Font by Mehr Nastaliq Web

aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

jis ke hote hue hote the zamāne mere

रद करें डाउनलोड शेर

जान मोहम्मद

सआदत हसन मंटो

जान मोहम्मद

सआदत हसन मंटो

MORE BYसआदत हसन मंटो

    स्टोरीलाइन

    इंसान की नफ़्सियाती पेचीदगियों और तह दर तह पोशीदा शख़्सियत को बयान करती हुई कहानी है। जान मोहम्मद मंटो के बीमारी के दिनों में एक मुख़लिस तीमारदार के रूप में सामने आया और फिर बेतकल्लुफी से मंटो के घर आने लगा, लेकिन असल में वह मंटो के पड़ोस की लड़की शमीम के चक्कर में आता था। एक दिन शमीम और जान मोहम्मद घर से फ़रार हो जाते हैं, तब उसकी असलियत पता चलती है।

    मेरे दोस्त जान मुहम्मद ने, जब मैं बीमार था मेरी बड़ी ख़िदमत की। मैं तीन महीने हस्पताल में रहा। इस दौरान में वो बाक़ायदा शाम को आता रहा बा’ज़ औक़ात जब मेरे नौकर अ’लील होते तो वो रात को भी वहीं ठहरता ताकि मेरी ख़बरगीरी में कोई कोताही हो।

    जान मुहम्मद बहुत मुख़लिस दोस्त है। मैं क़रीब क़रीब बीस रोज़ तक बेहोश रहा था, उस दौरान में वो आता... लेकिन मुझे इसका इ’ल्म नहीं था। जब मुझे होश आया तो मालूम हुआ कि वो बहुत परेशान था, रोता भी था इसलिए कि मेरी हालत बहुत नाज़ुक थी।

    जब मैं इस क़ाबिल हो गया कि बातचीत कर सकूं तो उसने मुझसे पूछा, “आपको थकावट तो महसूस नहीं होती।” मेरे आ’ज़ा बिल्कुल मफ़लूज हो चुके थे। मालूम नहीं कितनी देर हो गई थी मुझे बिस्तर पर पड़े हुए। मैंने उससे कहा, “जान मुहम्मद, मेरा अंग अंग दुखता है।”

    उसने फ़ौरन मेरी बीवी से कहा, “कल ज़ैतून का तेल मंगवा दीजिए। मैं सुबह के मालिश कर दिया करूंगा।”

    ज़ैतून का तेल गया और जान मुहम्मद भी। उसने मेरे सारे बदन पर मालिश की, क़रीब-क़रीब आध घंटा उसका इस मशक़्क़त में सर्फ़ हुआ, मुझे बड़ी राहत महसूस हुई।

    इसके बाद उसका मा’मूल हो गया कि हर रोज़ दफ़्तर जाने से पहले हस्पताल में आता और मेरे बदन पर मालिश करता। मुझे राहत ज़रूर होती थी लेकिन वो इस ज़ोर से अपने हाथ चलाता कि मेरी हड्डियां तक दुखने लगतीं। चुनांचे मैं उससे अक्सर बड़े दुरुश्त लहजे में कहता, “जान मुहम्मद! तुम तो मेरी जान ले लोगे।”

    ये सुन कर वो मुस्कुरा देता, “मंटो साहब! आप तो बड़े सख़्त जान हैं, इस मुट्ठी चापी से घबरा गए?”

    मैं ख़ामोश हो जाता इसलिए कि उसकी मुट्ठी चापी में कोई जारिहाना चीज़ नहीं थी बल्कि सर-ता-पा ख़ुलूस था।

    तीन महीने हस्पताल में काटने के बाद घर गया, जान मुहम्मद बदस्तूर हर रोज़ आता रहा।

    मेरी उसकी दोस्ती इत्तफ़ाक़न हो गई थी। एक रोज़ मैं घर में बैठा था कि एक नाटे क़द के छोटी छोटी मूंछों वाले जवाँ साल मर्द ने दरवाज़े पर दस्तक दी। मैं जब उसको अंदर कमरे में दाख़िल किया तो उसने मुझे बताया कि वो मेरा मद्दाह है।

    “मंटो साहब, मैंने आपको सिर्फ़ इसलिए तकलीफ़ दी है कि मैं आपको एक नज़र देखना चाहता था। मैंने क़रीब क़रीब आपकी सब तसानीफ़ पढ़ी हैं।”

    मैंने उसका मुनासिब-ओ-मौज़ूं अल्फ़ाज़ में रस्मी तौर पर शुक्रिया अदा किया तो उसको बड़ी हैरत हुई, “मंटो साहब, आप तो रसूम-ओ-क़यूद के क़ाइल ही नहीं फिर ये तकल्लुफ़ क्यों?”

