Font by Mehr Nastaliq Web

aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

jis ke hote hue hote the zamāne mere

रद करें डाउनलोड शेर

उल्लू का पट्ठा

सआदत हसन मंटो

उल्लू का पट्ठा

सआदत हसन मंटो

MORE BYसआदत हसन मंटो

    स्टोरीलाइन

    क़ासिम एक दिन सुबह सो कर उठता है तो उसके अंदर यह शदीद ख्वाहिश जागती है कि वह किसी को उल्लू का पठ्ठा कहे। बहुत से ढंग और अवसर सोचने के बाद भी वह किसी को उल्लू का पठ्ठा नहीं कह पाया और फिर दफ़्तर के लिए निकल पड़ता है। रास्ते में एक लड़की की साड़ी साईकिल के पहिये में फंस जाती है, जिसे वह निकालने की कोशिश करता है लेकिन लड़की को नागवार गुज़रता है और वह उसे "उल्लू का पठ्ठा" कह कर चली जाती है।

    क़ासिम सुबह सात बजे लिहाफ़ से बाहर निकला और ग़ुसलख़ाने की तरफ चला। रास्ते में, ये इसको ठीक तौर पर मालूम नहीं, सोने वाले कमरे में, सहन में या ग़ुसलख़ाने के अंदर उसके दिल में ये ख़्वाहिश पैदा हुई कि वो किसी को उल्लु का पट्ठा कहे। बस सिर्फ़ एक बार ग़ुस्से में या तंज़िया अंदाज़ में किसी को उल्लू का पट्ठा कह दे।

    क़ासिम के दिल में इससे पहले कई बार बड़ी बड़ी अनोखी ख्वाहिशें पैदा हो चुकी थीं मगर ये ख़्वाहिश सबसे निराली थी। वो बहुत ख़ुश था। रात उसको बड़ी प्यारी नींद आई थी। वो ख़ुद को बहुत तर-ओ-ताज़ा महसूस कर रहा था। लेकिन फिर ये ख़्वाहिश कैसे उसके दिल में दाख़िल होगई। दाँत साफ़ करते वक़्त उसने ज़रूरत से ज़्यादा वक़्त सर्फ़ किया जिस के बाइस उसके मसूड़े छिल गए। दरअसल वो सोचता रहा कि ये अजीब-ओ-ग़रीब ख़्वाहिश क्यों पैदा हुई। मगर वो किसी नतीजे पर पहुंच सका।

    बीवी से वो बहुत ख़ुश था। उनमें कभी लड़ाई हुई थी, नौकरों पर भी वो नाराज़ नहीं था। इस लिए कि ग़ुलाम मुहम्मद और नबी बख़्श दोनों ख़ामोशी से काम करने वाले मुस्तइद नौकर थे। मौसम भी निहायत ख़ुशगवार था। फरवरी के सुहाने दिन थे जिनमें कुंवारपने की ताज़गी थी। हवा ख़ुनक और हल्की। दिन छोटे रातें लंबी। नेचर का तवाज़ुन बिल्कुल ठीक था और क़ासिम की सेहत भी ख़ूब थी। समझ में नहीं आता था कि किसी को बग़ैर वजह के उल्लू का पट्ठा कहने की ख़्वाहिश उसके दिल में क्योंकर पैदा होगई।

    क़ासिम ने अपनी ज़िंदगी के अट्ठाईस बरसों में मुतअद्दिद लोगों को उल्लु का पट्ठा कहा होगा और बहुत मुम्किन है कि इससे भी कड़े लफ़्ज़ उसने बा’ज़ मौक़ों पर इस्तेमाल किए हों और गंदी गालियां भी दी हों मगर उसे अच्छी तरह याद था कि ऐसे मौक़ों पर ख़्वाहिश बहुत पहले उसके दिल में पैदा नहीं हुई थी मगर अब अचानक तौर पर उसने महसूस किया था कि वो किसी को उल्लु का पट्ठा कहना चाहता है और ये ख़्वाहिश लम्हा-ब-लम्हा शिद्दत इख़्तियार करती चली गई जैसे उस ने अगर किसी को उल्लू का पट्ठा कहा तो बहुत बड़ा हर्ज हो जाएगा।

    दाँत साफ़ करने के बाद उसने छिले हुए मसूड़ों को अपने कमरे में जा कर आईने में देखा। मगर देर तक उनको देखते रहने से भी वो ख़्वाहिश दबी जो एका एकी उसके दिल में पैदा होगई थी।

