहीं पहुँचती थी।
अभी हज़रत जिबरईल अलैहिस्सलाम का बयान हो रहा है। अभी यज़ीद मलऊन के ख़ानदान का ज़िक्र आ गया। जंग-ए-जमल का वाक़िआ’ सुना रही हैं। साथ-साथ उसका मुवाज़िना जर्मन और अंग्रेज़ की लड़ाई से भी होता जाता है।
रिसालत-मआब के बयान पर जब आतीं तो कहतीं... “बीबियो... मैं कोई मुअर्रिख़, कोई तारीख़-दान कोई फ़लासफ़ा नहीं हूँ। मगर इतना जानती हूँ और कहे देती हूँ कि एक तरफ़ ईसाइयों और रूमियों की दस लाख फ़ौज थी। एक तरफ़ जनाब रिसालत-मआब के साथ सिर्फ़ पंद्रह आदमी थे। मगर वो घमसान का रन पड़ा था कि सारे फ़रिश्ते चर्ख़-ए-अव्वल पर उतर आए थे और नूर की झाड़ू से रिसालत-मआब के लिए रास्ता साफ़ करते जाते थे।”
ख़ुदा-वंद-ए-तआ'ला के मसले पर फ़रमातीं…, “ऐ बीबियो... जो अंग्रेज़ी-दाँ दहरिए ख़ुदा के मुन्किर हैं। उनका अहवाल मुझसे सुनो। और कान खोल के सुनो... कि ख़ुदा-वंद-ए-करीम इन सब शैतानी वस्वसों और चालों से वाक़िफ़ है। जो फ़िरंगियों के इ'ल्म के ज़रीए’ इब्लीस-ए-मलऊ'न ने तुम मुसलमानों के दिलों में डाल दी हैं। बल्कि मैं तुमको आज ये बताना चाहती हूँ ऐ मोमिना बीबियो... कि क़ुरआन हकीम के अंदर अल्लाह तआ'ला ने ख़ुद अंग्रेज़ी में अपनी तौहीद का सुबूत दिया है। फ़रमाता है वो रब्ब-ए-ज़ुल-जलाल कि, “क़ुल हो वल्लाहो अहद। अल्लाहुस्समद। लम-यलिद व लम यूलद व लम यकुल्लहू अहद।”
ये वन क्या है...? वन अंग्रेज़ी में एक को कहते हैं। मसलन तौहीद से सिलसिला खींच कर फिर वाक़िआ’-ए-कर्बला और शहादत-ए-अ'ली अकबर से मिला दिया जाता था। ये छम्मो बेगम के आर्ट का कमाल था।
बड़ी भावज क्या सारे महल्ले को मा'लूम था कि छम्मो बेगम ख़ासी फ़रॉड हैं। लेकिन उनकी शुमूलीयत के बग़ैर मजलिस में जान ही न पड़ सकती थी। लिहाज़ा उनकी बदमिज़ाजी को भी बर्दाश्त किया जाता।
बरसों से जब से बड़ी भावज पैदा हुईं, तो वो हुईं, रुख़स्त हो कर बाराबंकी से जौनपूर आईं। ज़िंदगी का एक चलन क़ाएम था। जिसमें शादी ब्याह तीज त्योहार, लड़ाई झगड़े, मुहर्रम, कूँडे। जोगी रमपूर की सालाना ज़ियारत, ग़रज़ ये कि हर चीज़ की एहमियत अपनी जगह मुसल्लम थी।
डिप्टी जा'फ़र अब्बास से बड़ी धूम धाम से उनका ब्याह रचाया गया था। जब वो पंद्रह साल की थीं। क्या ज़माने थे। दो मील लंबा तो माही-मरातिब ही था।
बरातियों को चाँदी की तश्तरियों में संडीले के लड्डू बाँटे गए थे। और जिन्नातियों या'नी लड़की के गाँव वालों के यहाँ हफ़्तों महीनों पहले से ढोलक रख दी गई थी। उनका मैका-ओ-ससुराल दोनों तरफ़ से माशाअल्लाह से भरा-पुरा कुन्बा था। बस एक छोटी अम्माँ ही से उनकी न बनी। देवरानी जिठानी का दीवार बीच घर था। लेकिन मुद्दतों खिड़की में ताला पड़ा रहा। मुक़द्दमे का क़िस्सा दर-अस्ल इमामबाड़े वाले आम के बाग़ से चला था, बा'द में रफ़्ता-रफ़्ता दोनों भाइयों के घरानों में बोल-चाल तक बंद हो गई। सच कहा है बुआ कि ज़र, ज़मीन, ज़न, तीन चीज़ें घर का घर्वा कर देती हैं। सगे भाई ग़ैर हैं।
पर जब छोटी अम्माँ बीमार पड़ीं तो बड़ी भावज ने वज़्अ-दारी पर हर्फ़ न आने दिया और मरने से पहले देवरानी ने सारी अगली पिछली शिकायतों को भूल कर कहा-सुना मुआ'फ़ करवा लिया।
इस पर भी कहने वालों का मुँह किस ने बंद किया है, मुहल्ले में उड़ गई कि ये जो छोटी अम्माँ अपने ग़ल्ले की कोठड़ी में सोने की मोहरें दफ़्न किए बैठी थीं। ये उनको हासिल करने की तरकीबें थीं। पूछो बड़ी भावज के पास ख़ुदा का दिया ख़ुद क्या कुछ नहीं। जो वो ऐसे कमीने ख़यालात दिल में लातीं। और असलियत ये है कि छोटी अम्माँ की वो सोने की मोहरों वाली झझरी जिस पर वो उ'म्र-भर माया का साँप बनी बैठी रहीं, ऊत के माल से भी बदतर साबित हुई।
लड़कों ने लेकर सारा पैसा दो साल के अंदर उड़ा दिया। बल्कि बुआ मुदुन तो यक़ीन-ए-मोहकम के साथ कहती थीं कि छोटी अम्माँ और बड़ी भावज की लड़ाई करवाने में ज़ियादा हाथ छम्मो बेगम का है। हर्राफ़ा ऐसी इधर-उधर लगाती थी और फिर साल के साल मिंबर पर मौलून बन कर चढ़ बैठती है, चुड़ैल।
रोना बहर-हाल फ़र्ज़ था। ख़्वाह छम्मो बेगम जैसी कटनी ही बयान क्यों न पढ़े। लिहाज़ा बुआ मुदुन दीवार के सहारे बैठी बड़े मशहदी रूमाल से मुँह ढाँपे शाइस्तगी से सिसकियाँ भरती रहीं।
लड़कियाँ दहलीज़ पर बैठी बैठी ऊँघ रही थीं और मुंतज़िर थीं कि कब हदीस ख़त्म हो और नौहा-ख़्वानी की बारी आए।
नौहे पढ़ने में बड़ी भावज की लड़की किशोरी को मलिका हासिल था।
हाथ आए थे क्या-क्या गुल-ए-ज़ोहरा को फ़िदाई... नूमाओं ने देखी दर-ए-ख़ेमा से लड़ाई... अरे लड़ते हुए गिरते हुए मरते हुए देखा... और जाने कौन-कौन से सारे जदीद नौहे। जी हाँ ऐसी पाट-दार आवाज़ में आख़िरी बंद उठाती कि खेम के घर तक आवाज़ पहुँच जाती थी।
नौहों की धुनें निकालना लड़कियों का ख़ास मशग़ला था। जहाँ कोई चलता-चलता लेकिन ग़म-गीं सी धुन का गीत रेडियो पर सुना, झट ज़रा सी तबदीली कर के नज्म-उल-मिल्लत के किसी नौहे पर उस धुन को चिपका दिया। तलअत-आरा इस मुआ'मले में बड़ी रुजअ'त-पसंद वाक़े' हुई थी। उसका कहना था कि भई ये ग़लत बात है। ये क्या सातवीं की रात को मा'लूम हो कि कानन-बाला का रिकार्ड बज रहा है। तौबा तौबा।
मगर किशोरी किसकी सुनती थी, वैसे भी वो बड़ी आज़ाद ख़याल रौशन दिमाग़ इंसान थी। हाई स्कूल तो उसने पास कर लिया था। वो तो लखनऊ जाकर लगे हाथों इंटर और बी.ए. भी कर ले। लेकिन छोटी अम्माँ जब मरते वक़्त बड़ी भावज से सुल्ह-सफ़ाई करने पर तुलें तो यहाँ तक तय करती गईं कि उनके बड़े लड़के मियाँ ए'ज़ाज़ से उसका ब्याह भी कर जाए।
अब यहाँ से मुस्लिम सोशल पिक्चर बनना शुरू’ हुई। किशोरी कहाँ एक तेज़ लड़की। सारे निटिंग के नमूने उसको आवें। जहाँ पर्दा बाग़ में कोई नया नमूना सवे्टर का किसी को पहने देख पावे घर आकर फ़ौरन तैयार... अफ़साने पढ़ने की वो शौक़ीन । मुंशी फ़य्याज़ अ'ली अनवर और शमीम से लेकर कृष्ण-चंद्र की नज़्ज़ारे और हिजाब इमतियाज़ अ'ली की ज़ालिम मुहब्बत तक उसकी अलमारी में मौजूद। सिनेमा भी जब मौक़ा' मिलता ज़रूर देख लेती। मियाँ ए'ज़ाज़ एक तो ये कि ख़ासे मौलवी आदमी थे। पी.सी.ऐस. में आ गए थे। कैनिंग कॉलेज से एम.ए.।
एल.एल.बी कर रखा था। लेकिन इसके रवादार नहीं थे कि घर की लड़कियाँ ज़रा की ज़रा नुमाइश ही में हो आएँ। ख़ुद बड़ी दून की लेते थे कि मिस सक्सेना से यूनियन में यूँ बहस चली और मिस सिद्दीक़ी के यहाँ यूँ चाय पर गया। लेकिन अपने कुन्बे की लड़कियों के बारे में उनका ख़याल था कि लड़कियाँ जहाँ घर से बाहर निकलें, मियाँ ज़माना ख़राब है। किसी को बदनाम होते क्या देर है।
बढ़ी भावज ने, लतीफ़ा ये था कि किशोरी के लिए बड़ी मिन्नतें मुरादें मान रखी थीं। आ'शूरा के रोज़ जब ज़ुल-जनाह अंदर लाया जाता तो जलेबी खिलाने के बा'द उसके कान से मुँह लगा कर सारी बीबियाँ और सारी लौंडी बाँदियाँ दुआ माँगें कि या मौला किशोरी बेटा का नसीबा अब के साल ही खुले।
अब ये पूछो कि ये मियाँ ए'ज़ाज़ के पल्ले बाँधना नसीबे का खुलना समझा जा रहा था। लेकिन किशोरी ने भी तय कर लिया था कि ऐ'न ब्याह के मौक़े' पर वो इंकार कर देगी। बरात में एक हड़बोंग मच जाएगी। वो जैसा कि सोशल फि़ल्मों में होता है कि ऐ'न वक़्त पर जब फेरे पड़ने वाले हों तो अस्ल हीरो हस्पताल या जेल से छट कर पहुँच जाता है और गरज कर कहता है कि ठहर जाओ ये शादी नहीं हो सकती...
