पार्सा बीबी का बघार
स्टोरीलाइन
यह एक सामाजिक कहानी है। पारसा बीबी जब अपने घर में दाल का बघार लगाती थी तो सारे मोहल्ले को पता चल जाता था। पारसा बीबी थी तो बादशाह की बेटी, लेकिन ब्याही गई थी मुंशी के घर और यही उस घर की औरत की कहानी है।
“तो जब वो बीबी दाल बघारती तो ज़ीरे, लहसुन और असली घी की सोंधी ख़ुशबू उड़ कर सात आसमानों तक पहुँचती और फ़रिश्ते कहते, लो आज फिर पारसा बीबी के घर अरहर की सुनहरी सुनहरी दाल पकी है, पारसा बीबी बेटी तो थी बादशाह की लेकिन ब्याह के आगई थी ग़रीब मुंशी के घर।” दादी तो ये कहानी सदियों से सुनाती आरही थीं लेकिन कभी किसी बहू ने उनसे यूं मुँह लग कर सवाल नहीं किए थे। रही बात क़मर की तो वो बहू नहीं पोती थी और तुर्रा ये कि स्कूल पढ़ने जाती थी। ऊपर से ककड़ी की बेल की तरह धड़ाधड़ बढ़ रही थी। उसने पट से सवाल किया, “भला बादशाहज़ादी ब्याह के ग़रीब मुंशी के घर आई कैसे?” दादी इधर उधर देखने लगीं।
“बताइए ना दादी, ऐसा होता है कहीं? अब बादशाहज़ादी ब्याह के बादशाह के घर जाये न जाये, नवाब के घर तो जाये। वरन सिपहसालार वज़ीर कुछ तो हो।”
“कहानी सुनेगी या बाल की खाल निकालेगी। कठ हुज्जत कहीं की, और पढ़ाओ स्कूल भेज के। और वो मुई क्रिस्टान उस्तानियां।” दादी बिगड़ गईं। माथे से सरकता आँचल फिर से अच्छी तरह जमा के अम्मां ने भी तंबीह की, “कितनी बार समझाया, बड़ों से हुज्जत नहीं करते हैं।”
“और अगर बड़े ऐसी बातें करें जो समझ में न आएं तो?” क़मर ने नसीहत यकसर अंदाज़ कर दी। उसकी महबूब टीचर मिसेज़ नॉरटन ने, जिन्हें दादी नॉटिंग बल्कि नौटंकी कहा करती थीं, समझाया था कि कोई बात समझ में न आए तो पूछ लेना चाहिए, गुफ़्तगू से ज़ेहन के दरवाज़े खुलते हैं।
“अच्छा चल, समझ में नहीं आरहा है तो समझ ही ले क्योंकि इसमें नसीहत भी है। बादशाहज़ादी कोतवाल के बेटे से...” दादी की ज़बान ज़रा की ज़रा लड़खड़ाई लेकिन फिर सँभाला ले लिया, “बादशाहज़ादी कोतवाल के बेटे से आँख मटक्का कर के बैठी थी, इसलिए सज़ा देने के लिए बादशाह ने उसे, जो पहला लड़का नज़र आया, उससे ब्याह दिया। अब वो निकला मुंशी का बेटा, और मुंशी की मजाल जो बादशाह के हुक्म से सरताबी करे।”
“दादी, मुंशी के बेटे से कोतवाल का बेटा तो अच्छा रहता ना।”
“उई बीबी, ये लड़कियां अपना बर कब से ख़ुद चुनने लगीं? ऐसी बेटियों को तो गला दबा के मार देना चाहिए। अल्लाह आमीन की बेटी रही होगी सो बादशाह नर्म पड़ गया। ज़िंदा रहने दिया ऐसी बेटी को।”
“अच्छा तो दादी, अगर क्या कहते हैं कि उसने अपना बर ख़ुद चुनने का गुनाह किया था तो वो पारसा बीबी कैसे कहलाई?”
“पारसा इसलिए कहलाई कि उसने सर झुकाकर बाप की मर्ज़ी को क़बूल कर लिया। फिर शौहर के अलावा किसी को आँख उठाके भी न देखा। जिसके चारों तरफ़ लौंडी ग़ुलाम हाथ बाँधे घूमते थे, वो झाड़ू बहारू करती, गाय की सानी पानी करती, खाना पकाती और जब दाल बघारती तो...” कहानी के इस मोड़ पर दादी ने ड्रामाई अंदाज़ में घूम कर फ़ातिमा बीबी यानी क़मर की अम्मां यानी अपनी बहू की तरफ़ देखा और आवाज़ क़दरे तेज़ कर दी।
“और जब वो दाल बघारती तो एक बड़े प्याले में शौहर, सुसर और बेटे की लिए दाल निकाल कर बघार कर पूरा करछुल उस प्याले में उंडेल देती और अपने लिए पतीली के पेंदे में छोड़ी हुई थोड़ी सी दाल में ख़ाली करछुल डुबो देती। गर्म करछुल छन से करता और दरअसल यही छनाका उसके घर के रौशनदान से हो कर सात आसमानों तक पहुंचता और फ़रिश्ते कहते कि लो आज फिर पारसा बीबी ने अरहर की सुनहरी सुनहरी दाल पकाई है।”
“अच्छा तो दादी।” क़मर ने फिर लुक़्मा दिया, “अगर वो लोग इतने ग़रीब थे तो ख़ालिस घी में दाल कैसे बघारी जाती थी?” दादी ने नाक भौं चढ़ाई, “ये मिट गया डालडा तो अभी हाल में निकला है। पहले मामूली घरों में भी दाल घी से ही बघारी जाती थी। घी कम होने की वजह से ही तो पहले मर्दों के प्याले में डाल दिया जाता था। पहला हक़ तो उनका ही हुआ ना।”
“उनके घर कभी गोश्त पकता था दादी?” क़मर को गोश्त बहुत पसंद था इसलिए उसने बड़े तास्सुफ़ से पूछा। “हाँ हफ़्ते के हफ़्ते पकता था।” दादी ने यूं कहा जैसे वो पारसा बीबी, बादशाहज़ादी उनकी भांजी भतीजी कुछ थी और वो उसकी गृहस्ती में रह आई थीं। “पारसा बीबी गोश्त पकाकर पूरा सालन बड़े चीनी के प्याले में उंडेल कर घर के मर्दों के सामने रख देती और ख़ुद रोटी से पतीली पोंछ लेती। कभी आलू या अरवी गोश्त में डालती तो हाँ उस का एक आध टुकड़ा अपने लिए रोक लिया करती।”
“हा, दुखिया!” क़मर ने नाक पर उंगली रखकर बिल्कुल दादी के अंदाज़ में कहा।
“अरे दुखिया क्यों? खड़ी जन्नत में गई। जब मरी तो सारा घर ख़ुशबू से महक रहा था।”
“आपने ख़ुशबू सूंघी थी दादी?”
