Font by Mehr Nastaliq Web

aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

jis ke hote hue hote the zamāne mere

रद करें डाउनलोड शेर

माँ

MORE BYज़किया मशहदी

    ठण्डी हवा का झोंका हड्डियों के आर-पार हो गया।

    कड़ाके का जाड़ा पड़ रहा था, उस पर महावटें भी बरसने लगीं। पतली साड़ी को शानों के गिर्द कस कर लपेटे हुए मुन्नी को ख़याल आया कि ओसारे में टापे के नीचे उसकी चारो मुर्ग़ियाँ जो दुबक कर बैठी होंगी, उन पर टापे के सांकों से फ़ुहार पड़ रही होगी। बीमार पड़ कर मर गई तो दोबारा ख़रीदना बहुत मुश्किल होगा।

    कंपकंपाते हाथों से उसने टट्टर हटाया और बाहर गई। बारिश ने जैसे हर तरफ़ बारीक मलमल का पर्दा डाल रखा था। सूरज पहले ही कई दिन से नहीं निकला था, उस पर यह चादर। फिर उसे अपनी बेवक़ूफ़ी का एहसास हुआ। दिन तारीख़ महीने वैसे भी उसे कम ही याद रहा करते थे, अब सुब्ह शाम भी भूल चली थी क्या? उसने ठण्डी साँस ली। सूरज निकला भी होता तो क्या अब तक बैठा रहता! रात तो ही गई थी। हाँ पहले ही पहर ऐसी अँधेरी और उदास होती शायद। उसने टापा उठा कर मुर्ग़ी को दबोचा। डरे-सहमे परिन्दों ने कोई सदा-ए-एहतेजाज बुलन्द नहीं की। बाज़ू में चारों मुर्ग़ियाँ और बग़ल में टापा दबाक़र वो मुड़ ही रही थी कि अचानक दूर फुहारा और अँधेरे के दोहरे पर्दे के पीछे से कोई हीवाला उभरता महसूस हुआ। उसके साथ ही एक चिंगारी सी भी चमकी। ज़रा सी देर को उसे लगा, अगिया भुताल है। लेकिन अगिया भुताल हिन्दू हुआ तो मरघट में और मुसलमान हुआ तो कब्‍रिस्तान में, आँखें मटकाता, लाेगों को रास्ता भुलाता घुमाता है। ज़िन्दों की बस्ती में उसका क्या काम! वहाँ अपने अगिया भुताल बहुतेरे हैं। मुन्नी डरी नहीं, और डरती वो भी नहीं। रात के सन्नाटे में हर हर करती गंगा के दर्मियान फैले पड़े देरा के इलाके में वो तन्हा ज़िन्दगी गुज़ार रही थी। और लोग रहते तो थे लेकिन झोपड़ियाँ दूर-दूर थीः दर्मियान में खेत थे या सब्ज़ियों के वसीअ-ओ-अरीज़ कुत्ते। शाम पड़े सियार हुआँ-हुआँ करते। मुर्ग़ियों के फ़िराक़ में लोमड़ियाँ दरवाज़े पर खसर पसर करतीं। कभी आँगन में लगे अमरूद के दरख़्त से सिल-सिल करता हरा-हरा साँप रस्सी की तरह नीचे आता और गर्दन उठा कर अपनी नन्ही-नन्ही, चमकीली, विष भरी आँखें मुन्नी की आँखों में डालकर उसे घूरता, लेकिन डराने में कामयाब होता। वो पास पड़ी लकड़ी उठा कर उसे धमकाती, “अरे अब क्या ले जाएगा रे? हरसिया से ज़ियादा ज़हर है क्या तुझमें?” मुन्नी के हिसाब से उसका आठ साला पोलियो ज़दा लड़का और पाँच पाँच साल की दोनों जुड़वाँ मरियल लड़कियाँ साँप के किसी काम के थे। तीनों बच्चों को चूज़ों की तरह पैरों तले दबा के वो बड़ी तमानियत से अपनी और उनकी रोज़ी रोटी की फ़िक्‍र में ग़लताँ घूमती रहती।

    सुब्ह चार बजे, तड़के, जब सूरज निकला भी होता और गर्मियों में सरकती रात के मलगजे अँधेरे या जाड़ों में कुहरे की दबीज़ चादर में लिपटी गंगा सोई हुई होती, मछुआरे अपना-अपना जाल निकालते थे और उनकी नावें तड़पती मछलियों से भर जाया करती थीं। तब और लोगों के साथ मुन्नी भी अपना टोकरा ले पहुँचती और मछलियाँ भर कर हिसाब चुकता करते, आठ बजते-बजते पार जाने वाली नाव पकड़ कर शह्​र पहुँच जाती। सर पर टोकरा उठाए मोहल्ले-मोहल्ले मछलियाँ बेच कर कोई दो ढ़ाई बजे तक लौट आती। रास्ते से ज़रूरत का सौदा-सल्फ़ भी उठा लेती। कभी-कभार एक आध मछली बच जाया करती थी। मुनाफ़ा हो हो, जमा निकल आए, यह सोचकर वो अक्सर मछली बहुत कम दामों में हरसिया को बेच दिया करती थी। घाट से उतरते ही हरसिया का चाय का खोखा था। वो आते जाते उससे छेड़ता, मुफ़्त की चाय आॅफ़र करता, लेकिन मछली के दाम उसने कभी पूरे नहीं लगाए। जानता था, मछली टिकने वाली चीज़ नहीं और मुन्नी जैसे ग़रीब व्यापारी में नुकसान उठाने का बूता नहीं होता। चाय के खोखे की आड़ में कच्ची के साथ तली मछली बेचने वाला वो अनपढ़ किसी मल्टीनेशनल बिजनेस एक्ज़ीक्युटिव से कम सियाना था।