    क़ासिम मंतक़ी क़िस्म का आदमी था। वो बात के तमाम पहलूओं पर ग़ौर करने का आदी था। आईना मेज़ पर रख कर वह आराम कुर्सी पर बैठ गया और ठंडे दिमाग़ से सोचने लगा।

    मान लिया कि मेरा किसी को उल्लू का पट्ठा कहने को जी चाहता है, मगर ये कोई बात तो हुई... मैं किसी को उल्लु का पट्ठा क्यों कहूं? मैं किसी से नाराज़ भी तो नहीं हूँ।

    ये सोचते सोचते उसकी नज़र सामने दरवाज़े के बीच में रखे हुए हुक्क़े पर पड़ी। एक दम उसके दिल में ये बातें पैदा हुईं, अजीब वाहियात नौकर है। दरवाज़े के ऐन बीच में ये हुक़्क़ा टिका दिया है। में अभी इस दरवाज़े से अंदर आया हूँ, अगर ठोकर से भरी हुई चिलिम गिर पड़ती तो पा अंदाज़ जोकि मूंज का बना हुआ है जलना शुरू हो जाता और साथ ही क़ालीन भी...

    उसके जी में आई कि ग़ुलाम मुहम्मद को आवाज़ दे। जब वो भागा हुआ उसके सामने आजाए तो वो भरे हुए हुक़्क़े की तरफ़ इशारा करके उससे सिर्फ़ इतना कहे, “तुम निरे उल्लु के पट्ठे हो।” मगर उसने तअम्मुल किया और सोचा, “यूं बिगड़ना अच्छा मालूम नहीं होता। अगर ग़ुलाम मुहम्मद को अब बुला कर उल्लु का पट्ठा कह भी दिया तो वो बात पैदा होगी और फिर... और फिर उस बेचारे का कोई क़ुसूर भी तो नहीं है। मैं दरवाज़े के पास बैठ कर ही तो हर रोज़ हुक्क़ा पीता हूँ।”

    चुनांचे वो ख़ुशी जो एक लम्हे के लिए क़ासिम के दिल में पैदा हुई थी कि उसने उल्लु का पट्ठा कहने के लिए एक अच्छा मौक़ा तलाश कर लिया, ग़ायब हो गई।

    दफ़्तर के वक़्त में अभी काफ़ी देर थी। पूरे दो घंटे पड़े थे, दरवाज़े के पास कुर्सी रख कर क़ासिम अपने मामूल के मुताबिक़ बैठ गया और हुक़्क़ानोशी में मसरूफ़ हो गया।

    कुछ देर तक वो सोच-बिचार किए बग़ैर हुक़्क़े का धुआं पीता रहा और धुंए के इंतिशार को देखता रहा। लेकिन जूंही वो हुक़्क़े को छोड़कर कपड़े तबदील करने के लिए साथ वाले कमरे में गया तो उसके दिल में वही ख़्वाहिश नई ताज़गी के साथ पैदा हुई।

    क़ासिम घबरा गया। भई हद होगई... उल्लु का पट्ठा... मैं किसी को उल्लु का पट्ठा क्यों कहूं और ब-फर्ज़-ए-मुहाल मैंने किसी को उल्लु का पट्ठा कह भी दिया तो क्या होगा?

    क़ासिम दिल ही दिल में हंसा। वो सही-हु-द्दिमाग़ आदमी था। उसे अच्छी तरह मालूम था कि ये ख़्वाहिश जो उसके दिल में पैदा हुई है बिल्कुल बेहूदा और बेसर-ओ-पा है लेकिन इसका क्या ईलाज था कि दबाने पर वो और भी ज़्यादा उभर आती थी।

    क़ासिम अच्छी तरह जानता था कि वो बग़ैर किसी वजह के उल्लु का पट्ठा कहेगा। ख़्वाह ये ख़्वाहिश सदियों तक उसके दिल में तिलमिलाती रहे, शायद इसी एहसास के बाइस ये ख़्वाहिश जो भटकी हुई चमगादड़ की तरह उसके रोशन दिल में चली आई थी। इस क़दर तड़प रही थी।