अम्मां इस दरमियान उठकर कि वो ये कहानी दसियों बार सुन चुकी थीं, बावर्चीख़ाने में मर्दों के प्याले में पूरा बघार उंडेलने जा चुकी थीं। उनके हाथ से करछुल बहक गया। ख़ैरीयत थी कि ख़ाली हो चुका था। ये क़मर ज़रूर किसी दिन मार खाएगी। उनका आँचल फिर सरकने लगा था। करछुल और आँचल दोनों सँभाल कर वो तास्सुफ़ के साथ क़मर के मुस्तक़बिल पर ग़ौर करने लगीं जो ख़ासा तारीक नज़र आरहा था। इस क़दर बक बक, इतनी हुज्जत। बासी खाना अक्सर अम्मां ही सुवारत लगाती थीं। घर में कोई ख़ास चीज़ पकती तो बचा कर मर्दों के लिए रख देतीं कि दूसरे वक़्त भी खालेंगे। ख़ुद कभी पहले के बचे खुचे के लिए बर्तन टटोलतीं। नहीं तो अचार तो हमेशा ही रहता था। अक्सर उन्हें बासी खाते देखकर क़मर हाथ से रकाबी छीन लेती और ताज़ा खाना उनकी प्लेट में डालती। “खाना फेंकना कभी नहीं चाहिए बेटा, गुनाह होता है।” वो कहतीं।
“तो सब मिल के खाएं। अब्बा को और भैया को और दादी को सबको दिया करो थोड़ा थोड़ा।” अम्मां मुस्कुरातीं, “दादी अपने वक़्त में बहुत बासी खा चुकी होंगी, अब वो घर की बुज़ुर्ग हैं।”
“झूटन खाना रह गया है, वो भी तुम खा लिया करो।” एक दिन क़मर ने जलबलाकर कहा था। उस दिन अब्बा ने अपने कुछ दोस्तों को मदऊ किया था। बाहर से बर्तन आए तो कुछ प्लेटों में बहुत खाना बचा हुआ था। अम्मां ने उसे समेट कर इकट्ठा किया और भैया से कहा कि बाहर डाल दे कुत्ता खालेगा। “कूड़े में मत मिलाना, साफ़ जगह पे रखना।” उन्हों ने बेटे को हिदायत दी।
“कुत्ता क्यों खाएगा, तुम खालो। मुर्ग़ की दो दो बोटियां हैं। अच्छा ख़ासा पुलाव है ये अब्बा के पेट भरे दोस्त नियाज़ ख़ां। घर में हराम का बहुत आता है, इसलिए बर्बाद करते जी नहीं दुखता।” अम्मां ने सर पे हाथ मार लिया, “अरे कमबख़्त लड़की, बाहर आवाज़ जाएगी। ज़रा धीरे बोल। जो मुँह में आता है बक जाती है।”
अम्मां को ये ख़दशा हर वक़्त लगा रहता था कि आवाज़ बाहर जाएगी। एक दिन दादी ने अब्बा से जाने क्या लगाई बुझाई की कि वो ख़ूब चिल्लाए। अम्मां को बिलावजह डाँट खाने से ज़्यादा फ़िक्र इस बात की हुई कि कहीं आवाज़ बाहर न चली गई हो और पास पड़ोस वालों या किसी राह चलते को पता न चल गया कि इस घर में कोई चिपक़लश हुई है। लेकिन ये क़मर सुनके ही नहीं देती थी। पराई अमानत, कहाँ जाएगी ततय्या मिर्च।
“हाँ तो दादी, तुम गई थीं जब पारसा बीबी मरी थी?”
दादी बड़ी ज़ोर से भड़कीं, “हर बात ख़ुद देखी जाती है क्या? अरे ख़ुदा को देखा नहीं, अक़्ल से पहचाना है। ये कहानी हमारी जन्नत मकानी वालिदा ने सुनाई थी। हो सकता है किसी ने पारसा बीबी को देखा भी हो।”
“न देखा हो तो हमारी अम्मां को देख ले। ये कौन सी पारसा बीबी से कम हैं।” क़मर का अंदाज़ चिढ़ाने वाला था। “तेरी अम्मां!” उन्होंने घूर कर पोती को देखा फिर एक ख़शमगीं नज़र सर झुकाए बावर्चीख़ाने में काम करती बहू पर डाली (बावर्चीख़ाना आँगन पार करके बरामदे की सीध में था जहाँ दादी का तख़्त पड़ा रहता था। क़मर उसे राज-सिंघासन कहती थी। वहाँ से कोई आया गया, बहू, नौकर, सब दादी की नज़र में रहते थे।)
“तेरी माँ ज़रा तुझ पारसा बीबी को तो सँभाल ले। चल इधर आ। ये मिट गए ईसाइयों की सी वज़ा बना रखी है।” उन्होंने क़मर की दो चोटियों को पकड़ कर झटका दिया, “ये तेरी आलिम फ़ाज़िल ममानी आकर तुझे सिखा गई है।”
अम्मां से मिलने आई ममानी क़मर के घने बाल सुलझाने में मदद कर रही थीं तो क़मर ने ठनक कर कहा था कि स्कूल में ज़्यादातर लड़कियां दो चोटियां बनाकर आती थीं। बस मारे लाड के ममानी ने दो चोटियां बनाकर सुर्ख़ रिबन से फूल भी बना दिया। थापी जैसी एक चोटी से वो दो चोटियां कितनी अच्छी थीं। अम्मां सारे ताने, सारे कहानियां शर्बत के घूँट की तरह पी जाती थीं। बस मैके के बारे में बड़ी हस्सास थीं।
“हमारे वक़्त में लड़कियों को मांग नहीं निकालने देते थे। बग़ैर मांग निकाले एक चोटी बंधा करती थी, अब वो थापी लगे या नेवले की दुम (क़मर अपनी मोटी चोटी को नेवले की दुम कहा करती थी) तो बेटा तुम्हें तो मांग निकालने की इजाज़त है। क्यों दो चोटियों की ज़िद करके दादी से डाँट सुनती और ममानी को बुरा कहलवाती हो।” अम्मां के लहजे में तास्सुफ़ था।
“दो चोटियां बाँधने से किसी के मज़हब का क्या लेना देना। मुझे बड़ा ग़ुस्सा आता है जब दादी कहती हैं कि ईसाइयों की सी वज़ा बना रखी है।” (दादी के “मिट गए” ईसाई उस वक़्त भी सारी दुनिया पर दनदना रहे थे जैसे आज दनदना रहे हैं और जिसको चाहते थे उसे मिटाने का मक़दूर रखते थे जैसे आज रखते हैं। न जाने कितनी तहज़ीबों, कितनी हुकूमतों को मलियामेट कर दिया था लेकिन क़मर का शऊर उस वक़्त इतना बालीदा नहीं हुआ था। हाँ ये समझती थी कि उसकी दो चोटियों से ईसाइयों का कुछ लेना देना नहीं है।)
