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क़ीमे की बजाय बोटियाँ

सआदत हसन मंटो

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सआदत हसन मंटो

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    स्टोरीलाइन

    एक मद्रासी डॉक्टर के दूसरे प्रेम-विवाह की त्रासदी पर आधारित कहानी। वह डॉक्टर बेहद बेतकल्लुफ़ था। अपने दोस्तों पर बेहिसाब ख़र्च किया करता था। तभी उसकी एक औरत से दोस्ती हो गई जो उस से पहले अपने तीन शौहरों को तलाक़़ दे चुकी थी। डॉक्टर ने कुछ अरसे बाद उससे शादी कर ली। मगर जल्द ही उनके बीच झगड़े होने लगे। उस औरत ने अपनी नौकरानियों और उनके शौहरों से डॉक्टर की पिटाई करा दी। बदले में डॉक्टर ने उनके टुकड़े-टुकड़े कर के लोगों को दावत में खिला दिया।

    डाक्टर सईद मेरा हमसाया था, उसका मकान मेरे मकान से ज़्यादा से ज़्यादा दो सौ गज़ के फ़ासले पर होगा। उसकी ग्रांऊड फ़्लोर पर उसका मतब था। मैं कभी कभी वहां चला जाता, एक दो घंटे की तफ़रीह हो जाती। बड़ा बज़्लासंज, अदब शनास और वज़ा’दार आदमी था।

    रहने वाला बंगलौर का था, मगर घर में बड़ी शुस्ता-ओ-रफ़्ता उर्दू में गुफ़्तगू करता था। उसने उर्दू के क़रीब क़रीब तमाम बड़े शोअ’रा का मुताला कुछ ऐसे ही इन्हिमाक से किया था कि जिस तरह उसने एम.बी.बी.एस कोर्स की जुमला किताबों का। मैं कई दफ़ा सोचता कि डाक्टर सईद को डाक्टर बनने की बजाय किसी भी मज़मून में एम.ए, पीएच.डी की डिग्री हासिल करनी चाहिए थी, इसलिए कि उस की उफ़्ताद तबअ’ के लिए ये निहायत मौज़ूं-ओ-मुनासिब होती।

    चुनांचे मैंने एक रोज़ उससे कहा,“डाक्टर साहब! आपने ये प्रोफ़ेशन क्यों इख़्तियार किया?”

    “क्यों?”

    मैंने उनसे कहा,“आप उर्दू, फ़ारसी ज़बान के बड़े अच्छे प्रोफ़ेसर होते, बड़े हर दिल-अज़ीज़। तालिब-ए-इ’ल्म आपके गरवीदा होते।”

    वो मुसकराया,“एक ही बात होती... नहीं, ज़मीन-ओ-आसमान का फ़र्क़ होता। मैं यहां अपने मतब में बड़े इत्मिनान से बैठा हर रोज़ कम अज़ कम सौ सवा सौ रुपये बना लेता हूँ, अगर मैंने कोई दूसरा पेशा इख़्तियार किया होता तो मुझे क्या मिलता?”

    “ज़्यादा से ज़्यादा छः सात सौ रुपये माहवार।”

    मैंने डाक्टर से कहा, “बड़ी मा’क़ूल आमदनी है।”

    “आप उसे मा’क़ूल कहते हैं? सौ रुपये के क़रीब तो मेरा अपना जेब ख़र्च है, आप जानते ही हैं कि मैं शराब पीने का आदी हूँ, और वो भी हर रोज़, क़रीब क़रीब पछत्तर रुपये तो उस पर उठ जाते हैं, फिर सिगरेट हैं, दोस्त-यारों की तवाज़ो है। ये सब ख़र्च क्या एक लेक्चरर, प्रोफ़ेसर, रीडर या प्रिंसिपल की तनख़्वाह पूरा कर सकती है?”