    मुन्नी ज़ात की मल्लाह नहीं थी लेकिन पिछले बारह तेरह साल से देयरा में अपनी उसी झोंपड़ी में रहने और शौहर के मोटर बोट चलाने के पैसे की वज्ह से वो गंगा और गंगा में बसी मछलियों के अलावा और किसी चीज़ को नहीं जानती थी। पन्द्रहवीं बरस में वो ब्याह कर यहाँ आई थी। उसे गंगा माँ से पहले ही बड़ी अक़ीदत और मोहब्बत थी। उनके आँचल में रहने को मिलेगा, यह तो उसने सोचा भी नहीं था। और अब तो रोज़ी-रोटी का ज़रिया भी गंगा माँ ही थी। इधर उसने बड़ी मुश्किल से कुछ पैसे बचाकर मुर्ग़ियाँ ख़रीदी थीं, कि बच्चों को अण्डे खिला सके। उसका पहलौठी का लड़का सिर्फ़ इस लिए मर गया था कि उसे दवा के साथ अच्छी ग़िज़ा भी चाहिए थी। उसकी याद आती तो कलेजे में हूक उठती। शादी के पहले साल ही पैदा हो गया था। ज़िन्दा होता तो आज कितना बड़ा सहारा होता ग्यारह बारह बरस का वो बेटा।

    सर्द हवा के बर्मे ने हड्डियों में छेद बनाए। मुन्नी को महसूस हुआ जैसे उसे बुख़ार चढ़ रहा हो लेकिन तजस्सुस ठण्ड पर हावी हो गया। इस सन-सन करते देयरा में, जहाँ गंगा को छू कर आती यख़-बस्ता हवाओं के बीच सियार भी हुआँ-हुआँ भूलकर माँदों में दुबक गए थे, ये कौन था जो लम्बे-लम्बे डग भरता चला रहा था?

    एक चिंगारी फिर छोटी। “मुन्नी, मुन्नी” क़रीब आती रौश्नी ने उसका नाम ले कर पुकारा। वो हड़बड़ा गईं। सर्दी, बग़ल में डब्बे टापे और दूसरे बाज़ू में सिमटी मुर्ग़ियों को यक्सर भूल कर वो बाहर निकल आई और उन्हें देख कर हक्का-बक्का रह गईं।

    “आप? इस वक़्त यहाँ? अन्दर जाइए मालिक, बड़ी ठंड है”

    लम्बे क़द और पतले जिस्म पर उन्होंने हस्ब-ए-दस्तूर धोती लपेट रखी थी। हाँ, पतले कुर्ते की जगह गाढ़े की मोटी पूरी आस्तीनों वाली क़मीस थी और सर पर अंगोछा लपेटा था। बस यहीं उनकी जड़ावाल थी (और गाँव में उस से ज़ियादा जड़ावाल बहुत से लोगों के पास नहीं थी)।

    “ओसारे मे रात काटने की इजाज़त चाहिए, मुन्नी। सुब्ह निकल लूँगाँ।” वो मुस्कुराए लेकिन आवाज़ में मुस्कुराहट की नहीं बल्कि बजते दाँतों की आहट थी।

    “अन्दर जाइए, मालिक।”

    “अन्दर?” वो ज़रा सा हिचकिचाए।

    “हाँ, मालिक। यहाँ ओसारे में तो बड़ी हवा है।”

    वो पीछे-पीछे चल पड़े तो मुन्नी को महसूस हुआ, उसके घर में फ़रिश्तों के क़दम उतरे हैं या गंगा माँ एक इन्सान की शक्ल इख़्तियार करके उसकी झोपड़ी में आन उतरी हैं। ज़हे-नसीब। उसने टापा एक कोने में रख कर मुर्ग़ियाें को जल्दी-जल्दी उसके नीचे धकेला और बोरी से अमरूद की ख़ुश्क टहनियाँ, पत्ते और कुछ उपले निकालने लगी।

    “कुछ और मत करो, मुन्नी। बस रात के लिए छत चाहिए थी। अब और नहीं चला जा रहा था।” वो बेहद थके हुए लग रहे थे। उन्होंने कंधे से लटका हुआ झोला उतारा, टॉर्च उसमें रखी और वहीं मिट्टी के फर्श पर कटे दरख़्त से धप्प से बैठ गए।

    “आप कुछ मत बोलिए।” मुन्नी का जी भर आया। “हमारे पास जो है वही तो दे सकेंगे, ना उससे कम, ना उससे ज़ियादा,” उसने इतनी सादगी से कहा कि वो ख़ामोश हो गए।

