मीरा के श्याम
“किस से बात करना है?”, फ़ोन पर जाज़िब सी निस्वानी आवाज़ सुन कर सबीहा ने पूछा।
“जी। आप ही से।”, आवाज़ में हल्की से खनक शामिल हो गई।
सबीहा इस आवाज़ को बख़ूबी पहचानती थी। ये वो आवाज़ थी जिसकी वज्ह से उसे अ’जीब-अ’जीब तजुर्बे हुए थे। मुख़्तलिफ़ हालात से दो-चार होना पड़ा था। और ख़ुद साहब-ए-आवाज़ को उसने मुस्बित और मनफ़ी दोनों सूरतों में साबित-क़दम देखा था। ऐसी साबित क़दमी को सबीहा नादानी बल्कि दीवानगी कहती थी। या कुछ ऐसी यकसूई कि सिवाए एक शय के इंसान हर दूसरी चीज़ से इस दर्जा बे-नियाज़ हो कि ख़ुद अपनी परवाह रहे न दूसरों की। दूसरों में तक़रीबन सब ही आते थे वालिदैन, असातिज़ा, तलबा-ओ-तालिबात, स्कूल का अमला और एक इंसान को छोड़कर हर कोई... बल्कि उस इंसान से मुत’अल्लिक़ लोग भी।
और ये सिलसिला कोई चार बरस से जारी था।
एक दिन सबीहा को इमरान के स्कूल की तरफ़ से फ़ोन पर सुब्ह आठ बजे मआ अपने शौहर के स्कूल पहुँचने की हिदायत मिली थी।
इमरान के घर पहुँचने पर सबीहा ने उससे स्कूल बुलाए जाने की वज्ह दरियाफ़्त की तो उसने ला-इल्मी ज़ाहिर की थी। लेकिन सबीहा ने उसके महज़ चौदह साला मा’सूम से चेहरे पर परेशानी के साए लहराते देख लिए थे। जिन्हें पोशीदा रखने की कोशिश करते हुए वो अपने कमरे में चला गया था।
शाम को सबीहा ने फ़ोन के बारे में आदिल से कहा तो वो भी सोच में पड़ गया। कुछ देर दोनों मियाँ बीवी क़यास-आराइयाँ करते रहे। फिर आदिल ने बेटे से दरियाफ़्त करना चाहा तो मा’लूम हुआ कि मा’मूल से पहले ही सो चुका था।
दूसरी सुब्ह, सबीहा और आदिल स्कूल के जिस हॉल में अंदर बुलाए जाने के मुंतज़िर थे, वहाँ दूसरी तरफ़ दो और लोग उनके आने के कुछ देरबा’दआ बैठे थे। मर्द साँवला, दरमियाना क़द और ख़ुश-लिबास था और औरत गोरे रंग की भले से चेहरे वाली ख़ातून थी जो सबीहा की ही तरह परेशान सी थी। और रह-रह कर अपने (ग़ालिबन) शौहर से इसी बारे में बात कर रही थी कि स्कूल बुलाए जाने की क्या वज्ह हो सकती है। उसका शौहर सर हिला कर रह जाता और ज़बान से कुछ न कहता। कुछ देर बा’द एक लड़की जिसकी उ’म्र तेरह चौदह बरस की रही होगी उन के पास आई तो औरत ने परेशान तअस्सुरात के साथ उसे देखा।
“बता दे अब भी... क्या बात हुई है?”, उसने लड़की के माथे से बाल हटाए। लड़की के बाल सुनहरे थे। जिल्द सुनहरी माइल गोरी थी। आँखें बड़ी-बड़ी थीं और क़द्रे सहमी हुई मा’लूम हो रही थीं। जैसे अभी-अभी किसी ने उसे डाँट दिया हो। भरे-भरे रुख़सार और छोटी सी नाक जिसका रुख़ ज़रा सा ऊपर को था, उसके छोटे से दहाने के गोल चेहरे पर निहायत जाज़िब-ए-नज़र आती थी। नाज़ुक सी गर्दन पर सुनहरे बाल गहरे हरे रंग के छोटे से हेयरबैंड में फंसे थे और गर्दन के दोनों अतराफ़ आ कर कॉलर वाली सफ़ेद क़मीज़ को छू रहे थे जहाँ गहरे सब्ज़-रंग की टाई में ढीली सी गिरह पड़ी हुई थी। उसने आसतीनें कोहनियों तक समेट रखी थीं। अपनी गोरी सुडौल कलाई में से सोने का नाज़ुक सा ब्रेसलेट उतारते हुए उसने औरत को एक नज़र देखा और सर नफ़ी में हिला दिया।
“कहा न मामाँ... मुझे कुछ नहीं मा’लूम।”
उसने उंगली में पड़ी अँगूठी भी उतार दी और दोनों चीज़ें माँ की गोद में रख दीं।
“पर्स में रख लो मामाँ... यूँही डाँटेंगे।”, उसने इधर-उधर देखा और सबीहा और आदिल को देखकर ज़रा सा ठिठकी थी कि इतने में इमरान आकर दरवाज़े के बाहर खड़ा हो गया। लड़की ने उसे देखा तो उसके होंटों पर मुस्कुराहट आ भी न पाई थी कि आँखों में ख़ौफ़ के साए से लहराने लगे। इमरान ने उसे देखा और फिर आँखें हल्की सी मीच कर सर की ख़फ़ीफ़ सी जुंबिश से नफ़ी का इशारा किया तो वो मुस्कुराती हुई दूसरी तरफ़ देखने लगी। अपने ‘फ़िक्र की कोई बात नहीं’ के इशारे के रद्द-ए-अमल में लड़की को मुतमइन होता देखकर इमरान भी मुस्कुरा दिया था।
सबीहा ये मंज़र सियाह फ़िल्म लगे शीशे के दरवाज़े से बाहर बग़ौर देखने से ही देख पाई थी। फिर सबीहा ने ये भी देखा कि कुछ देर पहले सहमी हुई हिरनी सी आँखों वाली लड़की ने इमरान को देख कर शाने उचकाते हुए हाथ हल्के से फैलाए और सर झटक कर हँस दी जैसे कह रही हो कि मुझे भी कोई परवाह नहीं।
कुछ मिनट बा’द चार बालिग़ और दो ना-बालिग़ लोग वाइस प्रिंसिपल के कमरे में खड़े थे।
लड़की का नाम चाँदनी शर्मा था। कमरे में दाख़िल होने के बा’द उसकी आँखों में ख़ौफ़ के साए फिर से वाज़ेह हो गए। उसने आस्तीनों की सिलवटें खोल कर कलाइयों पर बटन बंद कर लिए थे। कॉलर वाली सफ़ेद क़मीज़ के ऊपरी खुले बटन के क़रीब जहाँ सब्ज़ टाई की ढीली गिरह बंधी थी, पसीने की नन्ही-नन्ही बूँदें चमक रही थीं। वो हाथों की उंगलियाँ एक-दूसरे में फंसाए सर झुकाए अपने जूतों को देख रही थी।
इमरान उससे कुछ फ़ासले पर गर्दन उठाए आँखें नीची किए दोनों हाथ पीछे बाँधे सीधा खड़ा था।
“बैठिए मिसिज़ शर्मा।”, वाइस प्रिंसिपल ने कहा।
“आप लोग भी बैठिए।”, उन्होंने आदिल की तरफ़ देखा।
“हाँ तो इमरान फ़ारूक़ी... बताया पैरंट्स को...”