    में क़ाइल हो गया,“जी नहीं, आप डाक्टर होते, शाइ’र होते, अदीब होते, मुसव्विर होते।”

    मेरी बात काट कर उन्होंने एक छोटा सा क़हक़हा लगा कर कहा,“और फ़ाक़ा-कशी करता।” मैं भी हंस पड़ा

    डाक्टर सईद के इख़राजात वाक़ई बहुत ज़्यादा थे, इसलिए कि वो कंजूस नहीं था, इसके इलावा उसे अपने मतब से फ़ारिग़ हो कर फ़ुर्सत के औक़ात में दोस्त-यारों की महफ़िल जमाने में एक ख़ास क़िस्म की मसर्रत हासिल होती थी।

    शादी शुदा था, उसकी बीवी बंगलौर ही की थी जिसके बतन से दो बच्चे थे। एक लड़की और एक लड़का। उसकी बीवी उर्दू ज़बान से क़तअ’न नाआश्ना थी, इसलिए उसे तन्हाई की ज़िंदगी बसर करना पड़ती थी। कभी कभी छोटी लड़की आती और अपनी माँ का पैग़ाम डाक्टर के कान में हौले से पहुंचा देती और फिर दौड़ती हुई मतब से बाहर निकल जाती।

    थोड़ी ही देर में डाक्टर से मेरा दोस्ताना हो गया, बड़ा बेतकल्लुफ़ क़िस्म का। उसने मुझे अपनी गुज़श्ता ज़िंदगी के तमाम हालात-ओ-वाक़ियात सुनाए। मगर वो इतने दिलचस्प नहीं कि उनका तज़किरा किया जाये।

    अब मैंने बाक़ायदगी के साथ उनके हाँ जाना शुरू कर दिया। मैं भी चूँकि बोतल का रसिया था, इस लिए हम दोनों में गाढ़ी छनने लगी। एक दो माह के बाद मैंने महसूस किया कि डाक्टर सईद उलझा सा रहता है। अपने काम से उसकी दिलचस्पी दिन बदिन कम हो रही है। पहले तो मैं उसे टटोलता रहा, आख़िर मैंने साफ़ लफ़्ज़ों में उससे पूछा,“यार सईद, तुम आज कई दिन से खोए खोए से क्यों रहते हो?”

    डाक्टर सईद के होंटों पर फीकी सी मुस्कुराहट नुमूदार हुई, “नहीं तो।”

    “नहीं तो क्या, मैं इतना गधा तो नहीं कि पहचान भी सकूं कि तुम किसी ज़ेहनी उलझन में गिरफ़्तार हो।”

    डाक्टर सईद ने अपना विस्की का गिलास उठाया और होंटों तक ले जा कर कहा, “महज़ तुम्हारा वाहिमा है, या तुम अपनी नफ़सियात शनासी का मुझ पर रोब गांठना चाहते हो।”

    मैंने हथियार डाल दिए, हालाँकि उसका लब-ओ-लहजा साफ़ बता रहा था कि उसके दिल का चोर पकड़ा जा चुका है मगर उसे अपनी शिकस्त के ए’तराफ़ का हौसला नहीं। बहुत दिन गुज़र गए।

    अब वो कई कई घंटे अपने मतब से ग़ैर-हाज़िर रहने लगा। ये जानने के लिए कि वो कहाँ जाता है, क्या करता है, उसकी ज़ेहनी परेशानी का बाइ’स क्या है, मेरे दिल-ओ-दिमाग़ में बड़ी खुद बुद हो रही थी।

    अब इत्तफ़ाक़न अगर उससे मुलाक़ात होती तो मेरा बेइख़्तयार जी चाहता कि उससे एक बार फिर वो सवालात करूं जिनके जवाब से मेरी ज़ेहनी उलझन दूर हो और डाक्टर सईद के अ’क़ब में जो कुछ भी था, उसकी सही तस्वीर मेरी आँखों के सामने जाये। मगर ऐसा कोई तख़लिए का मौक़ा मिला।

    एक दिन शाम को जब मैं उसके मतब में दाख़िल हुआ तो उसके नौकर ने मुझे रोका,“साहब, अभी अंदर जाईए, डाक्टर साहब एक मरीज़ को देख रहे हैं।”

    “तो देखा करें।”

    नौकर ने मुअद्दबाना अर्ज़ की, “साहिब, वो, वो मेरा मतलब है कि मरीज़, औरत है।”

    “ओह, कब तक फ़ारिग़ हो जाऐंगे, इसके मुतअ’ल्लिक़ तुम्हें कुछ मालूम है?”