    “मालिक, कपड़े भीग गए हैं,” कुछ ढूँढते ही उसने कहा। उसकी पुश्त उनकी तरफ़ थी।

    मुन्नी के पास कपड़े कहाँ होंगे जो वो बदल सकें, इसलिए उन्होंने उसकी बात अनसुनी कर दी। हालाँकि उस वक़्त ख़ुश्क कपड़ों, ख़ुश्क जिस्म और हवा से महफ़ूज़ ख़ुश्क जगह से ज़ियादा ऐसा कुछ था जिसे जन्नत का नाम दिया जा सके। (हर शख़्स की जन्नत उसकी अपनी होती है, और मौक़ा-महल के ए’तिबार से होती है शायद।)

    “मेरे पास मेरे पति की एक धोती रखी हुई है,” उनकी ख़ामोशी का मतलब भाँप कर उसने कहा।

    “तब तो ठीक है। सुब्ह तक मेरे कपड़े सूख गए तो उसे छोड़ जाऊँगाँ,” उन्होंने रज़ामंदी जाहिर की। मुन्नी ख़ुशी हो गई। उसने घर के वाहिद कमरे की कार्नस पर रखा टीन का बक्सा उतारा। ये बक्सा उसका शौहर पटना के सोमवारी मेले से लाया था और उसमें रखकर लाया था उसके लिए लाल फूलों वाली साड़ी। मुन्नी अब लाल फूलों वाली साड़ी नहीं पहनती थी। उसे शौहर की वाहिद धोती के साथ संभाल कर रख दिया था। उसे तो वही पहनेगी। लंगड़े से शादी करने की हिम्मत करने वाली उसकी बहू। वहीं इसकी अस्ल हक़दार होगी।

    उसने जल्दी से धोती निकाली, मुबादा वो अपना इरादा बदल दें। धोती उन्हें थमा कर वो फिर अन्दर चली गई। गीले कपड़े उतार कर उन्होंने अलग रखे। ख़ुश्क धोती आधी बाँध कर, आधी को ऊपर के जिस्म पर ओढ़ लिया। अब वो एक बौद्ध भिक्षु जैसे नज़र रहे होंगे, सोच कर उनके लबों पर ख़फ़ीफ़ सी मुस्कुराहट उभर आई।

    गाढ़े की धोती ने बड़ी राहत पहुँचाई। गीले कपड़ों से नजात पाकर उसे पहनने का सुख अल्फ़ाज़ से परे था।

    “ख़ुदा इस नेक दिल औरत का भला करे, “उन्होंने दिल ही दिल में दुआ’ की।

    दुआ’ तो उनके झोले में सबके लिए थी, और मोहब्बत भी, लेकिन किसी का पेट भर पाता, बीमारियाँ दूर होतीं, मुन्नी के शौहर की वापसी हो पाती जिसे पुलिस पकड़ कर ले गई थी किसी की मुख़्बिरी पर कि वो नेपाल से कुत्ते की स्मगलिंग में शामिल है। वापसी तो बड़ी बात साढ़े पाँच साल का तवील वक़्फ़ा गुजर जाने के बा’द ये तक पता नहीं चला था कि वो कहाँ है, किस हाल में है, है भी या नहीं। मुन्नी कभी भूल सकती है क्या कि उन्होंने किस तरह साल डेढ़ साल तक उसके शौहर का पता लगाने और उसको छुड़वाने के लिए दिन को दिन और रात को रात नहीं समझा था। आख़िर मुन्नी ने ही उनके उनसे हाथ जोड़ कर कहा था, “भगवान, अब हमने सब्‍र कर लिया” आप भी छोड़ दीजिए। हमारे भाग्य में सुहाग होगा तो वो ख़ुद जाएँगे। कहीं जो विधाता ने हमारा सिन्दूर पोंछ दिया होगा तो कोई क्या करेगा”

    शौहर की गिरफ़्तारी के पहले से ही उसका पहलोठी का बेटा बीमार रहा करता था। बाप के जाने के बा’द घर पर जो मुसीबत आई, उसमें उसकी बीमारी कहीं ज़ियादा बढ़ गई। तब मुन्नी उन्हें ज़ियादा नहीं जानती थी। एक दिन वो उसके दरवाजे़ पर आए। किसी ने उन्हें बताया कि उसके घर में एक बीमार बच्चा है। बच्चे को देखकर वो कुछ फ़िक्‍र मन्द हो गए। उसे डॉक्टर के पास ले जाना बहुत ज़रूरी था, लेकिन डॉक्टर सिर्फ़ बुध को मिलेंगे। उस दिन जुमअ’ ही था। इस बच्चे को दवा के साथ ग़िज़ा की भी सख़्त ज़रूरत थी। ख़ाली दवा से कुछ ना होगा, उन्होंने ताअस्सुफ़ से सोचा था। इन्तिहाई कमज़ोर होते हुए बच्चे को गोद में लिए आँसू बहाती मुन्नी उन दिनों दो वक़्त भरपेट खाना तक मुहय्या नहीं करा पाती थी। जुड़वाँ बच्चियाँ उसके पेट में थीं। आठवाँ महीना ख़त्म हो रहा था। वो कोई काम नहीं कर पाती। ख़ुद उसे भरपूर ग़िज़ा की ज़रूरत थी लेकिन वो दोनों बच्चों, ख़ास तौर पर पहलोठी के बीमार के लिए पागल बनी रहती थी।

