म्यूज़िकल चेयर
स्टोरीलाइन
यह कुछ दोस्तों की कहानी है जो मामूल के मुताबिक़ मिलते हैं। जिस दोस्त के यहाँ वे लोग मिलते हैं वहाँ चार कुर्सियां रखी हुई हैं। वे चारों कुर्सियां उस दीवार के नीचे रखी हैं जिस पर वक़्त बताने की घड़ी टंगी है। उस घड़ी की दो रेशमी डोरियां हैं और उनमें से एक डोरी एक दोस्त पकड़ लेता है, कि वह डोरी खींचकर वक़्त को रोक देना चाहता है। उसके बाक़ी सारे दोस्त उसे डोरी खींचने से रोकने के लिए मना करते हैं और तरह-तरह की दलीलें देते हैं।
वक़्त, तारीख़, दिन और साल...
इनमें सिर्फ़ वक़्त की डोरों का सिरा हमारे हाथों में था जिसे हमने मज़बूती से पकड़ रखा था वर्ना रेशमी डोरियाँ बहुत आसानी के साथ हमारे हाथों से फिसलती रहें और हम उनके निशानात को एल्बम में सजा-सजा के ख़ुश होते रहे।
कुर्सियाँ चार थीं, उन कुर्सियों पर नामों की तख़्तियाँ नहीं थीं, जो पहले आता वो अपनी पसंद की कुर्सी पर पहले बैठता... फिर ज़ाहिर है जो आख़िर में आता उसे आख़िरी कुर्सी नसीब होती।
कमरे की सजावट और बनावट में ख़ास बात ये थी कि उसमें सजावट वाली कोई बात ही नहीं थी। चाहे वो चीज़ कितनी ही पुरानी क्यों न हो गई हो और चाहे उसका ज़ाविया-ए-निगाह कितना ही फ़र्सूदा क्यों न हो गया हो, जो चीज़ जैसी थी, बस वैसी ही रखी हुई थी।
यही तो कमरे की ख़ुसूसियत थी, साथ ही इन्फ़िरादियत भी।
पुराने क़दीम सोफ़े, पुराने रंगों से मुज़य्यन क़ालीन, क़दीम अंदाज़ के पर्दे, दीवारों पर पुश्तों से चली आ रही तस्वीरें, पुराने अंदाज़ का बुक शेल्फ़ जिसमें सिर्फ़ क्लासिकी किताबें, छत पर लटका हुआ ख़ानदानी फ़ानूस और काठ से बने और कढ़े फूलों से मुज़य्यन पंखे...
प्लेट, प्याले, चमचे, गिलास वग़ैरह इतने पुराने कि उन पर हाथ लगाते हुए एहतियात से काम लेना पड़ता।
इन सब में सोने पर सुहागा वो ख़ादिम जो कमरे की देख-भाल और मेहमानों की ख़ातिर मुदारात के लिए मुक़र्रर था। अठारहवीं सदी का एक नमूना, बादशाह मियाँ ये बादशाह मियाँ भी ख़ूब चीज़ें, न रोते न हँसते, बस अपने काम से काम जो कहो उस पर फ़ौरन अ’मल, जो माँगो वो फ़ौरन हाज़िर। यूँ देखने में क़ुरून-ए-वुस्ता के किसी ख़्वाबीदा महल के ख़्वाजा-सरा लगते, लेकिन हुक्म पर दौड़ना वो ख़ूब जानते।
भारी लंबा लबादा, बे-तरतीब दाढ़ी, आँखों में गंदा पानी, सर के बाल अगर होंगे भी तो ऊँची कलग़ीदार टोपी की पनाह में थे।
“यार, ये ख़ादिम भी तुमने ख़ूब चुन कर रखा है। जैसे बच्चों की तस्वीरों वाली किताब से कोई तस्वीर अचानक गिर पड़ी हो...”
“नहीं तो ये पुरानी चीज़ें कब की ख़त्म हो चुकी होतीं। तुम तो जानते हो हम-आहंगी कितनी ज़रूरी चीज़ है।”
कमरे की सबसे अहम चीज़ वो घड़ी थी जो थी तो बहुत पुरानी लेकिन इत्तिला हमेशा नए वक़्त की देती, लकड़ी के एक बड़े क़द-ए-आदम फ्रे़म में मुज़य्यन, जली हुरूफ़ में हिन्द से, दरमियान में एक बड़ा सा घंटा जिस पर वक़्त के ए’तिबार से एक हथौड़ा उठता और एक ज़ोरदार आवाज़ के साथ पड़ जाता। कमरा ही नहीं बल्कि सारी फ़िज़ा गूँज उठती। सोए हुए आदमियों को भी वक़्त की सही इत्तिला मिल जाती।
घड़ी ठीक उसी दीवार पे ठहर सी गई थी जिसके साथ चार कुर्सियाँ लगी थीं, उसकी पुश्त से रेशम की एक डोरी लटकती, जिसे खींच कर उसके वक़्त को आगे पीछे, सही ग़लत किया जा सकता था। एक हल्की सी जुंबिश से वक़्त की रफ़्तार को रोका भी जा सकता था। रेशम की ये डोरी किसी न किसी एक कुर्सी के पास आ जाती, इस तरह वो बड़ी आसानी से एक मख़्सूस कुर्सी वाले के क़ब्ज़े में चली जाती।
“हम लोगों ने कभी ये सोचा है कि आख़िर हम यहाँ क्यों इकट्ठे हुए हैं? ज़िंदगी में हम और कोई एहतिमाम तो नहीं करते?”
