निर्मला
वह इतनी मशहूर हीरोइन तो नहीं थी लेकिन जैसा कि मैं ने सुना उसकी असल वजह-ए-शौहरत कुछ तस्वीरें थीं।।। ज़रा ख़ास क़िस्म की।।। जिस से उसने ख़ूब पैसा कमाया। मैं तस्वीरें तो नहीं देख पाया लेकिन उसे पहली बार मुजस्सम सूरत में सन सैंतीस में ''नाच नगरी नगरी” के सेट पर देखा
रिहर्सल जारी थी। मैं सेट के ऐन सामने एक बेंच पर बैठा पुराने मुंशी, जो काम छोड़ के जा चुका था, के मकालमों को पढ़ रहा था।।। वह मुझे नज़र आ गई। स्याह बुर्क़ा में सर ता पैर डूबी वह किसी मुकालमे को अटक-अटक कर दोहरा रही थी। लफ़्ज़ ''ख़ुदा” उसके मुँह पर चढ़े नहीं चढ़ रहा था।।। वह उसे बार-बार ''खुदा” कह रही थी और इधर दीवान जी अपने बाल नोच रहे थे।
फ़िल्म में उसका किरदार एक ऐसी देहाती लड़की का था जिसका महबूब जंग में मारा गया था या शायद इस से कोई मिलती जलती कहानी थी, कुछ याद नहीं। जो याद है वो ये कि रतन जी महाराज ने दो दिन पहले उसका तआरुफ़ कुछ ऐसे किराया था।
“अम्माँ बोलते हुए साली के होंट जैसे थर्राते हैं।।। मटक-मटक कर चले है।।। पूरा जिस्म जैसे लहराए है।।। हाय भगवान क्या चीज़ है श्रीमती निर्मला जी।।। फुलझड़ी है फुलझड़ी।।। गदराया हुआ जिस्म, ये निकलता क़द, पीतल की तरह चमकता रंग, पूरे शरीर पर पसीने की बूँदें।।। ख़ासी बड़ी बड़ी।।। गोल-गोल।।। और ये फैले।।। उफ़।।।“
उसने आँखें बंद रख, बीड़ी दाँतों में दबाए हाथों की ख़फ़ीफ़ हरकत से सुरूर की कैफ़ियत में झूमते हुए उसके ख़्याली ख़द्द-ओ-ख़ाल हवा में खींचना शुरू किए।
मैं इस अमल को ख़ामोशी से देखता रहा,
’’छोकरी नहीं सईद साहब।।। पूरा नशा है नशा।।। जानी वॉकर समझते हैं आप? एक और ख़ास बात बताउं?”
बीड़ी फूँकते हुए उसने पुर-यक़ीन लहजा अपनाया,
’’ये भी लिख रखें।।। अगर ये मुकालमे ठीक ना भी हो सके।।। मैं कहता हूँ भले से ये फ़िल्म ख़ामोश भी बने।।। तो तब भी आप देखना सईद साहब, सेठ की ये फ़िल्म दौड़ेगी और इसकी वजह है ये छोरी।।। सिर्फ ये छोरी। मैं तो ये कहता हूँ जिस भी फ़िल्म में ये लौंडिया हो साला उसे मुकालमों की ज़रूरत ही नहीं।।। है ना ख़ास बात?”
मुझे उस लड़की में अगर कोई ख़ास बात नज़र आई तो वो उस की आँखें थीं।।। थोड़ी अजीब सी थीं। हद से ज़्यादा लंबोतरी।।। काजल में डूबी।।। पैहम किसी चीज़ की मुतलाशी।।। दूसरी ख़ास बात उस का लहजा था।।। बोलते हुए उस की आवाज़ में एक डरावना सा असर आता था।।। और बस। मेरे ख़्याल में वो हीरोइन से ज़्यादा एक वैम्प थी।
मैं उन दिनों एक छोटे से अख़बार के लिए काम करता था और सख़्त माली तंगी का शिकार था क्योंकि मुझे पैसे तब मिलते थे जब ख़बर छप चुकती थी। उन दिनों नए वायसराए की तक़रीर का बईइकाट हर अख़बार की ज़ीनत था तो मेरी ख़बर, ''बंबई टॉकीज़ के एक मालिक का अपनी सैक्रेटरी से मआशक़ा” से आप ही बताएँ किसी को क्या दिलचस्पी हो सकती थी?। मेरी लाई ठंडी ख़बर को झंडी दिखाई गई तो मुझे यूँ लगा कि पूरा हफ़्ता बग़ैर दूध की चाय पर गुज़ारा करना पड़ेगा।
उन दिनों बंबई टॉकीज़ लिमिटेड उरूज पर थी और हिमांसू रॉय, बावजूद उसके कि उनकी फ़िल्म ''इज़्ज़त' को मिला जुला रद्द-ए-अमल मिला, ऊंची उड़ानों में थे। यक़ीनी कामयाबी की उम्मीद लेकर मैंने वहां क़िसमत आज़माई की सोची और मलाड चला आया। वहां पता चला कि चूँकि मैंने देविका रानी और नज्म-उल-हसन के मआशक़े की ख़बरें ख़ूब मिर्च मसालिहा लगा कर छापी थीं इसलिए वहां मेरी दाल नहीं गलने लगी। वैसे भी, नजम-उल-हसन के क़ुज़ीए के बाद, कंपनी बाहर के किसी भी आदमी को रखना ही नहीं चाहती थी। मज़ीद कोशिश बेसूद थी, मै ना-उम्मीद हो कर बंबई वापिस चला आया।
इस मायूसी के आलम में जब जगन नारायण ने मुझे ये बताया कि बंबई टॉकीज़ के मुक़ाबले की एक और कंपनी खुल चुकी है और इस के मालिक को एक मुकालमा नवीस की ज़रूरत है जो उनके पुराने मुंशी का अधूरा काम पूरा करे तो सच्च पूछें यक़ीन बिल्कुल नहीं आया बल्कि में थोड़ा सा घबराया भी।अब मैं ठहरा सहाफ़ी आदमी।।। कभी किसी फ़िल्म के मुकालमे नहीं लिखे।।। लेकिन जगन के मुताबिक़ मै उस काम के लिए मौज़ूं तरीन आदमी था। इसी पस-ए-मंज़र में डरते-डरते मैं ने पुराने मुंशी की कहानी और मुकालमों का जायज़ा लिया और जब मुझे ये लगा कि मुसव्वदे में बेहतरी की काफ़ी गुंजाइश है तो, ख़सूसन इस यक़ीन दहानी के बाद कि मेरी मुद्दत-ए-मुलाज़मत क़ाबिल-ए-तौसीअ भी होगी, कम तन्ख्वा के बावजूद भी वहां काम करने के लिए हामी भर ली। गुमान ग़ालिब है इस फ़ैसले की वजह वह लड़की हरगिज़ नहीं थी।