    पतलून के बटन बंद करते वक़्त जब उसने दिमाग़ी परेशानी के बाइस ऊपर का बटन निचले काज में दाख़िल कर दिया तो वो झल्ला उठा। भई होगा... ये क्या बेहूदगी है? दीवानापन नहीं तो और क्या है? उल्लु का पट्ठा कहो... उल्लु का पट्ठा कहो और ये पतलून के सारे बटन मुझे फिर से बंद करने पड़ेंगे। लिबास पहन कर वो मेज़ पर बैठा। उसकी बीवी ने चाय बना कर प्याली उसके सामने रख दी और तोस पर मक्खन लगाना शुरू कर दिया। रोज़ाना मामूल की तरह हर चीज़ ठीक ठाक थी, तोस इतने अच्छे सेंके हुए थे कि बिस्कुट की तरह कुरकुरे थे और डबल रोटी भी आला क़िस्म की थी। ख़मीर में से ख़ुशबू आरही थी। मक्खन भी साफ़ था, चाय की केतली बेदाग़ थी। उसकी हथ्थी के एक कोने पर क़ासिम हर रोज़ मैल देखा करता था। मगर आज वो धब्बा भी नहीं था।

    उसने चाय का एक घूँट पिया। उसकी तबीयत ख़ुश हो गई। ख़ालिस दार्जिलिंग की चाय थी। जिस की महक पानी में भी बरक़रार थी। दूध की मिक़दार भी सही थी।

    क़ासिम ने ख़ुश हो कर अपनी बीवी से कहा, “आज चाय का रंग बहुत ही प्यारा है और बड़े सलीक़े से बनाई गई है।”

    बीवी तारीफ़ सुन कर ख़ुश हुई, मगर उसने मुँह बना कर एक अदा से कहा, “जी हाँ। बस आज इत्तिफ़ाक़ से अच्छी बन गई है वर्ना हर रोज़ तो आपको नीम घोल के पिलाई जाती है... मुझे सलीक़ा कहाँ आता है,. सलीक़े वालियां तो वो मुई होटल की छोकरियां हैं जिनके आप हर वक़्त गुन गाया करते हैं।”

    ये तक़रीर सुनकर क़ासिम की तबीयत मुकद्दर होगई। एक लम्हा के लिए उसके जी में आई कि चाय की प्याली मेज़ पर उलट दे और वो नीम जो उसने अपने बच्चे की फुंसियां धोने के लिए ग़ुलाम मुहम्मद से मंगवाई थी और सामने बड़े ताक़चे में पड़ी थी घोल कर पी ले, मगर उसने बुर्दबारी से काम लिया।

    ये औरत मेरी बीवी है। इसमें कोई शक नहीं कि उसकी बात बहुत ही भोंडी है मगर हिंदुस्तान में सब लड़कियां बीवी बन कर ऐसी भोंडी बातें ही करती हैं और बीवी बनने से पहले अपने घरों में वो अपनी माओं से कैसी बातें सुनती हैं?

    बिल्कुल ऐसी अदना क़िस्म की बातें और उसकी वजह सिर्फ़ ये है कि औरतों को उमूमी ज़िंदगी में अपनी हैसियत की ख़बर ही नहीं। मेरी बीवी तो फिर भी ग़नीमत है यानी सिर्फ़ एक अदा के तौर पर ऐसी भोंडी बात कह देती है, उसकी नीयत नेक होती है। बा’ज़ औरतों का तो ये शिआर होता है कि हर वक़्त बकवास करती रहती हैं।

    ये सोच कर क़ासिम ने अपनी निगाहें उस ताक़चे पर से हटा लीं जिसमें नीम के पत्ते धूप में सूख रहे थे और बात का रुख़ बदल कर उसने मुस्कुराते हुए कहा, “देखो, आज नीम के पानी से बच्चे की टांगें ज़रूर धो देना। नीम ज़ख़्मों के लिए बड़ी अच्छी होती है और देखो, तुम मौसंबियों का रस ज़रूर पिया करो... मैं दफ़्तर से लौटते हुए एक दर्जन और ले आऊँगा। ये रस तुम्हारी सेहत के लिए बहुत ज़रूरी है।”

    बीवी मुस्कुरा दी, “आपको तो बस हर वक़्त मेरी ही सेहत का ख़याल रहता है। अच्छी भली तो हूँ, खाती हूँ, पीती हूँ, दौड़ती हूँ, भागती हूँ। मैंने जो आपके लिए बादाम मंगवा के रखे हैं, भई आज दस बीस आपकी जेब में डाले बग़ैर रहूंगी, लेकिन दफ़्तर में कहीं बांट दीजिएगा।”