किशोरी के बाबा सय्यद जा'फ़र अब्बास डिप्टी कलैक्टर थे। लेकिन दिल के बड़े पक्के क़ौम-परस्त मुसलमान थे। जब कांग्रेसी वज़ारत क़ाएम हुई तो आपने भी ख़ूब-ख़ूब ख़ुशियाँ मनाईं। हाफ़िज़ इबराहीम ज़िले’ में आए तो आप मारे मुहब्बत के जा के उनसे लिपट गए। जब जंग छिड़ी और कांग्रेसी वज़ारत ने इस्तीफ़ा दिया और मुस्लिम लीग ने यौम-ए-नजात मनाया तो किशोरी के बाबा को बड़ा दुख हुआ।
अब वो रिटायर हो चुके थे। और चबूतरे पर बैठे पेचवान लगाए सोचा करते कि दुनिया ही बदलती जा रही है।
लड़के जिनको नौकरी न मिलती थी। अब फ़ौज में चले जा रहे थे। अपना असग़र अब्बास ही अब लैफ़्टीनैंट था... महंगाई शदीद थी। लीडर जेल में थे। लेकिन ज़िंदगी में यक-ब-यक एक नया रंग आ गया था। हाफ़िज़ इबराहीम के इस्तीफ़े के मौक़े पर ज़िले’ के उर्दू अख़बारों ने लिखा था... कहाँ गई मोटर सरकारी, बेचा कर सब्ज़ी तरकारी, वो भी देखा, ये भी देख... किशोरी के बाबा को ये सब पढ़ और सुनकर सदमा होता। वो बड़े पक्के मुसलमान थे।
दर-अस्ल मुसलमान के मुआ'शरे का इस्तिहकाम इन्ही पुराने मुदर्रिसा फ़िक्र के डिप्टी कलक्टरों के दम-क़दम से क़ाएम था। पर्दे के बड़े पाबंद। क्या मजाल जो लड़कियाँ बग़ैर क़नातों, चादरों के घर से क़दम निकालें। (सूबे के मशरिक़ी अज़ला में बुर्के का रिवाज न था। बा-इ'ज़्ज़त मुतवस्सित तबक़े की मुसलमान और हिंदू औरतें चादरें और दलाइयाँ ओढ़ कर बाहर निकलती थीं। हिंदू औरतें तो ख़ैर घूंगट काढ़ कर सड़क पर से गुज़र जाती थीं। लेकिन मुसलमान बीबियों का दिन-दहाड़े बाहर निकलना सख़्त मायूब ख़याल किया जाता था)
असग़र अब्बास फ़ौज में रह कर बिल्कुल अंग्रेज़ बनता जा रहा था। अब के से जब वो छुट्टी पर घर आया तो चंद शराइत बा-बाकी़ सामने रखीं।
(अलिफ़) वो ख़ुद कुन्बे में ब्याह न करेगा।
(बे) किशोरी जब उसके साथ रहने के लिए जबलपूर जाएगी तो पर्दा न करेगी।
(जीम) ए'ज़ाज़ मियाँ से ब्याह का प्रोग्राम मंसूख़।
(दाल) किशोरी को एफ़.ए. के लिए मुस्लिम गर्ल्ज़ कॉलेज लखनऊ भेजा जाएगा।
बड़े बहस मुबाहिसे के बा'द बाबा और बड़ी भावज दोनों ने इन शराइत के बेशतर नकात मंज़ूर कर लिए।
हिन्दुस्तान के मुसलमान मुतवस्सित और ऊपरी मुतवस्सित तबक़े का कोई ही ख़ानदान ऐसा होगा जिसकी लड़कियों ने कभी न कभी अलीगढ़ गर्ल्ज़ कॉलेज या लखनऊ मुस्लिम स्कूल, में न पढ़ा हो। बेशतर लड़कियों को इस बात पर फ़ख़्र होता है कि उन्होंने चाहे चंद रोज़ ही के लिए क्यों नहीं, लेकिन पढ़ा मुस्लिम स्कूल में है।
बे-ऐनिही यही अहवाल महिला विद्यालय लखनऊ का था। सूबे के सारे ठोस हिंदू मुतवस्सित तबक़े की स्त्रियाँ इस विश्विद्यालय की विद्यार्थी रह चुकी थीं। सरकारी और ईसाई इदारों का माहौल मुख़्तलिफ़ था। वहाँ अंग्रेज़ के इक़बाल की वज्ह से शेर बकरी एक घाट पानी पीते थे।
अब की जुलाई में खेम और किशोरी इकट्ठी ही जौनपूर से ट्रेन में सवार हुईं। और लखनऊ आन पहुँचीं। चारबाग़ पर मामा, खेम को उतरवाने के लिए आ गए थे। और किशोरी को पहुँचाने के लिए तो माजिद भाई बेचारे मर्दाना डिब्बे में मौजूद ही थे। स्टेशन की बरसाती में पहुँच कर खेम और किशोरी ने एक दूसरे को ख़ुदा-हाफ़िज़ कहा और रोईं और कभी-कभी मिलने की कोशिश करने का वा'दा किया और ताँगों में बैठ कर अपनी-अपनी राह गईं।
“खेमवती राय-ज़ादा से मेरी मुलाक़ात इतने बरसों बा'द बेंट हाल की सीढ़ियों पर हुई... वो चौधरी सुलतान के लैक्चर के लिए ऊपर जा रही थी। मैं एहतिशाम साहिब की क्लास के बा'द परशियन थेटर से उतर रही थी…”
किशोरी ने बात जारी रखते हुए कहा... और फिर वो ख़ामोश हो गई... और खिड़की के बाहर देखने लगी। जहाँ बर्फ़ के ग़ल्ले चुपके चुपके नीचे गिर रहे थे...
“क्या तुमने कभी सोचा है।”, उसने साथियों को मुख़ातिब किया…, कि हम जो छः सौ साल तक एक दीवार के साये में रहे। एक मिट्टी से हमारी और उसकी तख़्लीक़ हुई थी। उसके और हमारे घर वालों को अपनी मुशतर्का कल्चर पर नाज़ था। और एक क़िस्म का एहसास-ए-बरतरी... चार साल बा'द जब उस वक़्त खेम ने मुझे देखा तो एक लहज़े के लिए ज़रा झिजकी फिर “हैलो किशोरी” कहती हुई आगे चली गई।
“और मैंने सोचा ठीक है। मैंने और उसने इसी दिन के लिए सारी तैयारियाँ की थीं। वो महिला विद्यालय की लड़की है। कांग्रेस में यक़ीन रखती है। मेरे बाबा बड़े नेशनलिस्ट बनते थे। लेकिन मैं कट्टर मुस्लिम लीगी हूँ। यौम-ए-पाकिस्तान के जलसे के मौक़े' पर खेम के साथियों ने हमारे ऊपर कंकरियाँ फेंकी थीं। अखंड हिन्दोस्तान वीक के दिनों में हमारे रफ़क़ा ने उनके पंडाल पर पिक्टिंग की थी। ये जो कुछ हो रहा है। यही ठीक है और भाई ज़िंदगी न हुई शांताराम की फ़िल्म हो गई।
बनो अच्छे पड़ोसी, करो भाई-चारा, नहीं करते भाई-चारा मियाँ ज़बरदस्ती है तुम्हारी। यही एक मिसाल मेरी और खेम की देख लो। जनम जनम के पड़ोसी थे और क्या दोस्ती और यगानगत का आ'लम था। पर थे हम उनके लिए मलिच्छ। उनके चौके के क़रीब न फटक सकते थे। और हमारी अम्माँ का ये सिलसिला था कि अगर हिंदू की दूकान से कोई चीज़ आई तो उसे फ़ौरन हौज़ में ग़ोता देकर पाक किया जाता था। एक क़ौम इस तरह बनती है? तक़सीम का मुतालिबा हिंद की सारी तारीख़ का निहायत फ़ितरी और निहायत मंतक़ी नतीजा है…”, किशोरी चुप हो गई।
आतिश-दान में आग लहक रही थी। किसी ने आहिस्ता से एक अंगारा अलाव में से निकाल कर बाहर गिरा दिया। जहाँ वो चंद लम्हों तक सुलगता रहा। और फिर बुझ गया। नीचे सड़क पर कोई भिकारी एकार्डियन पर “मौजों के ऊपर” का वाल्ज़ बजाता हुआ गुज़र रहा था।
“आज मैं कँवल कुमारी के हाँ चाय पर गई थी।”, उर्मिला ने कहा।
“वहाँ बहुत से लोग आए हुए थे। उन सबसे मैंने कहा कि हमारे मजलिस मेले को कामयाब बनाने की कोशिश करें।”
“कँवल कुमारी...?”, किशोरी ने कुछ याद करते हुए सवाल किया।
“हाँ। हमारे नए फ़र्स्ट सैक्रेटरी की बीवी और मैंने सोचा कि क़ाबिल औरत है। उससे मेले के मौक़े' पर हिंदोस्तानी आर्ट पर लगे हाथों एक तक़रीर भी करवालें। पाम दत्त वग़ैरह सभी होंगे। बे-चारी ने वा'दा कर लिया...”