ये वह ज़माना था जब छ साल क़ब्ल मेजिस्टिक थेटर में हिन्दोस्तान की पहली बोलती फ़िल्म ''आलम-आरा नुमाइश के लिए पेश की जा चुकी थी। इस के बाद तो साहब तानता बंध गया।।। फिल्मों पर फिल्में।।। ''दग़ाबाज़ आशिक़'', ''डाकू मंसूर'', ''इस्मत का मोती” और ''दुनिया ना माने” जैसी फिल्मों ने धूम मचाई। हीरोइनों में मिस कूपर, देविका रानी, सितारा देवी, और मिस गौहर लोगों के दिल और उनकी फिल्में दिमाग़ों पर राज करने लगीं। बताना ये चाहता हूँ कि कुछ ऐसा माहौल बन गया था कि घर हो दफ़्तर या बाज़ार हर जगह फिल्मों का ज़िक्र। ये फ़िल्म देखी है? वो फ़िल्म देखी है? अरे छोड़ो यार डब्बा फ़िल्म थी साली।।। मुफ़्त में पैसे बर्बाद किए।
फिल्मों की इस भीड़ में रुपे-पैसे की रेल-पेल भी ख़ूब बढ़ी। डाईरकटरों, प्रोडयूसरों और एक्टरों ने लाखों कमाए। ये देख कुछ और लोग भी इस मैदान में कूद पड़े। एक दिन बोस साहब की ''विद्या पति” मैं सिनेमा घर के सामने भीड़ और उबलता मुनाफ़ा देखकर नजम ख़ान को, जो पिशावर के एक पठान ज़ादे नवाब थे लेकिन सब उसे सेठ कहते थे, कुछ शौक़ ऐसा चढ़ा कि वहीं बैठे-बैठे ना सिर्फ ''रेनबो टॉकीज़' बनाने का फ़ैसला किया बल्कि साथ ही साथ उसने इसी साल जनवरी में रीलीज़ ''किसान कन्हैया” की तक़लीद में रंगीन फ़िल्म बनाने का ऐलान भी कर दिया। फ़िल्म के लिए कई नाम अलबत्ता अभी ज़ेर-ए-तजवीज़ ही थे।
नाम का इंतिख़ाब तो ख़ैर पसंद ना पसंद की बात थी लेकिन उस ज़माने में बाक़ी फ़िल्म एक फार्मूले के तहत बनती थी। भड़कीले लिबास वाली हीरोइन जिसकी क़ौसें और कासें सख़्त नुमायां हों फ़िल्म की कामयाबी की ज़मानत हुआ करती थी।।। बोस-ओ-कनार के सीन
तो ''कर्मा” मैं देविका रानी और हिमांसू रॉय के साथ ही शुरू हो चुके थे लेकिन लिबास अभी इतने मुख़्तसर नहीं थे। कोताह पोशी का रुझान अलबत्ता आगे जा कर बतदरीज तरक़्क़ी या तनज़्ज़ुल करता हुआ तक़रीबन उर्यां बेगम पारा की शक्ल में ज़हूर पज़ीर हुआ। अब सेठ साहब चूँकि थे सख़्त मज़हबी घराने के आदमी इसलिए वो फ़िल्म साज़ी के इस रुझान में तब्दीली के सख़्त ख़ाहां थे। उनका कहना था कि हिन्दुस्तानी फिल्में क़ौम का अख़लाक़ बिगाड़ रही हैं इसलिए वो ज़रा नए तर्ज़ की माक़ूल किस्म की फिल्में बनाना चाहेंगे जिसमें नाम भी बहुत ही शरीफ़ाना हों और काम तो हों ही।
जहां तक शरीफ़ाना नाम की बात थी, ''तलाश-ए-हक़” उन्हें अच्छा लगा लेकिन फिर पता चला कि इस नाम की एक फ़िल्म, नर्गिस पर, जो उन दिनों बेबी नर्गिस कहलाती थीं, दो साल पहले फ़िल्म बंद हो चुकी थी। ''फ़ख़्र-ए-इस्लाम” वो क़ानूनी तक़ाज़ों की वजह से नहीं रख पाए क्योंकि इसी नाम की एक फ़िल्म पहले से ज़ेर-ए-तकमील थी वर्ना ये नाम भी उनको बहुत भाया। इसी तरह एक और नाम ''बेगुनाह” उन्हें बहुत पसंद आया लेकिन फिर उन्हें ये मालूम पड़ा कि इस की हम-नाम की एक फ़िल्म को गजनन जी या सोहराब मोदी साहब डाईरेकट कर रहे हैं तो आख़िर में ''ऊपर वाला” पर निगाह-ए-इंतिख़ाब ठहर गई। ये नाम उनको इतना पसंद था कि बहुत बाद में, यानी जब उनकी फ़िल्म का नाम ''नाच नगरी-नगरी” फाईनल भी हो चुका था, तब भी मुझसे इस मुआमले पर मश्वरा करना चाहा और मुझे अपने दफ़्तर में बुलाया।
मैं अंदर दाख़िल हुआ तो सेठ को आईने के सामने खड़ा पाया।
वो एक तनोमंद किस्म के आदमी थे और उनकी थिरकती मूंछों पर लगा तेल और टेबल पर पड़ी समोसों और कचौरियों से निम भरी प्लेट देखकर मुझे उनकी ख़ुश-खुराकी का अंदाज़ा हो गया। अपने बाहने हाथ से लुथड़ी हुई मूँछें साफ़ करते, मेरी तरफ़ घूम के अपनी टाई की गिरह दरुस्त की और टेबल पर पड़ी चाय एक ही सांस में गटागट पी,
’’मुंशी साहब इस नाम के बारे में आप का क्या
ख़्याल है, ''ऊपर वाला” अच्छा नाम है ना?”
