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एक और मकान

रिफ़ाक़त हयात

एक और मकान

रिफ़ाक़त हयात

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    नींद की चिड़िया का चुप-चाप उड़ जाना उसके लिए कम अज़ीयत-नाक था। लेकिन ये रोज़ नहीं होता था। क्योंकि वो चिड़िया को तो किसी भी वक़्त किसी भी जगह पकड़ सकता था। मसलन बस में सफ़र करते हुए या घर में अख़बार पढ़ते हुए। बस ज़रा आँख मीचने की देर थी। लेकिन अब जिस्म के आ’ज़ा की ख़स्तगी के सबब वो उसकी पकड़ से निकलने लगी थी। वो ख़ुद को समझाता रहता था कि इसकी वज्ह शाम के साए की तरह ढलती हुई उ’म्‍र नहीं है। जैसा कि उसकी बीवी और बच्चों का ख़याल था। बल्कि वो मुंतशिर-उल-ख़याली है, किसी भी फ़र्द से, जिसका इज़्हार ना-मुम्किन था। हल्की फुल्की ट्रैंकूलाइज़र का इस्ति’माल भी कारगर हो सका था। हाई-पोटैंसी की गोलियाँ लेने से वो कतराता था कि कहीं ‘आदी हो जाए।

    आज फिर ऐसा हुआ था। लेकिन आज टूटती हुई नींद के साथ टूटे फूटे ख़्वाबों का सिलसिला भी था, वो जिसे एक ही ख़्वाब का तसलसुल समझने लगता था। इस गोरख-धंदे में उसे बहुत कुछ दिखाई दिया था। मस्ख़-शुदा चेहरे, जो आश्ना लगते थे। मुब्हम और ना-मानूस लहजे, जिनमें अपनाइयत महसूस होती थी, बे-नाम गलियाँ, वीरान बाज़ार, शिकस्ता इ’मारतें और गुम-सुम लोग, सारे ख़्वाब रेत पर लकीरों की तरह थे, जो होश-मंदी की एक लहर को भी सहार नहीं सके थे।

    वो रश्क भरी नज़रों से बराबर वाली खाट को देखने लगता था। जिस पर धीमी साँसों की तान में खोई, उसकी बीवी सो रही थी। पहले ऐसे मौक़ों’ पर वो मा’मूली हसद के ज़ेर-ए-असर खाट से उतर जाता था और अँधेरे में स्लीपर ढूँढते हुए पाँव किसी चीज़ से टकरा देता था, ख़फ़ीफ़ से शोर से भी उसकी बीवी जाग उठती थी और जागते ही सुब्ह से शाम तक के कामों की फ़ेहरिस्त सुनाना शुरू’ कर देती थी। या किसी ख़्वाब के टूटने पर अफ़सोस करने लगती थी और सुब्ह को अपनी नींद की ग़ारत-गरी की दास्तान कई मर्तबा दोहराती थी। ना-दानिस्ता होने वाली ग़लती को वो कई बार दोहरा चुका था।

    इस तरह तन्हाई भी मिट जाती थी और एक लम्हाती तस्कीन भी मिलती थी। वो ऐसी ग़लतियों को दोहराने से बाज़ रहता मगर तकरार से उकता गया था।

    ग़ुस्ल-ख़ाने के फ़र्श पर पानी गिरने की आवाज़ सुनकर वो चौंका तो, मगर आँख नहीं खोली। उसकी बोझल समा’अत ने उस आवाज़ को बरसात की टिप-टिप से मिला दिया। उसकी हड्डियों में ठंड की लहर दौड़ गई। उसने खेस को सर पर तान लिया और ख़्वा-मख़्वाह मुस्कुराने लगा। शायद तख़य्युल के बोसीदा उड़न-खटोले पर वो सुरमई बादलों के पीछे भागने लगा था। हल्की-हल्की बूँदा-बाँदी लुत्फ़ दे रही थी।

    दरवाज़ा खुलने की चरचराहट से वो बड़बड़ा गया। उसने खेस उतार कर देखा तो उसकी बीवी कपड़े दुरुस्त करती ग़ुस्ल-ख़ाने से निकल रही थी। वो ग़लत-फ़हमी पर मुस्कुराया लेकिन बोला कुछ नहीं। खिड़की की तरफ़ मुँह किए लेटा रहा। वो जानता था कि अब उसकी बीवी नमाज़ पढ़ेगी। शायद वो ये भी सोच रही हो कि मैं उठकर उसके लिए चाय बना लाऊँगा। वो ख़ुद को मलामत करने लगा कि मैंने उसकी आ’दतें ख़राब कर दी हैं वर्ना बरसों तक ये ख़याल उसे ख़्वाब में भी सूझा होगा। कुछ भी हो जाए चाय वही बनाएगी। उसने आख़िरी फ़ैसला सुनाया। लेकिन वो ख़ाइफ़ भी था कि नमाज़ पढ़ने के बा’द अगर वो कमर सीधी करने के लिए जा-ए-नमाज़ पर लेट गई और चाय बनाने की फ़रमाइश कर डाली तो क्या होगा। उसने ख़ुद को समझाया कि उसे मेरे जागने का पता नहीं चला इसीलिए मुझ पर एक नज़र भी नहीं डाली।

    जा-ए-नमाज़ समेटने की आवाज़ सुनकर उसने सुकून का साँस भरा, बावर्ची-ख़ाने में बर्तनों का शोर सुनकर वो समझ गया कि उसकी बीवी को उसके जागने की ख़बर हो गई है। वो करवट लेकर सीधा लेट गया। बिस्तर छोड़ने से पहले वो चंद लंबे साँस लेना चाहता था। उसने जिस्म को साँसों के फ़ित्‍री बहाव पर छोड़ दिया।