“बात ग़ौर करने की ज़रूर है लेकिन हमने कभी इस पर सोचा नहीं।”
“क्यों नहीं सोचा?”
“बस नहीं सोचा, जिस तरह और बहुत सी बातें नहीं सोचीं, उस तरह...”
“तो गोया ये भी हमारी आ’दत बन चुकी है?”
“जब कोई चीज़ आ’दत बन जाती है तो उस पर हमारा कोई इख़्तियार नहीं होता जैसे... जैसे...”
“जैसे जीना... जैसे मरना...”
“बिल्कुल सही कहा तुमने, एक बात और...”
“क्या...?”
“आ’दतें हमारी शख़्सियत का एक हिस्सा क्यों बन जाती हैं।”
“आ’दतें शख़्सियत का ही एक हिस्सा होती हैं।”
“इसमें सिर्फ़ ये तरमीम कर दो कि आ’दतें न हों तो हमारी ज़िंदगी बहक जाए, आ’दतें ही ज़िंदगी को एक लड़ी में पिरोए रहती हैं, उन्हें ख़ास नुक़्तों पर मर्कूज़ रखती हैं।”
“कभी-कभी हम ऐसी आ’दतें भी इख़्तियार कर लेते हैं, जिनका हमें पता भी नहीं होता, हमें महसूस भी नहीं होता कि अनजाने में हमारे साथ कौन सी शय चिमट गई है।”
“बादशाह मियाँ, ज़रा पानी लाना और हाँ देखना वो ज़रा...”
“यार, ये बादशाह मियाँ भी...”
“क्या हुआ...?”
“यही कि यहाँ की जगह हम कहीं और मिल बैठें और बादशाह मियाँ अचानक वहाँ पहुँच जाएँ तो उन्हें देखकर हम सब भाग खड़े हों, वाक़ई’ तुमने हम-आहंगी पैदा की है। मानता हूँ उस्ताद तुम्हें।”
“तुमने देखा, मेरे हिस्से में इस वक़्त कौन सी कुर्सी आई है?”
“क्या हुआ...? इसमें ख़ास बात क्या है?”
“कोई ख़ास बात नहीं।”
“तुम इसे इतनी अहमियत क्यों दे रहे हो, ये कुर्सी पिछली बार मेरे हिस्से में आई थी, हो सकता है आइंदा फिर आए और जो इस वक़्त मेरे पास है वो...”
“तुमने अगर हिम्मत नहीं दी तो इसका मतलब ये नहीं है न कि कुर्सी की अहमियत कम हो गई या...”
“चलो मान लिया कि इसकी अहमियत से सिर्फ़ तुम ही वाक़िफ़ हो, फिर...?”
“इस रेशमी डोरी को देख रहे हो ना?”
“अभी तक मेरी आँखों में चमक है और मैं तारीकी में भी देख सकता हूँ।”
“तुमने तो उजाले में भी कुछ नहीं देखा और न तुम इस क़दर...”
“ज़रा ठहरो... बादशाह मियाँ ज़रा यहाँ आना... क्या पकाया है?”
“कबाब, कोफ्ते, मुर्ग़, बाक़र-ख़्वानी, पुलाव, क़ोरमा... और...”
“बस ठीक है, लेकिन इसका ख़याल रहे कि नमक मसाले वग़ैरह ठीक-ठीक डाले जाएँ। ”
“हुज़ूर इस से क़ब्ल शिकायत का मौक़ा मिला है क्या?”
“इसीलिए तो कह रहा हूँ कि आइंदा भी ऐसा न हो, हम लोग साल भर में एक ही बार ऐसा खाना खाते हैं ना...”
“हुज़ूर ये उ’म्र खाना पकाने और खिलाने में गुज़री है। अब न वो दिखाने वाले न खिलाने वाले...”