    “मुन्नी, मैं बुध को फिर आऊँगाँ” उन्होंने कहा। “तुम्हारे बच्चे को अस्पताल ले जाने की सख़्त ज़रूरत है।” फिर उन्होंने कन्धे से लटका झोला उतारा (वही झोला जो हमेशा उनके कन्धे से लटका रहता था और आज भी लटका हुआ था।)

    “ये रखो,” झोले में हाथ डाल कर उन्होंने बतख़ के चार अण्डे बरामद किए और छः अदद के लिए। ये तोहफे गाँव में अलग अलग लोगों ने उन्हें दिए थे। वो सब के सब उन्होंने बच्चे को दे दिए। ये नेमतें देख कर उसके ज़र्द चेहरे और बुझती आँखों में जो चमक आई थी उसे मुन्नी कभी नहीं भूल सकी। जब भी उसके जाने का ग़म सताता, वो मसर्रत की उस चमक को याद करती तो दुखते दिल पर ठण्डी-ठण्डी फुहार पड़ जाती। अपनी ज़िन्दगी के आख़िर दो दिनों में उस का बच्चा बहुत ख़ुश था। वो इस दुनिया से ख़ुश-ख़ुश गया था। उसके पेट में खाना था, वो भी अच्छा खाना। बुध के दिन जब वो उसे लेने आए तो उसकी राख हवा में उड़ चुकी थीं और नन्हा सा अध-जला जस्द-ए-ख़ाकी गंगा के पानियों में गुम हो चुका था। लेकिन मुन्नी ने उनके क़दमों पर अपना सर रख दिया। “उसने बड़े चाँव से अण्डे खाए। अपना हाथ बढ़ा कर एक केला छोटे को भी दिया। सब आप की कृपा थी। वो भूखा जाता तो हम जितने दिन ज़िन्दा रहते, तड़पते रहते।” उसके आँसुओं ने उनके पैर भिगो दिए। ऐसी सख़्त गिरफ़्त थी कि उनके लाख छुड़ाने पर भी वो उस वक़्त तक नहीं उठी जब तक उस का दिल हल्का नहीं हो गया।

    तब ही उन्हें मुन्नी के शौहर के बारे में पता चला था। कहीं से ये भी मा’लूम हुआ कि हरसिया से किसी तकरार के सबब उसने उसके ख़िलाफ़ मुख़्बिरी की थी। झूटी या सच्ची, यह मा’लूम होना मुश्किल था। नेपाल से तेंदुए और कुत्ते की स्मगलिंग बहुत आम थी। हो सकता है वो सिर्फ़ मोटर बोट चलाता रहा हो और उसे माल का इ’ल्म ना रहा हो, हो सकता है मुलव्विस रहा हो। जो भी हो, वो एक बहुत छोटी मछली था जिसे बड़ी मछलियाँ निगल गई थीं। इस सिलसिले में उन्हें कामयाबी नहीं मिल सकी लेकिन मुन्नी एहसानमन्द थी कि किसी ने उसके बारे में सोचा तो, कुछ किया तो। उसके दूसरे बच्चे को पाेलियो हो गया था। वही थे जो उसे अस्पताल ले गए, आॅपरेश्न कराया। अस्पताल से उसे लोहे का जूता बनवा कर दिया गया जिसका फ़्रेम घुटने तक था। वो लंगड़ाता अब भी था लेकिन पहले से बहुत अच्छा हो गया था। पहले तो वो जिस तरह चलता था उसे देख कर किसी करीह सूरत, फुदकने वाले जानवर की याद आती थी। मुन्नी का दिल डूब-डूब जाता था। कई बार उसे ख़याल आता था कि ऊपर वाले को उसका बेटा लेना ही था तो इस टूटे-फूटे को ले लिया होता। सही सालिम चला गया, ये रह गया। लेकिन फिर उनकी कोशिश से अब वो इस लाइक़ था कि अपने सारे काम आसानी से कर ले। जल्द ही वो उसे किसी दुकान में बैठाने की सोच ही रही थी।

    लड़का जब अस्पताल से लौटा था, उस वक़्त भी मुन्नी ने उनके पैरों पर सर रख दिया था। शिर्क-ओ-कुफ़्‍र उसकी लुग़त में नही थे। होते भी तो उनके मआ’नी उसके ज़ख़ीरे में नहीं थे। भगवान ख़ुद उतर कर नहीं आते, किसी इन्सान को भेज कर ही काम कराते हैं। वो जिसे भेजें वही उनका रूप।

