मोचना
स्टोरीलाइन
यह एक ऐसी औरत की कहानी है जिसके चेहरे और जिस्म पर मर्दों की तरह बाल उग आते थे, जिनको उखाड़ने के लिए वह अपने साथ एक मोचना रखा करती थी। हालाँकि देखने में वह कोई ज़्यादा ख़ूबसूरत नहीं थी फिर भी उसमें कोई ऐसी बात थी कि जो भी मर्द उसे देखता उस पर आशिक़ हो जाता। इस तरह उसने बहुत से मर्द बदले। जिस मर्द के पास भी वह गई अपना मोचना साथ लेती गई। अगर कभी वह पुराने मर्द के पास छूट गया तो उसने ख़त लिखकर उसे मंगवा लिया। जब वह एक शायर को छोड़ कर गई तो उसने उसका मोचना देने से इंकार कर दिया ताकी रिश्ते की एक वजह तो बनी रहे।
नाम उसका माया था, नाटे क़द की औरत थी। चेहरा बालों से भरा हुआ, बालाई लब पर तो बाल ऐसे थे, जैसे आपकी और मेरी मूंछों के। माथा बहुत तंग था, वो भी बालों से भरा हुआ। यही वजह है कि उसको मोचने की ज़रूरत अक्सर पेश आती थी।
वो रावलपिंडी के एक मामूली घराने से तअ’ल्लुक़ रखती थी। जिससे क़ता तअ’ल्लुक़ किए उसे एक ज़माना गुज़र चुका था। सिर्फ़ इतना मालूम है, कि वहीं उसकी शादी हुई, जब उसकी उम्र सोलह बरस के क़रीब थी। दो बरस होने को आए तो उसके ख़ाविंद को शक गुज़रा कि माया का चाल-चलन ख़राब है। मुहल्ले में वो एक नहीं, तीन आदमियों से ब-यक-वक़्त इश्क़ लड़ा रही है।
उस तिग़डे इश्क़ के दौरान में माया को एहसास हुआ कि उसका माथा तंग है। उसके बालाई लब और ठोढ़ी पर बाल हैं जो बड़े बदनुमा मालूम होते हैं। चुनांचे उसने एक मोचना ख़रीद लिया और इन ग़ैर ज़रूरी बदनुमा बालों का सफ़ाया कर दिया, लेकिन वो एक मुसीबत में गिरफ़्तार होगई।
उसका ख़याल था कि एक दफ़ा बाल नोचने के बाद वो हमेशा के लिए उनसे नजात हासिल कर लेगी। उसको मोचने से माथे, ठोढ़ी और बालाई लब के बाल उखेड़ने में बड़ी मेहनत करना पड़ी थी। एक एक करके हर बाल को मोचने की गिरफ़्त में लेना और फिर उसे एक ही झटके में बाहर निकालना बहुत मुश्किल काम था। मगर माया धुन की पक्की थी। ये काम गो ख़ुद उसके अपने हाथ कर रहे थे, लेकिन इसके बावजूद वो दर्द के मारे बिलबिला उठती थी।
जब सारा मैदान साफ़ हो गया तो उसने इतमिनान का बहुत लंबा सांस लिया था, मगर उसे क्या मालूम था कि वो कमबख़्त दूसरे ही रोज़ फिर नुमूदार होजाएंगे, चुनांचे जब उन्होंने उसके चेहरे की जिल्द से अपना सर निकाला तो माया सर पकड़ के बैठ गई।
अब इसके सिवा और कोई चारा नहीं था, कि वो हर चौथे पाँचवें रोज़ अपने ग़ैर ज़रूरी बालों की सफ़ाई किया करे। आहिस्ता आहिस्ता मोचना उसकी ज़िंदगी का अहम तरीन जुज़ बन गया। वो जहां भी जाती मोचना उसके साथ होता, लेकिन उसके इस्तेमाल में उसे उन दिनों सख़्त दिक्कत महसूस होती जब कि वो किसी दूसरे के घर होती। अपने घर में भी उसे सब की नज़र बचा कर किसी ऐसी जगह अपने बाल नोचने पड़ते थे, जहां किसी के गुज़रने का इमकान न हो। फिर भी कोई पत्ता खड़कता तो वो भड़क उठती थी, जैसे कोई बहुत बड़ा गुनाह कर रही है।