“और न पकाने वाले।”
“सही फ़रमाया। इन आँखों ने तो ऐसी-ऐसी हस्तियाँ देखी हैं हुज़ूर कि एक निवाले से ख़ुश हो कर पूरी जायदाद बख़्श दी, पूरा मकान दे दिया। खाने के शौक़ में ज़मींदारियाँ ख़त्म हो गईं, अब कहाँ वो लोग...”
“बादशाह मियाँ, फिर आपने कितनी जायदादें बनाईं, कितने मकानात...?”
“हुज़ूर मैं तो बा-कमालों की बात कर रहा हूँ, मैं कहाँ का... अपनी आँखों ने ऐसी हस्तियों को देख लिया। यही बहुत है।”
“और अब आप हमें देख रहे हो, क्यों?”
“हुज़ूर क्या कहूँ, बस इन्क़िलाबात हैं ज़माने के।”
“मैं रेशम की डोरी को बाएँ खींच रहा हूँ...”
“अरे ये क्या कर रहे हो? जानते हो इसका नतीजा?”
“न... नहीं जानता, तुम बताओ...”
“भला इतनी सी बात तुम नहीं जानते।?”
“तुम बताते हो या मैं डोरी खीचूँ?”
“जानते तो होगे ही लेकिन मुझ ही से सुनना चाहते हो तो सुनो। दाएँ तरफ़ खींचने से वक़्त की रफ़्तार बढ़ जाती है और बाएँ तरफ़ खींचने से...”
“रुक जाती है... यही ना...?”
“तुम तो जानते ही हो।”
“लेकिन मैं डोरी खींचूँगा और ज़रूर खींचूँगा!”
“क्यों ज़ुल्म करते हो? एक यही चीज़ तो हमारे पास बच गई है, सो तुम उसे भी बर्बाद करने पर तुले हो?”
“हाँ यार। तारीख़, दिन और साल तो हमारे नहीं रहे, एक यही वक़्त बच जाता है।”
“आगे बढ़ता हुआ वक़्त कहो...”
“बिल्कुल और फिर तुम्हारा इसमें फ़ाइदा क्या है?”
“फ़ाइदा? हर काम फ़ाइदे ही के लिए तो नहीं किया जाता। तुम कमरा फ़िज़ा और ख़ादिम के ज़रीए’ वक़्त की डोरी को जाने बूझे बग़ैर पकड़े हुए हो, इसलिए तुम्हारे हाथों में कुछ आ रहा है क्या।”
हमने एक ख़ास वक़्त, दिन, तारीख़ और साल में जो इब्तिदा की थी क्या उसकी यादगार बाक़ी रखने का हक़ नहीं है हमें और फिर तुम कौन से ग़ैर हो। क्या तुम्हारा जी नहीं चाहता कि...”
“मेरा जी तो बस यही चाह रहा है कि इस रेशमी को खींच ही दूँ।”
“मैं तुम्हें ऐसा नहीं करने दूँगा!”
“मैं ऐसा करूँगा। तुम कौन होते हो मुझे रोकने वाले?”
“मैं कौन होता हूँ? बताऊँ में कौन होता हूँ?”
“ज़ियादा उछल-फाँद की तो जो काम मैं अगले लम्हे करने वाला हूँ, वो अभी कर गुज़रूँगा।”
“तुम ऐसा कर के तो देखो।”
“हाहाहा। तुम मुझे रोकोगे? क्या वाक़ई’ तुम मुझे रोक लोगे?”
“और नहीं तो क्या। तुम अपने आपको समझते क्या हो बड़े तीस मार ख़ाँ...”
“क्या ये तुम्हारे ख़ानदान के किसी बुज़ुर्ग का इस्म-ए-गिरामी है?”
“बहुत हो गया अब मुझसे बर्दाश्त नहीं होता, मैं अभी बताता हूँ?”
“चुप-चाप बैठ जाओ प्यारे, तुम मुझे कुछ नहीं बता सकोगे क्योंकि तुम्हें इस वक़्त सिर्फ़ बादशाह मियाँ याद हैं, जिन्होंने कबाब बनाए हैं, कोफ़्ते... पुलाव... मुर्ग़...”
“खाने पर हाथ साफ़ करने में सबसे आगे, लेकिन इस वक़्त तो यूँ कह रहे हो जैसे आज तक सत्तू-चोखे ही पर तो गुज़ारा करते रहे हो?”
“भूक का फ़लसफ़ा ये है कि ऐसी हालत में सूखे चने और ठंडा पानी भला, लेकिन बात ये है कि तुम क्या जानो तुम्हारे सर तो...”
“अरे छोड़ो यार तुम लोग तो सच-मुच लड़ने लगे। लड़ने के लिए यही वक़्त बच गया है क्या?”
“तुम उसे कुछ नहीं कहते? मैं लड़ रहा हूँ? तुम उसे रोक नहीं सकते?”