इमरान एक क़दम उनकी तरफ़ बढ़ा और अटेंशन में खड़ा हो गया।
“No sir” उसने सर ऊपर उठा कर झुका लिया।
“We did not do any thing sir”, वो धीरे से बोला।
“Shut up۔۔۔ सब लोग ग़लत हैं... और एक तुम सच्चे हो…”, वाइस प्रिंसिपल गरजे।
“मिस्टर फ़ारूक़ी। ये दोनों कल ब्रेक के बा’द भी पी टी ग्राउंड में बैठे थे और वो Period इन दोनों ने Bunk भी किया था... तक़रीबन आधे से भी ज़ियादा क्लास ख़त्म होने को थी कि ये लड़का आया... और ये लड़की... इससे एक क्लास पीछे है...8th में... भला क्या लेना देना…”, उन्होंने सर झुकाया।
“And do you know हाथ में हाथ डाले...”
“No sir .No sir... वो रेलिंग इधर से... जहाँ से Short Cut है सर... ऊँची थी... तो चाँदनी ने मेरा हाथ पकड़ा था... उतरने के लिए…”, इमरान ने जल्दी से कहा।
“और उसी वक़्त छोड़ दिया सर…”, चाँदनी झट से बोली।
“Sorry Sir”, वो दोनों एक साथ बोले।
“This shouldn't happen in future. आप लोगों को हमने इसी लिए बुलवाया है कि ये बात repeat न हो। स्कूल का माहौल ख़राब न हो... और बच्चे यहाँ पढ़ने आते हैं... ये कोई बात है...? Written दो तुम दोनों... कि दुबारा ऐसा नहीं होगा... हुआ तो दोनों को Suspend कर देंगे... समझे...?”
“Yes Sir.”
दोनों काग़ज़ की तलाश में इधर-उधर देखने लगे। किताबों के बस्ते वो अपनी-अपनी क्लास में छोड़ आए थे। वाइस प्रिंसिपल ने अपने पी-ए से उन्हें काग़ज़ का एक-एक वरक़ देने का इशारा किया। सबीहा ने पर्स में से क़लम निकाला तो चाँदनी ने हाथ बढ़ाया और सबीहा की आँखों में देखा। सबीहा को मा’सूम से चेहरे पर अपनाइत और इल्तिजा की अ’जब आमेज़िश नज़र आई तो होंटों पर आ रही मुस्कुराहट को उसने बड़ी कोशिश से क़ाबू में रख कर क़लम उसके हाथ में दे दिया।
बाहर आकर वालिदैन लोग आपस में कुछ झेंपे-झेंपे से मुत’आरफ़ हुए, जैसे कि सब अपनी जगह ख़ुद को मुजरिम तसव्वुर कर रहे हों। चारों ने मिलकर बच्चों को कुछ समझाया... कुछ डाँटा भी।
बच्चों को अपनी-अपनी जमातों को लौटना था। बच्चे चले गए तो वो चारों पार्किंग तक साथ चलते-चलते ऐसे घुल मिल गए जैसे पुराने दोस्त हूँ। मगर एक-दूसरे से अपने-अपने बच्चे की ग़लती पर नदामत ज़ाहिर कर के माफियाँ भी माँग रहे थे। और आगे ऐसा न होने का यक़ीन भी दिला रहे थे... साथ ही इस बहाने अच्छे लोगों से मुलाक़ात हो जाने के लिए एक-दूसरे के तईं मसर्रत का इज़हार किया गया बल्कि इस त’आरुफ़ के लिए बच्चों की ममनूनीयत का ज़िक्र भी हुआ।
इस ‘इनकाउंटर’ के बा’द कभी-कभी ऐसा भी होता कि सबीहा फ़ोन उठाती तो कोई उसकी आवाज़ सुनते ही सिलसिला मुनक़ते कर देता। इस बात से उसे आदिल पर शक होने लगा कि शायद कोई औरत....
वो नहीं जानती थी कि आदिल के साथ भी ऐसा हो रहा है। और एक इतवार की दोपहर जब आदिल अपने किसी ख़्याली रक़ीब को ऊँची आवाज़ में खरी-खरी सुना रहा था तो वो शर्मिंदा सी कमरे में दुबकी रही कि उसने आदिल पर बिला-वज्ह शुबा किया और अब जाने आदिल क्या समझ रहा होगा।
आदिल ने फ़ोन लाईन पर नंबर शनाख़्त करने वाला आला लगवाया तो Blank Calls आना यकसर ही बंद हो गईं। यानी blank caller को इत्तिलाअ हो गई कि नंबर शनाख़्त हो सकता है।
उधर इमरान फ़ोन पर घंटों बातें करने लगा था। इस वजह से कई ज़रूरी काम रह जाते। डाँट खा कर भी फ़ोन न छोड़ा जाता।
बस मामाँ... दो मिनट और... मेरा एक दोस्त है... हॉस्टलर है... वो बहुत बीमार है... उसके Room Mate के साथ Discuss कर रहा हूँ कि इसके Parents को Inform करें... या।”
वो भोलेपन से बताता और सबीहा परेशान हो जाती और सब काम भूल कर बीमार लड़के के बारे में मज़ीद दरियाफ़्त करती।
ऐसे अ’जीब-अ’जीब हादिसे अब अक्सर सुनने में आते थे।
कभी किसी दोस्त का एक्सीडेंट में पाँव ज़ख़्मी हो जाता और इमरान उसकी मिज़ाज-पुर्सी के लिए जाने से घर देर से पहुँचता और कभी प्रैक्टीकल करते-करते स्कूल की बस निकल जाती और गाड़ी भिजवाना होती।
बात जब खुली जब स्कूल के Reception से मज़ीद फ़ोन आने लगे और घर में शिकायत नामे भी पहुँचने लगे।
कल आपका बेटा और चाँदनी... छुट्टी के बा’द स्कूल के फाटक के पास ज़ीने पर बैठे एक घंटा बातें करते रहे....
आपके बेटे ने गेट-कीपर के साथ बदतमीज़ी की। उसने सिर्फ़ स्कूल में रुकने की वज्ह पूछी थी...
आपके बेटे ने चाँदनी से झगड़ने पर एक लड़के को थप्पड़ मारा...
आपके बेटे ने होस्टल के लड़कों से लड़ाई की...