    क़ासिम ख़ुश होगया कि चलो मौसंबियों के रस और बादामों ने उसकी बीवी के मस्नूई ग़ुस्से को दूर कर दिया और ये मरहला आसानी से तय होगया। दरअसल क़ासिम ऐसे मरहलों को आसानी के साथ इन तरीक़ों ही से तय किया करता था जो उसने पड़ोस के पुराने शौहरों से सीखे थे और अपने घर के माहौल के मुताबिक़ उनमें थोड़ा बहुत रद्दोबदल कर लिया था।

    चाय से फ़ारिग़ होकर उसने जेब से सिगरेट निकाल कर सुलगाया और उठ कर दफ़्तर जाने की तैयारी करने ही वाला था कि फिर वही ख़्वाहिश नमूदार हो गई। इस मर्तबा उसने सोचा, “अगर मैं किसी को उल्लु का पट्ठा कह दूं तो क्या हर्ज है। ज़ेर-ए-लब बिल्कुल हौले से कह दूं, उल्लु... का... पट्ठा... तो मेरा ख़याल है कि मुझे दिली तस्कीन हो जाएगी। ये ख़्वाहिश मेरे सीने में बोझ बन कर बैठ गई है। क्यों उसको हल्का कर दूँ... दफ़्तर में।”

    उसको सहन में बच्चे का कमोड नज़र आया। यूं सहन में कमोड रखना सख़्त बदतमीज़ी थी और ख़ुसूसन उस वक़्त जब कि वो नाश्ता कर चुका था और ख़ुशबूदार कुरकुरे तोस और तले हुए अंडों का ज़ायक़ा अभी तक उसके मुँह में था। उसने ज़ोर से आवाज़ दी, “ग़ुलाम मुहम्मद।”

    क़ासिम की बीवी जो अभी तक नाश्ता कर रही थी बोली, “ग़ुलाम मुहम्मद बाहर गोश्त लेने गया है... कोई काम था आपको उससे?”

    एक सेकेण्ड के अंदर अंदर क़ासिम के दिमाग़ में बहुत सी बातें आईं, कह दूं, ये ग़ुलाम मुहम्मद उल्लु का पट्ठा है... और ये कह कर जल्दी से बाहर निकल जाऊं। नहीं... वो ख़ुद तो मौजूद ही नहीं, फिर... बिल्कुल बेकार है, लेकिन सवाल ये है कि बेचारे ग़ुलाम मुहम्मद ही को क्यों निशाना बनाया जाये। उसको तो मैं हर वक़्त उल्लु का पट्ठा कह सकता हूँ...”

    क़ासिम ने अध जला सिगरेट गिरा दिया और बीवी से कहा, “कुछ नहीं, मैं उससे ये कहना चाहता था कि दफ़्तर में मेरा खाना बेशक डेढ़ बजे ले आया करे... तुम्हें खाना जल्दी भेजने में बहुत तकलीफ़ करना पड़ती है।” ये कहते हुए उसने बीवी की तरफ़ देखा जो फ़र्श पर उसके गिराए हुए सिगरेट को देख रही थी।

    क़ासिम को फ़ौरन अपनी ग़लती का एहसास हुआ। ये सिगरेट अगर बुझ गया और यहां पड़ा रहा तो उसका बच्चा रेंगता रेंगता आएगा और उसे उठा कर मुँह में डाल लेगा। जिसका नतीजा ये होगा कि उसके पेट में गड़बड़ मच जाएगी।

    क़ासिम ने सिगरेट का टुकड़ा उठा कर ग़ुसलख़ाने की मोरी में फेंक दिया। ये भी अच्छा हुआ कि मैंने जज़्बात से मग़्लूब हो कर ग़ुलाम मुहम्मद को उल्लु का पट्ठा नहीं कह दिया। उससे अगर एक ग़लती हुई है तो अभी अभी मुझसे भी तो हुई थी और मैं समझता हूँ कि मेरी ग़लती ज़्यादा शदीद थी...