क़मर ने इम्तियाज़ी नंबरों से बी.ए पास करने के बाद बी.एड में दाख़िला लिया तो उसने अपने बाल कटवा दिए। वजह ये थी कि प्रैक्टिस टीचिंग के लिए जूड़ा बनाकर जाना लाज़िमी था। जिन लड़कियों के बाल तराशे हुए थे उन पर ये ज़ाब्ता लागू नहीं था। कमउम्र क़मर के लिए जूड़ा बनाना वो भी घने, रूखे बालों से टेढ़ी खीर था। वैसे तो ये बी.एड ही निहायत टेढ़ी खीर था। बच्चे बड़े शातिर थे। उन्हें मालूम था ये लड़कियां उनकी असली टीचर नहीं हैं। ये तो मौसमी परिंदे हैं जो चंद माह के लिए एक मख़्सूस मुद्दत में आते और फिर उड़ जाते हैं इसलिए क़तई बात न सुनते। अगर सुपरवाइज़र से शिकायत करो तो वो जवाब देते कि बच्चों को डिसिप्लिन करना आपकी तर्बीयत का हिस्सा है। आप समझिए आप क्या करेंगी। ऐसे में बाल और लिबास दुरुस्त रहना बहुत ज़रूरी था। छुट्टियों में क़मर घर आई तो अम्मां ने सर पीट लिया। ख़ैरीयत थी कि उस वक़्त दादी जन्नत मकानी ख़ुल्द आश्यानी हो चुकी थीं। इसलिए सर अम्मां ने अकेले ही पीटा।
बी.ए के बाद, बल्कि और पहले से दादी ने तो क़मर की शादी की ज़िद बांध रखी थी। उस वक़्त उन्हें सिर्फ़ एक मंतिक़ ने चुप कराया था। क़मर पढ़ लिख कर पैरों पर खड़ी हो जाएगीगी तो बग़ैर जहेज़ के आसानी से अच्छा लड़का मिल जाएगा। फिर उस्तानी बनना तो इज़्ज़त की बात है। वो करंटान मिसेज़ नार्टिंग की बेटा सलोमी की तरह ऑफ़िस में टप टप टाइप करने थोड़ी ही जा रही थी। दादी क़मर के उस्तानी बनने से पहले चल बसीं। लेकिन कुछ मुआमलों में अम्मां कौन सी कम थीं। विरासत सँभाले बैठी हुई थीं, जभी तो क़मर के बाल देखकर इस क़दर होल गईं कि उन्होंने पहली बार शौहर को कटघरे में खड़ा करने की हिम्मत की जो उन के लिए मजाज़ी ख़ुदा का दर्जा रखते थे और जिन पर इल्ज़ाम तराशी कुफ़्र थी। वैसे भी अम्मां नेक और फ़ित्रतन डरपोक इंसान थीं। अपने वक़्त की ज़्यादातर शरीफ़ बीबियों की तरह, जिनका हियाव उमूमन उसी वक़्त खुलता जब वो अधेड़ उम्र हो कर सास के मर्तबे पर फ़ाइज़ हो जातीं और एक उन्हीं की तरह की कमज़ोर लड़की बहू बन कर घर में आजाती। लेकिन उस दिन उन्होंने बड़ी हिम्मत की। शौहर के सामने तन कर खड़ी हो गईं।
“क़मर को आपने बिगाड़ा है। बी.ए कर लिया था, बहुत काफ़ी था। सलमान चचा इतना अच्छा रिश्ता लाए थे आपने मेरे इसरार के बावजूद इनकार कर दिया और लड़की को भेज दिया बी.एड करने। फिर ये भी नहीं देखते कि क्या करती घूम रही है।”
“क्या करती घूम रही है?” अब्बा ने चौंक कर आख़िरी जुमला पकड़ा। बाक़ी बातें सफ़ा टाल गए।
“बाल कटवा लिए हैं उसने।” अम्मां का लहजा ऐसा मुज़्तरिब था जैसे काने दज्जाल के निकल आने की इत्तिला दी रही हों।
“ओह!” अब्बा की रुकी हुई सांस सीने से बाहर आ गई। वो बड़ी ज़ोर से खटके थे। उन्हें लगा था बीवी ख़बर देंगी कि बेटी किसी लौंडे के साथ घूमती देखी गई है। इसलिए 'मेमों’ जैसे बाल कटवा लेने की ख़बर ख़ासी दिलदोज़ होने के बावजूद अपना असर खो बैठी थी। ज़ोर का झटका धीरे से लगा।
“अच्छा, लेकिन मैंने तो नहीं देखा।” अब्बा को एक मौहूम सी उम्मीद थी कि शायद क़मर की अम्मां को कोई ग़लतफ़हमी हुई है या वो कुछ मुबालग़े से काम ले रही हैं। लेकिन उनकी आवाज़ कमज़ोर ज़रूर थी।
“आपके सामने आपकी चालाक बेटी सर ढके रहती है। सर खुला रखती है तो पीछे क्लिप लगाकर बाल समेट लेती है।”
अब्बा के इजलास में क़मर की तलबी हुई तो उसने बग़ैर किसी घबराहट के वज़ाहत पेश की। अब्बा को ये इत्मीनान ज़रूर हुआ कि क़मर ने बाल महज़ फ़ैशनेबुल लगने और 'मेमों’ की वज़ा इख़्तियार करने के लिए नहीं कटवाए हैं।
“बी.एड का कोर्स ख़त्म होने में बस दो-तीन महीने बाक़ी हैं। इम्तहान होजाएं तो फिर बढ़ा लेना।” अब्बा ने तहक्कुमाना लेकिन नर्म लहजे में इतना ही कहा।
“जी अब्बा, ज़रूर।” क़मर ने मिनमिना कर जवाब दिया लेकिन उनके बाहर चले जाने के बाद अम्मां पर उलट पड़ी,
“चुगु़ली लगाके क्या मिला तुम्हें? लड्डू!”
“ख़ूब तालीम है भाई तुम्हारी। ख़ानदान में और लड़कियां नहीं हैं क्या। और किसी ने न कटवा लिया चोंडा।” अब्बा ने क़मर की ख़ातिर-ख़्वाह सरज़निश नहीं की थी इसलिए अम्मां आज़ुरदा ख़ातिर थीं और मुँह ही मोनहामुँह में बड़बड़ाती जा रही थीं, “और स्कूलों कॉलिजों में यही सिखाया जा रहा है कि बड़ों से बदतमीज़ी करो। अब यही तुम अपने शागिर्दों को सिखाना। रह गए तुम्हारे अब्बा तो बसंत की खबर नहीं। कौन करेगा पर कटी से ब्याह।”
एक तो चोंडा कटवाने जैसा ग़ैर फ़सीह, इहानत अंगेज़ जुमला ऊपर से जले पर नमक 'पर कटी’ फिर ख़ानदान की दूसरी ग़बी, कुंद ज़ेहन घर बैठ कर प्राइवेट उर्दू, फ़ारसी के इम्तहान पास करने वाली लड़कियों से मुवाज़ना, क़मर की एड़ी में लगी और चोटी में बुझी। जलबलाकर बोली, “और उसे भूल गईं, तुम्हारे चचाज़ाद भाई की बेटी सुरय्या। उसने बाल कटवाए ही नहीं बल्कि लखनऊ जाकर उनमें घूंघर भी डलवाए। ये न कहना कि तुम्हें मालूम नहीं। अभी तो मिली थी इमराना ख़ाला के यहाँ मीलाद में।”
“सुरय्या की शादी हो गई है। अब वो जाने और उसका शौहर और ससुराल वाले। और हाँ मेरे चचाज़ाद भाई तुम्हारे मामूं हुए। ख़बरदार जो यूं ज़िक्र किया कि तुम्हारे चचाज़ाद भाई।”