    तसले में आग रौशन हो उठी थी। वो उसे उनके पास ले आई। फिर एक बड़े से टेढ़े-मेढ़े एल्युमिनियम के कटोरे में दो गिलास पानी, गुड़, आँगन में लगे तुलसी के पौधे से उतारी पत्तियाँ और चार दाने काली मिर्च के डाल कर उबालने काे छोड़ दिया। पानी ख़ूब उबल गया तो उसने एल्युमिनियम के दो गिलासों में ‘चाय‘ डाली और अपना गिलास ले कर ख़ुद भी वहीं बैठ गईं। गंगा की रेत से माँझे गए एल्युमिनियम ने पस्त क़द मद्धम शो’लों की रौश्नी में चाँदी की तरह लश्कारा मारा।

    मालिक बड़ा कारसाज़ है। मुन्नी की झोपड़ी रास्ते में होती तो वो ठण्ड से अकड़ गए होते। उनके लिए तो उस वक़्त फूस की सिर्फ़ एक छत काफ़ी थी। ख़ाली पेट में तो अनाई देता गुड़ और ठण्डे जिस्म में गर्माहट भरती तुलसी और काली मिर्च की चरपड़ाहट। एक-एक घूँट अमृत था।

    “जा के सो जाओ मुन्नी। रात बहुत हो चुकी है,” उन्होंने नर्मी से कहा।

    “सब लोग आप के बारे में बहुत बातें करते हैं। कभी मन होता था, हम आप के पास बैठें।”

    “मा’लूम है। और लोग क्या बातें करते हैं।” वो मुस्कुराए।

    “क्या मा’लूम है?”

    “मैं सवालों के जवाब देते देते थक गया हूँ। फिर भी कोई कोई इंसान ऐसा मिल जाता है जो नए सिरे से सारा कुछ पूछने लगता है। तुम भी सब पूछना चाहती होगी कि मैं कौन हुँ, कहाँ से यहाँ आया हुँ, मेरा कुम्भा कहाँ है। गुज़ारा कैसे चलता है, यहाँ क्यों रहता हुँ। है ना?”

    मुन्नी ने सादा लौही से सर हिलाया।

    तो हँस पड़े। “चलो तुम भी सुन लो। मेरे माँ बाप नहीं रहे। जब मैं यहाँ आया था, तब थे। भाई बहन हैं, दोस्त अहबाब हैं, लेकिन मैं उन सब को बहुत दूर छोड़ आया हूँ।” उन्होंने क़दरे तवक़्क़्फ़ किया। एक महबूबा भी थी। उम्मीदों के चराग़ रौशन किए, मुस्तक़बिल के ख़्वाब देखती मैं ने उसकी दुनिया तह-ओ-बला कर दी। उसे भी छोड़ा आया। लेकिन यह उन्होंने मुन्नी से कहा नहीं और बात का सिरा फिर पकड़ा।

    “वो सब बारी बारी मुझे कुछ पैसे भेजते रहते हैं। उन से मेरा गुज़ारा हो जाता है। दूसरों की मदद के लिए कुछ बचा लेता हूँ। मैं किसी के आगे हाथ नहीं फैलाता, फिर भी कभी भूखा नहीं सोता हूँ। तुम में से भी जिन लोगों के पास कुछ है और वो मुझे दुनिया चाहते हैं तो लेने से इन्कार नहीं करता। कभी कोई ग्वाला एक लोटा दूध थमा देता है तो कोई गिरहस्त किलो आँध किलो सब्ज़ी।”

    “वह तो आप दूसरों को बाँट देते हैं।”

    “जो मुझे ज़रूरत से ज़ियादा होता है या मुझे दरकार नहीं होता, बस वही। अब अभी तुम्हारी तुलसी की चाय की सख़्त ज़रूरत थी। वो मैं किसी के साथ बाँटा!” उन्होंने बच्चों जैसी मा’सूम और शरीर मुस्कुराहट के साथ कहाँ। मुन्नी ने सर खुजाया। उन की ज़रूरत से ज़ियादा उनके पास क्या होता और कब होता है! अभी कोई जाए तो आधी चाय तो उसे पिला ही देगें।

    “आप-आप का परिवार?”

    “मेरा परिवार तुम लोग हो। आस पास के चारो गाँव मेरा परिवार हैं।”

    “बाल बच्चे पीछे छोड़ आए?“

    “मेरा कोई बाल बच्चा नहीं।”

    “औरत?”

    “औरत नहीं है, इसी लिए बाल बच्चे भी नहीं है। मगर उन गाँवों के, जहाँ काम करता हूँ, सारे बच्चे मेरे बच्चे हैं। तुम्हारे बच्चे भी मुन्नी।”

    मुन्नी के तीनों बच्चे गठरी में लिपटे गहरी नींद सो रहे थे। उस का जी भर आया। कुछ देर वो ख़ामोश रही। बाहर हवा ज़ियादा पागल हो उठी थी। किसी चुड़ैल की तरह सीटियाँ बजाती, हाय-हाय करती, गंगा माँ की ज़ुल्फ़ों में लहरों के घुँघरू डालती, शरारत पर आमादा ठण्डी यख़ हवा। “बड़ी ठण्डी है” कह कर वो कुछ देर खामोश रही। उसने फिर आँखें उठाईं

    “तो आप ने ब्याह किया ही नहीं?”

    “मुन्नी, आज तुम इतने सवाल क्यों कर रही हो?”