“अरे अरे, तुम तो मुझसे भिड़ गए। इस तरह हम लोग आपस ही में लड़ते रहेंगे तो फिर... भला चार आदमी भी सुकून के साथ एक जगह बैठ नहीं सकते, कमाल है...”
“क्यों नहीं बैठ सकते? आख़िर आज तक तो बैठते ही आए हैं, शोशा तो उसने छोड़ा, ये कुर्सी तो हमारे हिस्सा में भी आई थी और डोरी हम भी खींच सकते थे...”
“ये तुम्हारी प्राब्लम है, तुम्हें मौक़ा’ मिला, तुमने इससे फ़ाइदा नहीं उठाया तो मैं क्या कर सकता हूँ।”
“तो तुम डोरी खींच कर रहोगे।”
“बिल्कुल।”
“लेकिन मैं तुम्हें ऐसा नहीं करने दूँगा!”
“तुममें ताक़त हो तो रोक लो।”
“तो तुम सिर्फ़ ताक़त ही की ज़बान समझोगे, क्यों?”
“मैं क्या दुनिया समझती है। लाठी जिसके हाथों में होती है, भैंस उसी की होती है ना।”
“देखो मुझे मजबूर न करो। तुमने मेरी ताक़त का अंदाज़ा नहीं लगाया है।”
“हाहाहा... साल का सबसे अच्छा जोक, या’नी तुम भी कुछ हो और तुम्हारी ताक़त भी... हाहाहा...”
“सुनो, तुम मुझे देख रहे हो ना, इस पर न जाओ, मैं क्या कहूँ, तुम्हें क्या पता?”
“तुम क्या हो प्यारे? ज़रा भी मुझे बताओ ना, कम-अज़-कम मैं अपने बच्चों को तो डरा सकूँ।”
“ये मेरा किस तरह मज़ाक़ उड़ा रहा है और कोई कुछ नहीं बोलता।”
“तुमने ख़ुद ही उसे मज़ाक़ उड़ाने का मौक़ा’ दिया। जब तुम वो नहीं हो तो फिर दा’वा करने से क्या हासिल।”
“क्या मेरे पास मेरा कोई माज़ी नहीं?”
“नहीं... तुम्हारा माज़ी तुम्हारे गले में लटकी तावीज़ के अंदर बंद है और तुम्हारी तावीज़ बिला-शुबा बहुत ख़ूबसूरत है।”
“नहीं भाई मैं जो कुछ देख रहा हूँ वही कह रहा हूँ, इज़हार-ए-हक़ीक़त का नाम अगर मज़ाक़ उड़ाना है तो मैं इसका मुजरिम ज़रूर हूँ।”
“मैं तन्हा हूँ इसलिए मैं अपने आपको हर तरह से कमज़ोर-ओ-नादार समझँ?”
“ऐसी बात नहीं, लेकिन अपने आपको या अपनी बात को मनवाना भी एक अहम मसअला है।
“इसका मतलब ये तो नहीं होता कि भरे बाज़ार में मदारियों की तरह करतब दिखाए जाएँ। अपने आपको अपनी ज़ात के अंदर समेट लेने से हमें तशफ़्फ़ी होती है।”
“तो फिर जो कुछ हो, उस पर इक्तिफ़ा करो।”
“बात तुमने छेड़ी थी। ये ज़िद तुम्हारी थी कि डोरी ज़रूर खींचूँगा।”
“मैं तो अभी भी अपनी बात पर क़ाएम हूँ। कुर्सी मेरे हिस्से में है और डोरी मेरे हाथों में, फिर मैं क्यों न इसे खींचूँ?”
“छोड़ो यार, क्या फ़ाइदा, तुम्हारी ज़िद से ये भड़क उठता है, ख़त्म करो।”
“वो क्यों नहीं? मैं तो अपने इख़्तियार का इस्ति’माल ज़रूर करूँगा।”
“इसमें इख़्तियार का क्या इस्ति’माल? हाँ इसे रोकने में ज़रूर उसका इस्ति’माल हो सकता है।”
“इसका मतलब है तुम भी उसका साथ दोगे?”
“ये तो मैंने नहीं कहा, लेकिन फ़िज़ा को मुकद्दर करने से किया फ़ाइदा... तुम्हारा इसमें कोई फ़ाइदा भी तो नहीं।”
“फ़ाइदा अगर सिर्फ़ पेट में रोटी पहुँच जाने और तन पर धागे लपेट लेने को कहते हैं तो फिर शायद तुम सही कह रहे हो।”
“फिर तुम ही बताओ, इसमें क्या फ़ाइदा है?”
“तुम्हें कुछ नज़र नहीं आता?”