    वो जानता था कि आज का दिन घर पर गुज़ारना है। वो चाहे तो देर तक आराम कर सकता है। लेकिन वो कल रात वाली बात नहीं भूला था। जब आराम के दिन का ऐ’लान करते ही मँझला बेटा ‘आरिफ़ उसे घूरने लगा था। उसकी ज़’ईफ़ समा’अत ने छोटे बेटे की बड़बड़ाहट भी सुन ली थी।

    जबकि बड़े वाले की ला-तअ’ल्लुक़ी पर वो मसरूर हुआ था। मगर अब वो सोच रहा था कि नासिर को उसकी हिमायत में कुछ तो कहना चाहिए था, हफ़्ते में दो दिन की छुट्टी उसकी उ’म्‍र का तक़ाज़ा है, यूँ भी कारोबार चल निकला है, वो बच्चे तो नहीं हैं। अगले ही लम्हे वो एक शदीद एहसास के ज़ेर-ए-असर सोचने लगा कि मैं इन बद-बख़्तों का बाप हूँ, अपनी मर्ज़ी से जो चाहे कर सकता हूँ, आइन्दा जब जी में आएगा छुट्टी कर लूँगा।

    वो अपने ख़ून में इस फ़ैसले की हरारत को महसूस कर रहा था लेकिन वो नहीं चाहता था कि जब उसके बेटे नींद से उठें तो वो बिस्तर पर लेटा हुआ नज़र आए।

    वो ग़ुस्ल-ख़ाने से निकल कर बरामदे में घर के इकलौते वाश-बेसिन तक गया। अपनी बीवी की तरह वो ग़ुस्ल-ख़ाने के नल से हाथ मुँह नहीं धोता था। जब वो अच्छी तरह मुँह धो चुका तो उसने देखा कि वाश-बेसिन झाग-आलूद पानी से भर गया है। वो घर के अफ़राद को कोसने लगा। उसी लम्हे बावर्ची-ख़ाने से भी एक बड़बड़ाहट सुनाई दी। उसने झाड़ू के तिनकों की मदद से सूराख़ों को साफ़ किया फिर हाथ धोते हुए शीशे में चेहरे को ग़ौर से देखने लगा। जो थोड़ी सी झुर्रियों के अ’लावा बुढ़ापे की ज़ाहिरी की अ’लामतों से पाक था। वो नीम-सफ़ेद बालों को देखते हुए सोचने लगा कि काला-कोला इस्ति’माल किए तीन दिन गुज़र गए।

    वो खाट पर तकियों से टेक लगाए दीवार पर बने नुक़ूश को घूर रहा था कि उसकी बीवी एक हाथ में कप और दूसरे में चाय से भरा मिट्टी का कटोरा थामे दाख़िल हुई। कप लेते ही वो हरीसाना चुस्कियाँ भरने लगा। जबकि उसकी बीवी पाइंती बैठ कर सुकून से चाय पीने लगी। कमरे की ख़ामोशी पर चाय पीने की आवाज़ें जिरह करने लगीं।

    वो पहली बार अपनी बीवी पर निगाह डालते हुए बोला, “तुम मिट्टी के कटोरे में क्यों चाय पीती हो, घर में प्यालियाँ किसलिए हैं”

    वो एक सुड़की लगाते हुए बोली, “चाय जल्दी ठंडी हो जाती है फिर बाप दादा के ‘इलाक़े से त’अल्लुक़ भी जुड़ा रहता है।”

    उनके ख़ामोश होते ही सुड़की भरने की आवाज़ें मुकालमा करने लगीं।

    “आज नींद नहीं आई, जिस्म में दर्द है, और आँखें भी जल रही हैं।”

    “अच्छा हुआ तुमने मेरी नींद ख़राब नहीं की”, वो मा’सूमियत से बोली।

    उसने कप को फ़र्श पर रख दिया, फिर तकिए के नीचे सिगरेट के पैकेट को टटोलते हुए कहने लगा, “एक ही बार पेशाब के लिए खाट से उतरा था फिर करवटें ही बदलता रहा।”

    “रात पेशाब ने मुझे नहीं जगाया वर्ना रोज़ दो-एक बार नींद ख़राब होती है।”, वो मुस्कुराते हुए बोली।

    उसने दिन का पहला सिगरेट सुलगाया। कश लगाते ही खाँसने लगा। बलग़म का लच्छा फ़र्श पर उछालते हुए उसने शोर को सँभाला फिर खंकार कर गला साफ़ किया ताकि बा-आसानी गुफ़्तुगू कर सके।

    उसकी बीवी ने नाक पर दुपट्टा रखते हुए बुरा सा मुँह बनाया।

    “रोज़ फिनाइल के पानी से रगड़ कर पोचा लगाती हूँ। फिर भी कमरे से कभी बू नहीं जाती। फ़र्श से दाग़ भी नहीं उतरते।”

    वो सिगरेट पीने में इतना मुनहमिक था कि जैसे ये बातें किसी और से की जा रही हों।

    वो धोती से मुँह साफ़ करते हुए बोला, “रात बहुत ख़्वाब देखे। ना-मुकम्मल, टोटों की शक्ल में, अभी तक आँखों में चुभन हो रही है। एक याद है, बाक़ी भूल गया। बहुत डरावना ख़्वाब था, मैं समझा कि सच-मुच ऐसा हो गया।”, वो ख़्वाब की जु​िज़यात को ज़ेह्‌न में लाने के लिए ख़ामोश हो गया।

    “तुम तो कहते थे कि ख़्वाबों की हक़ीक़त नहीं होती।”, वो उसकी बात दोहराते हुए बोली।

    वो उसे समझाने लगा कि ज़रूरी नहीं। इस ख़्वाब का भी हक़ीक़त से कोई त’अल्लुक़ हो। ये ला-शुऊ’र की कार-फ़रमाई भी हो सकती है। जो दिन-भर के वाक़िआ’त को जादूई शक्ल देकर शुऊ’र में भेज देता है। ख़्वाब की मा​िहयत समझाते हुए उसने महसूस किया कि वो ये बातें नहीं समझ सकती और वो अपना ख़्वाब सुनाने लगा।