आपके बेटे ने इस हफ़्ते हिसाब की कोई क्लास अटेंड नहीं की...
आपके बेटे ने क्लास टीचर के साथ बहस की...
आपका बेटा स्टाफ़ पार्किंग के पीछे चाँदनी के साथ कोक पी रहा था वग़ैरह।
इस बीच आदिल ने दो-एक दफ़अ’ इमरान को थप्पड़ लगाए थे और आक़ करने की धमकी दी थी।
और चाँदनी से माँ ने बात करना तक़रीबन छोड़ दिया था।
सबीहा से मिसिज़ शर्मा की बात हुआ करती थी।
बच्चों पर किसी सज़ा या धमकी का कोई असर न हुआ और ये सिलसिला चलता रहा। साल में दो तीन बार चारों वालिदैन का स्कूल में हाज़िर होना नागुज़ीर होता गया। यहाँ तक कि मु’आमला प्रिंसिपल तक पहुँच गया।
वो मुजरिमीन की तरह शर्मसार से प्रिंसिपल के सामने पेश हुए।
“तीन साल से तुम लोगों को समझा रहे हैं... ये स्कूल है यहाँ नज़्म-ओ-नस्क़ की पाबंदी लाज़िमी है...”
प्रिंसिपल सर झुकाए अपने काग़ज़ों को देखते हुए नर्मी से कहते।
“Sir ये co-ed है तो बच्चे... आपस में बात तो करेंगे ही... और ख़ुदा-न-ख़ास्ता कोई ग़लत बात तो नहीं हुई आज तक... हाँ... ये डिसिप्लिन की बात तो है ही Sir अब ये बड़े हो रहे हैं... ऐसी हरकत दुबारा नहीं करेंगे सबीहा सर झुकाए इमरान के पैरों की तरफ़ एक नज़र फेंकती।
“हमें अपनी बेटी पर पूरा Confidence है सर... अब ऐसा नहीं होगा मिसिज़ शर्मा चाँदनी की आँखों में देखकर कहतीं।
“हमें भी अपने Students पर पूरा भरोसा है... ये अच्छे शहरी बनेंगे... स्कूल का नाम रोशन करेंगे... बस अपनी class कभी Bunk न करें... Discipline का ख़याल रखें... और क्या चाहिए एक टीचर को... go... God Bless you” प्रिंसिपल सबको देखकर हल्का सा मुस्कुराए और अपने काग़ज़ों पर झुक गए।
मु’आमलात कुछ सुलझते नज़र नहीं आ रहे थे।
“सबीहा जी... आज मेरे को पता क्या कहती है...” मिसिज़ शर्मा ने जिन्हें अब सबीहा काफ़ी वक़्त से संध्या जी बुलाती थी फ़ोन पर कहा।
“जी... कौन चाँदनी कहती है...?” सबीहा बोली।
“हाँ जी और कौन... आज मेरे को कहती है... मुझे बर्थ डे Present मैं इमरान चाहिए... मेरे पैरों से तो जमीन खिसक गई।”
“God ऐसा कहा इसने...”
“और क्या... इसके पापा सुनेंगे तो मार डालेंगे।”
“प्यार से समझाईए न... कि ऐसी बातें नहीं कहते।”
“कहाँ मानती है सबीहा जी... कहती है मैं नी डरती किसी से... बोल दो चाहे पापा को... अब बताईए क्या करूँ...”
“ये तो बहुत बुरी बात है। इमरान भी बदतमीज़ हो रहा है आजकल... फ़ोन करने पर बहस शुरू’ हो जाती है... किताब तो मैं देखती ही नहीं उसके हाथ में कभी…”, कुछ लम्हे ख़ामोशी छाई रही।
“अब तो हाईस्कूल है... फ़ेल न हो जाए कहीं…”, सबीहा ने ठंडी साँस भरी।
“अब आख़िर होगा क्या…”, संध्या ने पूछा।
“पता नहीं... ख़ुदा उनको अक़्ल दे... मैं तो ख़ुद ही हार गई इन बच्चों से...”
“क्या करें जी... बच्चे तो बच्चे हैं... मगर ये कि अब जमाना बिल्कुल बदल गया है... पहले तो अपने मुँह से कोई बात नहीं करता था शादी की... और अब देखो...” संध्या पंजाबी लहजे में जब उर्दू बोलती तो सबीहा को बहुत अच्छा लगता। एक अ’जीब सादगी भरी मतानत थी उसकी बातों में जिसकी सबीहा क़दर करती थी।
“आप फिक्र न कीजिए संध्या जी... सब ठीक हो जाएगा।”
“आपको पता है... आपकी भाषा न... मेरे को बहुत अच्छी लगती है...”
“और मुझे आपकी बातें बहुत अच्छी लगती हैं...”
स्कूल से अब बुलावे कम और शिकायत नामे ज़ियादा आने लगे और हर शिकायत नामे के बा’द सबीहा और संध्या की टेलीफ़ोन पर बातें होतीं।
उन दिनों स्कूल में Annual Day की तैयारियाँ हो रही थीं। दोनों बच्चे भी कुछ मसरूफ़ हो गए थे। चाँदनी ख़ुशगुलू थी और इमरान अदाकारी अच्छी कर लेता था।
सबीहा ने सुख का साँस लिया कि फ़ोन पर उन की घंटों की बातें कुछ कम हुईं... इमरान मुख़्तलिफ़ मल्बूसात पहन कर स्कूल जाता... कभी मेक-अप का सामान कभी अंग्रेज़ी टोपी साथ ली जाती। लंबे-लंबे जूते और गुलू-बंद वग़ैरह ख़रीदे गए। मसरूफ़ियात भी बढ़ती गईं।
उधर कई दिन सबीहा की संध्या से बात नहीं हुई तो सबीहा ने फ़ोन मिलाया।
“बड़ी लंबी उ’म्र है आपकी... मैं तो आपको ही याद कर रही थी। सोचती थी जरा free हो लूँ तो बात करूँ।”
“देखिए न दिल को दिल से राह होती है।”, सबीहा ने नर्मी से कहा।
“दिल को क्या होती है…”, संध्या ने निहायत सादगी से पूछा तो सबीहा ने बड़ी मुहब्बत से सारा मु’आमला समझाया जिसे सुनकर संध्या हँस दी।
“आपको पता है... उस दिन जब हमने स्कूल में देर तक रुकने से मना किया। तो रो पड़ी थी कि Rehearsal चल रहे हैं... दो प्लेटें उठा कर दे मारीं... जमीन पर... इतनी अच्छी मेरी करा करी...” वो इत्तिला देने वाले मख़सूस लहजे में बोली और ज़ोर से हँसी।
“पता है मुझे, उसके पापा क्या कहते हैं... कहते हैं…”, वो क़हक़हों के दरमियान रुक-रुक कर बोलती गई।
“बोलते हैं कि मेरे बाप ने बड़ी गलती की पाकिस्तान छोड़ कर इधर आ गया... अगर मेरी औलाद ने इधर ये ही करना था तो फिर पाकिस्तान क्या बुरा था…”, वो पल-भर को रुकी।
“पता है सबीहा जी... भगवान जानता है... ये धर्म की बात बीच में न होती तो... मैंने न, अभी से आपसे अपनी बिटिया के लिए...”