“हाँ हाँ, चलो न बड़े आए मामूं। एक नंबर के तिगड़म बाज़, मामूली सूरत की बारहवीं पास बेटी के लिए सरकारी नौकरी वाला लड़का ले आए। तुमने भी कर दी होती हमारी शादी। फिर बला से हम सर ही मूंड कर रख देते। शादी न हुई हर आज़ादी का परवाना हो गई।” क़मर पैर पटख़ती वहाँ से चल दी।
अम्मां ‘टुक-टुक दीदम दम न कशीदम' बुत बनी बैठी देखती रह गईं। ऐसी ख़ामोश हुईं कि सारा दिन गुज़र गया और वो हूँ, हाँ के अलावा कुछ न बोलीं। कितनी बड़ी बात बोल गई ये बदज़बान लड़की। तुमने भी कर दी होती हमारी शादी। अगर क़मर के अब्बू ने सलमान चचा का लाया हुआ रिश्ता मंज़ूर कर लिया होता तो आज ये सुनने की नौबत न आती। अच्छे भले लोग थे। अच्छा ख़ासा रहन सहन, माक़ूल लड़का। यही न कि ख़ानदान बड़ा लांबा चौड़ा था। “मेरी बेटी क़मर उस चिड़ियाख़ाने में पंद्रह-बीस लोग की रोटी ठेकने नहीं जाएगी।” अब्बा ने एक हत्मी जवाब दिया था और फिर क्या मजाल जो कोई उनसे हामी भरवाले।
“ख़ासा पैसा है लेकिन घर में नौकर-चाकर नहीं। बस झाड़ू बर्तन के लिए एक औरत आती है। बाक़ी काम ख़वातीन ख़ुद करती हैं। गाड़ी भर तो बर्तन निकलते हैं। अगर मुलाज़िमा ने नाग़ा किया तो वो भी ख़ुद ही धोती हैं। फिर ये कि लड़के की उम्र भी ज़्यादा है।” अमीरन ख़ाला ने बताया तो फिर दादी ख़ामोश हो गईं, गरचे क़मर का अठारवां साल लगते ही उन्होंने उसकी शादी के लिए वावेला मचाना शुरू कर दिया था।
अम्मां उस दिन चुपचाप बैठी ख़ला में कुछ देखती रहीं।
पंद्रह-बीस तो नहीं लेकिन दस-बारह लोग घर में ज़रूर थे जब सत्रह बरस की कामिनी सी अम्मां ब्याह कर आई थीं, अब्बा के वालिद हयात थे। तीन भाई भी साथ ही रहते थे। एक एयरपोर्ट में नौकर थे। उनकी बस अली उल-सुबह आती थी। तारों की छाँव में उनका नाशता बनता था और साथ ले जाने के लिए टिफिन भी। अम्मां का दिन सुबह चार बजे शुरू होता। दादी उस वक़्त ख़्वाब-ए-ख़रगोश के मज़े लूटती पड़ी सुनाती रहतीं, गरचे उस वक़्त बड़ी मज़बूत कदकाठी की महज़ अधेड़ उम्र ख़ातून थीं। उस वक़्त कोई न गैस का चूल्हा जानता था, न फ्रिज न प्रेशर कूकर। रात का खाना सब साथ खाते तो अम्मां कोई तीस पैंतीस चपातियाँ बनाकर उठतीं। चूल्हे की आँच से चेहरा लाल भबूका होजाता। सबको खिलाकर ख़ुद खाने के बाद बावर्चीख़ाना बंद करके वो दादी के पैर दबाकर सोने के लिए अपने कमरे में आतीं तो रात के ग्यारह बज रहे होते थे। अक्सर तो अब्बा उन्हें सोते हुए मिलते। वो ख़ामोशी से कि कहीं शौहर की नींद न खुल जाये तो कोने में सिकुड़ सिमट कर लेट जातीं।
क़मर के अब्बा क्या तुमने कभी सोचा कि मैं भी किसी की बेटी थी?
उस दिन दरीबर की बीबी सुबह सुबह लोहे का करछुल लेकर आग मांगने को आईं (और कुछ आग लगा भी गईं।)
“ए हे अभी तो चूल्हा नहीं सुलगा दरीबर की बीबी।” अम्मां ने हमदर्दी के साथ पूछा।
“कल साँझ के ये देर से लौटे। सौदा सुल्फ़ कुछ नहीं आया था। अभी जाके आलू ले के आए, तेल ले के आए। सबेरे सबेरे कोनो दूकान नहीं खुली रही।” उन्होंने वज़ाहत पेश की। अम्मां समझ गईं। रात ड्राईवर ने फिर पी होगी। घर में दाँता कल कल भी हुई होगी। क्या पता दो-चार हाथ भी झाड़ दिए हों। रमज़ानी बुआ ने चूल्हे में लकड़ियाँ झाड़कर कुछ अँगारे गिराए साथ ही पूछा, “चाय पियोगी दरीबर की बीबी?”
दरीबर की बीबी के मियां ने कभी किसी ज़माने में एक अंग्रेज़ की जीप चलाई थी। उन्हें फ़ौरी भर्ती के तहत ट्रेनिंग दी गई थी। बहुत महारत हासिल नहीं होपाई थी। कुछ ऊलजलूल थे भी। एक ऐक्सिडेंट हो गया तो निकाले गए और अपने ख़ानदानी पेशे यानी चूड़ी बेचने पर वापस आगए। वो ज़ात के मनिहार थे लेकिन उनके नाम से दरीबर (ड्राईवर) चिपका तो बस चिपका ही रह गया । उन्हें बड़ा फ़ख़्र भी था। उन्होंने गोरे साहब की गाड़ी चलाई थी। उनकी अहलिया दरीबर की बीबी कहलाने लगी थीं सो कहलाती रहीं। शौहर जब गाड़ी चलाते थे उस वक़्त भी वो ख़ास ख़ास घरों में जाकर चूड़ी पहना आया करती थीं। उनकी छोटी सी नाक उमूमन चढ़ी ही रहा करती थी। ख़ासी ख़ूबसूरत ख़ातून थीं और अपनी ख़ूबसूरती (व मियां की बदसूरती) का उन्हें पूरा एहसास था गरचे उनकी ख़ूबसूरती भूल कर अक्सर दरीबर नशे में उन्हें अच्छी तरह धुन दिया करते थे।
रमज़ानी बुआ की चाय की पेशकश ख़ासी क़ाबिल-ए-एतिना थी।
“पी लेंगे।” उन्होंने बड़े फ़ख़्र से जवाब दिया जैसे चाय पी कर बुआ पर एहसान करेंगी।
बुआ ने अपना ताम चीनी का तामलोट उसी वक़्त चाय से भरा था। उसमें से कुछ चाय एक छोटी प्याली पिरिच में रखकर दरीबर की बीबी को बढ़ा दी। उन्होंने चाय पिरिच में निकाल कर सड़प सड़प करके पी ली। रमज़ानी बुआ ने दहकते अँगारे करछुल में डाले और करछुल उन्हें थमा दिया। वो करछुल पर फूंकें मारती, उटनगी सारी का पल्लू सिर पर सँभालती सटर पटर दरवाज़े की तरफ़ बढ़ीं लेकिन फिर यकायक पलटीं, “चलते हैं बाजी।” उन्होंने अम्मां को मुख़ातिब किया, “अब जल्दी बेटा के हाथ पीले करो तो हम चूड़ी का टोकरा ले के आएं। अब किसी के यहाँ नहीं जाते मगर आपकी बात दूसरी है। कब से आसरा लख रहे हैं। (उन्होंने 'कब से’ पर ख़ासा ज़ोर दिया था)। कब ख़त्म होगी बिटिया की पढ़ाई। अच्छा सलामालेकुम।” वो सलामालेकुम तक पहुंचते पहुंचते दरवाज़े से बाहर हो चुकी थीं इसलिए सलाम भी ज़रा ज़ोर से अदा किया जैसे पत्थर खींच मारा हो।