“सूर्य अस्त हो गया। सूर्य अस्त हो गया।”, दूसरे कमरे में मेले के प्रोग्राम की रीहरसल करते हुए चंद लड़कियों ने हरेन्द्रनाथ चटोपाध्याय का कोरस यक-लख़्त ज़ोर ज़ोर से अलापना शुरू’ कर दिया।
“मैंने बहुत कोशिश कर के सोचा कि मैं जब यूनीवर्सिटी में और लोगों से मिलती हूँ... इटली के लोग हैं, ब्राज़ील के इराक़ और मिस्र के हैं, उनसे इस तरह क्यों नहीं बातें करना चाहती । फिर हमारे प्रोफ़ैसर हैं। हम-अस्र फ़ुनून की अंजुमन के अराकीन हैं। उन्होंने हमारे मसाइल पर बड़ी-बड़ी किताबें लिखी हैं। हमारा बड़ा दकी़क़ मुताला' किया है, अख़बारों में वो हमारे मुतअ'ल्लिक़ एडोटोरियल लिखते हैं। दार-उल-अवाम में और रेडियो पर बहसें करते हैं दार-उल-उ'लूम में और रेडियो पर बहसें करते हैं…”, किशोरी ने कहा।
“चारों और आग लगी... दिल में भूक प्यास जगी... पग-पग हम गाते... हम गाते हम गाते…”, लड़कियाँ चिल्ला रही थीं।
“मेरा जी चाहता है। मैं तुमसे ये सब बातें कहूँ। तुमको ये सारा क़िस्सा ये सारा गोरखधंदा समझाऊँ…, उसने साथियों को उदास आवाज़ में मुख़ातिब किया। ताकि तुम लोग मुझे भी एक मज़हका-ख़ेज़ किरदार न समझो और इस सारे पस-ए-मंज़र, इस सारी कहानी को, इस फ़ासले से देखकर अपनी नई राह का तअ'य्युन करो।”
सड़क पर केरल गाने वालों की टोलियाँ गुज़रनी शुरू’ हो गई थीं...।
“क्रिसमिस का ज़माना भी इख़्तिताम पर है।”, रोज़मारी ने इज़हार-ए-ख़याल किया।
“हाँ। जौनपूर में, मेरे मुहल्ले में, शायद तीन चार बचे-खुचे सोगवार चेहलुम के ता'ज़ियों के साये में बैठे अपनी क़िस्मत को रोते होंगे। नहीं शायद मुहर्रम का ज़माना गुज़र गया होगा। पुराने कैलेंडर बेकार हो चुके हैं। मुझे कुछ पता नहीं…”, किशोरी ने दिल में कहा।
“बर्फ़-बारी शदीद हो गई है। फिर बहार आएगी। क्या सारे ज़माने सारे मौसम इतने बे-मुसर्रफ़ हैं...?” रोज़मारी ने अपने आपसे बात की…, “नहीं…!”, किशोरी ने कहा।
“पग-पग हम गाते चलें…”, लड़कियों की आवाज़ ने तकरार की।
चारबाग़ स्टेशन पर खेम को आख़िरी बार खु़दा हाफ़िज़ कहने के बा'द अब किशोरी को दम लेने की फ़ुर्सत भी कहाँ थी। पहले मुस्लिम स्कूल। फिर चाँदबाग़ फिर कैनिंग कॉलेज। ज़माना कहाँ से निकल गया था। हर हंगामे में किशोरी मौजूद। मुबाहिसे हो रहे हैं। बैडमिंटन टूर्नामैंट हैं। मुस्लिम स्टूडैंटस फ़ैडरेशन की मसरुफ़ियात हैं। उधर हिंदू स्टूडैंट्स फ़ैडरेशन था। महासभाई तालिबात के जलसे जुलूस थे। जिनमें कभी-कभी खेम राय-ज़ादा दूर से नज़र आ जाती। तालिब-ए-इ'ल्मों की दुनिया अच्छी ख़ासी सियासी अखाड़ा बन गई थी। घर पर वापिस जाओ तो वही सियासत। कल की तशवीश, मुस्तक़बिल की फ़िक्र। मुल्क की तक़सीम होगी। नहीं.. होगी, होगी, होगी।
यूनीवर्सिटी में लैक्चर्ज़ के दौरान में प्रोफ़ैसरों से झड़प हो जाती। सत्ही तौर पर अभी दोस्ती और भाई चारा-क़ाएम था। लेकिन शो-डाऊन के लिए स्टेज बिल्कुल तैयार था।
डॉक्टर आफ़ताब राय अभी तक हिस्ट्री डिपार्टमैंट में मौजूद थे। एक रोज़ एक लैक्चर के दौरान में उनसे भी कुछ तकरार हो गई। एक हिंदू तालिब-इ'ल्म ने कहा, “आज़ादी का मतलब डॉक्टर साहिब मुकम्मल स्वराज है। हिंद की धरती को फिर से शुद्ध करना है। सारी उन क़ौमों के असर से आज़ाद होना है जिन्हों ने बाहर से आकर हमला किया। यही तिलक जी ने कहा था, हाँ।”
इस पीरियड में शिवा-जी के ऊपर गुफ़्तगू हो रही थी। लिहाज़ा ख़ाना-जंगी ना-गुज़ीर थी। शाम तक सारी यूनीवर्सिटी में ख़बर फैल गई, कि डॉक्टर आफ़ताब राय की क्लास में हिंदू मुस्लिम फ़साद हो गया।
अगली सुब्ह किशोरी पूरा जुलूस बना कर डॉक्टर आफ़ताब राय के दफ़्तर में पहुँची।
“डॉक्टर साहिब…”, उसने निहायत रौ'ब-दाब से कहना शुरू’ किया…, “कल जिस तरह आपने हज़रत औरंगज़ेब अलैही-अल-रहम के मुतअ'ल्लिक़ इज़हार-ए-ख़याल किया। उसके लिए मुआ'फ़ी माँगिए। वर्ना हम स्ट्राइक कर देंगे। बल्कि कर दिया है स्ट्राइक हमने, आपने हमारी सख़्त दिल-आज़ारी की है।”
आफ़ताब राय अचंभे से किशोरी को देखते रहे। अरी तू तो डिप्टी जा'फ़र अब्बास की बिटिया है ना। अरी बावली सी... वो बे-साख़्ता कहना चाहते थे। लेकिन किशोरी के तेवर देखकर रुक गए। और पहलू बदल कर संजीदगी से खँखारे, “बात ये है मिस अब्बास…”, उन्होंने कहना शुरू’ किया, “सियासत और हुसूल-ए-ता'लीम के दरमियान जो...”
“अजी डॉक्टर साहिब बस अब रहने दीजिए…”, किसी ने आगे बढ़कर कहा... “हम ख़ूब इस ढोंग को जानते हैं। मुआ'फ़ी माँगिए क़िबला...”
“डॉक्टर साहिब मैंने कहा बनारस क्यों नहीं वापिस चले जाते...?”, दूसरी आवाज़ आई।
“देखो मियाँ साहबज़ादे…”, आफ़ताब राय ने रसान से कहा... “मुआ'फ़ी का सवाल ही पैदा नहीं होता। तारीख़ के मुतअ'ल्लिक़ मेरे चंद नज़रिए और उसूल हैं। मैं और तुम्हारी दिल-आज़ारी करूँगा? क्या बातें करते हो...?”
“हम कुछ नहीं जानते…”, उन्होंने शोर मचाया…, “मुआ'फ़ी माँगिए। वर्ना हम कल औरंगज़ेब डे मनाएँगे!”
“ज़रूर मनाओ...”, आफ़ताब राय ने यक-लख़्त बेहद उकताकर कहा।
“और मुकम्मल स्ट्राइक करेंगे!”