“आप भी यक़ीन कीजिए कि ये मज़हब का मु’आमला न होता तो मैं भी... झोली पसार कर आपकी बिटिया का हाथ माँग लेती... और सारी उ’म्र उसे सीने से लगाए रखती।”, सबीहा ने धीरे से जुमला मुकम्मल किया।
एनुअल-डे की तक़रीबात के बा’द फ़ोन का सिलसिला कुछ और कम हो गया।
सबीहा को एहसास भी न हुआ कि फ़ोन को घंटों ख़ामोश देख कर वो सोचों में डूब सी जाती थी।
जब सबीहा को यक़ीन हो गया कि बच्चे आपस में बात नहीं कर रहे तो उसने संध्या से मा’लूम करने का फ़ैसला किया, मगर ख़ुद संध्या ने यही बात दरियाफ़्त करने के लिए फ़ोन किया। मा’लूम हुआ कि चाँदनी ने खाना पीना छोड़ रखा था। और इमरान भी घर में कुछ चिड़चिड़ेपन का मुज़ाहिरा करने लगा था। बहाने बना कर रोता था। न खाने के बराबर ही खाता था वग़ैरह... इस तरह की गुफ़्तगू के बा’द माओं ने इधर-उधर टेलीफ़ोन खड़खड़ाए... कुछ वज्ह मा’लूम न हुई... मगर फिर तीन चार रोज़ के अंदर-अंदर फ़ोन वाला सिलसिला बहाल हो गया। और न सिर्फ़ माओं ने बल्कि वालिद साहिबान ने भी सुख का साँस लिया कि जाने कब इन दोनों के इस त’अल्लुक़ ने वालिदैन के दिलों में एक जगह बना ली थी।
“इसके पापा भी पूछ रहे थे कि बच्चों में झगड़ा तो नहीं हुआ…”, संध्या ने ये बात फ़ोन पर बच्चों की मौजूदा हालत की नौइ’यत के बारे में बात करते हुए दो बार कही थी। जिसे सुनकर सबीहा उदासी से मुस्कुरा दी थी।
“हाँ... आदिल भी यही पूछ रहे थे…”, वो बोली थी।
मगर इधर फ़ोन पर बातों के दरमियानी वक़्फ़े कुछ ज़ियादा हो गए और बातों का वक़्त कुछ कम। शायद चश्मक अभी बाक़ी थी। सबीहा सोचा करती।
“चाँदनी को किसी ने बताया था कि आदिल किसी लड़की से बातें करता था।” संध्या ने फ़ोन पर कहा।” बाद में पता चला कि गलत-फ़हमी थी... जो फिर दूर हो गई थी।”
“चलिए अच्छा हुआ... हँसना-बोलना छोड़ देते हैं बच्चे तो...”
“मेरा तो सबीहा जी सारा घर ही दुखी लग रहा था...”
“बच्चे शायद समझदार हो गए हैं अब... फ़ोन पर बातें कम होती हैं...”
“exams भी तो आ रहे हैं उनके।”
“हाँ... ये तो ठीक है... शायद इसीलिए…”, सबीहा कहती।
इम्तिहानात शुरू’ हो कर ख़त्म हो गए। मगर फ़ोन धीमी रफ़्तार से ही होते रहे उधर स्कूल से भी कोई शिकायत न आई।
शायद उ’म्र के साथ-साथ बच्चे एहसास ज़िम्मादारी और फ़राइज़ की अहमियत समझ रहे थे। मगर कभी-कभी सबीहा उदास सी हो जाती कि अब साल डेढ़ साल से चाँदनी सबीहा की आवाज़ सुनकर फ़ोन का सिलसिला मुनक़ते नहीं करती थी।
“आंटी... मैं इमरान से बात कर लूँ।”, प्यार से लबरेज़ मीठी सी आवाज़ में वो घुँघरूओं की सी खनक लिए अ’जब अंदाज़ में इल्तिजा सी करती तो सबीहा का ममता भरा दिल उसके लिए मुहब्बत से छलक छलक जाता।
“हाँ बेटा... एक मिनट”, वो मुख़्तसर सा जवाब देती।
अब कई रोज़ से सबीहा ने उसकी आवाज़ नहीं सुनी थी। टेलीफ़ोन का एक कनेक्शन इमरान के कमरे में भी लग गया था उसका कम्पयूटर भी वहीं था। अब उसी नंबर पर फ़ोन करती होगी चाँदनी। फिर अब चाँदी के पास मोबाइल फ़ोन भी है। सबीहा मुस्कुरा कर सोचती।
नई जमात के फ़ार्म भरने वाले दिन संध्या और सबीहा की स्कूल में मुलाक़ात हुई थी।
सबीहा जी... मैं तो चाँदनी की फ़ोटो लाई ही नहीं…, “इमरान कहाँ है?” संध्या ने मुस्कुरा कर पूछा था। “मैं निकली तो सो रही थी... बताया भी नहीं कि फ़ोटो चाहिए।”
“अभी आ रहा है…”, सबीहा का घर स्कूल से ज़ियादा दूर न था। वो भी मुस्कुरा कर बोली... “समझ गई मैं…”, सबीहा को हँसी आ गई तो संध्या भी क़हक़हा लगा कर हँस दी।
“है न Short cut उसके पास तो जरूर होगा... फ़ोन कर के बता दें उसे कि चाँदनी का एक फ़ोटो लेते आना।”
इस पर दोनों हँसती रही थीं। फिर साथ-साथ कैंटीन जा कर कॉफ़ी भी पी।
फिर कुछ दिन बा’द सबीहा ने फ़ोन पर एक नई आवाज़ सुनी।
“Hello, may I please speak to Imran”, किसी लड़की ने बड़े मज़बूत लहजे में कहा।
“Who is that?”, सबीहा ने पूछा तो उसने अपना नाम बताए बग़ैर उसी मज़बूती से कहा कि वो उसकी दोस्त है।
ख़ैर ये पब्लिक स्कूल का कल्चर... दोस्ती तो होती होगी Students मैं हल्की-फुल्की... वो अपने आपसे कहती।
कई दिन से उसकी संध्या से भी कोई बात न हुई थी।
फिर एक दिन स्कूल के औक़ात में संध्या का फ़ोन आया था।
चाँदनी स्कूल में बेहोश हो गई थी। इमरान से उसका झगड़ा हो गया था। उसकी फ्रेंड्स ने फ़ोन किया
था... और उसे होश में लाया... स्कूल बस में बिठाया।
“जरा पूछना तो सबीहा जी... इमरान आ गया क्या... क्या हुआ था।”, संध्या ने एक ही साँस में कहा।
“नहीं... तो... अभी नहीं आया... आप मुझे चाँदनी का सेल नंबर दे दें मैं बात करती हूँ उससे...”