    नौकर ने जवाब दिया, “जी कुछ नहीं कह सकता, तक़रीबन एक घंटे से वो बेगम साहिबा को देख रहे हैं।” मैं थोड़े तवक्कुफ़ के बाद मुस्कुराया।

    “तो मर्ज़ कोई ख़ास मालूम होता है?”

    और ये कह कर मैंने ग़ैर-इरादी तौर पर डाक्टर सईद के कमरा-ए-तशख़ीस का दरवाज़ा खोल दिया। और अंदर दाख़िल हो गया।

    क्या देखता हूँ कि सईद एक अधेड़ उम्र की औरत के साथ बैठा है, तिपाई पर बियर की बोतल और दो गिलास रखे हैं, और दोनों महवे गुफ़्तगू हैं, सईद और वो मुहतरमा मुझे देख कर चौंक पड़े।

    मैंने अज़राह-ए-तकल्लुफ़ उनसे मा’ज़रत तलब की, और बाहर निकलने ही वाला था कि सईद पुकारा, “कहाँ चले, बैठो।”

    मैंने सईद से कहा, “मेरी मौजूदगी शायद आपकी गुफ़्तुगू में मुख़िल हो।”

    सईद ने उठ कर मुझे काँधों से पकड़ कर एक कुर्सी पर बिठा दिया, “हटाओ यार इस तकल्लुफ़ को।”

    फिर उसने एक ख़ाली गिलास में मेरे लिए बियर उंडेली और उसे मेरे सामने रख दिया, “लो, पियो।” मैंने दो घूँट भरे तो सईद ने उस अधेड़ उम्र की औरत से जो लिबास और ज़ेवरों से काफ़ी मालदार मालूम होती थी, तआ’रुफ़ कराया।

    “सलमा रहमानी और ये मेरे अज़ीज़ दोस्त सआदत हसन मंटो।”

    सलमा रहमानी चंद साअ’तों के लिए मुझे बड़े ग़ौर और तअ’ज्जुब से देखती रही।

    “सईद, क्या वाक़ई ये सआदत हसन मंटो हैं जिनके अफ़सानों के सारे मजमुए मैं बड़े ग़ौर से एक नहीं दो-दो, तीन-तीन मर्तबा पढ़ चुकी हूँ।”

    डाक्टर सईद ने अपना गिलास उठाया,“हाँ, वही हैं। मैंने कई मर्तबा ख़याल किया कि इससे तुम्हारा ग़ायबाना तआ’रुफ़ करा दूं पर मैंने सोचा तुम इस नाम से यक़ीनन वाक़िफ़ होगी, शैतान को कौन नहीं जानता?

    सलमा रहमानी ये सुन कर पेट भर के हंसी और उसका पेट आम पेटों के मुक़ाबले में कुछ ज़्यादा ही बड़ा था।

    इसके बाद मिस सलमा रहमानी से कई मुलाक़ातें हुईं, पढ़ी-लिखी औरत थी। बड़े अच्छे घराने से मुतअ’ल्लिक़ थी। तफ़तीश किए बग़ैर मुझे उसके मुतअ’ल्लिक़ चंद मालूमात हासिल हो गईं कि वो तीन खाविंदों से तलाक़ ले चुकी है। साहब-ए-औलाद है, जहां रहती है, उस घर में दो छोटे छोटे कमरे और एक गुस्लख़ाना है, वहां अकेली रहती है। ग़ैर मनक़ूला जायदाद से उसकी आमदन चार-पाँच सौ रुपये माहवार के क़रीब है। हीरे की अंगूठियाँ पहनती है।

    उन अँगूठीयों में से एक मैंने दूसरे रोज़ शाम को सईद की उंगली में देखी।

    तीसरे रोज़ शाम को डाक्टर सईद के मतब में सलमा रहमानी मौजूद थी। दोनों बहुत ख़ुश थे और चहचहा रहे थे। मैं भी उनकी बियर नोशी में शरीक हो गया।