    “एक तंग सी गली थी। मकान पुराने और आगे को झुके हुए थे। शायद रात का वक़्त था, नहीं शाम थी। हाँ, आसमान बादलों से ढका हुआ था और बारिश हो रही थी, एक क़दीम तर्ज़ के मकान के आगे सामान बिखरा था। बड़े-बड़े संदूक़, पेटियाँ, अलमारियाँ और कुर्सियाँ वग़ैरा। उसके नज़्दीक ही कुछ आदमी खड़े बातें कर रहे थे। उनकी ज़बान समझ नहीं रही थी। उनके लहजों और शक्लों से नुहूसत टपकती थी। जैसे शैतान के बेटे हों।”

    एक लहज़े के लिए वो सोच में पड़ गया, बड़बड़ाने लगा।

    “मैं भी तो था। मैं कहाँ था, हाँ, गली में एक गधा-गाड़ी खड़ी थी, मैं उस पर सामान लाद रहा था। इसीलिए मेरी कमर में दर्द हो रहा है। शायद बरसात का पानी, नहीं, पसीना पूरे जिस्म से टपक रहा था। अचानक एक औ’रत के बैन फ़ज़ा में गूँजने लगे। बहुत ग़म-नाक आवाज़ थी वो, मैंने शक भरी नज़रों से आदमियों की तरफ़ देखा, वो ग़ाइब हो चुके थे। मैं ख़ौफ़-ज़दा हो कर गली के आख़िर तक दौड़ता चला गया। फिर लौट कर आया और मकान में घुस गया। वो मकान किसी और का था, अन्दर घुप-अँधेरा था और चमगादड़ों के परों की आवाज़ें सुनाई दे रही थीं। मैं बाहर निकल आया। मुझे सामान किसी जगह पहुँचाने की जल्दी थी और सामान बहुत ज़ियादा था। मैंने एक संदूक़ उठाया। ब-मुश्किल गधा-गाड़ी पर रखा कि औ’रत की सिसकियाँ दुबारा सुनाई दीं। वो तुम्हारी आवाज़ थी, मैं सहम कर मकान की तरफ़ देखने लगा। उस वक़्त मुझे महसूस हुआ कि गली इन्सानी आवाज़ों से भर गई है। मैंने सर उठा कर देखा तो मकानों की छतें और बालकोनियाँ मर्द-ओ-ज़न से भरी हुई थीं। मैं दौड़ कर मकान में घुसा। एक औ’रत सीढ़ियों पर बैठी रो रही थी, मैंने उसकी तरफ़ क़दम बढ़ाया कि मकान की छत और दीवारें गिर गईं, मुझे लगा मैं...”

    उसकी बीवी ‘अदम-दिलचस्पी से ख़्वाब सुनती रही थी, वो जमाई लेते हुए बोली, “ये कैसा ख़्वाब था, इसका तो सर पैर ही नहीं। मेरे ख़्वाब तो ऐसे नहीं होते।”

    वो अपने पुराने ख़्वाब सुनाने लगी। जिनमें उसकी रूह अपने पुरखों से मुलाक़ातें कर चुकी थी, वो अक्सर शौहर को उसके मरहूम फ़ौजी बाप के पैग़ाम सुनाती रहती थी। जब वो उठकर जाने लगी तो वो बोला, “आज कोई काम नहीं करूँगा। मुझे आराम की ज़रूरत है।”

    उसने बे-साख़्ता हँसते हुए कहा, “तुमने कभी मेरा कोई काम नहीं किया। हाँ मिसिज़ ख़ुर्शीद से मिलने तो जाना ही पड़ेगा।”

    मुसलसल तीसरा सिगरेट सुलगाते हुए उसे अख़बार की तलब महसूस हुई।

    जब वो अख़बार ख़रीद कर लौटा तो खुली हुई खिड़कियों से कमरों में झाँकने लगा, जहाँ उसके बेटे सो रहे थे। अख़बार पढ़ते हुए वो घर के दूसरे हिस्से में गूँजने वाली आवाज़ों की टोह में लगा हुआ था। किसी कमरे का दरवाज़ा खुलने और फिर वाश-बेसिन पर पानी बहने की आवाज़ें सुनकर वो पहलू बदलने लगा। अब तक पेट की गैसों का इख़्‍राज फ़ित्‍री तरीक़े से हो रहा था। लेकिन अब अख़बार पढ़ते हुए झुक कर कुछ ज़ोर लगाने के बा’द मुश्किल आसान हो पाई थी।

    कुछ देर बा’द वो जान गया था कि दो बेटे नहा धो कर तय्यार हो चुके हैं। जब कि बड़ा लड़का अभी चाय पी रहा होगा। बाहर निकलने से पहले वो कमरे में टहलता रहा। तीन चार बैठकें भी निकालीं। जिससे हड्डियाँ चटख़ने लगीं। फिर वो प्याली थामे बावर्ची-ख़ाने की तरफ़ गया। बेटों ने सुब्ह का सलाम किया। बावर्ची-ख़ाने में उसकी बीवी बिगड़ने लगी, “जब तक चाय का देगड़ा ख़त्म हो जाए तुम्हें चैन नहीं आता।”

    वो ख़ुशामद करते हुए मुस्कुराया, “पुरानी आ’दत जो है।”

    वो जानता था कि बेटों की मौजूदगी में वो उसका मज़ाक़ उड़ाने से नहीं चूकती। चाय की तीसरी प्याली का आख़िरी घूँट भरने के बा’द वो अख़बार को बेटों के पास ले गया। अख़बार के सफ़्हात आपस में तक़्सीम कर के वो मुता​िलआ’ करने लगे। वो गुफ़्तगू के लिए कोई मौज़ू’ ढूँढ रहा था।

    इतने में ‘आरिफ़ बड़बड़ाया।

    “नए इन्तिख़ाबात की तारीख़ का ऐ’लान हो गया।”