नाम के इंतिख़ाब का ये खेल, जैसा कि मैं बताउंगा, तग़य्युर के अमल से गुज़रता रहा लेकिन ''ऊपर वाला” एक तरह से उनके ज़हन में जम सा गया था। उनका ख़्याल था कि वो शरीफ़ाना किस्म की कहानी से इंडस्ट्री में तब्दीली ला सकते थे और यूं मज़हब की ख़िदमत कर सकते थे।।। यही वजह थी कि मैंने उनकी हाँ मे हाँ मिलाई और मुख़ालिफ़त से बिल्कुल गुरेज़ किया। मश्वरा देने वालों ने अलबत्ता उनसे इत्तिफ़ाक़ ना किया और उन्हें ये बताया कि अगर फ़िल्म में दिलों को गरमाने वाले सीन, जज़्बात को बर-अंगेख़्ता करने वाले डांस और सबसे अहम।।। फ़िल्म का नाम रसीला ना हो तो वो चलेगी नहीं।
अच्छा ये भी बताता चलूं कि सेठ ने दाएं-बाएं से काफ़ी लोगों को जोड़ा कि उनकी मुजव्वज़ा फ़िल्म को कामयाब बनाएँ लेकिन बेश्तर मुशीर नौ-मश्क़ थे जो काम कम बातें ज़्यादा किया करते थे। बातों की हद तक अलबत्ता इन सबने सेठ को ये बावर करा छोड़ा कि फ़िल्म साज़ी मे उनसे ज़्यादा समझ बूझ वाला कोई नहीं और सेठ जैसे ''महा तजर्बाकार” फ़िल्म साज़ के लिए फ़िल्म शुरू करने का इस से ज़्यादा मुनासिब वक़्त कोई नहीं क्योंकि फ़िल्म हर हाल में कामयाब होके रहेगी।
ये अजीब बात थी कि ना-तजुर्बा कारों के इस झुण्ड में इन्फ़िरादी तौर पर किसी को भी इस बात का यक़ीन नहीं था कि फ़िल्म एक हफ़्ते से भी ज़्यादा चलेगी लेकिन मजमूई तौर पर सब इस पर अलबत्ता मुत्तफ़िक़ थे या तक़रीबन बरमला कहते थे कि सेठ की फ़िल्म अशोक कुमार की ''अछूत कन्हैया” से भी बेहतर बिज़नस करेगी। इस तज़ाद की क्या वजह थी ये मैं वसूक़ से नहीं बता सकता लेकिन शायद वो सब ये समझते थे कि गो इन्फ़िरादी तौर पर कम तजर्बाकार सही लेकिन वो एक अच्छी टीम ज़रूर हैं।।। बहुत ही अच्छी टीम। असल में उनमें कोई भी फ़िल्म बनाने वाले था ही नहीं बल्कि वो सब के सब फ़िल्म बिन थे हाँ किसी दर्जे में ये ज़रूर है कि कुछ ने सिर्फ एक्स्ट्रा किस्म के रोल किए हुए थे इस से ज़्यादा कुछ नहीं।
शुरू शुरू में सेठ ने आज़ाद ख़्याली, लचर क़िस्म के मुकालमों और निम-बरहना मनाज़िर की सख़्त मुख़ालिफ़त की।।। उसे मज़हब धर्म के ख़िलाफ़ जाना और फ़लसफ़ियाना अंदाज़ में
कहा कि अगर फ़िल्म की कहानी में जान हो तो भले से इस में कोई तस्वीर भी ना हो वो फिर भी कामयाब हो सकती है। उनके इस यक़ीन की वजह कहानी के साथ साथ फ़िल्म का फ़न्नी दर्जा भी था जो अगर ऊंचा हो तो वो बज़ात-ए-ख़ुद फ़िल्म की कामयाबी की ज़मानत होता है। ये सब सही है लेकिन फिर उन्हें ये भी इल्म था कि फ़िल्म पब्लिक ने देखनी होती है, उन्होंने अपने घरेलू प्रोजैक्टर पर थोड़ी चलानी है इसलिए जब उन्हें समझाया गया कि फ़िल्म में कुछ ना कुछ आज़ाद ख़्याली रखनी पड़ेगी वर्ना वो बिज़नस नहीं कर सकेगी तो वो तरद्दुद के साथ मान गए।
ये बात सबको पता थी कि सेठ अगरचे अपने आपको काफ़ी तेज़ समझते थे, असल में ऐसा था नहीं।।। वो लोगों को क़ाबलियत पर कम, बातों पर ज़्यादा परखते थे और एतबार भी जल्दी किया करते थे। उनको पता नहीं कैसे ये यक़ीन था कि फ़िल्म कामयाब हो जाएगी लेकिन इतना इशारतन बतादूं उनके इस ग़ैर मुतज़लज़ल अक़ीदे का सारा दार-ओ-मदार इन नौ आमोज़ मुशीरों पर था जिनकी मुत्तफ़िक़ा पैशन गोई ये थी कि ''नाच नगरी नगरी” के बाद किसी और फ़िल्म की ज़रूरत नहीं रहेगी।
उनके मुशीरों में एक आदमी जमशेदजी नौरोजी भी था जो था तो पार्सी लेकिन चूँकि एक ऐंगलो इंडियन एक्ट्रेस से शादी के बंधन में हादिसाती तौर बंध गया तो यूँ अपने धर्म से निकाल दिया गया। फ़िल्म ''नाच नगरी नगरी” के बनाने में इस का काम पिशावर के इस गरम-जोश सेठ को उल्टे सीधे मश्वरे देना था।
“नाच नगरी नगरी” का एक नाम शायद “ऊपर वाले की मुहब्बत में दिल-ओ-जान गुम” भी था लेकिन कंपनी में सिवाए एक मौलवी नुमा एक्टर के किसी ने भी इस नाम को पसंद नहीं किया। कहानी भी अजीब सी थी।।। एक शहरी बाबू सुहाना ख़ाब देख रहा है, सर पर सफ़ैद टोपी और इस के हाथ में तस्बीह है।।। झक्कड़ चल रहे हैं।।। हर सीधी चीज़ औंधी हो रही है।।। सब कुछ टूट रहा है लेकिन इस के बावजूद वो चाहता है कि ये सपना ना टूटे।
नौरोजी ना तो नाम से मुत्तफ़िक़ था और ना ही इस मज़हबी क़िस्म की कहानी के हक़ में था।
“लंबे नाम और शरीफ़ाना क़िस्म की फिल्में अब नहीं चलतीं, लोग मसालिहा दार मनाज़िर देख देख कर तंग आ गए हैं, वही किसान लड़की और शहरी बाबू।।। अब तो आपको कुछ नया करना पड़ेगा, बहुत ही नया क़िस्म का आईडिया।।।“नाच नगरी नगरी” अच्छा नाम रहेगा और इस के लिए हैरोइन, एक्टर और डांसर भी वो चुनें जो मैं बताऊँ।“