“ज़रूर करो... ख़ुदा मुबारक करे...”, उन्होंने आहिस्ता से कहा। और चक़ उठा कर अंदर चले गए।
“कट्टर महासभाई निकला ये भी...”, लड़कों और लड़कियों ने आपस में कहा और बरसाती से बाहर आए।
वो रात आफ़ताब राय ने शदीद बेचैनी से काटी। हालात बद से बदतर होते जा रहे थे। मुसलमान तालिब-ए-इ'ल्मों को अच्छे नंबर न मिलते। हिंदुओं को यूँही पास कर दिया जाता। हॉस्टलों में हिंदू मुसलमान इकट्ठे रहते थे। लेकिन जिस होस्टल में मुसलमानों की अक्सरीयत थी। उस पर सब्ज़ पर्चम लहराने लगा था। इसके जवाब में ऐ'न मग़रिब की नमाज़ के वक़्त हिंदू अक्सरीयत वाले हॉस्टलों में लाऊड स्पीकर नसब कर के ग्रामोफोन बजाया जाता।
चंद रोज़ बा'द आफ़ताब राय के सर में जाने क्या समाई कि इस्तीफ़ा दे दिया और ग़ाइब हो गए। सारे में ढंडिया मच गई। मगर डॉक्टर आफ़ताब राय न अब मिलते हैं न तब। लोगों ने कहा एक चूल हमेशा से ढीली थी। सन्यास ले लिया होगा। फिर तक़सीम का ज़माना आया। अब किसे होश था कि आफ़ताब राय की फ़िक्र करता। अपनी जानों के लाले थे।
मुल्क आज़ाद हो गया। खेमवती की शादी हो गई। किशोरी के घर वाले आधे पाकिस्तान चले गए। उसके बाबा अब बहुत बूढ़े हो गए थे। आँखों से कम सुझाई देता था। एक टाँग पर फ़ालिज का असर था। दिन-भर वो जौनपूर में अपने घर की बैठक में पलंगड़ी पर लेटे नाद-ए-अ'ली का विरद किया करते। और पुलिस हर समय उनको तंग करती। आपके बेटे का पाकिस्तान से आपके पास कब ख़त आया था। आपने कराची में कितनी जाएदाद ख़रीद ली है। आप ख़ुद कब जा हैं।
असग़र अब्बास उनका इकलौता लड़का था और अब पाकिस्तानी फ़ौज में मेजर था। न वो उनको ख़त लिख सकता था और अगर मर जाएँ तो मरते वक़्त वो उसको देख भी न सकते थे। वो तो किशोरी के लिए मुसिर था कि वो उसके पास रावलपिंडी चली आए। लेकिन डिप्टी साहिब ही न राज़ी हुए कि अंत समय बिटिया को भी नज़रों से ओझल कर दें।
वही किशोरी थी। जिसकी ऐसे बिसमिल्लाह के गुंबद में परवरिश हुई थी और अब वक़्त ने ऐसा पल्टा खाया था कि वो जौनपूर के घर की चार-दीवारी से बाहर मुद्दतों से लखनऊ के कैलाश होस्टल में रह रही थी। एम.ए. में पढ़ती थी और इस फ़िक्र में थी कि बस एम.ए. करते ही पाकिस्तान पहुँच जाएगी। और मुलाज़िमत करेगी। अरे साहिब आज़ाद क़ौम की लड़कियों के लिए हज़ारों बा-इ'ज़्ज़त राहें खुली हैं। कॉलेज में पढ़ाइए, नैशनल गार्ड में भर्ती हो जाइए। अख़बारों में मज़मून लिखिए, रेडियो पर बोलिए, कोई एक चीज़ है, जी हाँ।
वो दिन गिन रही थी कि कब दो साल ख़त्म हों और कब वो पाकिस्तान उड़न-छू हो, लेकिन फिर बाबा की मुहब्बत आड़े आ जाती। दुखिया इतने बूढ़े हो गए हैं। आँखों से सुझाई भी नहीं देता। कहते हैं बेटा कुछ दिन और बाप का साथ दे दो। जब मैं मर जाऊँ तो जहाँ चाहना जाना, चाहे पाकिस्तान चाहे इंगलैंड और अमरीका। मैं अब तुम्हें किसी बात से रोकता थोड़ा ही हूँ। बेटा तुम भी चली गईं तो मैं क्या करूँगा। मुहर्रम में मेरे लिए, सोज़-ख़्वानी कौन करेगा। मेरे लिए लौ की का हलवा कौन बनाएगा। पूत पहले ही मुझे छोड़कर चल दिया। फिर उनकी आँखें भर आतीं और वो अपनी सफ़ेद डाढ़ी को जल्दी जल्दी पोंछते हुए या अ'ली कह कर दीवार की तरफ़ करवट लेते।
बड़ी भावज उनसे कहतीं…, “दीवाने हुए हो। बिटिया को कब तलक अपने पास बिठलाओगे। आज न गई कल गई। जाना तो उसे है ही एक दिन। यहाँ उसके लिए अब कौन से रिश्ते रखे हैं। सारे अच्छे-अच्छे लड़के इको एक पाकिस्तान चले गए और वहाँ उनकी शादियाँ भी धबा-धब हो रही हैं। ये असग़र अब्बास के पास पहुँच जाती तो वो उसे भी कोई ढंग का लड़का देखकर ठिकाने लगा देता...।”
बड़ी भावज की इस शदीद हक़ीक़त-पसंदी से किशोरी को और ज़ियादा कोफ़्त होती। और ये एक वाक़िआ’ था कि उसने पाकिस्तान के मसअ'ले पर इस ज़ाविए से कभी ग़ौर ही न किया था। वैसे वो सोचती कि बाबा हिन्दोस्तान में ऐसा किया खूँटा गाड़ कर बैठे हैं। अच्छे ख़ासे हवाई जहाज़ से चले चलते मगर नहीं। और ये जो बाबा की सारी क़ौम-परस्ती थी। सारा जौनपूर उ'म्र-भर से वाक़िफ़ है कि बाबा कितने बड़े नेशनलिस्ट थे। तब भी पुलिस पीछा नहीं छोड़ती। सारे हुक्काम और पुलिस वाले जिनके संग जन्म भर का साथ का उठना बैठना था, वही अब जान के लागू हैं। कल ही अजाइब सिंह चौहान ने जो उ'म्र-भर से रोज़ाना बाबा के पास बैठ कर शे'र-ओ-शाइ'री करता था दोबारा दौड़ भिजवा कर ख़ाना-तलाशी ली। गोया हमने बंदूक़ो और हथियारों का पूरा मैगज़ीन दफ़्न कर रखा है। फिर उसे बाबा पर तरस आ जाता, बेचारे बाबा।
अब डिप्टी साहिब की माली हालत भी अबतर होती जा रही थी। असग़र अब्बास पाकिस्तान से रूपया न भेज सकता था। जो थोड़ी बहुत ज़मीनें थीं उन पर हिंदू काश्तकार क़ाबिज़ हो गए थे, और दीवानी की अदालत में डिप्टी साहिब की फ़रियाद की सुनवाई का सवाल ही पैदा न होता था। छोटी अम्माँ मरहूमा की मुक़द्दमा-बाज़ियों के बा'द जो कुछ ज़ेवर बच रहा था वो बड़ी भावज ने समेट कर बहू के हवाले कर दिया था जो वो पाकिस्तान ले गई थी।
बाक़ी रुपया डिप्टी साहिब की पैंशन का किशोरी की ता'लीम पर ख़र्च हो रहा था। उनके इलाज के लिए कहाँ से आता। और फ़ालिज तो बुआ ऐसा रोग है कि जान लेकर पीछा छोड़ता है। चुनाँचे नौबत ये पहुँची कि चुपके-चुपके बड़ी भावज ने छम्मो बेगम के ज़रीए’ चंद एक गहने जो बच रहे थे फ़रोख़्त करवा दिए। वैसे इसमें ऐसी शर्म की तो कोई वज्ह न थी। वो जो मिस्ल है कि मर्ग-ए-अम्बोह जश्न-ए-दारद, अन-गिनत मुसलमान घराने ऐसे थे जो अपने अपने गहने और चाँदी के बर्तन बेच-बेच कर गुज़ारा कर रहे थे, लेकिन बड़ी भावज नाक वाली आदमी थीं। और अभी उनके भले वक़्तों को गुज़रे अ'र्सा ही कितना हुआ था। किशोरी को जब ये मा'लूम हुआ तो उसकी तो सिट्टी गुम हो गई। उसने पाकिस्तान जाने का ख़याल बिल्कुल तर्क कर दिया। और सरगर्मी से मुलाज़िमत की तलाश में गई।
लेकिन एक जगह तो उससे साफ़-साफ़ कह दिया गया साहिब बात ये है कि जगह तो ख़ाली है लेकिन हम शरणार्थी लड़कियों को तर्जीह दे रहे हैं और ज़ाहिर है कि आप किसी ख़ानगी मजबूरी की वज्ह से हिन्दोस्तान में रुकी हुई हैं। पहला मौक़ा' मिलते ही आप भी पाकिस्तान चली जाइएगा।