“बड़ी आईं ख़ैरख़्वाह।” रमज़ानी बुआ ने चाय तो पिला दी थी लेकिन दरीबर की बीबी की दरीदा दहनी उन्हें पसंद नहीं आई थी, “देखिए न बाजी, जता रही थीं कि बिटिया इतना पढ़ लिख गईं और अब तक शादी ब्याह की सुन-गुन नहीं है, कब से आसरा लख रहे हैं। अरे आसरा तो हम भी देख रहे हैं मगर हम कुछ बोलते हैं क्या, वो भी ऐसे।” अम्मां के जले पर नमक पड़ गया। अंदर ही अंदर तिलमिला गईं। मुहल्ले में लोग दो-दो, तीन-तीन बेटियां ब्याह चुके थे, यहाँ एक का नसीब खुलने में इतनी देर। और पढ़ाओ। जितना पढ़ेंगी उतना ही लड़का मिलना मुश्किल होता जाएगा।
पगली मेहतरानी आँगन बुहार ही थी। वो दरीबर की बीबी के निकलने के बाद दाख़िल हुई थी। बात बदलने को अम्मां ने उसे बिला वजह पुकारा, “बहू, देखो ज़रा ठीक से झाड़ू लगाना पतझड़ आगया है। चारों तरफ़ पत्ते उड़ते फिर रहे हैं। क़मर...” उन्होंने क़मर को भी आवाज़ दी, “देखो ज़रा नाली धुलवा देना।”
ख़ासे बड़े आँगन में अमरूद के दो नौजवान दरख़्त थे और नीम का पुराना जग़ादरी पेड़। इस के अलावा लिसोड़ा और इंजीर भी लगे हुए थे। लिसोड़े का कोई मसरफ़ नहीं था सिवाए इस के कि मुहल्ले वाले अचार के लिए मांग ले जाएं लेकिन अम्मां उसे कटवाने को तैयार नहीं थीं। इंजीर घर में कोई नहीं खाता था सिवाए अम्मां के। नीम की हवा बीमारियां दूर करती है और इंजीर सेहत के लिए मुफ़ीद है। ख़ुश्क लिसोड़े की चाय आंतों के लिए फ़ाइदेमंद तो थी ही साथ ही ख़ुश्क खांसी भी दूर करती थी। इस मुआमले में अम्मां किसी की सुनने को तैयार नहीं थीं। वो हुज्जत नहीं करती थीं। बस ख़ामोश हो जातीं। उनकी नाराज़गी, न रजामंदी और दिल गिरफ़्तगी सबके इज़हार का एक ही ज़रिया था, एक पथराई हुई ख़ामोशी।
क़मर की कल की बात के बाद भी वो ख़ामोश हो गई थीं। अभी जो उन्होंने उसे मुख़ातिब किया तो उसे बड़ी राहत का एहसास हुआ। उसे अम्मां की ख़ामोशी से बड़ी कोफ़्त होती थी। बोलती हैं तो घर में माहौल नॉर्मल और ख़ुशगवार लगता है। ऐसा क्या कह दिया था क़मर ने कि उन्हें चुप लग गई थी। उसने बाल्टी में पानी भरा और आँगन के किनारे किनारे लंबाई में गुज़रती नाली में डाल कर नाली पगली से धुलवाई फिर अम्मां के पास आकर उनकी गर्दन में हाथ डाल दिए, “अम्मां, हम कल इलाहाबाद वापस जा रहे हैं। तुमको नाराज़ छोड़कर कैसे जाएं। तुम हमसे बात नहीं कर रहीं।” आँसू उसकी आँखों से टप टप गिरने लगे।
“बेटा, हमसे जो हो रहा है तुम्हारे ब्याह के लिए कर रहे हैं। अपनी तरफ़ से तो अच्छा ही चाहते हैं लेकिन अल्लाह की मर्ज़ी । तुम्हारे लायक़ रिश्ता नहीं मिल रहा है।” उनकी आवाज़ मद्धम थी।
क़मर एक दम से आँसू पोंछ कर बिदक कर खड़ी हो गई। वो हक्का बक्का रह गई थी। क्या अम्मां सोच रही हैं कि उसे अपनी शादी की जल्दी पड़ी है। वो लाख मुँह फट सही, ऐसा कैसे कह सकती थी। फिर ये कि वो ऐसा सोचती भी नहीं थी। न उसकी ऐसी उम्र आई थी न ऐसी बेशर्मी तारी हुई थी। ये और बात थी कि जितनी बेशर्मी वो बरत लिया करती थी वो अम्मां के हिसाब से बहुत ज़्यादा थी, इसलिए अक्सर मअनी मतलब पहना लेती थीं। क़मर तिलमिला के कुछ कहने ही वाली थी कि अचानक पगली आन के सिर पर खड़ी हो गई। काम ख़त्म करके उसने आँगन में लगे नलके पर रगड़ रगड़ कर हाथ कोहनियों तक धो लिए थे। दुपट्टे में हाथ पोंछती हुई बोली कि आज वो बहू से लड़कर बग़ैर खाए पिए निकल खड़ी हुई थी इसलिए अम्मां उसे फ़ौरी तौर पर कुछ खाने को दे दें वरना अगली जजमानी में जाते-जाते वो बेहोश हो कर गिर जायेगी। दरअसल पगली का नाशता, खाना कुछ बंधा हुआ नहीं था। बस महीने में दो, कहीं चार रुपये तनख़्वाह के मिलते थे। कभी कुछ बचा खुचा हुआ या अज़खु़द मांग बैठी तो मिल जाया करता था। जाड़ों में किसी किसी घर में अलग रखे टूटे हुए या तामचीनी के चीनी झड़े प्याले में कभी-कभार चाय मिल जाती थी।
‘हा दुखिया’ अम्मां आँगन पार करके बावर्चीख़ाने में चली गईं।
पगली जाके नलके के पास बैठ गई और इत्मीनान से आम के अचार के साथ रात की बासी रोटियाँ हबड़ हबड़ खाते हुए, फूलती साँसों के दरमियान अचार जैसी चटपटी ख़बर भी सुनाई।
“हाकिम की सबसे छुटकी बिटिया इलाहाबाद माँ पढ़त रही ना। सरदारन का बेटवा भी वहीं चला गवा है।”
“तो क्या हुआ। सब लड़के लड़कियां पढ़ने को बड़े शहरों में निकल रहे हैं। हवा ही ऐसी चल पड़ी है कि बे पढ़े लड़कियों का भी गुज़र नहीं।” अम्मां ऐसी बातों में दिलचस्पी कम लेती थीं जिनकी सदाक़त मशकूक हो और जिनसे ख़्वाह-मख़ाह किसी पर हर्फ़ आए। “अपने काम से काम रखा कर पगलिया।” अपने काम से काम रखने को पगली ने नज़रअंदाज कर दिया।