सबीहा ने चाँदनी को फ़ोन किया तो वो काँपती हुई आवाज़ में हैलो बोली थी... और फिर ख़ामोश सिसकती रही थी।
“क्या हुआ मेरी बिटिया…”, सबीहा के बेटी नहीं थी। उसने बेचैनी से पूछा। पहले उसने इस तरह कभी चाँदनी को मुख़ातिब नहीं किया था। स्कूल की मुलाक़ातों में उन्हें ज़ाहिर है कि एक दूसरे के वालिदैन फ़िल्मी विलन की तरह नज़र आते होंगे... चाँदनी नहीं जानती थी कि सबीहा उससे मुहब्बत करती थी। और शायद चाँदनी की सिसकियाँ सुनने से पहले ख़ुद सबीहा पर भी ये बात वाज़ेह नहीं थी।
“बहुत... दिनों से... Ignore... मार रहा था। आज उसने मुझे Get Lost कहा। बहुत जोर से डाँटा...। और कहा जो मर्जी कर।”, वो हिचकियों के दरमियान बोली।
“क्यों...?”, सबीहा ने पूछा।
“कुछ नहीं आंटी... मैंने खिड़की के टूटे हुए काँच पर अपना हाथ दे मारा था...”
“वो क्यों बेटा...? क्यों मारा था हाथ टूटे हुए काँच पर…”, सबीहा ने जल्दी से पूछा।
“वो सीमा से बातें कर रहा था... एक नई लड़की आई है... सारी break में उसके साथ था... मेरे को बहुत बुरा लग रहा था... फिर सुन कर आया था भागा हुआ... मेरे हाथ पर रूमाल बाँधा और मुझे डाँट कर चला गया।”, उसने हिचकी ली।
“वो बदल गया है आंटी…”, वो रो पड़ी।
“वो मुझसे प्यार नहीं करता। बे-वफ़ाई कर रहा है मेरे से वो।”
“नहीं... मेरी गुड़िया... रोते नहीं... गु़स्सा आ गया होगा उसे। तुमने अपना हाथ जो ज़ख़्मी कर लिया था।”
सबीहा ने समझाने के अंदाज़ में कहा। मगर उसे हैरत भी हो रही थी कि चीज़ें कितनी दूर तक चली गई थीं।
“सच्ची आंटी...?”, उसने मा’सूमियत भरी बे-ए’तिबारी से पूछा।
इतनी सी उ’म्र में इतने बड़े मसअले पाल लेते हैं बच्चे। सबीहा ने सोचा।
“हाँ और क्या…”, सबीहा ने यक़ीन से कहा।
“यहाँ बस में बहुत शोर है... मैं घर पहुँच कर आपको फ़ोन करूँगी।”
बस के शोर में उसकी आवाज़ दब गई।
सबीहा ने संध्या को फ़ोन कर के सारी बात बताई और परेशान न होने की तलक़ीन की।
फिर सारा दिन सबीहा चाँदनी के फ़ोन का इंतिज़ार करती रही मगर उसका फ़ोन नहीं आया। सबीहा इतनी रंजीदा हो गई थी कि ख़ुद उसकी समझ में न आ रहा था कि वो इतनी ज़ियादा परेशान क्यों हो रही है।
वो सोने के लिए लेटी तो उसे बार-बार ये ही ख़याल आता कि चाँदनी उसके बेवफ़ा बेटे को याद कर के रो रही होगी। मगर ज़रूरी नहीं कि वो बेवफ़ा हो... वो उससे क्यूँ बे-वफ़ाई करेगा... वो ख़ुद से पूछती... मर्द है न... उसकी मुहब्बत की बोहतात से वक़्ती तौर पर कुछ लापरवाह हो गया हो... यकसानियत से घबरा उठा हो। मगर ऐसे कैसे वो दिल दुखा सकता है उसका। कुछ महीने ही और हैं उसके स्कूल में। फिर जाने कौन कहाँ जाए। मुस्तक़बिल तो सिर्फ़ ख़ुदा जानता है मगर वो चाँदनी से ऐसा सुलूक नहीं कर सकता... सबीहा की आँखों में चाँदनी का चेहरा घूम जाता।
लेकिन चाँदनी को ख़ुश रहने के लिए उसके सहारे का मुहताज नहीं रहना चाहिए। ऐसे तो... वो कहीं अपने आपको कुछ... उसने फ़ोन भी नहीं किया... कहीं वो रो न रही हो... वो सो भी नहीं पा रही होगी। घर में कोई न जानता होगा कि एक नन्ही सी रूह कितनी बे-सुकून है। करवटें बदल-बदल कर उसके रेशमी बाल उलझ-उलझ गए होंगे। उसके मा’सूम और महरूम दिल से आहें निकल-निकल कर उसकी नींद जला रही होंगी। वो सरापा मुहब्बत, नफ़रत कैसे सहेगी... मर जाएगी ग़रीब...
सबीहा रो पड़ी... ये क्या हो गया...
ये तुम क्या कर रहे हो इमरान...
सबीहा उसे समझा भी नहीं सकती थी कि वो अपनी सी करता था। और रो धोकर शोर मचा कर अपनी बात मनवा लेता था।
उस दिन आधी रात को चाँदनी का फ़ोन आया।
“मुझे आप ही से बात करनी है आंटी।”
मा’सूमियत और मुहब्बत की खनकती हुई आमेज़िश वाली मानूस आवाज़ आई।”, आप सो रहे थे... Sorry...”
“नहीं... मेरी गुड़िया तुम ठीक होना?”, सबीहा ने निहायत मुहब्बत से कहा।
“हाँ जी आंटी…”, इस बार उसकी आवाज़ उदास सी हो गई।
“क्या हुआ बिटिया... क्या हुआ है।”, सबीहा ने पूछा... मगर चाँदनी की आवाज़ रुँध गई। वो कुछ न बोल सकी। उसकी घुटी-घुटी सिसकियाँ सुनाई दीं।
“रोओ नहीं बिटिया... प्लीज़... तुम बताओ तो सही…”, सबीहा की आवाज़ रंजीदा हो गई।
“आंटी... वो अब मुझसे वैसे नहीं मिलता... जैसे... पहले…”, वो सिसकती रही।
“ओह... कब से…”, सबीहा का दिल बुझ सा गया।
“कई दिन हो गए... एक महीना... नहीं... बहुत से महीने…”, वो बिलक-बिलक कर रोती रही...” “वो... अब बदल गया है...”
“वज्ह क्या हुई...”