    “आज ही तो आप के साथ बैठने का मौक़ा मिला है, मालिक।”

    “कितनी बार कहा, मुझे मालिक कह कर मुख़ातिब मत किया करो,” वो क़द्​रे झुंझुला कर बोले। “हाँ, मैं ने ब्याह नहीं किया।” जवाब दे ही दे वरना ये बेवक़ूफ़ मछुआरन चाटती रहेगी। उनका लहजा मा’मूल के मुताबिक नर्म और पुर-सुकून था।

    तो औरत का सुख उन्हेंने कभी नहीं जाना! और जाने कौन-कौन से सुख नहीं जाने, बेवक़ूफ़ मछुआरन ने सोचा। बाँस के टट्टर की झोंपड़ी में अकेले रहते हैं। एक पतीली में आलू और चावल साथ उबाल लेते हैं। अपनी थाली ख़ुद माँजना, अपने कपड़े ख़ुद धोना। साइकिल को खड़-खड़ाते घूमते फिरते रहना। अपने देस में ज़रूर उनके पास मोटर होगी, सूरत से ही बड़े घर के मा’लूम होते हैं, लेकिन यहाँ सुना था एक बार अकेले पड़े बुख़ार में भुन रहे थे। संजोग से कोई उधर जा निकला। परले गाँव के मुसलमानों के यहाँ का लड़का था। वो उन्हें उठा ले गया। सुना है, उस से कहा कि मैं मर जाऊँ तो पर पंज करना। जो कपड़े पहने हों, उन्हें मैं ले जा के मेरी झोपड़ी में गाड़ देना। वहाँ एक कापी पड़ी मिलेगी। हो सके तो उस मे लिखे पते पर ख़बर करा देना, और बस। क्या उसके शौहर ने भी किसी को अपना पता दिया होगा?

    शौहर को याद करके उसके दिल में टीस उठी। एक बेरहम टीस। वो जब आता तो मुन्नी खाना तय्यार कर के रखती, लपक कर लोटे में पानी निकाल कर देती। उसके सामने इतनी तंगी नहीं थी। रूखा-सूखा सही, लेकिन दोनों वक्त भर पेट मिल जाया करता था। फिर रात में पुआल के बिस्तर में मोटी चादर तले का उलूही सुख। पता नहीं वो अब इस दुनिया में है भी या नहीं। उसकी मौत की इत्तेला’ देने के लिए किसी के पास शायद कोई पता नही था। मगर जब उसके पास था, बहुत ख़ुश था। जब दिल में टीस उठती है वो यह याद करके तसल्ली देती है ख़ुद को, कि उसने बड़ी ख़ुश-व-ख़ुर्रम ज़िन्दगी बसर की। मुन्नी ने उसे भरपूर सुख दिया। बिल्कुल ऐसे ही जैसे उसे जब बेटे की याद आती है तो वो उसकी यादों में एक मिठास पाती है, एक तमानियत कि ज़िन्दगी के आख़िरी दो ढाई दिनों में उसे कुछ अच्छा खाने को मिला था, फल मिले थे। ऐसा हुआ होता तो उसकी यादें सिर्फ़ कलेजा फाड़तीं, कलेजे पर कोई फाहा रखतें। वो आज भी लोट-लोट कर रोती होती।

    “आप का सर सहला दूँ? नींद नही रही है ना?” उसने चाय का आखिरी घुँट ले कर ख़ाली गिलास रखते हुए कहा।

    “तुम ख़ुद सोओ जा के। सवेरे-सवेरे मछली लाने निकल पड़ोगी। जाओ यहाँ से,” उन्होंने क़दरे डपट कर कहा।

    यह अब भी मेरे बारे मे सोच रहे हैं। मुन्नी कुछ देर तज़ब्ज़ुब के आ’लम में खड़ी रही, फिर कुछ छुटपुटियाँ तसले में डाल कर अन्दर जा कर बच्चों के साथ गुड़ी-मुड़ी होकर गुदड़ी में घुस गईं। अपनी कथरी तो उसने उन पर डाल दी थी। यहाँ एक गुदड़ी में चार नफ़र हो गए थे। बच्चों को ढकने की कोशिशि में वो ख़ुद बार बार खुल जाती थी।

    कोई दो बजे ठण्ड के शदीद एहसास से वो पूरी तरह जाग गईं। हवा कुछ ऐसे शाएँ शाएँ कर रही थी जैसे हज़ारों भुतनियाँ अपने घाघरे सरसराती गंगा पर से गुज़र रही हों या फिर किनारे जलती चिताओं से उठी ना-आसूदा रूहें। गंगा माँ के शोर में भी कुछ नाराज़गी थी जैसे दो आबे के मैदानों में उतरने के बा’द भी वो पहाड़ी ढलानों गुज़र रही हों। तेज़, तुंद, गज़बनाक। कभी डरने वाली मुन्नी इस वक्त कुछ ख़ौफ़ज़दा हो उठी। किस चीज़ से, यह ख़ुद उसकी समझ में नहीं आया। साँप अमरूद के पत्तों में दुबका ख़ुद ही डरा बैठा था और ओसारे में एक बहुत ही नेक पाकीज़ा इंसान सोया हुआ था। फिर उसे किस चीज़ का डर था?