“नहीं, मुझे कुछ भी नज़र नहीं आता। एक साथ और पुराना दोस्त नाराज़ हो रहा है और बस।”
“इससे पूछो, ये क्यों नाराज़ हो रहा है?”
“तुम आगे बढ़ते वक़्त की रफ़्तार को महज़ अपनी ज़िद के कारन रोक देना चाहते हो...”
“इससे पूछो कि इस बात से सिर्फ़ यही क्यों नाराज़ हो रहा है
आख़िर तुम भी तो हो यहाँ पर और तुम भी...”
“हम क्यों पूछें तुम ही पूछ लो।”
“साफ़ ज़ाहिर है कि कहीं न कहीं से कोई मुफ़ाद ज़रूर पोशीदा है।”
“लेकिन भाई अगर तुम ही अपनी ज़िद से बाज़ आ जाओ तो क्या हर्ज है?”
“न... मुझे वक़्त ने ये मौक़ा’ दिया है, में इस से फ़ाइदा ज़रूर उठाऊँगा।”
“जिस वक़्त ने तुम्हें ये मौक़ा’ दिया। तुम उसी को रोक देना चाहते हो?”
“उसी की रफ़्तार को...”
“इस वक़्त ने तुम्हें भी ये मौक़ा’ दिया था।”
“लेकिन हम इसके लिए शर्मिंदा नहीं।”
“और मैं इसके लिए शर्मिंदा होना नहीं चाहता।”
“देखो यार, बेकार की ज़िद छोड़ो और पुर-सुकून माहौल में हमें वक़्त गुज़ारने दो।”
“बस तो मैं डोरी खींचता हूँ, तुम पुर-सुकून माहौल का इंतिज़ार करो।”
“आख़िर तुम्हें ज़िद क्यों है? तुम डोरी खींच कर अपनी कौन सी तशफ़्फ़ी करना चाहते हो?”
“ताकि ये बात सबको मा’लूम हो कि कुर्सी मेरे हिस्से में आई थी और रेशम की डोरी मेरे क़ब्ज़ा-ए-इख़्तियार में थी। ये मुआ’मला तशख़्ख़ुस का है, तुम्हारी समझ में अगर ये छोटी सी बात नहीं आती तो मैं क्या करूँ?”
“तशख़्ख़ुस? क्या कह रहे हो, तुमने इतनी बड़ी बात सोच ली?”
“यही छोटे-छोटे वाक़िआ’त आपस में मिलकर एक बड़ा वाक़िआ’ बनते हैं। एक बड़ा क़ौमी निशान, जो आगे चल कर हमारे तशख़्ख़ुस की शक्ल इख़्तियार करता है।”
“पता नहीं तुम्हारे दिमाग़ ने इस वक़्त कौन से जाल में तुम्हें जकड़ रखा है। वक़्त की रफ़्तार रुक जाएगी और हम यहाँ घुट कर मर जाएँगे। आगे बढ़ता हुआ वक़्त हमें वो रोशनी अ’ता करता है, जिससे हमारे अंदर की तारीकी दूर हो जाती है।”
“आने वाला वक़्त तो एक बंद मुट्ठी है, हम कुछ नहीं जानते कि उसके अंदर क्या है। हमारा सबसे बड़ा सरमाया माज़ी है।”
“तो तुमने बहुत पहले ये बातें सोच रखी थीं?”
“ये बातें मैंने उस वक़्त सोची थीं जब...”
“लेकिन यार, ये महज़ इत्तिफ़ाक़ ही है न कि ये कुर्सी इस वक़्त तुम्हारे हिस्सा में आ गई, नहीं भी आ सकती थी, फिर तुम्हारी सोच का क्या होता?”
“मैं इंतिज़ार करता। आख़िर इतने दिन इंतिज़ार ही तो करता रहा।”
“वाह भाई, तू तो बड़ा तेज़ है, तू हम लोगों के साथ खाता पीता, गपशप, तफ़रीह करता रहा, सारी मसरुफ़ियात में आगे-आगे, लेकिन सोचता भी रहा अंदर-अंदर हम लोग अपने आपको इस वक़्त कितना अहमक़ महसूस कर रहे हैं।”
“तो तुम भी इसके क़ाइल हो गए।”
“नहीं ऐसी बात नहीं, लेकिन तुम ख़ुद देखो कि ये कितना गहरा है।”
“ये तो तुम लोग देखो। एक ग़लत बात को इतने दिनों अपने अंदर लिए बैठा था और तुम लोग हो कि...”
“मैंने कहा ना, मैं ये रेशमी डोरी ज़रूर खींचूँगा, बेहतर है तुम लोग इस मसअले पर मुत्तफ़िक़ हो जाओ और मुझे ऐसा करने से रोको नहीं।”
“मुत्तफ़िक़ हो जाएँ? तुम्हारे कहने पर मुत्तफ़िक़ हो जाएँ, यही तरीक़ा है अपनी बात मनवाने का, जो तुम कहो, वो सही, जो हम कहें...”