    “हाँ देखो, किस जमाअ’त की हुकूमत बनती है।”, उसने मौक़े’ का दुरुस्त इस्ति’माल किया।

    छोटे बेटे ने राय-ज़नी की।

    “हुकूमत जिसकी भी हो, निज़ाम नहीं बदलेगा।”

    “थोड़ी बहुत तब्दीली तो आएगी।”

    ‘आरिफ़ ने क़हक़हा लगाते हुए कहा, “हाँ लूट मार के तरीक़े ज़रूर बदल जाएँगे।”

    बड़ा बेटा नासिर पहली बार गोया हुआ।

    “आप हर मर्तबा उम्मीदें बाँध लेते हैं। जबकि आपके पास साठ साल का त​िज्‍रबा है।”

    “इसलिए कि मायूसी कुफ़्र है।”

    जाते हुए तीनों ने उसे ताकीद की कि मिसिज़ ख़ुर्शीद के पास ज़रूर जाए और उनसे अपने फ़ैसले पर नज़र-ए-सानी की दरख़्वास्त करे। कुछ देर कमरे की तन्हाई में आहें भरने के बा’द वो सो गया।

    मज़ीद सोने की ख़्वाहिश में करवटें लेकर वो जाग उठा। कमरे की तारीकी से उसने वक़्त का अन्दाज़ा लगाने की कोशिश की। जब उसने बत्ती जला कर वक़्त को चुप-चाप धकेलते घड़ियाल पर निगाह डाली तो बड़बड़ाया, “ओह चार बज गए।”

    आईने के सामने सर के बचे-खुचे बाल सँवारते हुए उसे दोबारा काला-कोला याद गया। अब वक़्त गुज़र चुका था। रंगाई का ये काम उसे अगली फ़ुर्सत तक मुल्तवी करना पड़ा। लेकिन ये भी उसके ज़ेहन में था कि बालों की हक़ीक़ी रंगत की रू-नुमाई मिसिज़ ख़ुर्शीद वाले मु’आमले पर भी असर-अन्दाज़ हो सकती है।

    लेकिन अफ़सोस करने की घड़ियाँ बीत गई थीं और मुलाक़ात को टालना भी मुम्किन था।

    चंद रोज़ पहले वो नाटे क़द की बद-तीनत ख़ातून अपने दो-टूक फ़ैसले से आगाह कर गई थी, वो कुछ महीनों से इसके बारे में कई इशारे दे चुकी थी। उन्होंने पुरानी आ’दत जान कर जिन्हें कोई अहमियत दी थी। वो अपने बेटों से बहुत ख़फ़ा था कि छोटी मोटी गुत्थियों को ख़ुद क्यों नहीं सुलझाते।

    कपड़े बदल कर वो बरामदे में आया तो उसकी बीवी जा-ए-नमाज़ समेट रही थी।

    “आपका आराम का दिन ख़त्म हो गया या नहीं। दूध ख़त्म हो गया है और मिसिज़ ख़ुर्शीद के हाँ भी जाना है।”

    उसकी बीवी ने दिल की भड़ास दो-तीन जुमलों में ही निकाल ली थी।

    गरचे वो घर के सूने-पन की ‘आदी हो गई थी। लेकिन आज उसकी मौजूदगी में भी उसे ये सु’ऊबत सहना पड़ी थी। वो अपनी मसरूफ़ियत के दौरान बार-बार कमरे में झाँकती रही थी। हर मर्तबा वो गहरी नींद में डूबा नज़र आया था। वो बातें करने की तमन्नाई थी। घर की सफ़ाई के बा’द उसका ग़ुस्सा बे-क़ाबू होने लगा था। उसने सोचा था कि झाड़ू के साथ उस निकम्मे पर पिल पड़े। लेकिन अगले ही लम्हे इस ख़याल की बेहूदगी पर ख़ुद को कोसने लगी थी। उसने जिन कामों की फ़ेहरिस्त बनाई थी, कुछ अधूरे रह गए थे। आज घर की ख़ामोश चीज़ों के दरमियान अपने जबड़ों की आवाज़ें सुनते हुए उसने दोपहर का खाना खाया था।

    दूध के लिए पैसे माँगते हुए उसने अपना हाथ फैला दिया था, रुपए गिनते हुए उसने सिगरेट के लिए भी रक़म का तक़ाज़ा किया था, जो मा’मूली सी हुज्जत के बा’द दे दी गई थी।

    शाम की चाय की लज़्ज़त के साथ दो पुर-लुत्फ़ सिगरेट खींचने के बा’द वो ख़ुद को मिसिज़ ख़ुर्शीद के पास जाने पर आमादा कर सका था।

    मिसिज़ ख़ुर्शीद ने टेढ़ी-भैंगी आँखें मिचकाते हुए कीना-तूज़ मुस्कुराहट से उसका इस्तिक़बाल किया। जब उसने ड्राइंग-रुम की अश्या पर निगाह दौड़ाई तो किसी तब्दीली को महसूस करने लगा।

    सोफ़े पर बैठे हुए ख़ुश-दिली से बोला, “कमरे में कोई चीज़ बदली हुई है।”

    मिसिज़ ख़ुर्शीद इठलाते हुए बोली, “हाँ पुराना सोफ़ा बेच दिया है।”

    “मैं जब भी आता हूँ, कोई कोई शय बदल जाती है। मसरूफ़ियत का बहाना तो चाहिए ना।”, उसकी चहकार में कमी वाक़े’ नहीं हुई थी।

    “करने के लिए मेरे पास और भी बहुत कुछ है?”