और वो घूम फिर कर जौनपूर लौट आती। बड़ी भावज ने उससे कहा…, वो तुम्हारी गोइआँ खेम के मामूँ आफ़ताब बहादुर थे। उनको ही जाकर पकड़ो। वो तो बड़े बा-असर आदमी हैं। और बड़े शरीफ़, ज़रूर मदद करेंगे। और किशोरी को ख़याल आया। किस तरह वो जुलूस बना कर उनके पास पहुँची थी। और उनको सख़्त-सख़्त सुनाई थीं। उसके अगले हफ़्ते ही वो ग़ाइब हो थे।
आफ़ताब राय... अब पता नहीं वो कहाँ होंगे। उड़ती उड़ती सुनी थी कि बंबई में हुकूमत के ख़िलाफ़ तक़रीर करने के जुर्म में उनको अहमदाबाद जेल में बंद कर दिया गया था। जेल से छूटे तो कुछ और गड़बड़ हुई और अब शायद वो रूस में हैं और समरक़ंद रेडियो से उर्दू में ख़बरें सुनाते हैं। दूसरी रिवायत थी कि नहीं साहिब डॉक्टर आफ़ताब राय तो आजकल पण्डित नेहरू की बिल्कुल मूँछ का बाल बने हुए हैं। और उनको रीपब्लिक लम्पीडोरा में हिंद का सफ़ीर बना कर भेजा जा रहा है। बहर-हाल। डॉक्टर साहिब तो अ'र्से से गोया मुस्तक़िल ज़ेर-ए-ज़मीन थे। बेचारे आफ़ताब राय।
आज चाँद-रात थी। मुहल्ले में नक़्क़ारा रखा जा चुका था। मजलिसें अब भी होतीं। लेकिन वो चहल-पहल, रौनक़, और बे-फ़िक्री तो कब की ख़्वाब-ओ-ख़याल हो चुकी थी। ड्योढ़ी में डोलियाँ उतरनी शुरू’ हुईं और बीबियाँ आ आकर इमामबाड़े के दालान में बैठने लगीं।
किशोरी बे-दिली से दहलीज़ पर अपनी पुरानी जगह पर बैठी रही। दालान की चाँदनी जिस पर तिल धरने को जगह न होती थी, अब छिदरी-छिदरी नज़र आती थी। सारे ख़ानदानों में दो-दो तीन तीन अफ़राद तो ज़रूर ही हिजरत कर गए थे। बड़ी भावज बहुत मुश्किल से पाँव घसीटती इधर-उधर चल फिर रही थीं। अब वो अलल्ले-तलल़्ले कहाँ। सारी मोहरियाँ और कहारिनें और पासिनें एक-एक कर के छोड़कर चल दीं। बस निगोड़ी ममोला रह गई थी। सो उसकी आवाज़ को भी पाला मार गया था लेकिन छम्मो बेगम को आता देखकर वो फिर ललकारी, आ गईं छम्मो बेगम... आओ जम-जम आओ।
छम्मो बेगम चुप-चाप आकर मिंबर के पास खड़ी हो गईं। ज़ियारत पढ़के तअ'ज़्ज़ियों को झुक कर सलाम करने और कनपटियों पर उँगलियाँ चटख़ा कर जनाब अ'ली असग़र के सब्ज़ जॉर्जेज के गहवारे की बलाएँ लेने के बा'द उन्होंने इ'ल्मों को मुख़ातिब कर के आहिस्ता से कहा, “मौला ये मेरा आख़िरी मुहर्रम है। अरे अब तुम्हारी मजलिसें यहाँ कैसे करूँगी...” और ये कह कर उन्होंने ज़ोर-शोर से रोना शुरू’ कर दिया।
बुआ मुदुन अपनी पुरानी दुश्मनागी फ़रामोश कर के सरक उनके क़रीब आ बैठीं और बोलीं... “लो बुआ ग़म-ए-हुसैन को याद करो। अपना ग़म हल्का हो जाएगा... मौला तो हर जगह हैं क्या पाकिस्तान में नहीं हैं...”
“हाँ... हाँ…”, बाक़ी बीबियों ने आँसू ख़ुश्क करते हुए ताई'द की…, “मौला क्या पाकिस्तान में नहीं... तुम वहाँ मौला की मजलिसें क़ाएम करना।”
“लो बुआ... हम भी चल दिए पाकिस्तान…”, जब महफ़िल की रिक़्क़त ज़रा कम हुई और छम्मो बेगम चाँद-रात का बयान ख़त्म कर चुकीं तो बुवा मुदुन ने अपना अनाउंसमैंट भी कर डाला,
“सच कहो बुआ मुदुन...”, बड़ी भावज ने गोटा फाँकते हुए पूछा।
“हाँ बीवी। चल दिए हम भी”, बुआ मुदुन ने ए'तिराफ़ किया।
“कैसे चल दें...?”, बड़ी भावज को एक तरह से तो रश्क ही आया। अच्छे ख़ासे लोग निकलते चले जा रहे हैं। सब फ़ज़ीहतों से अलग। सारे दलिद्दर दूर कट जावेंगे वहाँ पहुँच कर..
“बस बड़ी भावज लड़का नहीं मानता। वहाँ से हर बार ख़त में लिखता है कि बस अम्माँ आ जाओ। कोई निगोड़ी जगह सिक्खर है। वहाँ उसने राशन की डिपो खोल ली है।”
“अच्छा...? शुक्र है। मौला सबकी बिगड़ी बनाएँ…”, बड़ी भावज ने कहा।
आशूर की शब-ए-लैला... बुआ मुदुन ने जो हस्ब-ए-मा'मूल ऐ'नक घर भूल आई थीं दोबारा ग़लत मर्सिया शुरू’ किया। लेकिन सब पर ऐसी उदासी और उकताहट तारी थी कि किसी ने उनकी तसहीह करने की ज़रूरत न समझी। बुग्गन ने आवाज़ मिलाई... चराग़ों की रौशनी दालान में मद्धम साज़-रवा जाला बिखेरती रही। आँगन का गैस का हंडा पीला पड़ता जा रहा था।
इस तारीकी में किशोरी सियाह दुपट्टे से सर ढाँपे अपनी जगह पर उकड़ूँ बैठी सामने रात के आसमान को देखती रही।
कँवल कुमारी जैन ने मेहमानों के जाने के बा'द नशिस्त के कमरे में वापिस आकर दरीचों के पर्दे गिराए और चाय का सामान मेज़ों पर से समेटने लगी। मद्रासी आया एक ही थी जिसे वो हमराह लेती आई थी और परदेस में मुलाज़िमों के फ़ुक़दान पर उसने मिल्ट्री एडवाइज़र ब्रिगेडियर खन्ना की बीवी से बड़ा रिक़्क़त-अंगेज़ तबादला-ए-ख़यालात किया था।
घर की सफ़ाई और बच्चे की देख-भाल के बा'द जो उसे वक़्त मिलता उसमें वो रॉयल अकैडमी आफ़ ड्रीमीस्टिक आर्ट जा कर यूगराफ़ी सीखती थी। सर लौरंस और लेडी औलिवियज़, एंथनी इपस्कवीथ क्रिसटोफ़र फ़्राई, इन सबसे उसकी बड़ी गहरी दोस्ती थी। ये सब मिलकर घंटों फ़न-ए-अदाकारी, जदीद आर्ट और हिंदोस्तानी बैले पर गुफ़्तगू करते।
जैन के पास इन सब बखेड़ों का वक़्त न था। साढे़ आठ बजे रात के तो वो दफ़्तर से निपट कर इंडिया हाऊस से लौटता और वो तो साफ़ बात कहता था कि भाई मैं इंटेलक्चुवल-विंटेलक्चुवल नहीं हूँ। सीधा-सीधा आदमी हूँ और जिस ढर्रे पर सन पैंतीस से चल रहा हूँ वही मेरे लिए ठीक है। अंग्रेज़ के ज़माने में वो मुल्क के तबक़ाती कुतुबमीनार की सबसे ऊँची सीढ़ी पर पहुँच चुका था। और अब तो वो इतना ऊँचा था कि बिल्कुल बादलों पर बिराजमान था।
अंग्रेज़ के ज़माने में ड्रैस सूट पहनता। अब सफ़ेद चूड़ीदार पाइजामे और सियाह शेरवानी में मलबूस सिफ़ारती ज़ियाफ़तों में क्या हल्की-फुल्की नपी-तुली बातें करता। ख़ुद कँवल क्या कम मा'र्के की डिप्लोमैटिक वाइफ़ थी। जहाँ जाती महफ़िल जगमगा उठती। वाह-वाह, मसलन आज ही की पार्टी में उसने कोरिया की कृष्णा मेनन वाली तजवीज़ के सिलसिले में ‘न्यू मैन’ ऐंड नेशन के ऐडीटर किंग्ज़ ले मार्टिन और जदीद शाइ'र लुई मिकेंस दोनों के छक्के छुड़ा दिए। सबको क़ाइल होना पड़ा। चाँद बाग़ के अच्छे पुराने सुनहरे दिनों में तो ख़ैर वो यूँही झपसट में इंटेलक्चुवल बन गई थी कि ये यूनीवर्सिटी की ज़िंदगी का एक लाज़िमी जुज़ था। पर ये तो इन दिनों उसके सान-ओ-गुमान में भी न था कि एक रोज़ा वो इन सारी जय्यद बैन-उल-अक़वामी ग्लैमरस हस्तियों से यूँ भाई-चारे के साथ मिला करेगी जैसे वो सब गाजर-मूली हैं।
“सूर्य अस्त हो गया... सूर्य अस्त हो गया…”, उर्मिला गुनगुनाती हुई अंदर आई।
“कँवल दीदी... जाते-जाते मुझे ख़याल आया कि एक-बार आपको फिर याद दिला दूँ कि आपको मजलिस मेले में आना है।”
“हाँ-हाँ भई…”, कँवल ने जवाब दिया…, “और वो मेरी किताब तो देती जाओ...”