“आप बराए-मेहरबानी चुप रहिए। मैं तो इन लोगों से कह रहा हूँ जो अपने आपको भूल कर तुम्हारी हिमायत के लिए अपने आपको मजबूर पा रहे हैं।”
“नहीं ये बात ग़लत है। हम हमेशा से एक हैं और एक रहेंगे। अफ़सोस है कि एक साथ उठने-बैठने, खाने-पीने वाले के साथ भी तुम्हारा ये रवैया है।”
“इससे आप ये क्यों नहीं पूछते कि इसे क्या तकलीफ़ है। ये तो ख़ुद ही दरमियान में कूद पड़ा।”
“बात तो सामने की है हम लोग इक्कीसवीं सदी के दरवाज़े पर खड़े हैं और तुम हो कि वक़्त की रफ़्तार ही को रोक देना चाहते हो। क्या ये ज़ुल्म नहीं?”
“ये तो आपकी बात रही, लेकिन इसके दिल में तो ये बात नहीं।”
“तो फिर क्या है मेरे दिल में?”
“बता दूँ?”
“ज़रूर। ज़रा मैं भी तो अपने दिल का हाल जानूँ।”
“तुम्हें डर है कि तशख़्ख़ुस के सामने तुम्हारा तशख़्ख़ुस छुप नहीं जाएगा हालाँकि ये एक फ़ितरी बात है। बड़े और मज़बूत तशख़्ख़ुस के सामने छोटा और कमज़ोर तशख़्ख़ुस दब ही जाता है।”
“चलो, तुमने ये मान तो लिया कि हमारा भी कोई तशख़्ख़ुस है।”
“हर चीज़ की अपनी एक हक़ीक़त होती है और मैं हक़ीक़त को तस्लीम करता हूँ, तुम्हारी तरह उसे झुटलाता नहीं।”
“अब बादशाह मियाँ को बुलाया जाए, इतनी बातें हो गईं, अब भूक लगने लगी है।”
“हाँ, हाँ ज़रूर लेकिन याद रखना, रेशमी डोरी मेरे हाथों में छूटेगी नहीं।”
“पहले पेट पूजा हो जाए फिर देखेंगे।”
“मेरा ख़याल है भूक को दो-आतिशा बनाने के लिए कुछ शग़्ल कर लिया जाए, किसी को ए’तिराज़ तो नहीं।”
“नहीं ए’तिराज़ क्यों होगा। तुम तो यूँ दरियाफ़्त कर रहे हो जैसे...”
“मैंने समझा, बदले हुए हालात जो शायद...”
“अब ऐसा भी नहीं कि हम लोग अपनी रिवायत से हट जाएँ। बादशाह मियाँ तो ऊँघ रहे हैं
ऐसा न हो कि वो तस्वीरों वाली किताब में वापिस चले जाएँ।”
“भई बादशाह साहब, ज़रा गिलास लाइए, सोडे और बर्फ़ भी और हाँ, आपके पास है क्या इस वक़्त?”
“हुज़ूर जो चीज़ भी है, आपकी तबीअ’त ख़ुश हो जाएगी, हम लोग बड़े लोगों की ख़िदमत ही करते आए हैं, उनके मिज़ाज को ख़ूब पहचानते हैं...”
“अच्छा तो फिर ले आईए और खाना भी तैयार ही रहे, हम लोग इसके बा’द फ़ौरन खाना तलब करेंगे।”
“तैयार है हुज़ूर, बिल्कुल तैयार है, हम बड़े लोगों के बारे में अच्छी तरह जानते हैं कि कब उनका मिज़ाज क्या चाहता है और कब वो क्या चीज़ तलब करते हैं।”
“हाँ, ये बात तो है। बादशाह मियाँ ने कभी शिकायत का मौक़ा’ नहीं दिया, इनसे अच्छा ख़ादिम हमें मिल ही नहीं सकता है।”
“सबसे बड़ा कमाल ये है कि ये हमारे मिज़ाज को पहचानते हैं।”
“तो जाईए बादशाह मियाँ, जल्दी से सामान सर्व कीजिए।”
“यार तुम लोग बादशाह मियाँ से ये सेवा भी लेते हो, कमाल है?”