    उसने मिसिज़ ख़ुर्शीद के लहजे की तेज़ाबियत को नज़र-अन्दाज़ कर दिया था, वो उसकी वज्ह भी जानता था। उसने हमेशा पेश-रफ़्त से गुरेज़ किया था, इसीलिए वो उनके पीछे पड़ गई थी, उसकी जमालियाती हिस के लिए मिसिज़ ख़ुर्शीद को क़ुबूल करना मुम्किन नहीं था, इसीलिए वो नज़रें झुका कर बातें कर रहा था जब कि वो ठनक कर टाँग पर टाँग जमाए बैठी थी। उसने सुर्ख़-फूलों वाले कपड़े पहने हुए थे, वो अपनी कलाइयों में सोने को चूड़ियों की बजाती, उँगलियों में ला’ल-ओ-ज़मुर्रद की अँगूठियों को घुमाती, उसे घूर रही थी। वो चाहता तो मु’आमला सुलझ सकता था, लेकिन उसके तख़य्युल में औ’रत के बुढ़ापे की एक मिसाली तस्वीर मौजूद थी। मिसिज़ ख़ुर्शीद जिससे कोई लग्गा नहीं खाती थी।

    उसने बच्चों का हाल अहवाल दरियाफ़्त किया। ख़लीज में मुक़ीम उसके शौहर के मुतअ’ल्लिक़ पूछा।

    अब उनके बीच ख़ामोशी के वक़्फ़े हाइल होने लगे थे। ज़ेहनी मशक़्क़त के बावुजूद उसे कोई मौज़ू’ नहीं मिल रहा था। वो अस्ल बात करना चाहता था, मगर उसकी ख़्वाहिश थी कि मेहमान-नवाज़ी के तक़ाज़े पूरे हो जाएँ। कुछ देर बा’द उसे एहसास हुआ कि मेहमान-नवाज़ी भी तब्दीली की ज़द में गई है। उसने सिगरेट निकाल कर सुलगा लिया।

    खंकारते हुए उसने बात शुरू’ की।

    “किसी महीने नाग़ा नहीं किया। किराया बराबर पहुँचाते रहे। जहाँ पाँच साल गुज़र गए। कुछ साल और गुज़रने दें।”

    मिसिज़ ख़ुर्शीद मस्नू’ई आह भरते हुए बोली, “मुझे पैसों की सख़्त ज़रूरत है। यूँ भी वो मकान हमारे किसी काम का नहीं रहा।”

    “हमारे लिए तो है। आप कुछ ‘अर्सा ठहर जातीं, हम ही ख़रीदार बन जाते।”

    “तीन साल से आप यही कह रहे हैं।”

    जब उसकी बीवी का मश्वरा कार-आमद नहीं हुआ तो उसे नासिर की बात याद गई।

    “हम किराया बढ़ा देते हैं”

    “किराए की मा’मूली रक़म से मसअला हल नहीं होगा।”, मिसिज़ ख़ुर्शीद क़त’इय्यत से बोली।

    वो अपने पज़मुर्दा चाँद पर हाथ फेरते हुए मलूल नज़रों से इसकी तरफ़ देखने लगा।

    पेशानी से पसीना पोंछता हुआ जब वो घर में दाख़िल हुआ तो उसकी बीवी बेटों की तवाज़ो’ में मसरूफ़ थी। न’ईम ख़फ़गी से लाईट रिफ़्रेशमेंट का तक़ाज़ा कर रहा था।

    “दिन-भर के थके-हारे लौटते हैं, चाय के साथ कुछ और भी होना चाहिए।”

    इससे पहले कि उसकी बीवी काम-काज की फ़ेहरिस्त का राग अलापना शुरू’ करती, वो उनके दरमियान जा बैठा। बेटे सवालिया नज़रों से उसे घूरने लगे। उसने किसी भी सवाल से पहले ही बता दिया कि मकान ख़ाली करना होगा।

    एक छोड़ी हुई आ’दत को दोहराते हुए उसने निहार मुँह सिगरेट सुलगा लिया। कश लेते ही उसे बे-फ़िक्‍री के दिन याद गए। जब वो आँख खुलते ही सिगरेट का पैकेट ढूँढने लगता था। उबलते हुए पानी की सरसराहट ने उसे माज़ी के धुएँ से निकाला। गरचे वो जानता था कि कौन सी शय कहाँ रखी है। लेकिन हड़बड़ाहट में वो मसालों के डिब्बे टटोलने लगा।

    उसने जा-ए-नमाज़ पर लेटी अपनी बीवी को चाय की प्याली पेश की, कमरे की मद्धम तारीकी में हर शय साए जैसी लगती थी। वो किसी जल्द-बाज़ी में चाय की लंबी सुड़कियाँ भरने लगा। जब उसने अपनी बीवी को सर झुकाए ख़ामोशी से चाय पीते देखा तो जाने क्यों दिल मसोस के रह गया। वो कुर्ता पहन कर घर से निकल आया। वो अख़बार ख़रीदना चाहता था। गली में कंधे हिला कर चलते हुए अख़बार का तसव्वुर उसके दिल में गर्म-जोशी पैदा कर रहा था। आज उसने न्यूज़ स्टाल की भीड़ में शामिल हो कर सुर्ख़ियाँ पढ़ीं। अख़बार ख़रीदते ही अन्दरूनी सफ़्हों को खोल कर एक फ़ेहरिस्त को देखा। उसके होंटों पर मुस्कुराहट और जिस्म में हरारत दौड़ गई। अख़बार बग़ल में दबाए वो एक होटल में जा बैठा।

    तुमतराक़ से चाय का आर्डर देकर उसने वही फ़हरिस्त निकाल ली। जेबें टटोलते हुए उसे किसी शय की गुमशुदगी का एहसास हुआ। पहले वाली मसर्रत मिट गई। इस ग़ारत-गरी से नजात पाने के लिए उसने ख़बरों में पनाह ढूँडी मगर तवज्जोह मुन्तशिर थी।