    पिछले एक हफ़्ते से मैं देख रहा था कि डाक्टर सईद के कमरा-ए-तशख़ीस से कुछ दूर जो कमरे ख़ाली पड़े रहते हैं, उनकी बड़ी तवज्जो से मरम्मत कराई जा रही है, उनको सजाया बनाया जा रहा है। फ़र्नीचर जब लाया गया तो वही था जो मैंने सलमा रहमानी के घर देखा था।

    इतवार को डाक्टर सईद की छुट्टी का दिन होता है। किवाड़ बंद रहते ताकि उसको तंग किया जाये।

    मुझे तो वहां हर वक़्त आने जाने की इजाज़त थी, एक और चोर दरवाज़ा था। उसके ज़रिये मैं अंदर पहुंचा और सीधा उन दो कमरों का रुख़ किया जिनकी मरम्मत कराई गई थी।

    दरवाज़ा खुला था, मैं अंदर दाख़िल हुआ तो हस्ब-ए-तवक़्क़ो डाक्टर सईद की बग़ल में सलमा रहमानी बैठी थी।

    सईद ने मुझ से कहा,“मेरी बीवी सलमा रहमानी से मिलो।”

    मुझे उस औरत से क्या मिलना था, सैंकड़ों बार मिल चुका था। लेकिन अगर किसी औरत की शादी हो तो उसको किन अलफ़ाज़ में मुबारकबाद देनी चाहिए? इसके बारे में मेरी मालूमात सिफ़र के बराबर थीं, समझ में आया कि क्या कहूं।

    लेकिन कहना भी कुछ ज़रूर था, इसलिए जो मुँह में आया, बाहर निकाल दिया, “तो आख़िर इस ड्रामे का ड्राप सीन हो गया?

    मियां-बीवी दोनों हंसे।

    सईद ने मुझे बैठने को कहा, बियर पेश की और हम शादी के इलावा दुनिया के हर मौज़ू पर देर तक गुफ़्तगू करते रहे।

    मैं शाम पाँच बजे आया था, घड़ी देखी तो नौ बजने वाले थे। मैंने सईद से कहा, “लो भई, मैं चला, बातों बातों में इतनी देर हो गई है, इसका मुझे इल्म नहीं था।”

    सईद के बजाय सलमा रहमानी, माफ़ कीजिएगा, सलमा सईद मुझसे मुख़ातिब हुईं, “नहीं, आप नहीं जा सकते, खाना तैयार है, अगर आप कहें तो लगवा दिया जाये।”

    ख़ैर, सईद और उसकी नई बीवी के पैहम इसरार पर मुझे खाना खाना पड़ाजो बहुत ख़ुश-ज़ायका और लज़ीज़ था।

    दो बरस तक उनकी ज़िंदगी बड़ी हमवार गुज़रती रही। एक दिन मैं नासाज़ि-ए-तबीयत के बाइ’स बिस्तर ही में लेटा था कि नौकर ने इत्तिला दी, “डाक्टर सईद साहब तशरीफ़ लाए हैं।”

    मैंने कहा,“अंदर, जाओ उनको अंदर भेज दो।

    सईद आया तो मैंने महसूस किया वो बहुत मुज़्तरिब और परेशान है। उसने मुझे कुछ पूछने की ज़हमत दी और अपने आप बता दिया कि “सलमा से उसकी नाचाक़ी शुरू हो गई है, इसलिए कि वो ख़ुद-सर औरत है, किसी को ख़ातिर ही में नहीं लाती। मैंने सिर्फ़ इसलिए उससे शादी कर ली थी कि वो अकेली थी। उसके अज़ीज़-ओ-अक़रिबा उसे पूछते ही नहीं थे, जब वो बीमार हुई और ये कोई मामूली बीमारी नहीं थी... डिपथीरिया था जिसे ख़नाक़ कहते हैं तो मैंने अपना तमाम काम छोड़कर उसका ईलाज किया और ख़ुदा के फ़ज़्ल-ओ-करम से वो तंदुरुस्त हो गई, पर अब वो उन तमाम बातों को पस-ए-पुश्त डाल कर मुझसे कुछ इस क़िस्म का सुलूक करती है जो बेहद नारवा है।”