अगले हफ़्ते फ़िल्म इंडस्ट्री में ख़ासी चहल पहल रही। एक नौ-वारिद हीरोइन को तो नौरोजी ने इसी ही हफ़्ते सेट से चलता कर दिया जिसके मुकालमों की अदायगी तो बहुत बेहतर थी लेकिन ख़द्द-ओ-ख़ाल ठस। ज़िमनी तौर पर ये भी बतादूँ कि ख़ास अंगिया के कमाल से ये इल्लत दूर हो गई और वो बाद में काफ़ी मशहूर हो गईं। इस से ज़्यादा इशारा ज़ाती बात हो जाएगी। इसी तरह अपने एक ख़्वाजा एक्टर को, जो काशानी साहब का मंज़ूरे नज़र था, नौरोजी ने फ़िल्म के लिए इसलिए क़बूल ना किया कि वो नाटा क़द का था।
इस पर काशानी साहब नाराज़ से हो गए तो अपने फ़ैसले के दिफ़ा में नौरोजी साहब ने निहायत ही तफ़सील से फ़िल्म कामयाब कराने वाली लड़कीयों के ख़द्द-ओ-ख़ाल गिनवाए और ये बताते बताते इस गर्म गुफ़्तगु का दायरा इस हद तक फैल गया कि चोली का रंग, उस के उभार का ज़ावीया, अंगिया का साइज़, उस की हयत और इस से जड़े धात के हुक भी ज़ेर-ए-बहस आए। जब लोग इन तफ़ासील में डूबे झूम रहे थे तो वहीं लोहा गर्म देखकर उसने ''नाच नगरी नगरी” का नाम और हीरोइन के कासट के लिए निर्मला को एक तरह से फाईनल करवा ही दिया।
बाद में इस पर काफ़ी ले दे हुई और कुछ लोगों ने नौरोजी को जिनसियत ज़दा क़रार दिया लेकिन सेठ साहब चूँकि उस की हर बात को पत्थर की लकीर समझते थे इसलिए लाख समझाने के बावजूद उन्होंने मज़कूरा बाला दोनों बातों से ना सिर्फ इत्तिफ़ाक़ किया बल्कि ये तहय्या भी किया कि कुछ ही हफ़्तों के अंदर ''नाच नगरी नगरी” की शूटिंग भी शुरू की जाये। शिव मंदिर के क़रीब रैनबो टाकीज़ लिमीटेड का इफ़्तिताह तो ख़ैर उन्होंने अगले ही दिन कर दिया।
इस पूरे पस-ए-मंज़र से बताना ये मक़सूद था कि इस से मेरी क़िस्मत भी जाग उठी और मुझे इस कंपनी में आरज़ी मुंशी की नौकरी दे दी गई। चूँकि मैं सहाफ़ी था।।। फ़िल्मी तजुर्बा कम था।।। इसलिए काम में हाथ डालने से पहले सेट पर जाना शुरू किया ताकि
फ़िल्मी मुकालमा नवीसी की ''अलिफ़। बे” समझ सकूँ और वहीं उस से मेरी पहली मुलाक़ात रिहर्सल वाले सीन में हुई जिसका में पहले ज़िक्र कर चुका हूँ।
उस वक़्त मुझे ये भी नहीं पता था कि उसका असल नाम किया था क्योंकि मेरे ख़्याल में निर्मला उसका फ़िल्मी नाम था और ये ख़्याल इतना ग़लत भी नहीं था क्योंकि उन दिनों फ़िल्म इंडस्ट्री में रील और रियल नाम में तफ़ावुत आम सी बात थी।।। जैसे नजमा बेगम अपने फ़िल्मी नाम महताब से ज़्यादा मशहूर हुईं। नाम तो ख़ैर छोटी बात थी, कहें तो मज़हब का इबहाम भी पैदा हो जाता था जैसे कुछ साल बाद की फ़िल्म ''जवार भाटा” के हीरो और बाद के मशहूर ऐक्टर का असल नाम यूसुफ़ ख़ान था और वो हिंदू हरगिज़ नहीं थे ये अलग बात कि वो अपने हिंदू नाम दिलीप कुमार से ज़्यादा मशहूर हुए।
निर्मला अलबत्ता इतनी मशहूर नहीं थी लेकिन जैसा कि मैं अर्ज़ कर चुका हूँ कि उस की शौहरत कुछ ख़ास क़िस्म के तस्वीरों की वजह से थी। वो असल फ़ोटो या पूरी कैमरा रील, जैसे सुना था, नौरोजी के पास थी और सेठ साहिब वो फ़ोटो और रील देखने के लिए मचल रहे थे। नौरोजी भी कच्ची गोलीयां नहीं खेला था और निर्मला को''नाच नगरी नगरी” मैं फाईनल करने की शर्त पर ही उन्हें ये चीज़ें दिखाने की हामी भरी थी। ख़ुदा जाने क्या जादू था कि सेठ उस लड़की पर कुछ ऐसा लट्टू हो गया था कि ऑडिशन तक में हिस्सा ना लिया और ज़बानी तौर पर सब कुछ मान गया।।। निर्मला फाईनल हो गई।
नौरोजी दरमयाने क़द, तंग पेशानी, पकौड़ा नुमा नाक और अजीब औंधी खोपड़ी का आदमी था।।। जहाँ तक सुना था हादिसाती फ़िल्मी मुशीर होने के इलावा उनकी शख़्सियत का एक और रुख भी था और वो ये कि उनके पास कुछ मशहूर फ़िल्मी अदाकाराओं कीअख़लाक़ सोज़ क़िस्म की तसावीर थीं या शायद कुछ कटे फटे कलिप्स। शायद यही
वजह थी कि काफ़ी लोग उनके गिर्द जमा रहते थे। ये बता तो दिया लेकिन अब ऐसा ना हो कि आप मेरे बारे में कुछ राय क़ायम कर बैठें। सच्च तो ये है कि मैंने ऐसा सुना तो बहुत लेकिन ख़ुद ऐसा कुछ नहीं देख पाया इसलिए इस बात को सिर्फ मुबालग़े की हद तक ही समझें, सिक़ा नहीं। मुझे अलबत्ता विष्णु दास ने निर्मला के बारे में जो सिक़ा बात बताई वो यूँ थी,
“साली हिंदू है, ऊंची ज़ाती की है परन्तु धर्म का नाम बर्बाद कर दिया उसने, ईजत ख़ाक में मिला डाली उस कंचनी ने। केवल पैसे के लिए इस साली बेसवा ने शरीर को बेचा।।। नरक में जाएगी साली।।। सीधी।।। रंडी कही की।“
दास साहब जो फ़िल्म के कैमरा मैन थे रुक ना सके,
“वशी जी आप भी बस अरे दस्तूर है जहाँ पैसा दिखता है वहां धर्म वग़ैरा सारा साला बैक-ग्राउंड में चला जाता है।।। पेट के नरक में भी तो अलाव दहकता है इस का भी तो कुछ करना पड़ता है।“
फिर खिसयाने होते हुए धीमा लहजा अपनाया,
“शरीर तो नहीं बेचा निर्मला जी ने।।। बस ज़रा सीन ऐसे फ़िल्माए जो शरीफ़ परिवार की छोकरियाँ नहीं फ़िल्मातीं।।। वैसे वशी जी गीता में ऐसा तो नहीं लिखा कि आप ऐसे सीन फ़िल्मा नहीं सकते।“
“ये गीता में लिखने की बात नहीं दास जी, हमारे परंपरा की बात है। मैं केवल उस की तरफ़ इशारा कर रहा हूँ।।। गीता में नहीं लिखा।।। क्या दिन आगए हैं!”