    वह कुछ बेचैन सी, उनके सिरहाने आकर खड़ी हो गईं। उनकी साँसों के ज़ेर-ओ-बम और हल्के ख़र्राटे गहरी नींद के ग़म्माज़ थे। कुछ लम्हों बा’द वो वहीं बैठ गईं। तसले की आग बुझ कर बहुत सी राख छोड़ गई थी लेकिन राख के अन्दर अंगारे थे और राख गरम थी। उसने एक टहनी से उसे कुरेदा तो चिंगारियाँ उड़ें।

    कुछ देर तक वो अपनी कसरत-ए-इस्तेमाल से पतली पड़ती साड़ी के पल्लू से ख़ुद को लपेट-लपेट कर कुछ सोचती रही, फिर धीरे से उनके बग़ल में सरक आईं। सख़्त मेहनत से गग हुआ, अट्ठाईस साला जवान जिस्म कमान की तरह तना और फिर चराग़ की तरह लौ देने लगा।

    आदम के साथ हव्वा का तख़लीक़ किया जाना कुछ ऐसा बे-मक़सूद तो था।

    “मालिक, जाने बेग़ैर दुनिया मत छोड़िएगा। आत्मा भटकेगी। यह सुख.... भोगिए भोगिए, जान तो लीजिए एक बार....”

    उनकी आँख खुल गई। चमकीली सियाह आँखों वाली रोहु मछली जैसी वो लांबी, छरहरी, गठी हुई सुडौल औरत उनके गले में हाथ डाले पड़ी थी। चारों तरफ़ घंटियाँ बज रही थीं... टन टन टन टन... ख़तरे की, मुसीबत की, और किसी अनहोनी पेशनगोई की, मौसीक़ी से लबरेज़ लेकिन डरावनी... और पूरा जिस्म तूफ़ान की ज़द में आई नाव की तरह हिचकोले खा रहा था।

    महात्मा बुद्ध वैसे तो अहिंसा के पुजारी थे लेकिन कोई कश्कोल में गोश्त डाल देता तो खा लेते।

    लेकिन क्या जब मारने उन्हें घुमराह करने के लिए अपनी बेटियों को भेजा तो वो उन्हें शिकस्त नहीं दे सके थे? क्या उन्होंने अपनी ख़्वाहिशों पर मुकम्मल काबू नहीं पा लिया था?

    मैं महात्मा नहीं हूँ। मैं बुद्ध नहीं हुँ। मुझे इरफ़ान कहाँ हासिल हुआ है? इरफ़ान की तलाश में तो निकला भी नहीं हूँ। हाँ, अगर बनी नौअ-ए’-इन्सान की ख़िदमत से इरफ़ान मिलता है तो शायद कभी मुझे भी हासिल हो जाए। और क्या सोचते थे किन फटे जोगी कि औरत का सुख वैसा ही है जैसा आत्मा के परमात्मा में ज़म होने का सुख। मरने से पहले एक बार अगर जान लूँ कि यह होता क्या है तो बुरा क्या है? मैं ने शराब का सुरुर जाना है। अच्छे भर पेट खाने, गहरी नींद, माँ की गोद, औरत की मोहब्बत। इन सब से आगाह, सिर्फ़ उसका जिस्म ही नहीं जानता। शायद मैं पूरी तरह ख़ुद पर क़ाबू नहीं पा सका हूँ वर्ना इस यख़ रात में यह शोले भड़कते। अब तक तो धक्का दे कर इस सल-सल करती मछली को वापस गंगां में फेंक दिया होता।

    शो’ले पहले भी कई मर्तबा भड़के थे। आख़िर वो इंसान ही तो थे। लेकिन उन्होंने फटकार के पानी से उन्हें भुजा दिया था। हर बार कफ़्फ़ारे के लिए उन्होंने लगातार तीन दिन रोज़े रखे थे, मुसलमानों के रोज़ों से भी सख़्त रोज़ेः मुसलमानों से ज़ियादा सख्त यूँ कि रोज़ा खोलकर भी वो भर पेट खाना नहीं खाते थे। कभी कभी तो महज़ उबले आलु या खीरा ककड़ी खा के रह जाते थे। अभी हाल ही की तो बात है।