“अरे हाय…”, उर्मिला ने रुक कर कहा…, “वो तो डॉक्टर आफ़ताब राय ने मुझसे ले ली। वो मुझे इंडिया ऑफ़िस लाइब्रेरी से निकलते हुए मिल गए। छीन कर ले गए, कहने लगे कल दे देंगे...”
“डॉक्टर... आफ़ताब... राय?”, कँवल ने दोहराया।
“हाँ... कँवल दीदी…”, उर्मिला ने उसी तरह लापरवाई से बात जारी रखी। वो तो दिन-भर यूँही लाइब्रेरियों में घुसे रहते हैं। आजकल एक नई किताब लिख रहे हैं। आज महीनों के बा'द इत्तिफ़ाक़न नज़र आ गए। उनका कोई भरोसा थोड़ा ही है। लेकिन कल वो ब्रॉडकास्टिंग हाऊस आ रहे हैं। वहाँ किताब मुझे लौटा देंगे। अच्छा गुड नाइट कँवल दीदी...”
“गुड नाइट उर्मिला...”
“अरे हाँ!”, उसने जाते-जाते रुक कर फिर कहा। “कल आप रॉयल कमांड परफ़ार्मैंस में जा रही हैं...? आपको तो सर राल्फ रिचर्डसन ने ख़ुद ही होगा।”
“अरे नहीं भई…”, कँवल ने पेशानी पर से बाल हटा कर थकी-थकी हुई आवाज़ में कहा (ये भी उसका एक पोज़ है, एक दिल-जली मिसिज़ अचार्य ने जो सेकंड सैक्रेटरी की बीवी थी, मारे हसद के अपनी एक सहेली से कहा था। “जानती है कि बिखरे हुए बाल उसके ऊपर ज़ियादा अच्छे लगते हैं। चुड़ैल कहीं की।”) नहीं भई उर्मिला। मुझे ये पार्टियों और सिफ़ारती मसरूफ़ियतों का सिलसिला बा'ज़ दफ़ा’ बिल्कुल बोर कर देता है। इससे कहीं पनाह नहीं...”
“अच्छा... गुड नाइट।”
“अच्छी तरह सोओ…”, कँवल ने कहा। उर्मिला, हरेंद्रनाथ चटोपाध्याय का कोरस गुनगुनाती हुई निचली मंज़िल में अपने कमरे की तरफ़ चली गई।
इंडिया ऑफ़िस लाइब्रेरी से निकलते हुए मिल गए। डॉक्टर आफ़ताब राय मिल गए...
अजी उनका कोई भरोसा थोड़ा ही है। छीन कर ले गए... कहने लगे कल दे देंगे... वो सोफ़े पर बैठ गई, “वसन्ती…”, उसने चिल्ला कर आवाज़ दी।
“खाना गर्म पर लगा दो…”, उसने टेलीविज़न खोला। बकवास है। बंद कर दिया। फिर उसने रेडियो लगाया। बकवास था। उसे भी बंद कर दिया। क्या पता उस समय लखनऊ रेडियो पर अर्चना बनर्जी गाती हो। पौहोड़ी छोरना... निकर बू जोय हो... और चाँद बाग़ की ख़ामोश सड़कों पर से लड़कियाँ लैंटरन सर्विस के बा'द लौटती होंगी।
“मैंने क्या किया था...?”, उसने सवाल किया। कुछ नहीं। मैं अब दस साल से कँवल कुमारी जैन हूँ। ये तो कुछ बात न बनी। बात किस तरह बनती है। क्यों नहीं बनती... साल गुज़रते जा रहे हैं। मैं कँवल कुमारी, जिसने ये सब देखा। एक रोज़ यूँही ख़त्म हो जाऊँगी और तब बहुत अच्छा होगा।
ऐसा न होना चाहिए था। पर हो गया।
“कँवल डार्लिंग…”, सर्वत ने उँगली उठा कर सख़्त सूफियाना अंदाज़ में उसे कहा था, “जिन ढूँढा तिन पाइयाँ, गहरे पानी पैठ।
मैं बिरहन डूबत डरी, रही किनारे बैठ...?”
कँवल ने सोचा था किनारा भी तो नहीं है।
पाने के क्या मा'ना हैं? क्या मिलता है?
बाहर अँधेरा था। और सर्दी। और बे-कराँ ख़ामोशी। मैं ज़िंदा हूँ।
“अरे भई आफ़ताब बहादुर…”, उसने ग़ुस्से से सर हिला कर दिल में सवाल किया…, “तुम क्यों चले गए थे। मैंने तुम्हारा कुछ बिगाड़ा थोड़ा ही था। तुम अपने आप में मगन रहते, मैं वहीं कहीं तुम्हारी ज़िंदगी के ताने-बाने में किसी कोने में आकर चुपकी बैठ जाती और बस तुम्हारे लिए पूरियाँ बनाया करती। तुम उसी तरह रहते। इसमें तुम्हारी शिकस्त न थी। तुम्हारी तकमील थी मियाँ आफ़ताब बहादुर...”
नीचे केरल गाने वाले हीथ की और निकल गए थे।
आफ़ताब बहादुर... अब जो मैं हूँ। और जो तुम हो... क्या यही बहुत ठीक है।
बहुत ज़माना हुआ उसने चाँद बाग़ में एक लड़की को देखकर जो आफ़ताब राय को बहुत पहले से जानती थी, सोचा था कि जने आफ़ताब की बीवी कैसी होगी (एक-बार ख़ुद उसके लिए उसकी दोस्त सर्वत ने एक बोर से आदमी की तस्वीर सामने लाकर कहा था। आने वाले दौर की धुँदली सी इक तस्वीर देख... और कमाल ये कि ऐ'न में उसी तरफ़ का आदमी निकला...) आफ़ताब की बीवी। ये फ़िक़रा कितना अ'जीब लगता था। कोई होगी चुड़ैल। आख़िर में ये सब किरकिरी खाते हैं। सर्वत ने इज़ाफ़ा किया था। ख़ूबसूरत तो ज़रूर होगी और टेनिस खेलती होगी। जिसका आफ़ताब को इतना शौक़ है। लेकिन फ़र्राटे भरने और हवा में उड़ने वाली लड़कियाँ तो वो सख़्त ना-पसंद करता था।
जिसको वो पसंद करेगा। वो तो बहुत उ'म्दा होगी, बस बिल्कुल मजमूआ'-ए-ख़ूबी। चंदे आफ़ताब चंदे महताब। जी हाँ। और मुझमें क्या बुराई थी? उसने तय करना चाहा कि आफ़ताब का रवैया ये था कि उस पर कँवल कुमारी पर ये वहइ उतरनी चाहिए थी कि ये महापुरुष, आसमान पर से ख़ास उसके लिए भेजा गया है, लेकिन ये उसकी अपनी मर्ज़ी पर मुनहसिर है कि वो इस कँवल कुमारी से या रोज़ाना आकर मिले या कभी न मिले। उससे तबला और जय जयवंती सुने। पूरियाँ बनवा कर खाए। फिर एक रोज़ इत्मीनान से आगे चला जाए। और ये कँवल कुमारी बा'द में बैठ कर ताकती रहे। और क्या वो उसके पीछे-पीछे डंडा लेकर दौड़ती कि ए मियाँ आफ़ताब बहादुर एक बात सुनते जाओ...
इन दिनों सर्वत ने एक और लतीफ़ा ईजाद किया। चैपल के बा'द एक रोज़ उसने 'गैंग की बाक़ी अफ़राद से कहा... भई नंबर 29 ए.पी. सेन रोड पर आजकल ये सिलसिला है कि अगर भाई आफ़ताब चाय पीते पीते रुक के दफ़अ'तन कँवला रानी से कहते हैं भई कँवल मुझे तुमसे एक बात कहनी है, तो हमारी कँवला रानी को फ़ौरन ये ध्यान होता है कि अब शायद ये प्रोपोज़ करने वाला है। पर वो बात महज़ इतनी होती है कि भई ज़रा महीपाल को फ़ोन कर दो... कि आम ख़रीदता लाए या इसी क़िस्म की कोई और शदीद ऐन्टी क्लाइमेक्स। सर्वत इस क़दर कमीनी थी। वो सारे मसखरेपन के क़िस्से याद कर के अब उसने दिल में हँसना चाहा। लेकिन सर्दी बढ़ती गई। और बे-कराँ तन्हाई और ज़िंदगी के अज़ली और अबदी पछतावों का वीराना।
आफ़ताब बहादुर तुमको पता है कि मेरी कैसी जिला-वतनी की ज़िंदगी है। ज़हनी तमानियत और मुकम्मल मसर्रत की दुनिया जो हो सकती थी। उससे देस निकाला जो मुझे मिला है उसे भी इतना अ'र्सा हो गया कि अब मैं अपने मुतअ'ल्लिक़ कुछ सोच भी नहीं सकती। अब मेरे सामने सिर्फ़ रॉयल कमांड परफ़ार्मैंस हैं और जैन के सुब्ह के नाश्ते की देख-भाल और ये हर दिल-अ'ज़ीज़ी जो मुझ पर ठोंस दी गई है लेकिन तुम भला क्या सोचोगे (उसने कहा था अरे तुम लोग उसी को पसंद करती हो जो एक मख़सूस मेया'र पर पूरा उतरता है।) क्या उल्टी मंतिक़ थी। या'नी चित भी तुम्हारी पट भी। आख़िर इस सारी लफ्फ़ाज़ी, इस ज़हनी और तसव्वुराती गोरखधंदे से तुम्हारा मतलब क्या निकला। वाह-वाह चुग़्द आदमी के।
सर्वत ने उसकी शादी के बा'द एक और सहेली के सामने निहायत जामे’-ओ-माने' इख़्तिसार के साथ इस तरह तशरीह कर दी थी कि क़िस्से को यूँ मुख़्तसर करती हूँ ऐ अज़ीज़ा, कँवल की ट्रेजडी ये हुई कि सारी उ'म्र तो कोई उनकी समझ में न आया। सब में में मेख़ निकालती रहीं और मारे बद-दिमाग़ी के किसी को ख़ातिर ही में न लावीं और जिन बुजु़र्गवार को आपने निहायत सिद्क़-दिल से पसंद फ़रमाया। वो ख़ुद ही हरी झंडी दिखा गए... बस अब क्या है प्यारी बहन। जब आँख खुली तो गाड़ी निकल चुकी थी। पटरी चमक रही थी... हाँ।
अरी सर्वत…, क्रूक कहीं की।
मगर सवाल ये था कि हर चीज़ के मुतअ'ल्लिक़ इस मज़ाक़ और ख़ुश-दिली का रवैया कहाँ तक घसीटा जा सकता था (लेकिन इसके अ'लावा तुम और कर भी क्या सकती हो। सर्वत ने कहा था) ज़िंदगी न हुई स्टीफ़न लीकॉक का मस्ख़रापन हो गई। मुझे क्या मा'लूम था कि तुम्हारा मज़ाक़ कहाँ ख़त्म होता है और संजीदगी कहाँ से शुरू’ हुई है या Vice Versa.