“वशी जी अगर ऐसी ही बात है तो फिर तो इस स्टूडियो में काम करने वाला हर आदमी पापी है और साला ये पूरा झुण्ड नरक में जाएगा।।। अब आप ही देख लें ईसी ही पापी फ़िल्म के लिए, जिसके आप लेबोरेटरी इंचार्ज हैं, कोई जिस्म बेच रहा है कोई क़लम बेच रहा है, कोई आवाज़ और कोई कुछ और।।।“
एक लंबी सांस लेकर कमरे से बाहर टीन के छप्पर वाले होटल की तरफ़ इशारा किया,
“ये भी देखें इस होटल का लौंडा जो उंगलीयों में पियालियाँ अटकाए फिरता है और सदा ऊँघता उस का पठान मालिक, दराज़ भाई, जो हमारे लिए चाय बनाता है वो भी पापी हैं।।। और तो और बंबई क्या हिंदुस्तान के सारे नागरिक भी पापी हैं जो हमें ये सब कुछ करने दे रहे हैं।।। नहीं? क्या करें हमारे लिए पापी पेट के नरक और उन सालों के आँखों की ठरक का सवाल है।।। अब आप बताएँ उनमें से स्वर्ग में कौन जाएगा?”
मैं ने बजाय इस बहस में पड़ने के कि कौन नरक और कौन स्वर्ग में जाएगा, मुकालमों पर मग़्ज़मारी की। लाइनें वाजिबी सी थीं।।। ज़बान भी कमज़ोर थी और तो और सीन भी हक़ीक़त से दूर और ज़रा तख़य्युलाती क़िस्म के थे। मैं ने कुछ क़लम चलाया।।। कुछ सीन आगे पीछे किए, अलफ़ाज़ तबदील कर दिए जैसे ''अगर आप हमें ना मिले तो मै तो मर जाउंगी को मैं ने ''जीते-जी मर जाउंगी कर दिया। असल में वो तमाम मुकालमे इतने सतही थे कि उनमें तब्दीली लाने के लिए भी काफ़ी कोशिश दरकार थी।
इसी अस्ना में उसे भी ख़बर हुई कि नया मुंशी आया है तो सेट प्रैक्टिस के बाद कूल्हे मटकाती हुई मेरे पास आई।
ख़ासी जानदार धूप निकली होई थी और मैं छाओं में कुर्सी पर बैठा पहले से लिखे
पुलंदे में रद्दोबदल कर रहा था। उसने बुर्क़ा उतारा और सामने वाली कुर्सी पर फैल कर बैठ गई। ऐसा करते हुए उस के जिस्म से लिपटा दुपट्टा सिरक गया।।। पसीने में भीगी लाल अंगिया उस के नीम शफ़्फ़ाफ़ सफ़ैद कपड़ों में साफ़ दिखाई दी। इस खैरा-कुन मंज़र की ताब ना ला कर मैं ने पहले आँखें नीची कीं और फिर धड़कते दिल के साथ उस के चेहरे की तरफ़ देखा।
उसके होंटों पर पसीने की नन्ही नन्ही बूँदें लरज़ रही थीं और उस की चमकती और क़दरे मख़मूर आँखें, जिनमें बे-पनाह कशिश थी मेरे अंदर पैवस्त थीं।।। मै भी उसे बे-इख़्तियार देखता चला गया। मेरे इस तर्ज़-ए-अमल से वो मुस्कुराई और फिर पता नहीं क्यों, होंट काटते, सांस खींच कर अपनी चुस्त चोली के उभार मज़ीद नुमायाँ किए, बिखरे बालों को हाथ से एक तरफ़ किया, होंटों की लाली ताज़ा की और मेरे सामने झुक कर बैठ गई।
मैं ने आँखें चरानी चाहीं तो शोख़ी से क़दरे मर्दाना आवाज़ में बोली,
“सईद साहब क्या नहीं देखने की कोशिश कर रहे हैं आप?”