    इन दिनों दरिया के उस पार वाले गाँव की बारी थी। वो एक बीमार शख़्स को अस्पताल में दिखा कर वापस घर पहुँचा रहे थे। वहाँ कुएँ पर गाँव में ब्याह कर आई नई बहु सुनन्दा खड़ी थी। पानी निकालने के लिए उसने एक पैर ख़ूब आगे बढ़ा कर जिस्म को तान रखा था। सुनहरी, पक्के गंदुम जैसे जिल्द वाले सुथरे, सुडौल पैर पर उसका वाहिद ज़ेवर, चाँदी की पायल बहुत ही भली लग रही थी। बाल्टी खींचते हुए सुनन्दा के पूरे जिस्म में इर्तिआ’श था। लगता था, माँ बाप के घर वो कुँए से पानी निकालने की आदी नहीं रही थी। उसकि साड़ी जिस्म से सरक सरक गई थी। गदबदा, क़द्रे भारी, गुदाज़ जिस्म ब्लाउज़ में से झलक-झलक पड़ रहा था। उनकी नज़रें उसके ख़ूबसूरत पैर पर ज़रा की ज़रा रूकीं और फिर सर-सर करती सीधी गर्दन तक पहुँच गईं। सुनन्दा के जिस्म का इर्तिआ’श उनके अपने जिस्म में मुन्तक़िल हो गया। उन्होंने ख़ुद पर लानत भेजते हुए नज़रे हटाईं। लेकिन वो अच्छी तरह समझ रहे थे कि नज़रें जितनी देर ठहरी थीं वो वक़्फ़ा मुनासिब से बहुत ज़ियादा था और जो वक़्फ़ा गुज़रा था वो “सही” नहीं था। वो नज़रें महज़ ख़ुदा की एक हसीन तख़लीक़ कि सताइश करती नज़रें नहीं थीं।... वो एक मर्द की नज़रें थीं जो एक औरत की सताइश कर रही थीं। उन्होंने ख़ुद पर कफ़्फ़ारा वाजिब किया, क्योंकि उनका ज़मीर उन से जो सवाल कर रहा था उसके लिए उनके पास ख़ातिर-ख़्वाह जवाब नहीं था।

    मुन्नी ने अपनी काली चमकीली, काजल भरी आँखों से उन्हें फिर देखा। तृष्णा लेकर दुनिया से मत जाओ संयासी... जान लो कि तुम क्या नहीं जानते। यह तसल्ली भी कर लो कि जिस नफ़्स को तुम ने काबू में किया है वो बड़ा बे-लगाम, मुंह ज़ोर घोड़ा है। बा’द में अपनी पीठ ठोकते रहना। मगर एक बार... सिर्फ इस बार...

    इस लम्हे ने मज़ीद कुछ सोचने का मौका नहीं दिया। वो उन पर हमला कर बैठा, जैसे नेपाल में बर्फ पिघलने के बा’द तुग़यानी पर आई बे-बज़ा-अत गंढक ख़ूँ-ख़्वार हो कर ताकतवर गंगा पर चढ़ दौड़ती है और गंगा अपनी तमाम तर गज़बनाकी के बावजूद करवटें बदल बदल कर उसे अपने अन्दर ज़म करने पर मजबूर हो जाती है।

    सुब्ह जब उनकी आँख खुली तो पहले तो समझ में नहीं आया कि जो हुआ वो क्या था। वो एक बुरा ख़्वाब था या एक अच्छा ख़्वाब? बड़ी शिद्दत के साथ उन की अक़्ल-ओ-फ़ह्​म ने बताया कि वो ख़्वाब नहीं था, हक़ीक़त थी, और मज़ीद दहशतनाक बात यह थी कि नींद के जाले साफ हो जाने के बा’द क़ल्ब-ओ-ज़ेहन पर सुरूर की कैफ़ियत तारी हो रही थी, जिस्म एक पुरकैफ़ दर्द से टूट रहा था। रूह पर कभी मिटने वाले निशान पड़ गए थे। उनका कलेजा फटने लगा। सारी रियाज़त मिट्टी में मिल गई थी और उन्हें यह अच्छा लग रहा था।

    मुन्नी उन से पहले उठ चुकी थी। उस ठंड में कुँए से पानी खींच कर वो नहा चुकी थी और उनके लिए मिट्टी के चूल्हे पर चाय चढ़ा चुकी थी। उसकी सुथरी आँखों में कोई पशेमानी नहीं थी, गुनह का कोई एहसास नहीं था। बस एक तमानियत थी, एक सुकून था। उसकी महबूब हस्ती उसके दरवाज़े पर आई तो उसने उसके कशकोल में वो डाल दिया जो उसके पास था। उस से कम, उस से ज़ियादा। उसने मिट्टी की रूकाबी में भूबल में भुनी शकर-कन्द और एल्यूमिनियम के गिलास में चाय ला कर रख दी। उन्होंने शकर-क़न्द सरका कर चाय का गिलास उठा लिया।

    चाय पी कर वो उठ खड़े हुए।

    झोंपड़ी के दरवाज़े पर वो रू-ब-रू हुए।

    मुन्नी ने हाथ जोड़ दिए थे। “अब कभी रूकने को नहीं कहूँगी भगवान डरिएगा नहीं।”

    “बाक़ी सारी ज़िन्दगी सिर्फ़ एक वक़्त खाना खा कर आज रात का क़फ़्फ़ारा अदा करूँगा,” उन्होंने अचानक झुक कर उसके पैर छू लिए। “रूकने को कहने की ज़रूरत नहीं होगी। यह इलाक़ा छोड़ कर जा रहा हूँ।”

    वह ठण्ड से सिकुड़ी, नम, धुँआ देती तारीक सुब्ह में तेज़ी से गुम हो गए।

    स्रोत :

    Additional information available

    Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.

    OKAY

    About this sher

    Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.

    Close

    rare Unpublished content

    This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.

    OKAY

    Jashn-e-Rekhta | 13-14-15 December 2024 - Jawaharlal Nehru Stadium , Gate No. 1, New Delhi

    Get Tickets
    बोलिए