“मेरी समझ में कुछ नहीं आता... मैंने तो उसे इतना प्यार दिया... कि वो प्यार की कोई कमी महसूस न करे... आप लोग उससे नाराज़ रहते थे न पहले... इसीलिए। मैंने वही किया जो उसने कहा... कहा जीन्ज़ मत पहनो... मैंने छोड़ दी... कहा किसी लड़के से स्कूल में बात न करो मैंने कभी नहीं की... उसके लिए... उसके पैर में मोच आई तो मैंने व्रत रखे... ख़ुदा-हाफ़िज़... इंशाअल्लाह और आमीन कहना सीखा…”, वो बे-इख़्तियार अपने दिल की बातें बताती गई। उसकी मा’सूम बातों से सबीहा के होंटों पर मुस्कुराहट फैल जाती मगर आँखें नम हो उठतीं।
“सब सो गए तो मैंने... फ़ोन किया... कि कोई मेरी हालत न देखे। ममाँ से कहा कि सब ठीक है... बहुत देर कर दी मैंने।
“नहीं बेटा... ऐसा कुछ नहीं है…”, सबीहा ने जल्दी से कहा।
कितनी बेबस थी वो नन्ही सी जान... ग़म का पहाड़ उठाए।
“तुम जब चाहो... चाहे आधी रात हो... फ़ोन कर लो... मैं तो ख़ुद तुम्हारी वज्ह से बहुत परेशान हो रही थी... जाग रही थी मैं भी...”
“अच्छा...? अब पता है मेरी फ्रेंड्स क्या कहती हैं... कहती हैं कि तुमने उसे ज़ियादा लिफ़्ट दी है। वो सर चढ़ गया है... कहती हैं भूल जाओ उसे... मत बात करो उससे... मैं ये कैसे करूँ। उसने आज तक मेरे को जितने Flowers दिए हैं... मैंने सब अपनी Almirah मैं सजा कर रखे हैं... उसकी हर चीज़... हर Gift हर बात से उसकी याद आती है…”, वो रो पड़ी।
“नहीं बिटिया... रोओ नहीं... मैं बताती हूँ कि तुम...”
“कोई गाना बजता है तो वो याद आता है... घर में रोती रहती हूँ... सारा स्कूल जानता है... सब पूछते हैं। अकेला देखते हैं तो पूछते हैं इमरान कहा है... मैं क्या कहूँ क्या करूँ... मैं महीनों से नहीं सोई... मैं... मैं आत्म-हत्या कर लूँगी।
“सुनो... सुनो बिटिया। मैं तुम्हें एक बड़ी ज़रूरी बात बताती हूँ...”
“आंटी... मेरी Friends नई-नई चीज़ें माँगती हैं Parents से... मैं सिर्फ़ इमरान माँगती हूँ... उन से... God से... फिर मेरे साथ ऐसा...”
“अगर तुम बिटिया मेरी बात सुनओ तो में कुछ बताऊँगी तुमको…”, मु’आमले की संजीदगी का अंदाज़ा होते ही सारी बात सबीहा की समझ में आ गई। उसे बेहद दुख हुआ।
“सुनूँगी... आप बोलो...”
“मगर रो कर नहीं...”
“ठीक है आंटी…”, उसका दिल रोकर कुछ हल्का हो गया था। उसके नाक सुकेड़ने की आवाज़ आई।
“तुम्हारी सहेलियाँ ठीक कहती हैं... तुमने वाक़ई उसे सर चढ़ा दिया है... तुम्हारी अभी उ’म्र देखो कितनी छोटी सी है... अपना सारा प्यार तुमने उसे दे दिया है। है ना?” सबीहा ने उसी के अंदाज़ में बात शुरू’ की।
“हाँ जी...”
“तुमने उसे उसकी नज़रों में Important बना दिया। वो ख़ुद को तुमसे बढ़कर समझने लगा है... जबकि सब इंसान बराबर हैं। और प्यार तो है ही बराबरी के इहतिराम और इज़्ज़त का नाम... अभी तो बिटिया तुम्हें ज़िंदगी में कितने काम करने हैं... हैं ना...” सबीहा ने ‘कितने’ को खींच कहा।
“करने तो हैं...”
“ठीक है ना... देखो इंसान हमेशा गलतियाँ करता आया है... है ना... तो Admit कर लो... कि तुमसे भी एक ग़लती हो गई। बचपने में तुमने एक ग़लत इंसान से दोस्ती कर ली। बाक़ी ज़िंदगी को तो जहन्नुम न बनाओ... कह दो अपनी Friends से... अपने Parents से कि तुमसे ग़लती हो गई एक... वालिदैन तुम्हें इतने क़सूर मुआ’फ़ करते आए हैं। वो ये बात भी भूल जाएँगे। उन्हें पता तो चल गया होगा कि तुम लोगों में कुछ गड़बड़ चल रही है... तुम उदास रहती हो... उनसे तो कुछ छिपा नहीं होता... है न बेटा...”
“हाँ जी...”
“ख़ुश हो जाएँगे कि अब तुम और ग़मज़दा नहीं रहोगी... कम से कम आगे की ज़िंदगी तो सँवर जाएगी ना...”
“जी आंटी... मगर...”
“मगर क्या... तुम सोचो न बेटा...”
“मैं जब सोचती हूँ कि इमरान मेरा साथ नहीं देगा तो मेरी जान सी निकलती है। ज़िंदगी में कुछ Meaning ही नज़र नहीं आता मुझे…”, चाँदनी की आवाज़ में थकन और यासियत थी।
“आप नहीं जानती आंटी... मैं कितना प्यार करती हूँ उससे। अगर ख़ुदा-न-ख़ास्ता मुझे अपनी एक Kidney उसे देनी पड़े तो दूसरी बार नहीं सोचूँगी।
“आज तक जब भी झगड़ा हुआ तो पहले कौन फ़ोन करता था।”, सबीहा को किसी सहेली की तरह वो बे-तकल्लुफ़ी से अपनी बातें बताती गई तो सबीहा ने भी अच्छा सामे’ होने का सबूत दिया। वो समझ गई थी कि चाँदनी को किसी बा-क़ायदा समझाने वाले की, बाक़ायदा ‘Counselling’ की ज़रूरत है।
“मैं ही मनाती हूँ उसे... हमेशा... सोचती हूँ 12th में है... कुछ महीने बा’द चला जाएगा स्कूल छोड़ कर... फिर कहाँ होगा। कब देखूँ जाने।”
उसने एक ठंडी आह भरी।
“अगर क़सूर उसका हो... तो भी तुम ही मनाती हो...”