ये मेरे इल्म में नहीं था कि उसे मेरा नाम भी मालूम था। इस बे-तकल्लुफ़ाना तर्ज़-ए-तख़ातुब से मुझे भी कुछ हिम्मत हुई लेकिन फिर कुछ सोच कर उसे जवाब नहीं दिया और होंट काटते नज़रें नीची ही रख्खी।
मेरी बे-इल्तिफ़ाती देखकर वो झेंप सी गई और बात बदलते हुए कहा,
“एक बात तो बताएँ आप ये घिसी पिटी डाइलाग क्यों ठीक कर रहे हैं? नई कहानी क्यों नहीं लिखते, शुरू से।“
उस की ये बात सौ फ़ीसदी दरुस्त थी। असल में दूसरों के काम को दरुस्त करना दुहरी अज़ीयत होता है, पहले उस की कमज़ोरीयों पर मातम करो और फिर उसे ठीक करने की कोशिश पर। मैं चाहता था कि मैं सारी फ़िल्म नए सिरे से लिखूँ, मेरी अपनी कहानी हो जिसे मै जैसे चाहे मोड़ सकूँ लेकिन सेठ पुराने मुंशी की कहानी पर फ़रेफ़्ता थे। उनका ख़्याल था कि जो दो गाना, ''सनम तुम जो कहोगे हम मानेंगे” लिखा गया था वो किसी और फ़िल्म में नहीं चलेगा। सिर्फ इस दो गाने के लिए, जो उनको अज़-हद मर्ग़ूब था, वो सारी फ़िल्म बनाना चाहते थे। ऐसा क्यों था ये नहीं पता लेकिन शायद इस बे-वज़्न गाने के ख़ालिक़ वो ख़ुद थे।
फ़िल्म के नाम और हीरोइन का मुआमला तै हुआ तो सेठ ने पैसा पानी की तरह बहाना शुरू किया, स्टूडियो की तज़ईन-ओ-आराइश करना, फ़िल्म बनाने के लिए इंग्लिस्तान से ज़रूरी मशीनें ख़रीदना और इसी क़बील के कामों पर। ये पैसा, जैसा कि मुझे बाद में पता चला उनका अपना नहीं था बल्कि चंद ऐसे लोगों का था जो क़लील अर्से में करोड़पती बनना चाहते थे और ना जाने सेठ ने उनको क्या सुहाने सपने दिखाए थे कि उन्होंने मतलूबा सरमाया बग़ैर तरद्दुद के सेठ को थमा दिया। सेठ बस फ़िल्म बनाने पर मुसिर थे और वो भी जल्दी ताकि इस से और पैसा कमा कर दूसरी फ़िल्म शुरू कर सकें।।। वो भी जल्दी।
मुझे अलबत्ता ये काम जल्दी होता नज़र नहीं आ रहा था क्योंकि जो लोग इस फ़िल्म की तैयारी में मसरूफ़ थे उनके अंदर जज़बात ज़्यादा और यकसूई तक़रीबन ना-पैद थी। कुछ तो सिर्फ दिन गुज़ारने और चाय पीने के लिए स्टूडियो में चले आते थे। हाँ उन लोगों के अंदर अगर कोई इमतियाज़ी वस्फ़ थे तो वो दो थे, तन्क़ीद बराए तन्क़ीद और सेठ की हाँ मैं हाँ मिलाना। शोला-बयानी से लबरेज़ उनकी नोकीली तन्क़ीद से सुहराब मोदी साहब भी महफ़ूज़ नहीं थे। उनमें से एक साहब के मुताबिक़ ''सदाए हवस” मोदी साहब की एक बेकार और बचगाना पेशकश थी और इस से तो बल्कि ''नाच नगरी नगरी'', जिसकी कहानी भी अभी ज़ेर-ए-तकमील थी, हज़ार गुना बेहतर थी।
सेठ ऐसी बातों को बहुत संजीदा लिया करते थे और ये ख़ुशामदी बयानात सुनते, यकायक, जैसे उन्हें एक बहुत अहम बात याद आ जाती थी और फिर वो फ़िल्म के इश्तिहारी मुहिम के मुताल्लिक़ बात करना शुरू कर देते थे। बातों में यहाँ तक ज़िक्र आ जाता था कि हरियाणा में पोस्टर गुरमुखी और पिशावर में पुश्तो में छपेंगे और
जगह जगह नौजवान लड़कीयां और खोजे नुचवा कर अव्वाम को फ़िल्म देखने के लिए राग़िब किया जाएगा और फिर वो फ़िल्म से हासिल आधी आमदनी ख़ैरात करने की पेशगी क़समें खाते। किसी ने अज़-राह-ए-मज़ाक़ उन्हें ये मज़हकाख़ेज़ मश्वरा भी दिया कि टिकट के पैसे दुगुने रखकर अगर एक फ़्री टिकट भी दिया जाये तो नुक़्सान भी नहीं होगा और पब्लिक भी ख़ुश रहेगी, एक तीर से दो शिकार। सेठ जैसे चौंक गए, इस बेढब मश्वरे को बहुत सराहा और उस दिन शाम तक दाहने हाथ में पकड़ी तस्बीह फेरते ''एक तीर दो शिकार” कहते सर धुनते रहे और मुशीर की ज़कावत को सराहते रहे।
सेठ वैसे सराहने पर आ जाते तो तन्ख्वा दुगुनी करने के वाअदे करते। कभी-कभी जलाल में आकर सरज़निश भी कर देते थे लेकिन कुछ लोगों को तो वो कुछ भी नहीं कह सकते थे। ये ऐसा क्यों था मालूम नहीं लेकिन शायद वो उनसे दबते थे। वैसे वो इतने कच्चे आदमी भी नहीं थे, स्टूडियो में रुत्बा, ओहदा और पोज़ीशन देखकर बात करते थे।