“का हुआ?” पगली के गले में चांदी की ख़िलाल पड़ी रहती थी और नाक में चांदी का बड़ा सा फूल। उसने ख़िलाल से दाँत कुरेदे और नाक का फूल घुमाया, “अरे हुईं नाम लिखाया है जहाँ हाकिम की बिटिया पढ़त है कुछ समझा करो दीदी।” अम्मां घबरा गईं। पगली जिन्हें हाकिम कहती थी वो मुसलमान थे और लड़का सरदार। मुल्क के बटवारे को अभी पंद्रह साल भी नहीं हुए थे जिन्होंने बराह-ए-रास्त कुछ नहीं झेला था उन्हें भी इसका बहुत कुछ इल्म था और फिर ऐसा कौन सा घर था जिसके टुकड़े नहीं हुए थे। और भी बहुत कुछ दिखाई देता रहता था। मसलन प्रतापगढ़ में रेलवे डिपो के पास कंक्रीट के बहुत से छोटे छोटे चौकोर बक्से जैसे लगने वाले क्वार्टरों की एक पूरी कॉलोनी उग आई थी। उसमें जो लोग रहने को आए वो मक़ामी लोगों से अलग थे। उनका रहन सहन, उनकी ज़बान, उनकी औरतें, उनके घर की तहज़ीब सब मुख़्तलिफ़ थे। एक अजीब बात ये थी कि उनके घर के मर्द उर्दू अख़बार ख़रीदते थे। लोग उन्हें शरणार्थी कहते थे लेकिन दस साल होते होते वो आम आबादी में घुल मिल गए। रफ़्ता-रफ़्ता लोगों ने उन्हें शरणार्थी कहना भी बंद कर दिया। पंजाबी कहलाते या सरदार, बड़े मेहनती लोग थे।
ज़्यादातर ने छोटे मोटे कारोबार किए। एक साहब थर्मस में रखकर घर की बनी हुई कुलफ़ी लोगों के यहाँ पहुंचाने लगे थे। कोई पाँच सात बरस बाद उन्होंने बर्फ़ बनाने की फ़ैक्ट्री खोल ली। फ्रिज लोग अभी बिल्कुल नहीं जानते थे। गर्मी में बर्फ़ की बड़ी बड़ी सिलें बुरादे की मोटी तह से ढक दी जाती थीं, फिर ऊपर से मोटा टाट डाल दिया जाता था। ये सिलें जगह जगह दूकानों पर रखी होतीं। वहाँ से गाहक तौलवा कर बर्फ़ ले जाते। कुछ लोग अपने थर्मस लेकर आते थे। उनमें छोटे टुकड़े कराके भरके पहुंचाते। ये बर्फ़ क़रीब के बड़े शहरों से आता था और लाने में काफ़ी ज़ाए होता था।
शहर में कारख़ाना खुला तो लोगों को बड़ी आसानी हो गई। वहाँ आइसक्रीम भी जमाई जाने लगी। पहले सरदारजी घर पर घुमा घुमाकर चलाई जाने वाली छोटी मशीनों में कुलफ़ी जमाते थे। जिन लोगों ने ज़रा ज़रा उसे खोखों में कपड़े और बिसात ख़ाने की दूकानें खोली थीं उनकी अब बड़ी बड़ी शीशों से मुज़य्यन दूकानें हो गई थीं। लड़के-बाले पढ़ने जाते थे। औरतें घर में एक नौकर न रखतीं। सारा काम ख़ुद करती थीं। मक़ामी लोगों के यहाँ तो मामूली मुतवस्सित तबक़े में भी कुल वक़्ती नहीं तो जुज़ वक़्ती नौकरानियां ज़रूर काम करती थीं। मुसलमानों के यहाँ बुआएं और हिंदू घरों में कहारियाँ।
बड़े जियाले लोग हैं। इक बार अब्बा ने कहा था। लुट पिट के आए लेकिन देखो शहर पे छा गए। क्या मजाल जो कभी किसी ने किसी के आगे हाथ फैलाया हो। उनके यहाँ का कोई शख़्स भीक मांगता नज़र नहीं आया। कारोबार करना कोई उनसे सीखे। मक़ामी ज़बान, मक़ामी लब-ओ-लहजे में बोलने लगे हैं। मक़ामी आबादी में पूरी तरह घुल मिल गए। उन्हीं जियाले, घुल मिल जानेवाले लोगों के यहाँ का एक गोरा, ऊंचा, पूरा निहायत वजीह लड़का एसडी एम साहब के यहाँ आने जाने लगा था। अफ़सरों के यहाँ हवारी मवारियों की जो भीड़ रहती है उसी में वो भी खपा रहता। आख़िरी पोस्टिंग में डिप्टी साहब को वतन मिल गया था इसलिए रिटायर हो कर भी वो यहीं रह पड़े थे। रिटायर हुए तो कुछ ही अर्से में ख़ुशामद ख़ोरों की भीड़ छट गई लेकिन वो लड़का बना रहा। जब देखो तब मौजूद। आंटी आंटी करके डिप्टियाइन के पीछे आगे लगा रहता। घर का सौदा सुल्फ़ तक लादेता।
अम्मां ने घबराकर क़मर को देखा और फिर पगली की तरफ़, “अच्छा चुप रहा कर, बहुत बकती है।”
क़मर की आँखें काग़ज़ों पर थीं। आँसू पोंछ कर वो बरामदे में पड़ी कुर्सी पर बैठ कर अपने नोट्स दुरुस्त करने लगी थी। चेहरे से ऐसा नहीं महसूस हो रहा था कि उसने पगली की कोई बात सुनी है। अम्मां ने इत्मीनान की सांस ली और रमज़ानी बुआ को तरकारी लाने के लिए पैसे निकाल कर देने लगीं, गोया पगली को बात बिल्कुल ख़त्म होजाने का सिगनल दे दिया।
क़मर ने नोट्स पर से नज़रें ऊपर उठाईं और झाँझर बजाती, पीठ फेर कर बाहर निकलती पगली को घूर कर देखा, नज़रें अगर बर्मा होतीं तो पीठ में छेद हो गए होते, “इन लोगों ने माँ का दिमाग़ और ख़राब कर रखा है। होल गई होंगी। इलाहाबाद में तो मैं भी पढ़ती हूँ कहीं मेरे पीछे तो आके किसी लौंडे ने वहाँ नाम नहीं लिखवा लिया। मेरे ही डिपार्टमेंट में बी.एड करने के लिए।”
“ऐसी बातें लड़कियों बालियों के कान में नहीं पड़नी चाहिएं।” रमज़ानी बुआ ने बावर्चीख़ाने की खूँटी से टंगा और धुआँ ख़ाके मलगुजा हुआ तरकारी लाने का थैला उतारते हुए कहा।
“अब तुम तो चुप रहो बुआ।” अम्मां फुसफुसाईं, “जो न सुना हो तो अब तुमसे सुन ले। कल वो चली आई थीं सड़न, अमीरन आपा। ऐसी ही कुछ औल फ़ौल सुनाती हुई। अल्लाह से तौबा है। क्या ज़माना आन लगा है।” उन्होंने ग़ुस्से में चूल्हे की जलती आग में बिला वजह फुकनी उठाकर फूंक मारी। फिर ज़ोर से बोलीं जैसे क़मर को सुना रही हों कि यहाँ सब्ज़ी तरकारी आटे दाल के अलावा और कोई बात नहीं हो रही है, “आधा सेर मटर ज़रूर ले लेना बुआ। सुना है मटर आगई है बाज़ार में और सेर भर नए आलू तुलवा लेना। अल्लाह मारे पुराने बड़े मीठे होचले हैं। तरकारी का सत्यानास होजाता है।” क़मर ज़ेर-ए-लब मुस्कुराई। अम्मां तुम डाल डाल तो हम पात पात। हमें तो ये भी पता है कि अमीरन ख़ाला क्या फुसफुसा गई हैं।