“मंटो साहब, मैं अब सोचता हूँ कि उससे ऐसा कौनसा गुनाह सरज़द हुआ था जो ख़ुदा ने उसके मूंछें और दाढ़ी उगा दी थीं। उसका माथा इस क़दर तंग कर दिया था कि उसकी घनी भँवों के साथ आ के मिल गया था। उसके सारे बदन पर भी बाल ही बाल थे। मालूम नहीं क्यों... बाल... रोएं नहीं, अच्छे तगड़े बाल... स्याह। आप यक़ीन कीजिएगा, फिर उसमें ऐसी कौनसी जाज़िबियत थी कि तुम उस पर लट्टू हो गए और बहुत देर तक लट्टू रहे। सो अ’र्ज़ है कि मैं उसके मुतअ’ल्लिक़ कुछ नहीं जानता।”
मैंने शकील की तरफ़ देखा और मुस्कुरा कर कहा,“आप इतने बड़े शायर हैं, जब वो आपके पास थी तो आपने बड़ी ख़ूबसूरत ग़ज़लें और नज़्में लिखीं, जिनमें माया का पर्तो लफ़्ज़ लफ़्ज़ में मिलता है। जब वो चली गई तो आपने फिर बड़ी ज़हरीली ज़हरीली ग़ज़लें और नज़्में लिखीं। उनमें भी माया का अ’क्स साफ़ नज़र आता है। हैरत है कि आपको इतना भी मालूम नहीं कि आपका उस पर लट्टू होने का बाइ’स क्या था?”
शकील ने माथे का पसीना पेंसिल से एक तरफ़ हटा कर साफ़ किया।
“माया, सिर्फ़ माया... और... माया क्या थी, ये ख़ुदा की क़सम मैं नहीं जान सका। मेरी शायरी पर ला’नत भेजिए क्योंकि वो महज़ जज़्बाती थी, उसमें भी वही माया कारफ़रमा थी, जिसपर मैं ब-ज़ाहिर बे-वजह लट्टू हुआ था, लेकिन...” शकील एक लहज़े के लिए मुनासिब-ओ-मौज़ूं अलफ़ाज़ तलाश करने के लिए रुक गया।
“वो बिस्तर की बेहतरीन रफ़ीक़ थी।”
जहां तक मैं समझता हूँ शकील का ये बयान बहुत हद तक दुरुस्त था। माया एक नुची हुई मुर्ग़ी थी। उसके मुक़ाबले में शकील की सहरे जल्वों की ब्याही औरत पठानी हुस्न का बेहतरीन नमूना थी...गो वो बच्चों की माँ, मगर शायद वो बिस्तर की अच्छी रफ़ीक़ नहीं थी।
माया शादी-शुदा थी मगर औलाद से महरूम। उसके रावलपिंडी में कई सिलसिले हो चुके थे, मगर उन से भी कोई नतीजा बरामद नहीं हुआ था। उसके माथे, उसके बालाई लब और उसकी ठोढ़ी के बाल बढ़ते जा रहे थे और मोचने के काम में उसी तनासुब से इज़ाफ़ा होता चला जा रहा था।
रावलपिंडी में जब उसने खेल खेलना शुरू किया तो उसका ख़ाविंद जो कि एक शरीफ़ आदमी था, मुतवस्सित दर्जे का दूकानदार, ग़ुर्बत का मालिक, और हट का पक्का तो उसने एक दिन माया को घर से बाहर निकाल दिया।
माया ने कोई लड़ाई झगड़ा न किया। अलबत्ता दूसरे दिन मैके से अपने शौहर को ख़त लिखा कि वो मेहरबानी कर के उसका मोचना भेज दे। उसके शौहर गंडा सिंह ने बसद मुश्किल मोचना तलाश किया और आईना समेत माया को भिजवाया। माया के ज़ेवर वग़ैरा उसके पास रहते थे, उसी के पास रहे। माया ने उनका मुतालबा कभी न किया।
उसके चाहने वालों की कमी न थी। चुनांचे दूसरे ही रोज़ वो एक मुसलमान घड़ीसाज़ के साथ रहने लगी। वो उस पर जान छिड़कता था। एक बरस के अंदर अंदर उसने माया को कई ज़ेवर बनवा दिए। एक घड़ी जो किसी गाहक की थी उसकी कलाई पर बांध दी। ये बहुत बेशक़ीमत घड़ी थी। जब गाहक ने उसका मुतालबा किया तो साफ़ मुकर गया उस ने ये कहा, “सरीहन ग़लती हुई है, वर्ना शहाब उद्दीन की ये दुकान...”