मेरी पोज़ीशन उन सब में अलबत्ता मुख़्तलिफ़ थी और इस की वजह ये थी कहानी के तनाज़ुर में मुझ से सबसे ज़्यादा उम्मीदें क़ायम थीं जिसका लाज़िमी नतीजा ये निकला कि मुझ अकेली जान पर दबाव बढ़ना शुरू हुआ कि कहानी को जल्द अज़ जल्द फाईनल कर दूँ और तमाम नग़मे, जो कुल मिला कर बीस के क़रीब थे, उन्हें कहानी में ऐसे ज़म करूँ कि उनमें बनावटीपन सिरे से ना हो। बीस नग़मों का झुरमुट ढाई तीन घंटे की कहानी में ऐसे पिरोना कि उनमें बनावटीपन भी ना हो, वो भी एक सहाफ़ी के लिए, जिसका फ़िल्म नवीसी का तजुर्बा ना होने के बराबर था, बहुत मुश्किल काम था लेकिन मैं फिर भी फ़िल्म के कोरियोग्राफर सरोज भशिवानी जी और म्यूज़िक डायरेक्टर हमीदुल्लाह ख़ां साहब से मिला ताकि तमाम सीन और नग़मे एक साथ फ़िल्मी बख़ीए में ऐसे ला सकूँ कि उनमें कहीं कोई कजी बाक़ी ना रहे और किसी को गिला भी ना हो।
भशिवानी जी के अलबत्ता अपने गिले थे क्योंकि जब मैं उनसे मिला तो वो घंटों बोलते रहे। उनके पेट की सबसे बड़ी ऐंठन ये थी कि वो फ़िल्म में एक क्लासिकल डांस रखवाना चाहते थे जिसमें त्रिलोचन पूजा की झलक हो लेकिन किसी ने सेठ के कान भरे और उन्हें ये यक़ीन दिला छोड़ा कि सरोज साला एक कट्टर हिंदू है जो आपके कंधे पर बंदूक़ रखकर अपने धर्म का परचार करना चाहता है। इस का असर ये हुआ कि भाशिवानी जी को कहा गया कि मंदिर में कोई भी सीन ना फ़िल्माया जाये और जो क्लासिकल डांस वो फ़िल्माना चाहते हैं वो कोठे के पस-ए-मंज़र में फ़िल्माया जाये क्योंकि इस में हक़ीक़त की सही अक्कासी बहरहाल बेहतर होती है।
अब मसला ये था कि कहानी में ऐसा कोई मुक़ाम था ही नहीं जिसमें कोठे का ज़िक्र हो लेकिन नौरोजी ने मुझे बुला कर ये हिदायात दीं कि कहानी में ऐसा मोड़ डाला जाये जिसमें हीरोईन को दिल्ली स्टेशन से अग़वा कराके इलाहाबाद के कोठे पर पहुंचाया जाये जहाँ वो मुजव्वज़ा डांस ऐसे मलबूसात में करे जिसे देख के लोगों के होश उड़ जाएँ और कहानी भी सिलवट के बग़ैर रहे। ये नया मसला इतना सादा भी नहीं था और इस मुजव्वज़ा डांस सीन के मलबूसात के इंतिख़ाब पर बड़ी ले दे होई। नाज़िश साहब जो वार्डरोब इंचार्ज थे हीरोईन के लिए ज़र्द मख़मली बूट, चुस्त पाएजामा और उस के ऊपर पिशवाज़ और तंग चोली, जिसमें उस के खद्द-ओं-ख़ाल नुमायाँ हो कर सामने आएं, चाहते थे जबकि सेठ साहब का ख़्याल था कि वो उस के ऊपर बुर्क़ा भी पहने ताकि उर्यानी भी ना हो और काम भी चले।
इस मुआमले में भी हरफ़-ए-आख़िर जमशेद जी नौरोजी था जिसने मश्वरा कम हुक्म ज़्यादा दिया कि हाँ डांस के शुरू में हीरोइन बुर्क़ा वाला लिबास ज़रूर पहने लेकिन डांस मुख़्तसर लुंगी और अंगिया पर ख़त्म हो क्योंकि अगर हीरोइन को नाचते हुए लिबास की क़ैद से बतदरीज रिहाई मिलती जाये तो पब्लिक के जज़बात को उबाल मिलेगा जिसका साफ़ मतलब पैसा यानी मुनाफ़ा होगा।
सेठ ने शुरू में दबी आवाज़ में कुछ कहना चाहा लेकिन मुनाफ़ा की बात सुनकर बिल-आख़िर उस के सामने घुटने टेक दिए। इसी तरह सेठ ने हीरो हीरोइन के माबैन सीन में बोस-ओ-कनार की भी मुख़ालिफ़त की और मज़े की बात ये कि चूँकि हीरोइन का आशिक़ फ़िल्म के शुरू के सीन में मारा जा चुका था कहानी में इस की गुंजाइश भी नहीं थी लेकिन जमशेद जी नौरोजी के मुताबिक़ अगर बोस-ओ-कनार का सीन ना हो तो फ़िल्म तीन दिन भी ना चले।
कुछ लोगों का ख़्याल था कि फ़िल्म की हीरोइन उसूली तौर पर उनकी बहन की तरह थी और इस से इस क़िस्म के सीन ना करवाएँ जाएँ लेकिन जमशेद जी नौरोजी अपनी बात पर अड़ा रहा और हर हाल में बोस-ओ-कनार का सीन डालने पर मुसिर था। अब चूँकि उस वक़्त तक फ़िल्म के तमाम कर्ता धरता अकेला वही था और उस की किसी बात को भी रद्द नहीं किया जा सकता था तो यूँ फ़िल्म में इस क़िस्म के सीन भी डालने पड़े। जब ये इज़ाफ़ा भी हुआ तो मुझे यूँ लगा कि मुझे कहानी नए सिरे से लिखनी पड़ेगी लेकिन जमशेद जी नौरोजी ने मुझे बुला कर कहा
“कहानी में ऐसा करो कि कोठे के डांस के बाद हीरोईन को सोता दिखाव और फिर उस के ख्व़ाब ही में उस के मक़्तूल महबूब को दिखाव जिसमें वो उस के साथ बोस-ओं-कनार करे और फिर जब वो ख्व़ाब से उठे तो दो डाकू आ कर ज़बरदस्ती उस की इस्मतदरी करें और इस सीन को तो ख़ूब लंबा करो।।। बहुत अच्छा डिस्क्राइब करो।“
मैं ने ये सुनकर तंज़िया लहजे में कहा,
“आप चाहें तो मै इस में एक और सीन का भी इज़ाफ़ा कर सकता हूँ कि जिस थानेदार को वो रिपोर्ट लिखवाने जाये वो भी उस के साथ ज़्यादती करे, में ये सीन भी लंबा डिस्क्राइब करसकता हूँ।।। क्या ख़्याल है आपका?”