“हाँ जी... झट से फ़ोन करती हूँ... कि लंबा न खिच जाए।”
“ममाँ आ गई आंटी…”, उसने जल्दी से सरगोशी में कहा।
“अच्छा मीनाक्षी... मैं बा’द में फ़ोन करूँगी वो ऊँची आवाज़ में बशाशत से बोली... और फ़ोन रख दिया। कितना कुछ सीख लिया था उसने। कितना कुछ सिखा दिया था वक़्त ने उसे... कितना बालिग़ कर दिया था उसकी सोच को मुहब्बत ने... और कितना तन्हा और ग़म-ज़दा भी... सबीहा की आँखें फिर नम हो गईं। इसकी एक और वजह भी थी जो उस दिन सारा वक़्त सबीहा चाँदनी के बारे में सोचती रही। उसे बार-बार उसकी मग़्मूम आवाज़ उसका वालहाना अंदाज़ याद आकर उदास करता रहा।
पिछले साल एक-बार जब सबीहा किसी काम से स्कूल गई थी तो लौटते वक़्त उसने लंबी सी राहदारी में कई लड़के लड़कीयों में चाँदनी और इमरान को भी देखा था। सबीहा ज़ीना उतर रही थी तो चाँदनी की इस पर नज़र पड़ गई थी और उसने इमरान से कहा था। फिर ज़रा मुहतात सी हो कर मुस्कुराई थी। और इमरान को देख रही थी... सबीहा ने सियाह चश्मा पहन रखा था। उसने बिल्कुल ज़ाहिर न होने दिया कि उसने भी उन लोगों को देखा था। मगर चश्मे की ओट से वो वहाँ से गुज़रते वक़्त उन ही को बल्कि सिर्फ़ चाँदनी को देख रही थी। सबीहा ख़ासी ता’लीम-ए-याफ़ता थी। और नफ़्सियात उसका महबूब मज़मून रहा था।
उस दिन भी चाँदनी के तअस्सुरात देखकर वो सोच में पड़ गई थी कि उसे देखकर चाँदनी के चेहरे पर जो तअस्सुरात उभरे थे वो फ़ितरी तो थे मगर जिस तरह वो इमरान को देख रही थी वो बिल्कुल ऐसा था जैसे वो अपने ठिठकने और मुस्कुराने के तईं इमरान का रद्द-ए-अमल जानना चाहती हो। कि उसके मा’सूम से चेहरे पर ख़ुशामदाना मुस्कुराहट थी। आँखों में ता’मील पर आमादा महकूमियत की झलक थी। वो नीम सहमी सी पाँव आगे-पीछे रखती हुई खड़ी थी। पूरे वजूद से ख़ुद-ए’तिमादी की हर वो झलक ग़ायब थी जो सबीहा ने पहली बार उसमें वाइस प्रिंसिपल का सामना करते हुए देखी थी। उसकी सेहत भी गिरी हुई सी मा’लूम हो रही थी।
जब से सबीहा को अक्सर ये बात याद आ जाती।
“ममाँ चली गईं…”, सबीहा ने फ़ोन उठाया तो चाँदनी की आवाज़ आई।
“आपको पता है आंटी... घर में समझते हैं कि सब ठीक है... मैं ख़ुश हूँ... उन्हें क्या पता इतनी Sincere हो कर भी मैं कितनी दुखी हूँ...”
“और फिर भी... उसने तुम्हारी क़द्र नहीं की... अच्छा ये बताओ वो सीमा कैसी लड़की है...”
“वो... वो Tall है। उसका Skin बहुत अच्छा है... एक भी Pimple नहीं है। इमरान कहता था तेरी आँखों में गड्ढे हैं...”
उसका जवाब सुन कर सबीहा के होंटों पर उदास सी मुस्कुराहट फैल गई।
“ओह... मेरा मतलब था नेचर वग़ैरह... मगर ये बताओ कि तुम डाइटिंग तो नहीं कर रहीं ना... पिछले बरस देखा था दूर से तुम्हें... कमज़ोर लग रही थीं।”
“करती तो थी डाइटिंग... मगर अब कई महीनों से नहीं कर रही... इमरान ने कहा था... मोटी हो गई हो...”
“तो फिर तुमने... रो-रो कर आँखों में गड्ढे बना लिए... है ना?”
“हाँ जी... उसी के लिए रोई और वही मज़ाक़ उड़ाता है।” उसकी आवाज़ में शिकवा ही शिकवा था।
“तो फिर बिटिया... तुम... अपना आप एक ऐसे आदमी के लिए ख़राब करोगी जिसको क़द्र ही नहीं... इतनी नन्ही सी उ’म्र में इतने-इतने दुखों से आश्ना करा दिया तुमको ज़ालिम ने...”
सबीहा के दिल में अपने बेटे के लिए ग़ुस्से की लहर दौड़ गई... मगर उसे चाँदनी के तड़पते दिल को किसी तरह सुकून देना था... और कैसे। ये उसने सोच लिया था।
“तुम जानती हो तुम कितनी ख़ूबसूरत हो... कितनी प्यारी हो...”
“कहाँ हूँ आंटी अब मैं सुंदर... पहले थी...”
“तो क्या अब तुम सुंदर होना भी नहीं चाहतें... पहले की तरह?”
“अब दिल ही नहीं करता। मुझसे कुछ करने की Will-power जैसे कि छिन ही गई है... मेरे में आंटी। Confidence ही नहीं है न...”
उसने जैसे कि थक कर कहा।
“किस ने कह दिया...?”
“इमरान ही कहता है...”
“तुम में...? Confidence नहीं है? Will-power नहीं है? बुद्धू लड़की... ये मैं मान ही नहीं सकती। मैंने तो तुम जैसी Strong लड़की देखी ही नहीं आज तक... एक तरफ़ तुम थीं। और एक तरफ़ सारा Staff... तुम्हारे Parents और हम... सबसे अकेले मुक़ाबला नहीं किया था?... नहीं?” सबीहा ने आवाज़ में मज़बूती पैदा की।
“हाँ जी... आंटी।” वो धीरे से बोली।
“एक तरफ़ इतनी बड़ी दुनिया थी और एक तरफ़ मेरी ये नन्ही सी हिरनी... हिरनी सी आँखों वाली... उसका छोटा सा क़हक़हा सुनाई दिया।
“जानती हो नन्ही सी हिरनी को क्या कहते हैं...”
“क्या कहते हैं...?”
“उसे ग़ज़ाला कहते हैं... जिसकी बहुत प्यारी आँखें हों... तुम्हारे जैसी।”
“और वो मैं हूँ…”, उसने मैं पर ज़ोर दिया और खिलखिला कर हँस दी।
सबीहा की आँखों में जाने कब से आँसू भरे थे... वो टप-टप गिरने लगे।
“मेरी नादान सी भोली सी बच्ची।” सबीहा ने आवाज़ की यासियत को क़ाबू में कर लिया।
“क्या तुम नहीं चाहतें कि वो पहले सी मज़बूत चाँदनी... वो पहले सी ख़ूबसूरत... स्कूल की सब लड़कीयों से ख़ूबसूरत चाँदनी... वो पहले सी Confident चाँदनी। फिर लौट आए?”