वो औरत जिसकी ये घड़ी थी कोई शरीफ़ औरत थी। ये सुन कर ख़ामोश हो कर चली गई। शहाब उद्दीन बावजूद इसके कि उसका ज़मीर मलामत कर रहा था, ज़बरदस्ती ख़ुश होने की कोशिश करता। जब घर पहुंचा तो उसे मालूम हुआ कि माया देवी जिसका इस्लामी नाम उसने हस्ब-ए-तौफ़ीक़ और बक़दर-ए-जज़्बात सुग़रा रखा हुआ था पड़ोसी के घर में है, जो शहर का छटा हुआ बदमाश था।
अब शहाब उद्दीन घड़ीसाज़ के घर से माया का तबादला होगया। वो पड़ोस में अमीन पटरंग के यहां चली गई, मामूली सा झगड़ा हुआ था। माया के सारे कपड़े वहीं पड़े रहे, लेकिन वो अपना मोचना साथ लेती गई।
अमीन पटरंग बड़ा निहंग क़िस्म का आदमी था। उसने माया से साफ़ साफ़ कह दिया, “देखो अगर तुमने फिर कोई ऐसा वैसा मुआ’मला किया तो याद रखो में तुम्हारी गर्दन इस चाक़ू से काट डालूंगा।”
वो हर वक़्त अपनी जेब में एक बड़ा ख़ौफ़नाक कमानी वाला चाक़ू रखता था। मगर माया उससे बिल्कुल ख़ाइफ़ न हुई। अमीन पटरंग का एक नौजवान लड़का यूसुफ़ था जो कॉलिज में पढ़ता था। चंद दिनों ही में उसने उस नौजवान को अपना गरवीदा बना लिया। अमीन काम पर जाता तो यूसुफ़ कॉलिज से ग़ैर हाज़िर होकर उसके पास पहुंच जाता... आख़िर एक रोज़ भांडा फूट गया।
बाप-बेटे की मुडभेड़ हुई। क़रीब था कि वो उसके पेट में अपना कमानी वाला चाक़ू भोंक कर उसका ख़ातमा कर दे कि माया ने हिक्मत-ए-अ’मली से काम ले कर बीच बचाओ कराया और तीन कपड़ों में वहां से निकल गई।
सुना है कि अमीन पटरंग उसके जाने के बाद बहुत देर मग़्मूम रहा, दोस्तों में वो हर वक़्त उसकी बातें करता था। कहा जाता है कि अगर माया से उसकी इत्तफ़ाक़ी मुलाक़ात हो जाती तो उसे किसी क़ीमत पर भी छोड़ने के लिए तैयार न होता। कपड़े रंगने छोड़ कर वह सारा दिन वारिस शाह की हीर सुना करता था।
मुझे सिर्फ़ यहां तक माया के मुतअ’ल्लिक़ मालूम था। चुनांचे मज़ीद मालूमात के लिए मैंने शकील से जो कि अपनी दास्तान बयान कर रहा था पूछा,“अमीन पटरंग के बाद वो किसके पास गई?”
शकील ने ज़हर ख़ंद के साथ जवाब दिया, “हज़ारों के पास... लारी ड्राईवर हरबंस सिंह के पास, सिनेमा ऑपरेटर मुकन्द लाल के पास... दयाल सिंह कॉलिज के एक प्रोफ़ेसर के पास, स्टार बेकरी के मालिक हुसैन बख़्श के पास, एक्स्ट्रा सप्लायर ग़ुलाम मुहम्मद के पास।”
शकील के होंटों पर अभी तक वो ज़हर ख़ंद मौजूद था, “एक बरस में... जो कि उस नेक-बख़्त के लिए बहुत बड़ा अ’र्सा था, और...”