छुट्टियां ख़त्म होने के बाद स्टूडेंट्स लौटते तो इलाहाबाद यूनीवर्सिटी के कई लड़के लड़कियां अक्सर बस में साथ सफ़र करते दिखाई देते। ये मामूल था, इत्तिफ़ाक़ नहीं। कई लड़कियां घर से बुर्क़ा ओढ़ कर निकलतीं और बस में उतार देतीं। घर वाले ये बात जानते थे। 'हाकिम’ की बेटी आमिना से तो क़मर की कई बार बस में ही मुलाक़ात नहीं हुई बल्कि यूनीवर्सिटी में भी आमना सामना हो गया था। आज भी वो बस में थी। कई और लड़के भी थे। जगजीत भी था जो बिल्कुल पीछे आकर बैठ गया था। आमिना और क़मर बराबर की सीटों पर थीं।
“हमारे-तुम्हारे दरमियान इलाहाबाद के अलावा एक और लिंक (Link)भी है।” क़मर ने मुस्कुराकर आमिना से कहा। आमिना बेहद कम सुख़न थी। जवाब में उसने सिर्फ़ बड़ी बड़ी, उदास आँखें उठाकर देखने पर इक्तिफ़ा किया, 'पगली मेहतरानी’ क़मर ने आमिना की ख़ामोश निगाहों के सवाल का जवाब कुछ यूं दिया कि वो कम सुख़न लड़की भी बेइख़्तियार हंस पड़ी। पगली आमिना के यहाँ भी काम करती थी मगर शनासाओं के दरमियान उसका ज़िक्र कभी यूं नहीं आया था। “हंस लो।” क़मर ने फिर कहा, “वो अम्मां से कह रही थी कि हाकिम की बिटिया जहाँ पढ़ती है वहाँ सरदारोँ के लौंडे ने भी नाम लिखवाया है।”
एक इज़्तिराबी कैफ़ियत के तहत आमिना का सर पल भर को पीछे घूमा। उसने होंटों पर उंगली रखकर क़मर से ख़ामोश रहने की गुज़ारिश की। उसकी अचानक आ जाने वाली हंसी यूं ग़ायब हो गई थी जैसे सूरज की पहली किरनों के साथ घास पर पड़ी ओस की बूँदें।
“पगली को अभी ये पता नहीं चला है कि हमारी शादी तक़रीबन तै हो चुकी है वरना ये भी अलम नशरह होजाता।” कुछ देर के बाद आमिना ने रसान से कहा। उसके बाद पूरा सफ़र ख़ामोशी से गुज़ार दिया।
फरवरी के महीने में रिटायर्ड हाकिम के यहाँ से उनकी सबसे छोटी बेटी की शादी का कार्ड आया। ये कार्ड दरअसल आमिना ने क़मर से याद अल्लाह की वजह से भिजवाया था। क़मर के इम्तहान मार्च में होने वाले थे इसलिए वो घर नहीं आसकती थी। अब डिप्टी साहब के घर का बुलावा था इसलिए अम्मां गईं। न जाने क्यों उन्होंने राहत की सांस ली थी। बेगानी शादी में अब्दुल्लाह दीवाना। कनखियों से उन्होंने ये भी देखा कि एक ऊंचा पूरा, गोरा चिट्टा ख़ूबसूरत सरदार लड़का सारे इंतज़ामात में पेश पेश है और घर के अंदर भी बिलातकल्लुफ़ आ जा रहा है।
“सुनते हैं बिटिया की डोली उठी तो बहुत रोया।” सारे फ़साने में जिस बात का ज़िक्र नहीं था यक़ीनन पगली ने अपनी तरफ़ से जोड़ी होगी। अम्मां ने सोचा लेकिन शहर के कई घरानों ख़ुसूसन सिविल लाइन्ज़ की आबादी में बात चर्चा का मौज़ू बनी कि आमिना की डोली उठी तो जगीत सिंह बहुत रोया था।
“औरतों की तरह हिचकियाँ ले-ले कर रो रहा था, कौन था वो लड़का।” एक ख़ातून ने रुख़्सती के फ़ौरन बाद पूछा था। आमिना की वालिदा ने कहा, “बहुत ज़माने से आता था, बहन की तरह मानता था आमिना को।”
मक़ामी डाक्टर रामचरण दास खत्री की दो बेटियां भी इलाहाबाद यूनीवर्सिटी में पढ़ रही थीं। एक तो आमिना की क्लास फ़ेलो भी थी। डिप्टाइन ने जब ये बहन की तरह मानने वाली बात कही तो दोनों वहीं मौजूद थीं। लड़कियों ने एक दूसरे की तरफ़ देखा और ज़ेर-ए-लब मुस्कुराईं।
सोशियालॉजी डिपार्टमेंट के सामने बड़ा सा लॉन था। उसमें पत्थर के स्टूल बने हुए थे। वहाँ वो दोनों अक्सर चुपचाप बैठे दिखाई देते। उनके चेहरों पर ऐसी मासूमियत, ऐसी उदासी, ऐसी ख़ामोशी बिखरी हुई थी कि किसी ने मज़ाक़ नहीं उड़ाया, कभी एक भी नाज़ेबा जुमला नहीं कसा। बस एक मर्तबा एक लड़की ने जो ख़ुद जगजीत पर फ़िदा थी, बड़ी हसरत से कहा था, “आमिना ये जगजीता बड़ा ख़्याल रखता है तुम्हारा।” ख़फ़ीफ़ सी धार रक़ाबत की भी थी। “तुम्हारे लिए घर का खाना ले के आता रहता है।”
“हाँ, माँ भेजती रहती हैं।” आमिना ने सुथरी नज़रें उठाकर सादगी के साथ सादा सा जवाब दिया। किसकी माँ, ये वज़ाहत उसने नहीं की। जगजीत हमेशा से आमिना के बनगले पर आता रहता था। इलाहाबाद और प्रतापगढ़ में फ़ासिला इतना कम था कि अक्सर वो सनीचर की शाम को घर भाग आता और पीर को अली उल-सुबह वापस लौट कर क्लासेज़ कर लेता। लौटता तो डिब्बों में भरवां पराठे, कोई सूखी सब्ज़ी और आम का अचार लेकर आता। उसकी माँ बड़े उम्दा पराठे बनाती थी। “गर्म और ज़्यादा मज़ेदार होते हैं मना।” वो हर बार कहता, “लेकिन मेरी माँ पराठे उतार रही हों और तुम पास बैठ कर खा रही हो, ये सपना तो सपना ही रह जाएगा।” और आमिना की आँखों की उदासी और गहरी होजाती।
ये और ऐसे बहुत से सपने दिल में लिए आमिना, फ़र्स्ट क्लास एम.ए सोशियालॉजी, रिटायर्ड पी सी एस अफ़सर की बेटी ख़ामोशी से किसी और की माँ को पराठे तल कर खिलाने के लिए विदा हो गई।