    क़ासिम बड़ा सही-हु-द्दिमाग़ आदमी था। उसे इस बात का एहसास था कि वो सही ख़ुतूत पर ग़ौर-ओ-फ़िक्र करने वाला इंसान है। मगर इस एहसास ने उसके अंदर बरतरी का ख़याल कभी पैदा नहीं किया था। यहां पर फिर उसकी सही-हु-द्दिमाग़ी को दख़ल था कि वो एहसास-ए-बरतरी को अपने अंदर दबा दिया करता था।

    मोरी में सिगरेट का टुकड़ा फेंकने के बाद उसने बिला ज़रूरत सहन में टहलना शुरू कर दिया। वो दरअसल कुछ देर के लिए बिल्कुल ख़ाली-उ-ज़्ज़ेहन होगया था।

    उसकी बीवी नाश्ता का आख़िरी तोस खा चुकी थी। क़ासिम को यूं टहलते देख कर वो उसके पास आई और कहने लगी, “क्या सोच रहे हैं आप।”

    क़ासिम चौंक पड़ा, “कुछ नहीं... कुछ नहीं... दफ़्तर का वक़्त होगया क्या?” ये लफ़्ज़ उसकी ज़बान से निकले और दिमाग़ में वही उल्लु का पट्ठा कहने की ख़्वाहिश तड़पने लगी।

    उसके जी में आई कि बीवी से साफ़ साफ़ कह दे कि ये अजीब-ओ-ग़रीब ख़्वाहिश उसके दिल में पैदा होगई है जिसका सर है पैर, बीवी ज़रूर सुनेगी और ये भी ज़ाहिर है कि उसको बीवी का साथ देना पड़ेगा।

    चुनांचे यूं हंसी-हंसी में उल्लु का पट्ठा कहने की ख़्वाहिश उसके दिमाग़ से निकल जाएगी। मगर उसने ग़ौर किया, इसमें कोई शक नहीं कि बीवी हंसेगी और मैं ख़ुद भी हंसूंगा। लेकिन ऐसा हो कि ये बात मुस्तक़िल मज़ाक़ बन जाये... ऐसा हो सकता है... हो सकता है क्या, ज़रूर हो जाएगा। और बहुत मुम्किन है कि अंजाम कार नाख़ुशगवारी पैदा हो। चुनांचे उसने अपनी बीवी से कुछ कहा और एक लम्हा तक उसकी तरफ़ यूंही देखता रहा।

    बीवी ने बच्चे का कमोड उठा कर कोने में रख दिया और कहा, “आज सुबह आपके बरखु़र्दार ने वो सताया है कि अल्लाह की पनाह... बड़ी मुश्किलों के बाद मैंने उसे कमोड पर बिठाया। उसकी मर्ज़ी ये थी कि बिस्तर ही को ख़राब करे, आख़िर लड़का किसका है?

    क़ासिम को इस क़िस्म की चख़ पसंद थी। ऐसी बातों में वो तीखे मज़ाह की झलक देखता था। मुस्कुरा कर उसने बीवी से कहा, “लड़का मेरा ही है मगर... मैंने तो आज तक कभी बिस्तर ख़राब नहीं किया। ये आदत उसकी अपनी होगी।”

    बीवी ने उसकी बात का मतलब समझा। क़ासिम को मुतलक़न अफ़सोस हुआ, इसलिए कि ऐसी बातें वो सिर्फ़ अपने मुँह का ज़ायक़ा दुरुस्त रखने के लिए किया करता था। वो और भी ख़ुश हुआ जब उसकी बीवी ने जवाब दिया और ख़ामोश होगई।

    “अच्छा, भई मैं अब चलता हूँ, ख़ुदा हाफ़िज़!”

    ये लफ़्ज़ जो हर रोज़ उसके मुँह से निकलते थे आज भी अपनी पुरानी आसानी के साथ निकले और क़ासिम दरवाज़ा खोल कर बाहर चल दिया।

    कश्मीरी गेट से निकल कर जब वो निकल्सन पार्क के पास से गुज़र रहा था तो उसे एक दाढ़ी वाला आदमी नज़र आया। एक हाथ में खुली हुई शलवार थामे वो दूसरे हाथ से इस्तिंजा कर रहा था। उसको देख कर क़ासिम के दिल में फिर उल्लु का पट्ठा कहने की ख़्वाहिश पैदा हुई।

    लो भई, ये आदमी है जिसको उल्लु का पट्ठा कह देना चाहिए यानी जो सही माअनों में उल्लु का पट्ठा है, ज़रा अंदाज़ मुलाहिज़ा हो... किस इन्हिमाक से ड्राई कलीन किए जा रहा है... जैसे कोई बहुत अहम काम सरअंजाम पा रहा है, ला’नत है।