“हाँ जी... चाहती हूँ।” उसने धीरे से कहा।
“तो फिर बिटिया। अपने बारे में सोचो ना। उससे ज़ियादा ख़ुद अपने आपसे मुहब्बत करो... रोना छोड़ दोगी तो पहले की तरह सुंदर हो जाओगी... तुम्हारा Skin भी अच्छा हो जाएगा। तुम्हारी हर बात से Confidence छलकेगा। और ठीक से खा पी कर। नींद आने लगे तो उसके बारे में सोच-सोच कर नींद उड़ाओगी नहीं बल्कि अपने बारे में बेहतर सोच कर... अपने आपको और अच्छा बनाने के तरीक़ों पर ग़ौर करती हुई... Deep Breathing करती रहोगी... देखना कैसी मीठी नींद आएगी तुमको... गहरी-गहरी साँसें लेती अपने Career के बारे में सोचती हुई... कि ज़िंदगी में क्या बनना है... अच्छी-अच्छी Positive बातें अपने बारे में Decide करती। सो जाना...”
“हाँ जी...”
“अभी तो तुम्हारी उ’म्र खेलने-खाने की है... फिर अपना Future बनाने की। फिर कहीं Settle होने की बारी आती है... है ना? उसमें भी कई साल हैं।”
“हाँ जी... अब मैं ऐसा ही करूँगी... कल न सोने से पहले अलमारी से कपड़े निकालने लगी तो उसकी दी हुई सारी चीज़ें... रो पड़ी थी मैं।”
“तुमने बेटा इतने बरसों उसकी हर चीज़ सँभाल कर रखी है ना...”
“हाँ जी... हर चीज़ अलमारी में सजा कर...”
“अब तुम उन सबको एक बैग में डाल कर और अच्छी तरह सँभाल लो... फिर वो... वो बैग... हाँ उसे Bed के Box मैं डाल दो... बस ये सोच कर कि फ़िलहाल प्यार डिब्बे में बंद कर के में अपने बारे में सोचोंगी।
“प्यार डिब्बे में बंद कर दूँगी…”, वो खिलखिला कर हँस दी।
“क्यों करोगी...?”
“ताकि मुझे उसकी याद में रोना न आए... और मैं अपने लिए... अपने लिए कुछ सोच सकूँ ...”
“शाबाश... देखो, जिस माँ बाप ने तुम्हारे लिए इतना किया है... क्या ये उनका हक़ नहीं कि उनकी बेटी किसी लायक़ हो जाए। उन के इस ख़ून को जो तुम्हारी नसों में दौड़ रहा है किसी दूसरे के लिए आँसू बना कर न बहाए, बल्कि कुछ कर के दिखाए। कुछ बन कर दिखाए।”
“हाँ जी आंटी... मैं ख़ूब पढूँगी तो ममाँ, पापा बहुत ख़ुश होंगे।”
“बिल्कुल मेरी अच्छी बिटिया... और इधर-उधर के ख़यालात को, Disturbing ख़यालात को बिल्कुल मन में जगह न दोगी...”
“हाँ ऐसा कुछ नहीं सोचूँगी…”, उसने मज़बूती का मुज़ाहरा किया।
“और... क्या तुमने नहीं सुना कि Its better to be loved than to love”
“जी... सुना है...”
“तो फिर समझने की कोशिश नहीं की... आज इस पर भी सोचना... कहते हैं अगर तुम किसी को चाहते हो तो उसका पीछा मत करो... अगर वो तुम्हारा है तो तुम्हारे पास लौट आएगा... अगर नहीं आता तो इसका मतलब है कि वो कभी तुम्हारा था ही नहीं... है न... हेलो...”
“हाँ जी आंटी... मैं... आपकी बात पर Concentrate कर रही हूँ। ऐसा कहते हैं क्या...?”
“हाँ... है न पते की बात... तो बस फिर ख़ुद पर ध्यान दो। ख़ुद को बनाओ कुछ बन कर दिखाओ। उसकी निस्बत ख़ुद को अहमियत दोगी तो ख़ुश रहना आसान हो जाएगा। कोई बहुत अच्छी पोज़िशन हासिल कर लो। अपने पैरों पर खड़ी हो जाओ।”
“जी हाँ...”
“तो अब तुम इन बातों पर अ’मल करना... फिर एक इमरान तो क्या ऐसे दस इमरान तुम्हारे आगे पीछे नाक रगड़ेंगे... और न भी रगड़ें तो क्या फ़र्क़ पड़ता है।”
वो छोटा सा क़हक़हा लगा कर हँसी।
“तो बस मेरी बिटिया... अब तुम क्या करोगी।”
“मैं अच्छे से Exams की तैयारी करुँगी... अपने कैरियर पर Concentrate करूँगी... अपनी health और beauty का ख़याल रखूँगी और ख़ुद को अच्छा बनाऊँगी।”
“शाबाश... Good Girl... अपने आपको बिल्कुल पहले जैसी प्यारी और पहले से भी क़ाबिल लड़की बना कर दिखाओगी। कुछ कर दिखाओगी तो सब लोग तुम्हारा नाम फ़ख़्र से लेंगे... तुम्हें किस में दिलचस्पी है...?”
“मुझे Fashion Designing में... Jewellery Designing में भी। मेरी आर्ट फाईल में हमेशा Good और Excellent मिला है मुझे...”
“तो बस बिटिया... तुम तो बहुत अच्छा job भी कर सकती हो। और Self-employment भी... Good मिला है किया... मतलब अब नहीं मिलता?”
“अब मैंने दिल लगा कर पढ़ा ही नहीं बहुत दिन से...”
“मगर अब तो पढ़ोगी ना तुम... तुम फ़नकार हो... तुम बल्कि हर Situation में से Positive Aspect ढूँढ सकती हो... ज़रा सी कोशिश करना है। एक ही तो ज़िंदगी मिलती है इंसान को... एक ही तो मौक़ा मिलता है ख़ुद को Prove करने का, है ना।”
“हाँ जी आंटी... मैं फ़ैशन डिज़ाइनिंग में डिप्लोमा कर के अपना Boutique खोलूँगी... मैंने यही सोचा था। इसके लिए बाहर जाऊँगी।”
“यहाँ भी तो हो सकता है... दूर क्यों जाओगी अपने Parents से... डिग्री कहीं की भी हो, Success तुम्हारी Creativity पर Depend करती है... तुम्हारी अपनी मेहनत पर... है ना...”
“यहाँ रहूँगी तो मुझे इमरान की याद आती रहेगी। कुछ नहीं कर पाऊँगी। इस माहौल से दूर जा कर कुछ करूँगी, कुछ बनूँगी तो फिर इमरान मेरे पास लौट आएगा उसने निहायत सादगी से जवाब दिया और एक लंबी साँस ली। “है ना आंटी।”
“हाँ बेटा...”
सबीहा ने हारी हुई उदास आवाज़ में कहा।
Additional information available
Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.
About this sher
Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.
rare Unpublished content
This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.