    जब वो घर पहुँचा तो उसकी बीवी बावर्ची-ख़ाने में मसरूफ़ थी। उसने कमरे की बत्ती जलाई। फिर कुछ सोचने लगा। वो भूल गया था कि लकी नंबर वाली पर्ची कहाँ रखी थी। उसे हर महीने पर्ची छुपाने के लिए नई जगह की तलाश करनी पड़ती थी। उसने ब्रीफ़केस खोला। उसके ख़ानों में काग़ज़ात टटोलते हुए पर्ची मिल गई। काँपते हाथों से उसने नंबरों को ग़ौर से पढ़ा, उसके साथ यही होता था। नंबरों को फ़ेहरिस्त से मिलाते हुए उसकी साँसें फूल जाती थीं। हिंद से नाचने लगते थे। सिगरेट पीने से भी सूरत-ए-हाल बेहतर होती थी।

    पहले की तरह आज भी उसने अख़बार को खाट पर पटख़ दिया और तकलीफ़-देह साँस भरने लगा।

    वो नाश्ता करते हुए बेटों से कारोबारी गुफ़्तुगू कर रहा था कि उसकी बीवी नंबर वाली पर्ची को फ़ज़ा में लहराती इस तरह कमरे में दाख़िल हुई, जैसे गुम-शुदा क़ीमती चीज़ मिल गई हो। उसे अपनी बीवी पर ग़ुस्सा आया मगर ख़ामोश रहा। उसने बेटों की सन्जीदगी से मूड का पता चला लिया था।

    लकी नंबरों की ख़रीदारी उसका क़दीम मशग़ला था, वो अच्छे वक़्तों में किसी जुअारी की तरह उनका ‘आदी हो गया था। उसके घर वाले भी इस मश्ग़ले में शरीक होते थे। उसके बेटे तो नोटबुक में नंबर नोट कर लेते थे और स्कूल में दोस्तों को फ़ख़्र से नंबरों के बारे में बताते थे। जबकि उसकी बीवी भी नंबरों को याद करती रहती थी। वो सब लोग प्राइज़ बाँड की फ़ेहरिस्त की इशा’अत का इन्तिज़ार करते थे। शायद ये उनकी इज्तिमाई बद-नसीबी थी कि कभी कोई बड़ा इन’आम नहीं निकला था। हाँ एक मर्तबा वाल-क्लाक ज़रूर निकला था।

    कुछ सालों से उसकी बीवी और बच्चों ने ये कहते हुए कि नंबरों की ख़रीदारी रक़म का ज़ियाँ है, उसे सख़्ती और नर्मी से मना’ कर दिया था। उन्हें प्राइज़ बाँड की ख़रीदारी पर कोई ए’तिराज़ था। वो एक मुद्दत तक बड़े इन’आम की अस्ल रक़म के पाँच गुना होने का ख़्वाब देखते रहे थे। जो लाखों में बनती थी।

    ख़्वाबों की ‘अदम-तकमील से फैलने वाले ज़हर ने उन्हें उकसाया कि वो इस ख़तरनाक अ’मल से बाज़ रखें, कई बार की रोक-टोक से उसने ख़्वाबों की ख़रीदारी को पोशीदा रखना शुरू’ कर दिया था।

    बीवी के हाथ में लहराती पर्ची ने उसके ख़्वाबों की दुनिया को पामाल कर दिया था। चाहते हुए भी उसने अपने अ’ह्द को दोहराया और हक़ीक़त से त’अल्लुक़ जोड़ने की क़सम खाई। वो जानता था कि पर्ची की तरह उसके ख़्वाब भी कूड़े का ढेर बन गए हैं।

    शाम को उसने अपने दोस्त शफ़ी मुहम्मद से मिलने की ख़्वाहिश को महसूस किया। वो टूटी फूटी गर्द-ओ-ग़ुबार से अटी सड़क के किनारे एक छोटे से होटल का मालिक था। जहाँ सुब्ह से शाम तक पुरानी कुर्सी पर ज़ंग-आलूद स्टील की ऐ’नक लगाए अख़बार पढ़ता रहता था।

    शफ़ी मुहम्मद ने काउंटर टेबल पर अख़बार फैलाते हुए अपने दोस्त को अफ़्सुर्दा देखा। फिर होटल के चूल्हे पर झुके आदमी को चाय का आर्डर दिया।

    “सेठों का सत्यानास हो। मुल्क बर्बाद कर दिया।”

    वो उसका इशारा समझ गया। उकताहट से बोला।

    “क्यों परेशान होते हो, तुमने बरसों से नंबर नहीं ख़रीदे।”

    वो पेट के ज़ोर पर हँसा।

    “मैं ‘अक़्ल-मंद हूँ। इसलिए उधार ऐंठ लेता हूँ। जब नंबर नहीं लगता तो डाँट के भगा देता हूँ।”

    वो गंदी प्याली में सियाह चाय देख कर बोला, “तुम्हारे होटल पर कभी अच्छी चाय नहीं मिलती।

    वो नौ बजे तक वहाँ बैठा रहा। जब शफ़ी मुहम्मद ने अपने ख़्वाबों का ज़िक्‍र छेड़ा तो उसने भी दिलचस्पी ज़ाहिर की। वो एक दूसरे को यक़ीन दिलाने लगे कि उनकी क़िस्मत बड़बड़ा कर उठने वाली है। वो दिन क़रीब है। जब दोनों दोस्त टोपियाँ पहने, कंधों पर थैले लटकाए, ढीली ढाली चड्डियाँ पहने, दुनिया की सैर को जाएँगे। मुल्कों-मुल्कों आवारागर्दी करेंगे। शफ़ी मुहम्मद बहुत कुढ़ता था कि यहाँ बुढ़ापे की ज़िन्दगी में कोई दिलचस्पी नहीं। ख़ुदा-हाफ़िज़ कहने से क़ब्ल उसने शफ़ी मुहम्मद से किराए का मकान ढूँढने के लिए कहा।

    वो जानता था कि रात नींद को पाना दुश्वार होगा। उसने मेडिकल स्टोर से गोली ख़रीद ली। जिसके इस्ति’माल के बावुजूद देर तक करवटें लेता रहा। उसका जिस्म शल था और सर दुख रहा था। दरवाज़े की दर्ज़ों से झाँकती रौशनी को देर तक घूरने के बा’द वो खाट से उतरा।