डॉक्टर साहिब तो दिन-भर लाइब्रेरियों में घुसे रहते हैं और आजकल एक और किताब लिख रहे हैं। उसे उर्मिला ने मतला' किया है। अब वो क्या कर रहा है। डॉक्टर डी.पी. मुकर्जी की तरह महागुरु बन चुका है। ग़ालिबन उसने शादी कर ली होगी। यहाँ पहुँच कर उसे अ'जीब-ओ-ग़रीब और इंतिहाई शदीद तकलीफ़ का एहसास हुआ। (वो कौन होगी... कैसी होगी... आफ़ताब के साथ-साथ चलती हुई कैसी नज़र आती होगी। आफ़ताब उससे कहाँ मिला होगा) या अब तक वो कन्फ़र्म्ड बैचलर बन चुका होगा।
बहुत से लोगों के लिए इसमें भी सख़्त ग्लैमर था... क्या बात है साहिब... इन सारी हिमाक़तों से अलाहिदा और बरगुज़ीदा... अपनी निहायत शख़्सी दुनिया, अपने मश्ग़ले, किताबें, मौसीक़ी, मीथोवन के कौँसर्ट, चंद दिलचस्प से गिने-चुने दोस्त, इतवार के रोज़ दिन-भर किसी कन्ट्री क्लब की लाऊंज में बैठे टाईम्स पढ़ रहे हैं। तीसरे पहर को राईडिंग को चले गए। और टेनिस खेला। इधर-उधर ख़वातीन से भी मिल लिए। लेकिन लड़कियों को हमेशा बड़े तरह्हुम की निगाहों से देखा गोया। बे-चारियाँ और अपना बे-नियाज़ी और सरपरस्ती का रवैया क़ाएम रखा… (ये सब सर्वत ने एक दफ़ा’ इरशाद किया था।)
अच्छा भई आफ़ताब बहादुर... तुम किताबें लिखते रहो, मैं उन पर थर्ड प्रोग्राम में रिव्यू करूँगी। रास्ता इसी तरह तय होता रहेगा।
सुब्ह हुई शाम हुई... ज़िंदगी तमाम हुई... ज़िंदगी तमाम हुई... निचली मंज़िल में उर्मिला हरेंद्रनाथ चटोपाध्याय का वो कम-बख़्त कोरस आहिस्ता-आहिस्ता अलापे जा थी।
वो दरवाज़ा खोल कर बाहर आ गई। कोहरा अब कम हो गया था। और आसमान का रंग क़ुर्मुज़ी था जिसके मुक़ाबिल में कैथोलिक चर्च के मनारे का सिलहट अपनी जगह पर क़ाएम था।
ऊनी लिबादों में मलफ़ूफ़ मशरिक़ी यूरोप से भागे हुए लोग, भारी-भारी क़दम उठाते हाथों में शम्'एँ लिए मिडनाईट मास के लिए गरजा की सिम्त बढ़ रहे थे।
सुब्ह हुई, शाम हुई
ज़िंदगी तमाम हुई
ज़िंदगी तमाम हुई
ज़िंदगी तमाम हुई
“जब मुझे मुलाज़िमत न मिली तो मैंने समंदर पार के वज़ीफ़ों के लिए हाथ पाँव मारे। ब्रिटिश कौंसल ने मुझे यहाँ आने का वज़ीफ़ा दे दिया और जब मैंने रवाना होने की ख़बर बाबा को सुनाई तो वो बिल्कुल चुप हो गए और इसके बा'द एक लफ़्ज़ मुँह से न बोले और अभी मैं रास्ते ही में थी जब मुझे इत्तिला मिली कि बाबा मर गए…”, किशोरी ने मद्धम आवाज़ में बात ख़त्म की और चिमटे से आतिश-दान में लकड़ी के कुंदों को ठीक करने में मुनहमिक गई।
“आज मिडनाईट मास मनाने जाएँगे”, रोज़मारी ने अपने ब्रश और कैनवस समेटते हुए कहा। चलो हम ब्रोम्पटन ओरेटरी चलें, जहाँ एक शाम मैंने पीले बालों और उदास चेहरों वाली एक हैंगेरियन पनाह-गुज़ीं लड़की को देखा था। वो सर पर सियाह स्कार्फ़ बाँधे तस्बीह हाथ में लिए बहुत देर से साकित और मुंजमिद बैठी थी। उसका ये अंदाज़ कितना क़ाबिल-ए-रहम था । मैंने क़ुर्बानगाह के सुतूनों के पीछे छुप कर उसकी तस्वीर बनाई। मैंने इस तस्वीर का नाम आज़ादी से फ़रार रखा था। लेकिन जब उसे नुमाइश में रखा जाने लगा तो हम-अस्र फ़ुनून की अंजुमन ने उसका नाम बदल के आज़ादी का शुकराना कर दिया... आज की रात मैं वहाँ उम्मीद और ना-उम्मीदी की इन कर्ब-नाक कैफ़ियतों के चंद और स्कैच तैयार करूँगी।
कितनी कैफ़ियतें हैं जिन्हें अल्फ़ाज़ और रंगों के रूप में ढाला ही नहीं जा सकता। जिनके इज़हार से उनकी बे-वक़अती और तौहीन होती है, किशोरी ने सोचा। (यही बात अपने लिए कितनी बार कँवल ने महसूस की थी। लेकिन कोई कुछ न जानता था।)
कैसी बेबसी है कि सब अपने अपने दिमाग़ों में महसूर रहे जाने पर मजबूर हैं।
“तुमको मा'लूम है कि मैं यक-लख़्त इस तरह तुम सबसे ये बातें क्यूँ-कर रही हूँ”, किशोरी ने कहा।
“सुनते हैं कि जब मुद्दतों के बिछड़े हुए दो जने दोबारा मिलते हैं तो सारी पुरानी यगानगत याद आ जाती है। पुराने दोस्तों से मिलकर सभी को ख़ुशी होती है”, उसने बात आहिस्ता-आहिस्ता जारी रखी।
“लेकिन पुराने दुश्मन से मिलकर मुझे कैसी मसर्रत हुई। आज सुब्ह मुझे बिल्कुल इत्तिफ़ाक़िया खेमवती फिर से नज़र आ गई है। मुझे पता न था कि वो यहाँ पर है। वो एक दूकान से निकल रही थी।
“अरे खेम... खेमिया…”, मैं चिल्ला कर उसकी और दौड़ी। उसने मुझे वाक़ई’ न पहचाना। वो बहुत मोटी हो गई थी और उसके साथ ग़ालिबन उसका शौहर था।
“खेमिया रानी तुम हम का नाहीं चीन्हीं?”, मैंने बिल्कुल बे-साख़्तगी से अपनी ज़बान में उससे कहा जो उसकी और मेरी मुशतर्का ज़बान थी…।
“हलो किशोरी…”, उसने मुतलक़ किसी गर्म-जोशी का इज़हार न किया।
“नमस्ते”, उसके शौहर ने मुस्कुरा कर सलाम किया।
“ये मेरे पति हैं”, खेम ने उसी सर्द-मेहरी के अंदाज़ में बात की।
“नमस्ते भाई साहिब…”, मैंने बेहद ख़ुश-दिली से कहा।
“तुम तो पाकिस्तानी हो। तुम्हें नमस्ते न कहना चाहिए”, खेम ने बड़ी तंज़ के साथ कहा। मेरे ऊपर जानो किसी ने बर्फ़ डाल दी। मैंने खिसियानी हँसी हँसकर दूसरी और देखा। उसके शौहर ने जो बहुत समझदार मा'लूम होता था, फ़ौरन बात सँभाली और कहने लगा, “अच्छा बहन जी ... इस समय तो हम बहुत जल्दी में हैं। आप किसी रोज़ हमारे यहाँ आइए, हम यहीं साउथ केंसिंग्टन में रहते हैं...।”
“अच्छा, ज़रूर आऊँगी। बाय-बाय खेम…”, मैंने मरी हुई आवाज़ में जवाब दिया और आगे चली गई। मैंने उसे ये भी न बताना चाहा कि मैं पाकिस्तानी नहीं हूँ। इससे क्या फ़र्क़ था।
“मैं उस वक़्त कोई रिक़्क़त-अंगेज़ तक़रीर न करूँगी। मैं ये न कहूँगी कि रफ़ीक़ो इंसान ने ख़ुदकुशी कर ली। पुरानी अक़दार तबाह हो गईं। अपने पराए हो गए। ये सब पिछले पाँच साल से दोहराते-दोहराते तुम लोग उकता नहीं गए। ये जो कुछ हुआ, यही होना था और आप थीं कि एक निहायत रोमैंटिक तसव्वुर लिए बैठी थीं। गोया ज़िंदगी न हुई शांताराम का फ़िल्म हो गई। मैंने और खेम ने जो कुछ किया वो इन सब बातों का निहायत मंतक़ी नतीजा था और बाक़ी तुम जो कहना चाहती हो वो झक मारती हो समझीं।
“इस अंदाज़ से मैंने अपने आपको समझाना चाहा। लेकिन चलो रोज़मारी। अब हम नई तस्वीरें बनाएँगे।”, उसने रोज़मारी को मुख़ातिब किया।
“तुम अगर हमारे स्कैच तैयार करो तो तुम्हारी आर्ट कौंसिल और हम-अस्र फ़ुनून की अंजुमन उनके लिए कौन से उ'नवान मुंतख़ब करेगी।”
“हम अपने बद-क़िस्मत मुल्क की वो नौजवान नस्ल हैं जो यूरोप की जंग और अपने सियासी इंतिशार के ज़माने में परवान चढ़ी। अपनी ख़ाना-जंगी के दौर ने इसकी ज़हनी तरबियत की, और अब इस हौलनाक सर्द लड़ाई के महाज़ पर इसे अपने और दुनिया के मुस्तक़बिल का तअ'य्युन करना है।”
“हम लोग यूनीवर्सिटी की ऊँची ऊँची डिग्रियाँ हासिल कर रहे हैं। तहज़ीबी मेले और तहवार मुनअ'क़िद करने में मसरूफ़ हैं। हे मार्किट के मख़सूस थियेटरों में अपने मिलने के प्रोग्राम पेश करते हैं। अम्न कान्फ़्रैंसों और यूथ फेस्टिवल्ज़ में शामिल होते हैं। लेकिन यहाँ से वापिस लौट कर क्या होगा..