    तो आग़ाज़ का अंजाम शुरू हो गया था।

    चूँकि डाक्टर सईद का घर मेरे घर के बिल्कुल पास था, इसलिए उनकी लड़ाईयों की इत्तिलाआ’त हमें मुख़्तलिफ़ ज़रियों से पहुंचती रहती थीं।

    सलमा के साथ दो नौकरानियां थीं, बड़ी तेज़ तर्रार और हट्टी कट्टी। उन दोनों के शौहर थे, वो एक तरह उसके मुलाज़िम थे, उसके इशारे पर जान दे देने वाले और डाक्टर सईद बड़ा नहीफ़ और मुख़्तसर मर्द।

    एक दिन मालूम हुआ कि डाक्टर सईद और सलमा ने पी रखी थी कि आपस में दोनों की चख़ चख़ हो गई। डाक्टर ने मालूम नहीं नशे में क्या कहा कि सलमा आग बगूला हो गई।

    उसने अपनी दोनों नौकरानियों को आवाज़ दी, वो दौड़ी दौड़ी अंदर आईं। सलमा ने उनको हुक्म दिया कि “डाक्टर की अच्छी तरह मरम्मत कर दी जाये, ऐसी मरम्मत कि सारी उम्र याद रखे।”

    ये हुक्म मिलना था कि डाक्टर सईद की मरम्मत शुरू हो गई। उन दोनों नौकरानियों ने अपने शौहरों को भी उस सिलसिले में शामिल कर लिया। लाठियों, घूंसों और दूसरे थर्ड डिग्री तरीक़ों से उसे ख़ूब मारा पीटा गया कि उसका कचूमर निकल गया।

    उफ़्तां-ओ-ख़ीज़ां भागा वहां से, और ऊपर अपनी पुरानी बीवी के पास पहुंच गया जिसने मुस्तैद नर्स की तरह उसकी ख़िदमत शुरू कर दी।

    इसके बाद ये हुआ कि उसने उन दो कमरों का रुख़ क़रीब क़रीब दो माह तक किया। अब वो सलमा से किसी क़िस्म का रिश्ता क़ायम नहीं करना चाहता था।

    हो गया, सो हो गया। अब उसको अपने घर से बहुत ज़्यादा दिलचस्पी पैदा हो गई थी। लेकिन कभी कभी उसे ये महसूस होता कि ये औरत जिससे उसने शादी का ढोंग रचाया था, क्यों अभी तक उसके सर पर मुसल्लत है, उसके घर से चली क्यों नहीं जाती। मगर उससे बात नहीं करना चाहता था।

    एक दो माह और गुज़र गए।

    इस दौरान डाक्टर सईद को मालूम हुआ कि उसका यूपी के ताजिर से मआशक़ा चल रहा है। ये शख़्स सिर्फ़ नाम ही का ताजिर था, उसके पास कोई दौलत नहीं थी। सिर्फ़ एक मकान था जो उसने हिज्रत करने के बाद अपने नाम अलॉट करा लिया था।

    दोनों हर रोज़ शाम को मेरे यहां आते, शे’र-ओ-शराब की महफ़िलें जमतीं और मेरे सीने पर मूंग दलती रहतीं।

    एक दिन उससे ये कहे बग़ैर रहा जा सका।

    मैंने ज़रा सख़्त लहजे में उस से कहा,“अव़्वल तो तुमने ये ग़लती की, कि सलमा से शादी की, दूसरी ग़लती तुम ये कर रहे हो कि उसे अपने घर से बाहर नहीं करते। क्या ये उसके बाप का घर है?”