    लेकिन क़ासिम सही-हु-द्दिमाग़ आदमी था। उसने तअजील से काम लिया और थोड़ी देर ग़ौर किया। मैं इस फुटपाथ पर जा रहा हूँ और वो दूसरे फुटपाथ पर, अगर मैंने बुलंद आवाज़ में भी उसको उल्लु का पट्ठा कहा तो वो चौंकेगा नहीं। इसलिए कि कमबख़्त अपने काम में बहुत बुरी तरह मसरूफ़ है।

    चाहिए तो ये कि उसके कान के पास ज़ोर से नारा बुलंद किया जाये और जब वो चौंक उठे तो उसे बड़े शरीफ़ाना तौर पर समझाया जाये, क़िबला आप उल्लु के पट्ठे हैं... लेकिन इस तरह भी ख़ातिर-ख़्वाह नतीजा बरामद होगा।

    चुनांचे क़ासिम ने अपना इरादा तर्क कर दिया।

    इसी अस्ना में उसके पीछे से एक साईकल नमूदार हुई। कॉलिज की एक लड़की उस पर सवार थी। इसलिए कि पीछे बस्ता बंधा था। आनन फ़ानन उस लड़की की साड़ी फ़्री व्हील के दाँतों में फंसी, लड़की ने घबरा कर अगले पहिए का ब्रेक दबाया। एक दम साईकल बेक़ाबू हुई और एक झटके के साथ लड़की साईकल समेत सड़क पर गिर पड़ी।

    क़ासिम ने आगे बढ़ कर लड़की को उठाने में उजलत से काम लिया। इसलिए कि उसने हादिसा के रद्दे अमल पर ग़ौर करना शुरू कर दिया था मगर जब उसने देखा कि लड़की की साड़ी फ़्री व्हील के दाँतों ने चबा डाली है और उसका बोर्डर बहुत बरी तरह उनमें उलझ गया है तो वो तेज़ी से आगे बढ़ा।

    लड़की की तरफ़ देखे बग़ैर उसने साईकल का पिछला पहिया ज़रा ऊंचा उठाया ताकि उसे घुमा कर साड़ी को व्हील के दाँतों में से निकाल ले। इत्तिफ़ाक़ ऐसा हुआ कि पहिया घुमाने से साड़ी कुछ इस तरह तारों की लपेट में आई कि इधर पेटीकोट की गिरफ़्त से बाहर निकल आई।

    क़ासिम बौखला गया। उसकी इस बौखलाहट ने लड़की को बहुत ज़्यादा परेशान कर दिया। ज़ोर से उसने साड़ी को अपनी तरफ़ खींचा। फ़्री व्हील के दाँतों में एक टुकड़ा अड़ा रह गया और साड़ी बाहर निकल आई।

    लड़की का रंग लाल होगया। क़ासिम की तरफ़ उसने ग़ज़बनाक निगाहों से देखा और भिंचे हुए लहजे में कहा, “उल्लु का पट्ठा।”

    मुम्किन है कुछ देर लगी हो मगर क़ासिम ने ऐसा महसूस किया कि लड़की ने झटपट जाने अपनी साड़ी को क्या किया और एक दम साईकल पर सवार हो कर ये जा वो जा, नज़रों से ग़ायब होगई।

    क़ासिम को लड़की की गाली सुनकर बहुत दुख हुआ, ख़ासकर इसलिए कि वो यही गाली ख़ुद किसी को देना चाहता था। मगर वो बहुत सही-हु-द्दिमाग़ आदमी था। ठंडे दिल से उसने हादिसे पर ग़ौर किया और उस लड़की को माफ़ कर दिया।

    “उसको माफ़ ही करना पड़ेगा। इसलिए कि इसके सिवा और कोई चारा ही नहीं। औरतों को समझना बहुत मुश्किल काम है और उन औरतों को समझना तो और भी मुश्किल हो जाता है जो साईकल पर से गिरी हुई हों लेकिन मेरी समझ में ये नहीं आता कि उसने अपनी लंबी जुराब में ऊपर रान के पास तीन चार काग़ज़ क्यों उड़स रखे थे?”

    स्रोत :
    • पुस्तक : دھواں

    Additional information available

    Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.

    OKAY

    About this sher

    Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.

    Close

    rare Unpublished content

    This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.

    OKAY

    Rekhta Gujarati Utsav I Vadodara - 5th Jan 25 I Mumbai - 11th Jan 25 I Bhavnagar - 19th Jan 25

    Register for free
    बोलिए