“सब चलता है यार, आख़िर वो एक तनख़्वाहदार हैं, वो सेवा ही के तो पैसे लेते हैं।”
“फिर भी... SENTIMENT का ख़याल रखना चाहिए।”
“SENTIMENT? जज़्बात की सुलगती हुई टिक्कियों पर जब पैसों की सिल रख दी जाती है न तो सारी आग सर्द हो जाती है, समझे।”
“हो सकता है... तुम्हें ज़ियादा तजरबा होगा।”
“भाईयो। तैयार हो जाओ, मैं डोरी खींच रहा हूँ।”
“अरे ज़रा ठहरो तो यार तुम्हारी ज़िद भी ख़ूब है, मुर्ग़े की बस वही एक टाँग, पहले खाना तो खा लो, पहले आत्मा, फिर परमात्मा...”
“चलो इतना CONCESSION मुझसे ले लो।”
“इसमें तुम्हारा पेट भी भरेगा इसलिए वर्ना किसको...”
“तुम्हारी बात तस्लीम। अब जल्दी से खाना मँगवाओ, भूक भी चमक उठी है।”
“यहाँ पर? नहीं इसके लिए डाइनिंग हाल...”
“लेकिन हम तो सब काम यहीं पर अंजाम देते हैं, ये डाइनिंग हाल कहाँ से आ टपका?”
“बात ये है कि बादशाह मियाँ ने इतने आइटम तैयार कर दिए हैं कि ये छोटा टेबल उन सब के लिए ना-काफ़ी है, इसलिए हमने सोचा...”
“तुमने या तुम लोगों ने अकेले ये बात क्यों सोच ली, अब तक तो यही होता आया है कि...”
“ये तुम कह रहे हो? तुम ख़ुद तन्हा एक बात को पकड़ कर बैठे हो।”
“तुम कैसे ये बात कह सकते हो।”
“तुम चुप रहो जी, हमारी बात दूसरी है, मैंने मायूस ही हो कर तो ये ज़िद पकड़ी है। फिर इस क़िस्म के काम में अगर इत्तिफ़ाक़-ए-राय का इंतिज़ार किया जाए तो इत्तिफ़ाक़-ए-राय कभी न होगा और आख़िर में किसी की ज़िद ही से काम चलेगा।”
“बादशाह मियाँ खाना लगाइए।”
“लेकिन यहीं पर। ज़ियादा चीज़ों के लिए अलग टेबल भी तो लगाया जा सकता है, इस तरह हम रिवायत से इन्हिराफ़ भी नहीं करेंगे और...”
“यार हर बात में तुम्हें ज़िद क्यों हो जाती है।”
“पहले खाना, फिर बातें...”
“बादशाह मियाँ ने खाना तो बहुत मज़े-दार बनाया है, वाह, मज़ा आ गया...”
“इन लोगों के हाथों का खाना... क्या बात है, इसलिए तो सब बड़े बावर्ची-ख़ानों में एक न एक बादशाह मियाँ ज़रूर होते हैं।”
“हाँ भाई हम पकाते जाएँ, तुम खाते जाओ।”
“वाह लुत्फ़ आ गया, अगर साल में एक-बार भी ऐसा खाना मिल जाए तो पूरा साल बिना खाए भी रहा जा सकता है।”
“बादशाह मियाँ मर गए तब क्या होगा?”
“कोई दूसरे बादशाह मियाँ मिल जाएँगे। ऐसे बादशाहों की कोई कमी है क्या?”
“अच्छा भाई, अब तो पूजा भी हो गई अब तो...”
“क्यों भाई अगर तुम अपनी ज़िद छोड़ दो तो तुम्हारा कुछ बिगड़ जाएगा क्या। मुझे तो डर लग रहा है कि कहीं इसके सबब हम लोगों की आज मीटिंग आख़िर न साबित हो।”
“बात ज़िद की नहीं बल्कि। अब बार-बार एक ही बात कहने से क्या हासिल, बस ये समझ लो कि मुझे ये काम करना है और हर हाल में करना है।”
“तो तुम भी सुन लो कि मैं तुम्हें किसी हाल में भी ये काम नहीं करने दूँगा।”
“भाई तुम चुप रहो। हाँ तो माई डियर तुम डोरी ज़रूर खींचोगे?”
“बिल्कुल।”
“तुम्हें ऐसा नहीं लगता कि अगर ये रिवायत बन गई तब क्या होगा, कुर्सी तो आज तुम्हारे हिस्से में आई है, कल इसका आना ज़रूरी नहीं।”
“रिवायत जब तारीख़ का हिस्सा बन जाती है तो फिर ज़माना उसका मुहाफ़िज़ होता है, हमें इस फ़िक्र में घुलने की ज़रूरत नहीं।”
“तारीख़ का काम अगर रिवायतों की हिफ़ाज़त करना रह गया तो फिर हम तारीख़ को...”
“तो फिर तारीख़ और किसको कहते हैं?”
“ये सिर्फ़ रिवायतों का पुलिंदा तो नहीं। तारीख़ तो इ’बरत हासिल करने का आमाल-नामा है। तारीख़ का इदराक यूँ पैदा नहीं होता बल्कि...”