वो मेरा तंज़ तो ना समझ सके लेकिन इस के माथे पर लकीरें उभर आईं और फिर होंट सुकेड़ कर, नफ़ी में सर हिला कर मुझे ये कह कर मना किया कि इस तरह कहानी खिचड़ी बन जाएगी।
कहानी बहरहाल खिचड़ी बन चुकी थी और इस की पेचीदगी ऐसी हो गई थी जैसे मुख़्तलिफ़ रंगों के तारों से बटी रस्सी जिसमें हर रंग का तार मौजूद तो हो लेकिन रंग कटवां नज़र आए।।। मेरे ख़्याल में सारा पुलंदा किसी तसलसुल के बग़ैर कहानी कम, जिनसियत में लूथड़ा एक बेकार ब्यानिया ज़्यादा बन कर उभर आया था।
इस ग़ैर मरबूत कहानी से बनी फ़िल्म का अंजाम मुझे अच्छी तरह पता था सो मैं ने सोचा कि सेठ से बात करूँ कि वो मुझे नई कहानी लिखने की इजाज़त दे। अब अगर यूँ हो तो में अपनी मर्ज़ी से सारी कहानी भी लिख सकूँगा और मेरी मुद्दत-ए-मुलाज़मत भी तवील होगी जिसका साफ़ मतलब ज़्यादा पैसा था।
मैं ने उनके सामने अपनी अर्ज़-दाश्त ऐसे पेश की,
“सेठ जी शायद आपके इल्म में है कि कहानी पेचीदा से पेचीदा होती चली गई है। ये बात नहीं कि मैं मुकालमे लिख नहीं सकता और पुराने मुंशी ने जो लिखा वो मै हक़ीक़तन सँभाल चुका हूँ लेकिन कहानी में कुछ ऐसे मोड़ डाल दिए गए हैं जो शायद मज़हबी तौर पर दरुस्त नहीं। तक़रीबन नंगे डांस और जिस्मानी मिलाप।।। बेमहल मनाज़िर।।। आपकी मर्ज़ी लेकिन मै एक कहानी ऐसी लिख सकता हूँ जो सिर्फ अपने फ़न की बुनियाद पर''भारत की बेटी'', और ''भिकारन” से भी बेहतर बिज़नस करे। सेठ साहब मेरे क़लम में ये ताक़त और सलाहीयत।।।“
मैं उन्हें देर तक अपने क़लम के करिश्मों के बारे में बताता रहा कि कैसे मैंने दस साल क़बल सहाफ़ीयाना ज़िंदगी में साइमन कमीशन के रद्द-ए-अमल में लाला लाजपत राय पर लाठी चार्ज और उनके क़तल की रिपोर्टिंग की और हिन्दोस्तान की सियासत का रुख मोड़ा और ये मै ही था जिसने चराग़ हसन हसरत और नहरू रिपोर्ट।।। ये वाक़ियात बयान करते हुए मैं ने अपने क़लम की तारीफ़ में ज़मीन और आसमान के कुलाबे मिला दिए।
सेठ ने मेरी पूरी बात ध्यान से सुनी, अपनी तस्बीह चूमी और ख़ासे जज़बाती हो गए,
“सईद आपकी बात सुनकर मुझे वाक़ई धचका लगा है।।। हम ठीक नहीं कर रहे हैं।।। हम में और उन सब में फ़र्क़ क्या रह गया अगर हम भी वही दाव पेच इस्तेमाल।।। नहीं नहीं।।।“
फिर कुछ सोच कर फ़ैसला-कुन अंदाज़ इख़तियार किया,
“मुझे आप पर एतिमाद है। कहानी नए सिरे से लिखें और ऐसी लिखें कि इस में फ़ुहश निगारी की झलक तक ना हो। पीरों फ़क़ीरों वाली कहानी हो और हो सके तो हीरोइन का सिर्फ एक ही सीन डालो।।। शुरू का।।। जिसमें वो जाएनमाज़ पर मर जाये, बुर्क़ा में।।। अब ये बात पक्की है कि मुहब्बत भरी ये मज़हबी फ़िल्म ज़रूर कामयाब होगी।“
मेरा दिल-ख़ुशी से बल्लियों उछलने लगा, बात पक्की हो या नहीं किसे फ़िक्र थी, मुझे अपनी नौकरी पक्की नज़र आई।
यकायक मुझे ख़्याल आया और मैं ने हल्की आवाज़ में जमशेद जी नौरोजी का कहा तो बोले,
“मैं उस का हिसाब चुकता कर देता हूँ। कल से फ़िल्म की तमाम-तर ज़िम्मेदारी दीवान जी पर होगी और तुम्हारी तनख़्वाह भी दुगुनी हो जाएगी। बस तुम काम शुरू करो।।। आज से।“
ये कह कर उसने होंट काटे और फिर सर हिला कर ख़ुद-कलामी का अंदाज़ इख़तियार किया,
“मैं आज शाम नौरोजी से मुलाक़ात करूँगा।।। ख़ुदा की क़सम अब मेरा दिल भर गया है इस मश्ग़ले से।“
अगले दिन सेठ ने सिवाए कैमरा मैन दास साहब के मुझे बाक़ी तमाम लोगों समेत नौकरी से फ़ारिग़ कर दिया और स्टूडियो भी बंद कर दिया। लोगों का ख़्याल था कि चूँकि सेठ एक ईमानदार आदमी थे इसलिए उनका ज़मीर जाग गया था और वो फ़िल्म बनाने से दस्तबरदार हो गए थे लेकिन एक महीने बाद उड़ती-उड़ती ये ख़बर भी सुनी कि स्टूडियो बंद नहीं हुआ था, सिर्फ बोर्ड उतरा था और असल में उसने और नौरोजी ने सिर्फ एक किरदार निर्मला को, हीरोईन कम वैम्प ज़्यादा, लेकर ऐसी फ़िल्म बनाई जिसे सिर्फ घरेलू प्रोजैक्टर पर ही देखा जा सकता था।
सुनने में ये भी आया कि सराब जी केरला वाला की फ़िल्म ''मिस्टर चार-सौ बीस” की तक़रीबन हम-नाम इस एक अकेली पंद्रह मिनट दौरानीए की मुख़्तसर रंगीन फ़िल्म का बिज़नस ''अछूत'', ''बंधन'', ''पागल'', ''सरोजनी' और ''नर्तकी' के मजमूई बिज़नस से ज़्यादा था। ये बात शायद सच भी हो क्योंकि सराब जी ने नाम को मुतनाज़ा बना कर क़ानूनी चारा-जुई का एक नोटिस सेठ साहब को भेजवाया था जिसके मुंदरिजात का तो मुझे इल्म नहीं लेकिन जैसा कि मुझे यक़ीन था कि जिस भी फ़िल्म में ये छोकरी हो उसे ना तो मुकालमों की ज़रूरत थी और ना किसी क़ानून का डर।
अच्छा अब चूँकि मैं ने ''मिस्ज़ चार-सौ बीस” ख़ुद नहीं देखी इसलिए ये तमाम बातें मैं ताय्युन के साथ नहीं कह सकता। हाँ जो मैं ताय्युन के साथ कह सकता हूँ वो ये है कि अगले दो हफ़्ते तक मैं ने दूध के बग़ैर ही चाय पी।
Additional information available
Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.
About this sher
Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.
rare Unpublished content
This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.