उस ने मेरी तरफ़ बड़ी मा’नी ख़ेज़ निगाहों से देखा जो कि ज़ख़्म-ख़ुर्दा थीं, “आपको मालूम है, हर
मर्तबा अपने नए यार से जुदा होने के बाद उसने एक रुक्क़ा लिखा जिसमें ये दरख़्वास्त की थी कि उसका मोचना उसको भेज दिया जाये।”
मैं कबाब होगया... मोचने में आख़िर ऐसी कौनसी बात थी कि माया और तमाम चीज़ें छोड़कर सिर्फ़ उसी की वापसी की दरख़्वास्त करती थी, चुनांचे मैंने शकील से पूछा,“ये मोचना सोने का था, जड़ाऊ था?”
शकील मुस्कुराया, “जी नहीं, मामूली लोहे का था। ज़्यादा से ज़्यादा उसकी क़ीमत चार आने होगी। मगर वो उसका दाइमी रफ़ीक़ बन गया था। कमबख़्त ने किसी मर्द को दाइमी रफ़ीक़ नहीं बनाया था, मगर ये मोचना उसका जीवन साथी था।”
अमीन पटरंग को मालूम था कि मोचना कहाँ पड़ा है। उसने पहले सोचा कि गोल करदे और लड़के को एक धौल रसीद करके रुख़सत कर दे... या उसके सर पर उस्तुरा फिरवा कर वापस भेज दे कि मोचने ने इतना काम किया है कि वो अब किसी काम का नहीं रहा, मगर फिर जाने उसे क्या ख़याल आया कि उसने कार्निस पर से मोचना उठाया... उसके दाँतों में से माया के चंद बाल निकाले और एक तरफ़ फेंक दिए। अमीन पटरंग बावजूद इसके कि बहुत बड़ा गुंडा था, मोचने को देख कर मोम होगया। उस ने क़ासिद लड़के का सर मुंडवाने का ख़याल तर्क कर दिया।
मुझे ये मालूम करने की जुस्तुजू थी कि वो अमीन पटरंग के बाद किसके पास गई, लेकिन शकील ने मुझे फ़ौरन बता दिया, “मंटो साहब, वो एक मर्द की औरत न थी, लेकिन शायद ये कहना भी दुरुस्त नहीं। वो ऐसी रेल थी जो हर स्टेशन पर कोयला, पानी चाहती है। अमीन के बाद वो अस्सिटेंट फ़िल्म डायरेक्टर हरबंस सिंह के पास तीन महीने रही। फिर साउंड रिकार्डिस्ट पी.एन. आहूजा के पास एक माह और चंद दिन... उसके बाद... उस के बाद...”
मैंने पूछा, “किसके पास?”
शकील ने शर्मा को जवाब दिया, “आपके इस ख़ाकसार के पास, जिसे दारा-शिकोह-अलमा’रूफ़ शकील कहते हैं... ला’नत हो उस पर हज़ार बार।”
मैंने दरयाफ़्त किया, “आप इस ला’नत में कैसे गिरफ़्तार हुए?”
शकील ने ठेट पिशावरी लहजे में कहा, “मंटो साहब, वो ला’नत ऐसी है कि उसमें गिरफ़्तार हुए बिना कोई नहीं रह सकता। आप बड़े आहनी क़िस्म के मर्द बने फिरते हैं, लेकिन मुझे यक़ीन है कि अगर आप उसे देखते तो यक़ीनन अपनी सारी अफ़साना निगारी भूल जाते, अगर न भूलते तो क़लम के बजाय मोचने से अफ़साने लिखते। यूं कहिए कि आप अदब की मूंछों के बाल उखेड़ने में सारी उम्र सर्फ़ कर देते।”
हो सकता है ऐसा ही होता, क्योंकि मैं भी अमीन, शकील और गंडा सिंह की तरह एक इंसान हूँ। लेकिन मेरी समझ में नहीं आता था, कि मोचने में क्या ख़ुसूसियत थी कि वो माया की ज़िंदगी के साथ ऐसी बुरी तरह चिपक गया था।
मैंने शकील से कहा, “तुम्हारा उसका सिलसिला कितनी देर तक क़ायम रहा?”