    वो दबे-पाँव चलता बेटे के कमरे में दाख़िल हुआ। नासिर ने चौंक कर किताब बन्द कर दी।

    “आज फिर नींद नहीं रही?”, उसकी सुर्ख़ आँखें देखकर नासिर ने सवाल किया।

    “गोली भी खाई है।”, वो सिगरेट सुलगाते हुए बोला।

    “सिगरेट ज़ियादा पीने लगे हैं।”, उसने शिकायत की।

    “सिगरेट का नींद से कोई त’अल्लुक़ नहीं।”, वो हँसते हुए बोला, “नासिर, ये तुम कौन सी किताबें पढ़ते रहते हो कुछ फ़ाएदा भी है।”

    “ठीक है, तुम मुलाज़िमत करते हो। लेकिन हालात भी तुम्हारे सामने हैं। अदब को छोड़ो, म’आशियात पढ़ो। कोई फ़ार्मूला ढूँढो। किसी किताब में तो अमीर बनने का गुर लिखा होगा। जाबिर इब्न हय्यान ने कीमिया-गरी किताबों से ही सीखी थी।”

    नासिर ज़ेर-ए-लब मुस्कुराते हुए बोला, “शायद ऐसा मुम्किन हो अब्बू।”

    वो मज़हका उड़ाते हुए हँसा, “शायद। हुँह हमेशा मनफ़ी सोचते हो, ख़्वाहिश थी कि तुम सी.एस.एस. करो। लेकिन तुम मा’मूली नौकरी से मुत्मइन हो गए।”

    “आप सो जाएँ, सुब्ह को भी उठना है।”

    वो उठा, कुछ सोचते हुए फिर बैठ गया।

    “अपनी अम्मी को समझाते क्यों नहीं?”

    “उन्हें क्या हुआ?”

    “किराया-दार को मकान छोड़ना पड़ता है।”

    “हम यहाँ के ‘आदी हो गए हैं”

    “मुझे ये मकान पसन्द नहीं। रौशनी आती है हवा। बहुत मन्हूस है। अक्सर कोई कोई बीमार रहता है। इसी मकान में हमारे हालात भी ख़राब हुए।”

    वो ट्रैंकूलाइज़र के ज़ेर-ए-असर बोलता चला गया।

    गुम-शुदा नींद पिछली रात उसे मिल गई। इसी विसाल के सबब वो ताज़ा-दम महसूस कर रहा था। सिगरेट पीते हुए खंकारने की आवाज़ से फ़रहत टपकती थी। अख़बार पढ़ते हुए वो मज़े से बलग़म के लच्छे फ़र्श पर उछालता रहा था।

    उसकी क़ुव्वत-ए-शाम्मा ने कुछ महसूस किया, वो समझा कि गली में कूड़ा जलने की बू है। लेकिन ये मुख़्तलिफ़ बू थी। और नज़्दीक से रही थी। वो पहचानने से क़ासिर था, एक वसवसे के ज़ेर-ए-असर वो बावर्ची-ख़ाने तक गया।

    उसकी बीवी काँपते हाथों से चूल्हे में तस्वीरें जला रही थी। स्लीपर की आवाज़ सुनकर उसने आँसू पोंछ डाले थे। उसने मुड़कर देखा।

    जलती हुई तस्वीर की झलक देखकर वो फ़ौरन बोला, “ये तस्वीरें कहाँ छिपा रखी थीं?”

    वो ग़म से दोहरी होती हुई बोली, “इत्तिफ़ाक़ से मिल गईं।”

    “ऐसी चीज़ें इत्तिफ़ाक़न नहीं मिल जातीं।”

    वो राख को मुट्ठी में भर ने की कोशिश करने लगा।

    वो ग़म-ज़दा नफ़रत से उसे देखते हुए बोली, “मैं तुम्हारे झूट को सच समझती रही।”

    वो राख से हाथ काले करता रहा।

    “तुम जानती हो, सब कुछ धुआँ हो चुका है।”

    “तो राख क्यों समेट रहे हो?”, वो तल्ख़ी से बोली।

    “देखो कोई त’अल्लुक़ पूरी तरह ख़त्म नहीं होता।”

    “लेकिन उसकी ज़द में आने वाली हर शय ख़त्म हो जाती है।”

    वो कुछ भी नहीं बोल सका। बेचारगी से कंधे झुकाए कमरे की तरफ़ लौट गया। पहली बार उसने बुढ़ापे के ज़हर को हड्डियों में रेंगते महसूस किया।

    लगातार सिगरेट पीते हुए वो कुछ भूलना चाहता था। अख़बार पढ़ते हुए उसका ज़ेहन सोच रहा था।

    “सब कुछ तज कर दूसरे किनारे चला गया होता। काश, एक ज़िन्दगी और मिल जाती। ये ज़िन्दगी तो धुंद में टामक-टोइयाँ मारते गुज़र गई, जिन चीज़ों पर फ़ख़्र करता रहा वो बे-वक़’अत थीं।”

    आवारा भटकने की ख़्वाहिश के बावुजूद वो कमरे से बाहर नहीं निकला। उसके बेटे भी जाग उठे थे। घर की ख़ामोशी आवाज़ों से भर गई थी, बेटों ने टेप रिकार्डर बजाना शुरू’ कर दिया था। मुस्कुराने लगा। एक तरबिया गीत गुनगुनाते हुए वो मुतफ़क्किर था कि उसकी बीवी तस्वीरों के मुतअ’ल्लिक़ बेटों को बता दे।

    कुछ देर बा’द उसकी बीवी चाय की प्याली थामे वारिद हुई।

    वो सफ़ेद झंडी लहराते हुए बोला, “दोपहर तक चाय पिलाती रहोगी। नाश्ता नहीं बनाया क्या?”