    मैंने कहा, “नौवारिदों से बा’ज़ औक़ात ये तकल्लुफ़ बरतना ही पड़ता है।”

    जान मुहम्मद की महीन मूंछों पर मुस्कुराहट नुमूदार हुई, “मुझसे आप ये तकल्लुफ़ बरतिए।”

    चुनांचे ये तकल्लुफ़ फ़ौरन दूर हो गया।

    उसके बाद जान मुहम्मद ने हर रोज़ मेरे घर आना शुरू कर दिया। शाम को वो जब दफ़्तर से फ़ारिग़ होता तो सीधा मेरे यहां चला आता।

    मेरी आ’दत है कि मैं किसी दोस्त का हसब-नसब दरयाफ़्त नहीं करता, इसलिए कि मैं उसकी कोई ज़रूरत नहीं समझता। मैं तो किसी से मिलूं तो उससे उसका नाम भी नहीं पूछता।

    ये तमहीद काफ़ी लंबी हो गई हालाँकि मैं इख़्तिसार पसंद हूँ। जान मुहम्मद देर तक मेरे यहां आता रहा, उसकी मालूमात ख़ासी अच्छी थीं। अदब से भी उसे ख़ासा शग़फ़ है मगर मैंने ये बात ख़ासतौर पर नोट की कि वो ज़िंदगी से किसी क़दर बेज़ार है।

    मुझे ज़िंदगी से प्यार है लेकिन उसको इससे कोई रग़बत नहीं थी। हम दोनों जब बातें करते तो वो कहता, “मंटो साहब! आप मेरे लिबास को देखते हैं ये शलवार और क़मीस जो मलेशिया की है, आप यक़ीनन नफ़रत की निगाहों से देखते होंगे, मगर मुझे अच्छे लिबास की कोई ख़्वाहिश नहीं। मुझे किसी ख़ूबसूरत चीज़ की ख़्वाहिश नहीं।”

    मैंने उससे पूछा, “क्यों?”

    “बस... मेरे अंदर ये हिस्स ही नहीं रही। मैं नंगे फ़र्श पर सोता हूँ, निहायत वाहियात होटलों में खाना खाता हूँ। ये देखिए, मेरे नाख़ुन इतने बढ़े हुए हैं... इनमें कितना मैल भरा हुआ है। मेरे पांव मुलाहिज़ा फ़रमाईए... ऐसा नहीं लगता कि कीचड़ में लिथड़े हुए हैं, मगर मुझे इन ग़लाज़तों की कुछ पर्वा नहीं।”

    मैंने उसकी ग़लाज़तों के मुतअ’ल्लिक़ उससे कुछ कहा, वर्ना हक़ीक़त ये है कि हर वक़्त मैला कुचैला रहता था। उसको सफ़ाई के मुतअ’ल्लिक़ कभी ख़याल ही नहीं आता था।

    एक दिन हस्ब-ए-मा’मूल जब वो शाम को मेरे पास आया तो मैंने महसूस किया कि उसकी तबीयत मुज़्महिल है। मैंने उससे पूछा, “क्यों जान मुहम्मद! क्या बात है आज थके थके से मालूम होते हो।”

    उसने अपनी जेब से ‘बगुले’ की डिबिया निकाली और एक सिगरेट सुलगा कर जवाब दिया, “थकावट हो ही जाती है, कोई ख़ास बात नहीं।” इसके बाद हम देर तक ग़ालिब की शायरी पर गुफ़्तुगू करते रहे। उसको ये फ़ारसी का शे’र बहुत पसंद आया;

    मा नबूदीम बेदिन मर्तबा राज़ी ग़ालिब

    शे’र ख़ुद ख़्वाहिश आं कर्द कि गर्दद फ़न-ए-मा

    हम ग़ालिब की शायरी पर तब्सिरा कर रहे थे कि इतने में हमारे एक हमसाए की लड़की मेरी बीवी से मिलने चली आई। चूँकि वो पर्दा नहीं करती थी इसलिए वो हमारे दरमियान बैठ गई। जान मुहम्मद ने आँखें झुका लीं और ख़ामोश होगया।

    उस लड़की का नाम शमीम था। देर तक वो बैठी मेरी बीवी और मुझसे बातें करती रही, लेकिन इस दौरान में जान मुहम्मद उसी तरह आँखें झुकाए ख़ामोश रहा। कुछ इस तरह कि उसे कोई पहचान ले।

    उसके बाद दूसरे दिन रात के दस बजे मेरे दरवाज़े पर दस्तक हुई। नौकर ऊपर सो रहा था मैंने दरवाज़ा खोला तो देखा कि जान मुहम्मद है, निहायत ख़स्ता हालत में। मैं बहुत परेशान हुआ और उससे पूछा, “क्यों जान मुहम्मद, ख़ैरियत तो है?”