“तक़रीर करने की ज़रूरत नहीं। तारीख़ के बारे में कुछ जानकारी मैं भी रखता हूँ।”
“जानकारी नहीं प्यारे, नुक़्ता-ए-नज़र कहो। तुम जानकारी रखते तो कभी ये रवैया इख़्तियार नहीं करते।”
“तारीख़ में कौन लोग ज़िंदा रहते हैं? वही न जो अपनी छाप छोड़ जाते हैं?”
“मेरे एक सवाल का जवाब दो। हिटलर भी तारीख़ का एक हिस्सा है और गांधी भी एक तारीख़ी किरदार है। दोनों में फ़र्क़ है कुछ?”
“बे-शक फ़र्क़ है। वही जो एक बहादुर और बुज़दिल में होता है।”
“फिर तो तारीख़ तुम्हारे लिए रद्दी काग़ज़ों का पुलिंदा ही है जिससे तुम्हें कुछ हासिल नहीं हो सकता।”
“मैं अपनी तारीख़ ख़ुद बनाऊँगा। मैं डोरी खींच रहा हूँ।”
“तुम डोरी नहीं खींच सकते।”
“ओह तो तुम भी। क्यों तुम्हें इससे क्या तकलीफ़ है?”
“ज़ियादा नहीं, बस ये कि हम अपने एक साथ को किसी क़ीमत पर खोना नहीं चाहते।”
“इतनी मा’मूली सी बात के लिए तुम अपने तशख़्ख़ुस को क़ुर्बान कर दोगे।”
“तशख़्ख़ुस? तुम जिस चीज़ की बात कर रहे होना, वो महज़ एक इन्फ़िरादी मुआ’मला है तुम वक़्त की रफ़्तार को रोक कर आने वाली नस्लों को ये बताना चाहते हो कि तुम भी कुछ थे।”
“मानता हूँ, लेकिन क्या मेरा इन्फ़िरादी अ’मल, क़ौमी तशख़्ख़ुस का एक हिस्सा नहीं बन सकता?”
“हरगिज़ नहीं, क्योंकि पूरी क़ौम इस क़िस्म के दबाव को बर्दाश्त नहीं कर सकती, नाथूराम गोडसे ने भी एक अ’मल किया था, आज वो तारीख़ में मौजूद ज़रूर है लेकिन कहाँ पर?”
“तुम कहना क्या चाहते हो?”
“यही कि तुम या तुम्हारे जैसे लोग तन्हा कुछ भी नहीं हैं। तुम्हारी तन्हा सोच पूरी क़ौम के धारे को नहीं मोड़ सकती न उसे कोई दूसरा धारा इख़्तियार करने पर मजबूर कर सकता है।”
“आज ये कुर्सी तुम्हारे हिस्से में है, कल उसके हिस्से में आएगी, परसों उसके, फिर मेरे, सब अगर तारीख़ में नज़रिया-साज़ी पर ज़ोर देते रहते तो फिर जानते हो, क्या होगा?”
“क्या होगा?”
“पहले ये पिछड़ेगा, फिर तुम, फिर ये, फिर हम... फिर कुछ नहीं रह जाएगा। सब कुछ फ़ना हो जाएगा। तारीख़ एक ज़िंदा शय है जो हमारी तरह साँस लेती है। ये ज़िंदा किरदारों को ही अपने यहाँ जगह देकर महफ़ूज़ रखती है।”
“अरे बादशाह मियाँ क्या लेकर आ गए।”
“हुज़ूर जब भी लोग यहाँ से रुख़्सत होते हैं तो मैं ये गुलदस्ता उनकी ख़िदमत में ज़रूर पेश करता हूँ।”
“वाक़ई’ बहुत ख़ूबसूरत गुलदस्ता है। आपने इसमें मुख़्तलिफ़ रंगों की आमेज़िश कर के जो यक-रंगी पैदा करने की कोशिश की है, वो ला-जवाब है, लो भाई ये रेशमी डोरी छोड़ के इस गुलदस्ते को थाम लो और फिर बादशाह मियाँ की कारीगरी के क़ाइल हो जाओ।”
“बहुत ख़ूबसूरत, बहुत ख़ुशनुमा...”
“बादशाह मियाँ बहुत अच्छे ख़िदमत-गुज़ार हैं, अच्छा तो बादशाह मियाँ...”
बादशाह मियाँ, जली हुई सिगरेटों के टुकड़े, ख़िलाल के इस्ति’माल-शुदा तिनके, जली हुई तीलियाँ और ज़ाइल होते हुए धुएँ के मर्ग़ूले अपने दोनों हाथों से समेटने लगे।
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