शकील ने काँपती हुई उंगलियों से सिगरेट सुलगाया, “क़रीब क़रीब दो बरस तक...” और वो बेहद संजीदा होगया, “और मंटो साहब, आप यक़ीन मानिए, मैं दुनिया-वमा-फ़ीहा को भूल गया।”
मैंने सवाल किया, “क्यों?”
शकील सोचने लगा, “.कुछ नहीं कह सकता, शायद... शायद उसकी मूंछों के बाल जो मोचने के इस्तेमाल से बड़े खुरदरे होगए थे, वो... वोबड़ी हरारत पैदा करते थे... और उसका जिस्म जो सर से पैर तक बालों से भरा हुआ था। मंटो साहिब मैं शायर हूँ। मैंने हमेशा नर्म और चिकने बदन की तारीफ़ की है, जिस पर से आदमी फिसल फिसल जाये। मगर माया की दोस्ती के बाद मुझे मालूम हुआ कि ये सब बकवास है, सारा मज़ा अटक अटक जाने में है, बस मैं सिर्फ़ इतना जानता हूँ।”
मैं सोचने लगा, फिसल फिसल जाने और अटक अटक जाने में वाक़ई बहुत बड़ा नफ़्सियाती फ़र्क़ है। मेरा ख़याल है कि आप उसे ख़ुद समझ सकते हैं, अगर नहीं समझ सकते तो इस बखेड़े में न पड़िए।
शकील साहब की गुफ़्तगू के अंदाज़ से यूं मालूम होता था कि वो माया को क़रीब क़रीब भूल चुके हैं, मगर फिर भी उसकी याद ताज़ा रखना चाहते हैं, मैंने उनसे कहा,“शकील साहब, दो बरस तक आप का और माया का सिलसिला रहा...”
शकील ने मेरी बात काट कर कहा, “जी हाँ, दो बरस तक...”
“मैंने अपनी बीवी को छोड़ दिया... अपने बच्चों से मुँह मोड़ लिया और माया को अपने सीने से लगा लिया, लेकिन दो बरस के बाद मुझे मालूम हुआ कि वो बेवफ़ा है, रियाकार है।”
मैंने पूछा, “ये आपने कैसे जाना?”
शकील ने ज़हर आलूद लहजे में कहा, “जनाब, वो मेरे हमसाए शेख़ इस्माईल गर्वनमेंट कंट्रैक्टर से अपना नया सिलसिला क़ायम कर रही थी। मुझे और किसी बात का ग़ुस्सा नहीं था मंटो साहिब, लेकिन वो साला पच्चास बरस का बूढ़ा था... सात जवान लड़कियों का बाप, दो बीवी का ख़ाविंद... लेकिन हैरत उस साली पर भी है कि उसे क्या सूझी?”
शकील ने ये कह कर सिगरेट सुलगाने की कोशिश की, मगर उससे सुलग न सका। इसलिए कि उस के हाथ बहुत बरी तरह काँप रहे थे। मैंने उसके हाथ से सिगरेट लिया और सुलगा कर उसको दिया, “वो चली गई।”
“जी हाँ, मैंने उसे धक्के मार कर बाहर निकाल दिया।” शकील ने ज़ोर का एक कश लिया, और काँपती हुई उंगलियों से पेंसिल पकड़ कर एक नई नज़्म लिखने के लिए तैयार होने लगा जो ग़ालिबन माया की याद के बारे में होने वाली थी।
“जी हाँ, चली गई... पर अपना मोचना छोड़ गई।”
मैंने पूछा, “उसने उसकी वापसी का मुतालबा किया?”
शकील ने एक और कश लिया, “एक नहीं, सैंकड़ों मर्तबा लेकिन मैंने उसे वापस नहीं किया... इसलिए कि एक सिर्फ़ यही चीज़ है जो उसके और मेरे दरमियान रह गई है। जब तक ये मोचना मेरे पास है वो हमेशा मुझसे ख़त-ओ-किताबत करती रहेगी।”
- पुस्तक : شکاری عورتیں
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