    उसके होंटों पर अ’जीब सी मुस्कुराहट पैदा हुई, जिससे मैं बिल्कुल नाआशना था, “ख़ैरियत है, मुझे नींद नहीं आरही थी, इसलिए मैं आपके पास चला आया।”

    मुझे सख़्त नींद रही थी मगर जान मुहम्मद ऐसे मुख़लिस दोस्त के लिए मैं उसे क़ुर्बान करने के लिए तैयार था। मगर जब उसने ऊटपटांग बातें शुरू कीं तो मुझे वहशत होने लगी। उसका दिमाग़ ग़ैर मुतवाज़िन था, कभी वो आसमान की बात करता कभी ज़मीन की। मेरी समझ में नहीं आता था कि अचानक उसे हो क्या गया।

    एक दिन पहले जब वो मुझसे मिला तो अच्छा भला था। एक दम उसमें इतनी तबदीली कैसे पैदा हो गई?

    सारी रात उसने मुझे जगाए रखा। आख़िर सुबह मैंने उसको ग़ुसल करने के लिए कहा। अपने कपड़े उसे पहनने के लिए दिए कि उसके मैले चिकट थे। फिर उसको लारियों के अड्डे पर ले गया कि वो स्यालकोट अपने वालिदैन के पास चला जाये।

    ग़लती मैंने ये की कि उसको लारी में बिठाया। किराया वग़ैरा मैंने उसे दे दिया था।

    मैं मुतमइन था कि वो अपने घर चला जायेगा, मगर उसी दिन रात के तीन बजे दरवाज़े पर बड़े ज़ोर से दस्तक हुई। मैं बाहर सहन में सो रहा था। हड़बड़ा कर उठा, सोचा कि शायद कोई तार आया हो। दरवाज़ा खोला तो सामने जान मुहम्मद... मेरे औसान ख़ता होगए।

    मैंने उससे पूछा कि वो स्यालकोट क्यों नहीं गया। उसने इस सवाल का कोई मा’क़ूल जवाब दिया। उसका दिमाग़ पहले से ज़्यादा ग़ैरमुतवाज़िन था। फ़र्श पर लेट कर अपनी कनपटियों पर ज़ोर ज़ोर से घूंसे मारने लगा।

    मेरी समझ में नहीं आता था, क्या करूं। वो यक़ीनन जुनून की हद तक पहुंच चुका था। मैंने सोचा, प्यार-मुहब्बत से काम लेना चाहिए, चुनांचे बहुत देर तक मैं उसका सर सहलाता रहा। उसके बाद उस से पूछा, “जान मुहम्मद तुम्हें क्या तकलीफ़ है?”

    उसने कोई जवाब दिया और फ़र्श पर मेरी बच्चियों के जो मार्बल पड़े हुए थे उनसे खेलने लगा। उसके बाद उसने हर मार्बल को सजदा किया और रोने लगा।

    मैंने फिर उससे बड़ी मुहब्बत से पूछा, “जान मुहम्मद! ये तुम्हें क्या होगया है?”

    उसकी आँखें सुर्ख़ अंगारा थीं जैसे कई दिनों से शराब के नशे में धुत है। उसने मुझे उन आँखों से देखा और पूछा, “तुम इतने बड़े नफ़्सियात निगार बनते हो, क्या ये नहीं जान सकते कि मुझे क्या होगया है?”

    “मैं अपनी कम माईगी तस्लीम करता हूँ, अब तुम ख़ुद बता दो।”

    जान मुहम्मद मुस्कुराया, “मुझे शमीम हो गया है।”

    “क्या मतलब?”

    “अब भी मतलब पूछते हैं आप?”

    मैंने उससे कहा, “भई, शमीम कोई बीमारी तो नहीं।”

    जान मुहम्मद हंसा, “बहुत बड़ी बीमारी है मंटो साहब, ये कई लोगों को हो चुकी है। उनमें से मैं भी एक हूँ। पहले डलहौज़ी में होती थी... अब यहां लाहौर चली आई है।”

    मैं समझ गया... जान मुहम्मद कई बरस डलहौज़ी में रह चुका था और शमीम भी लेकिन मैंने उससे कहा, “मैं अभी तक नहीं समझा। तुम अब सो जाओ, चलो आओ... अंदर सोफे पर लेट जाओ। ख़बरदार जो तुम ने शोर मचाया।”

    वो अन्दर चला आया और सोफे पर लेट गया। मैं सुबह जल्दी उठने का आदी हूँ। साढे़ चार बजे के क़रीब उठा तो देखा कि जान मुहम्मद ग़ायब है। सात बजे पता चला कि शमीम भी अपने फ़्लैट में नहीं है, कहीं ग़ायब हो गई है।

    स्रोत :
    • पुस्तक : منٹو نقوش

    Additional information available

    Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.

    OKAY

    About this sher

    Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.

    Close

    rare Unpublished content

    This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.

    OKAY

    Rekhta Gujarati Utsav I Vadodara - 5th Jan 25 I Mumbai - 11th Jan 25 I Bhavnagar - 19th Jan 25

    Register for free
    बोलिए