तुमने कभी ख़याल किया है कि मैं कहाँ जाऊँगी...? मेरा घर अब कहाँ है? क्या मैं और मेरी तरह दूसरे हिंदोस्तानी मुसलमान ऐसे मज़हका-ख़ेज़ और क़ाबिल-ए-रहम किरदार बनने के मुस्तहिक़ थे...?”
वो ख़ामोश हो गई। सब लोग चुप-चाप बैठे आग के शो'लों को देखते रहे। सड़क के दूसरी तरफ़ एक मकान में वाइट क्रिसमिस गाई जा रही थी।
“शायद मैंने तुम्हें बताया था…”, उर्मिला ने नीची आवाज़ में कहा कि आज दफ़्तर से वापसी में डॉक्टर आफ़ताब राय मिल गए।
मैंने उनसे पूछा, “डॉक्टर साहिब मैंने तो सुना था कि आप रिपब्लिक आफ़ लम्पीडोरा में इंडिया के सफ़ीर हैं।”
“तुमने ग़लत सुना था...!”, उन्होंने रसान से मुस्कुरा कर कहा।
मैंने घबरा कर उनको देखा।
“तो क्या आप भी…?”, मैंने सवाल करना चाहा।
“हाँ... मैं भी…”
इतना कह कर वो जल्दी से ख़ुदा-हाफ़िज़ कहते हुए मजमे' में ग़ाइब हो गए और दूसरे लम्हे स्टेशन की मुहीब अंडरग्राउंड ने उनको निगल लिया। उनके हाथों में चंद किताबें थीं और वो किसी से बात करना न चाहते थे... न जाने वो कहाँ रहते हैं। क्या करते हैं। इतना अ'र्सा उन्होंने कैसे गुज़ारा। वतन वापिस जाने की इजाज़त उन्हें कब मिलेगी... क्या होगा...”
दूर गिरजाओं के घंटे बजने शुरू’ हो गए थे। वो सब बाहर सड़क पर आ गए।
हमारी ग़लतियों का साया हमारे आगे आगे चलता है। और रात हमारे तआ'क़ुब में है। उन्होंने सोचा... लेकिन हम रात की वादी को तेज़ी से उ'बूर कर हैं।
हमारे चारों तरफ़ ये लाखों करोड़ों इंसानों का हुजूम ये लोग अपनी क़िस्मतों को रोते हैं। लेकिन देखो। ये रास्ते, ये झीलें, ये बाग़ात, हमारे मुंतज़िर हैं। सन्नाटे में सिर्फ़ मौत के क़दमों की चाप थी। अजनबी मौत जो यक-लख़्त हमारे सामने आ गई। लेकिन हम इसे छोड़कर हँसते हुए आगे निकल जाएँगे। सुनो। हमारे पास यक़ीन है और कामिल ए'तिमाद, जिसे इस मुहब्बत ने तख़्लीक़ किया है जो ग़द्दारी के नाम से याद की जाती है। ये ग़द्दारी महज़ यासमीन के फूलों की आरज़ू है। वो गिरजा की सिम्त रहे।
सामने रास्ते की नीम-तारीकी में एक एलिज़ेबथन वज़ा' के दो-मंज़िला मकान में धुँदली रौशनियाँ झिलमिला रही थीं। ये हिंदोस्तानी हाई कमीशन के फ़र्स्ट सैक्रेटरी का मकान था। इसके आगे फिर अँधेरा था। वो कौन दीवानी रूह अपनी तन्हाई से घबरा कर बाहर निकल आई है। उन्होंने सवाल किया। इससे कहो ये यहाँ क्यों खड़ी है। इन लैम्पों के नीचे घास के इन रास्तों पर ज़मीन के इन फूलों के दरमियान उसे कुछ न मिलेगा। सुनसान सीढ़ियों पर ये कौन लोग नज़र आ रहे हैं। उनसे कहो कि वापिस जाएँ और सुब्ह का इंतिज़ार करें।
हमारे और उनके ख़यालों के भुतने...
लेकिन फिर घंटों ने पुकारा... आओ... आज की रात तुम्हारे वजूद के गुनाह का कफ़्फ़ारा अदा किया जाएगा। मैं तुम्हारे ख़ुदा की आवाज़ हूँ। और तुम्हारी हर तबाही में शरीक हूँ। और हर मौत का मुहाफ़िज़ हूँ। और अब पादरीयों और राहिबों का जुलूस आगे बढ़ा। जो अपने अपने मुल्कों से जिला-वतन हो कर उस समय ख़ुदा-वंद ख़ुदा की तक़दीस करते थे। और गिरिजा की मर्मरीं सीढ़ियों पर सियाह स्कार्फ़ से सर ढाँपे औरतें बूढ़े और जवान बड़े सब्र से बैठे तस्बीहें फेर रहे थे। और हौली कम्यूनियन के मुंतज़िर थे।
एक रास्ता यहीं पर आकर ख़त्म हो जाता है। फिर एक दीवार है। लेकिन रेशमी पर्दों में से छन-छन कर रौशनी इधर भी पहुँच रही है। गो बहुत से सियाह पोश मरीज़ दीवाने फ़लसफ़ी और बीमार सियासत-दान रास्ता रोके खड़े हैं।
हमें तुम्हारी मौत अ'ज़ीज़ है। क्यों कि तुम्हारी मौत में नजात है। मास के घंटों ने कहा।
हमारी माँ, मर्यम। चटानों की मुक़द्दस ख़ातून। समंदर के रौशन सितारे हमें चुपका बैठना सिखा। ये हमारा अहद-नामा है।
हमारा पुराना अहद-नामा था। उनके ख़यालात तबाह हो चुके। अब उनके पास क्या बाक़ी रहा है... आर्गन के मद्धम और लर्ज़ा-ख़ेज़ सुरों के साथ क़दम उठाते हुए वो सब आहिस्ता से अपने रास्ते पर आए।
कँवला रानी... किसी ने अँधेरे में यक-लख़्त पहचान कर चुपके से पुकारा। यहाँ आ जाओ।
और हमारे साथ खड़े हो कर इस ख़ूबसूरत रौशनी को देखो जो आसमान पर फैल रही है, अब किसी पछतावे, किसी अफ़सोस का वक़्त नहीं है।
“पुराने अहद नामे मंसूख़ हुए”, किशोरी ने आहिस्ता से दोहराया।
“हम इस तरह ज़िंदा न रहेंगे। हम यूँ अपने आपको न मरने देंगे। हमारी जिला-वतनी ख़त्म होगी। हमारे सामने आज की सुब्ह है। मुस्तक़बिल है। सारी दुनिया की नई तख़्लीक़ है।”
लेकिन कँवल कुमारी... तुम अब भी रो रही हो…?
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