    डाक्टर सईद की गर्दन शर्मसारी के बाइ’स झुक गई,“यार! छोड़ो इस क़िस्से को।”

    “क़िस्से को तो तुम और मैं दोनों छोड़ने के लिए तैयार हैं, लेकिन ये क़िस्सा ही तुम्हें नहीं छोड़ता... और छोड़ेगा, जबकि तुम कोई भी मर्दानावार कोशिश नहीं करते।”

    वो ख़ामोश रहा।

    मैंने उस पर एक गोला और फेंका,“सच पूछो तो सईद, तुम नामर्द हो। मैं तुम्हारी जगह होता तो मुहतरमा का क़ीमा बना डालता, असल में तुम ज़रूरत से ज़्यादा ही शरीफ़ हो।”

    सईद ने नक़ाहत भरी आवाज़ में सिर्फ़ इतना कहा,“मैं बहुत ख़तरनाक मुजरिम भी बन सकता हूँ, तुम नहीं जानते।”

    मैंने तंज़न कहा, “सब जानता हूँ, उससे इतनी मार खाई, इतने ज़लील हुए। मैं सिर्फ़ इतना पूछता हूँ कि मुहतरमा तुम्हारे घर से जाती क्यों नहीं ? इस पर उसका अब क्या हक़ है?”

    सईद ने जवाब दिया,“वो चली गई है और उसका सामान भी, बल्कि मेरा सामान भी अपने साथ ले गई है।”

    मैं बहुत ख़ुश हुआ,“ला’नत भेजो अपने सामान पर, चली गई है, बस ठीक है। तुम ख़ुश, तुम्हारा ख़ुदा ख़ुश, चलो इसी ख़ुशी में वो बियर की यख़-बस्ता बोतलें पियें जो मैं अपने साथ लाया हूँ। इसके बाद खाना किसी होटल में खाएंगे।”

    सलमा के जाने के बाद डाक्टर सईद कम अज़ कम एक माह तक खोया खोया सा रहा। उसके बाद वो अपनी नॉर्मल हालत में गया। हर शाम उससे मुलाक़ात होती, घंटों इधर उधर की बातें करते और हंसी मज़ाक़ करते रहते।

    कुछ दिनों से मेरी तबीयत मौसम की तबदीली के बाइ’स बहुत मुज़्महिल थी।

    बिस्तर में लेटा था कि डाक्टर सईद का मुलाज़िम आया, उसने मुझसे कहा कि “डाक्टर साहब आप को याद करते हैं और बुला रहे हैं, एक ज़रूरी काम है।”

    मेरा जी तो नहीं चाहता था कि बिस्तर से उठूँ, मगर सईद को नाउम्मीद नहीं करना चाहता था, इस लिए शेरवानी पहन कर उसके यहां पहुंचा।

    मकान के बाहर देखा कि चार देगें चढ़ी हैं।

    क़साई धड़ा धड़ बोटियां काट काट कर सफ़ के एक टुकड़े पर फेंके चला जा रहा है। आस पास के कई आदमी जमा थे।

    मैं समझा शायद कोई नज़र नियाज़ दी जा रही है। मैंने गोश्त का वो बड़ा सा लोथड़ा देखा जिस पर कुल्हाड़ी चलाई जा रही थी। उसके साथ दो बाँहें थीं ! बिल्कुल इंसानों की मानिंद!

    मैंने फिर ग़ौर से देखा, क़तई तौर पर इंसानी बाँहें थीं। समझ में आया, ये क़िस्सा क्या है?

    कसाई की छुरी और कुल्हाड़ी चल रही थी... चार देग़ों में प्याज़ सुर्ख़ की जा रही थी और मेरा दिल-ओ-दिमाग़ इन दोनों के दरमियान फंसता और धंसता चला जा रहा था कि डाक्टर सईद नुमूदार हुआ। मुझे देखते ही पुकारा,“आईए, आईए, आपके कहने के मुताबिक़ क़ीमा तो बन सका। मगर ये बोटियां तैयार करा ली गई हैं, अभी अच्छी तरह भूनी नहीं गईं। वर्ना मैं आपको एक बोटी पेश करता, ये मालूम करने के लिए कि मिर्च मसाला ठीक है या नहीं!”

    ये सुन कर पहले मुझे मतली आई और फिर मैं बेहोश हो गया।

    स्रोत:

    بغیر اجازت

      • प्रकाशन वर्ष: 1955

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