    “ज़बरदस्ती निवाले तो ठूँसने से रही।”, वो ख़फ़गी से बोली और कमरे से निकल गई।

    वो चाय पीते हुए दीवारों की सफ़ेदी से झाँकते सीमेंट को देखने लगा। वहाँ ज़ाइचे खिंचे हुए थे। बहुत सी टेढ़ी-मेढ़ी लकीरें। शायद एक-आध लकीर मुस्तक़बिल की ख़स्ता-हाली की नुमाइंदा भी थी। वो जिसे ख़ुश-हाली की लकीर समझे बरसों से ढूँढ रहा था, लेकिन वो बद-नसीब लकीरों के जंगल में गुम हो गई थी। उसने दीवार पर उस जगह निगाह दौड़ाई, जहाँ पहाड़ियों की ओट से निकलते सूरज की तस्वीर लगी हुई थी। मगर अब वो जगह ख़ाली थी।

    जब गली में सूज़ूकी रुकने की घड़घड़ाहट सुनाई दी तो उसकी बीवी ने हिक़ारत से उसकी तरफ़ देखा लेकिन वो नशिस्त छोड़कर दरवाज़े की तरफ़ जा चुका था। उसकी बीवी ने उस लम्हे अपनी बर्बादी और रुसवाई को शिद्दत से महसूस किया।

    सबसे पहले ख़ाली पेटी को बाहर निकाला गया, उन्होंने फ़र्श से घिसटती हुई पेटी की दिल-दोज़ चीख़ें सुनीं, उसकी बीवी तिलमिला कर रह गई।

    “वो उसे उठा क्यों नहीं लेते?”, वो ग़म-ज़दा लहजे में बड़बड़ाई।

    “अपने कानों में रूई ठूँस लो।”, वो बे-रुख़ी से बोला।

    उसकी बीवी पुरानी बातें दोहराने लगी।

    “ये पेटी शादी के दूसरे साल ख़रीदी थी। तुम्हारी तनख़्वाह उन दिनों अस्सी रुपए होती थी। ये भी हमारे साथ दर-ब-दर घूमती रही है। इसका ख़याल रखना चाहिए। बहुत पुरानी हो गई है। कुंडियाँ टूट गईं, क़ब्ज़े ढीले पड़ गए। थोड़ी सी मरम्मत की ज़रूरत है। लेकिन मेरे बेटे इससे बचना चाहते हैं।”

    “शायद चार फेरे और लग जाएँ।”, वो सिगरेट का कश लगाते हुए बोला।

    “हाँ।”, वो उसे अकेला छोड़कर उठ गई।

    वो देर तक गम-सुम बैठा रहा।

    बीवी की चहकती हुई आवाज़ सुनकर वो किसी नींद से जागा।

    “देखो तो, काग़ज़ों में से कितनी पुरानी तस्वीर मिली है। ब्लैक ऐंड वाईट है। मुझे याद है। वो ‘ईद का दिन था। तुम किसी दोस्त से कैमरा माँग लाए थे। उस वक़्त नासिर चार साल का था और न’ईम तो उसी साल पैदा हुआ था।”, वो ख़ुशी से काँपती आवाज़ में बोलती चली गई।

    तस्वीर देखकर वो भी हँसने लगा। उसके बेटे सहमे हुए थे, जब कि वो अपनी मर्दानगी पर नाज़ाँ, बीवी के पहलू में मुस्कुरा रहा था। वो गुज़रे हुए सालों की बातें करने लगे।

    पुरानी तस्वीर की बाज़-याफ़्त ने उसके लिए मसरूफ़ियत का जवाज़ पैदा कर दिया था। वो कमरों के फ़र्श पर बिखरे काग़ज़ टटोलने लगा। बेकार तलाश के इस अ’मल में बहुत से पुराने अख़बारात, रसाइल, दोस्तों के ख़ुतूत, ‘ईद कार्ड, पुराने शनासाओं के वि​िज़टिंग कार्ड, फ़िल्मी अदाकाराओं की नीम-‘उर्यां तसावीर और भी बहुत कुछ उसकी नज़रों से गुज़रा, वो पसीने में भीग जाने के बावुजूद काग़ज़ के हर टुकड़े की तरफ़ अ’जीब हवस के साथ मुतवज्जह होता। उसने बहुत सी चीज़ों को जेबों में ठूँस लिया था।

    जब वो थकन से चूर हो गया तो उसे बीवी का ख़याल आया। उसे भी एक पिटारी मिल गई थी। वो जिसमें बहुत सी चीज़ों को सैंत-सैंत के रखती जाती थी।

    शाम से ज़रा पहले सामान मुन्तक़िल किया जा चुका था।

    उसने नासिर को तन्हा पाकर उसके कान में सरगोशी की और उसे ख़ाली कमरे में ले गया। जेबें टटोलने के बा’द उसने बटुआ निकाला, उसके एक ख़ाने में मुड़ा-तुड़ा एक रुपए का पुराना नोट रखा था।

    उसने वो नोट नासिर को देते हुए कहा, “तुम भाईयों में सबसे बड़े हो, जो मुझे मिलना था मिल चुका, अब तुम्हारी बारी है। मुझे ये नोट एक अल्लाह वाले ने दिया था। मैंने बीस साल सँभाल के रखा। अब तुम रखो। ये तुम पर दौलत के दरवाज़े खोल देगा। इसे कभी ख़र्च करना।”

    नासिर अपने वालिद की पुर-असरार आवाज़ और दिल-दोज़ लहजे को सुनता रहा।

    बेटे जा चुके थे, मियाँ बीवी तन्हाई में दर-ओ-दीवार को घूर रहे थे।

    वो गर्द-आलूद फ़र्श पर बलग़म, फेंकते हुए बोला, “हम नए मकान में जा रहे हैं। ये मकान मन्हूस था। नया बरकतों वाला होगा।”

    “वो भी किराए वाला।”, उसकी बीवी आँसुओं से भीगी आवाज़ में बोली।

    वो शाम के सुरमई अँधेरे में बहुत सी चीज़ों का पुलिंदा उठाए पुरानी गली से रुख़्सत हुए।

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