ऐसे क़िस्से ख़ाल-ख़ाल सही लेकिन सुनने में आरहे थे। सुनाने वालों के लहजे में मअनी की दुनिया पिनहां होती। कोई समझता कोई टाल जाता। लेकिन क़मर की अम्मां बेटी के इलाहाबाद जाने के बाद से हर वक़्त ख़ौफ़ ज़दा रहा करती थीं। अमीरन ख़ाला बता रही थीं कि परले मुहल्ले के एक बाइज़्ज़त काइस्थ घराने की बेटी अपने सगे चचाज़ाद के साथ भाग गई और शादी रचाके वापस लौटी। अब भले ही दक्कन के कुछ हिंदू सगे मामूं भांजी की शादी को अफ़ज़ल क़रार दें लेकिन शुमाली हिंदुस्तान का हर हिंदू किसी भी 'ज़ाद’ से शादी को क़बूल नहीं करता।
“हमारे यहाँ ये शादियां जाइज़ हैं इसीलिए हमारे वक़्त में मामूंज़ाद, ख़ालाज़ाद वग़ैरा से भी ज़्यादा घुलने मिलने नहीं देते थे। सामने तो ख़ैर जाते थे। थोड़ा बहुत हंस बोल भी लेते लेकिन माँ, नानी, दादी, ख़ाला, फूफी की चील जैसी नज़रों तले। अब देखो तो लड़कीयां लड़कों के साथ पढ़ रही हैं। क़मर कह रही थी कि बस में आरही थी तो साथ के दो लड़के भी थे। रास्ते भर हंसते बोलते चले आए। बड़े इत्मीनान से कह गई जैसे कोई बात ही न हो। उसके बाप की मत मारी गई थी जो पहले बी.ए और फिर बी.एड के लिए भी बाहर भेज दिया। प्रतापगढ़ में तो मजाल नहीं कि बग़ैर बुर्के के निकल जाएं लेकिन इधर बस में चढ़ीं या ट्रेन बैठीं और बुर्क़ा झोले में।” लाख क़मर चिड़ती लेकिन अम्मां उसके सियाह रंग के बड़े से स्मार्ट बैग को झोला ही कहतीं और बी.एड न कह कर उस्तानीयों वाली पढ़ाई।
रिज़ल्ट आने से पहले से ही क़मर अख़बारों पर झुकी, नौकरियों के इश्तिहार देखती रहती थी। दो अंग्रेज़ी अख़बार लगा लिये थे। अब्बा तो सियासत मंगाया करते थे। माँ बोलती कुछ नहीं थीं बस घबराती रहती थीं। 'लो जी अब ये नौकरी भी करेंगी। अब तक तो ये था कि लड़की पढ़ रही है, लड़की पढ़ रही है, या मौला मुश्किल कुशा।’
रिज़ल्ट आया तो वो और शद-ओ-मद से ख़ाली जगहों के कॉलम पर नज़रें दौड़ाने लगी।
“अब्बा।” एक दिन उसने ख़बर से नज़रें उठाए बग़ैर बाप को मुख़ातिब किया, “ये मुलाज़मत बहुत माक़ूल मालूम हो रही है लेकिन दरख़्वास्त मँगाई है बॉक्स नंबर की मार्फ़त। अल्लाह जाने कहाँ है स्कूल, किस शहर में है, दरख़्वास्त दें?”
“दरख़्वास्त देने में हर्ज नहीं।” अब्बा ने जवाब दिया, “जगह भी मुनासिब हुई, यानी आस-पास तो ठीक वरना छोड़ देना, मत जाना।”
“मैं कुछ कहूं तो कानों तेल डाल के बैठ जाते हैं। नौकरी के लिए झट से बेटी की बात सुनने को तैयार। लड़का ढ़ूढ़ने में मुस्तइदी दिखाएं तो हम जानें।” अम्मां मुँह में मुँह में बुदबुदाईं। अब्बा के ज़्यादा मुँह लगने की हिम्मत नहीं थी। वो तो कुछ ऐसा क़ाइल करते रहे थे कि जैसे बी.एड करते ही लड़का आसमान से अब उतरा कि जब उतरा, “सलमान चचा वाले रिश्ते को मना न किया होता तो बला से रोटियाँ पकाती बीस कि पच्चीस की, आज गोद में एक दो बच्चे खेलते होते। और अब कौन सी रोटियाँ पकाने से फ़ुर्सत मिलेगी। औरत का जन्म, माशटरी भी करेंगी और रोटी भी ठेकेंगी। हमसे ज़्यादा सख़्त ज़िंदगी गुज़रेगी।” उन्होंने सरौता चलाया और खटाक से डली के दो टुकड़े किए।
अम्मां कल जिभ्भी थीं क्या?
क़मर ने अपने गालों पर थप्पड़ लगाए। मैं कितनी बुरी बेटी हूँ। मैं ये भी तो सोच सकती थी कि अम्मां को इलहाम हुआ था या उनकी ज़बान पर सरस्वती आन बैठी थी। उसने पेशानी से पसीना पोछा और पड़ोस के मकान की कालबेल दबाई। दोनों बच्चियाँ उछलती हुई बाहर आईं। पीछे पीछे नेक दिल, अधेड़ उम्र, तन्हा रहने वाली, मेहरबान पड़ोसन जिन्हें गोया अल्लाह मियां ने तऐनात कर दिया था कि क़मर की नौकरी और गृहस्ती दोनों चलती रहें। “हाँ भाई सँभालो।” उन्होंने रोज़ का जुमला दोहराया और शफ़क़त से मुस्कराकर दरवाज़ा बंद कर लिया।
बच्चियों का स्कूल क़मर के स्कूल से पहले छूट जाया करता था। वो कोई दो घंटे बाद आती थी। इसी दौरान बच्चियाँ इन ख़ातून के घर रहती थीं जिन्हें क़मर शांति आंटी कहती थी और लड़कियां शांति नानी।
अपने दरवाज़े का ताला खोल कर क़मर अंदर दाख़िल हुई। दो दिन से बुआ नहीं आरही थी। बावर्चीख़ाने का सिंक बर्तनों से भरा हुआ था। क़मर ने जल्दी से एप्रन चढ़ाया और कुछ ज़रूरी बर्तन धोकर अलग हटाए। बाक़ी यूंही रहने दिए। फ्रिज से गुँधा हुआ आटा और सब्ज़ी निकाली जो वो सवेरे ही धो, काट कर रख गई थी। जल्दी से एक तरफ़ सब्ज़ी चढ़ा कर तवा डाला और पराठे सेंकने शुरू किए। बच्चियों ने फ्रिज खोल कर अपने लिए कोल्ड ड्रिंक निकाल लिया था और मेज़ पर रखे केलों के गुच्छे से केले ले लिए थे। “ज़्यादा केले मत खाना।” क़मर ने पुकार कर कहा, “खाने का वक़्त है बस अभी लाई, यूं।” उसने चुटकी बजाई। फिर उसने जल्दी से मेज़ पर पराठे, सब्ज़ी और दही का सादा सा खाना लाकर रख दिया और दिल में सोचा कि आज ये गैस, प्रेशर कूकुर और फ्रिज एक हाउस वाइफ़ के लिए कितनी बड़ी नेअमत हैं। उसने तौलिया से हाथ पोंछे और ख़ुद भी पास बैठ गई।
“फिर वही लौकी!” बड़ी बच्ची मिनमिनाई।
“चुपचाप ख़ालो, देख नहीं रही हो, मम्मी कितनी थकी हुई लग रही हैं।” क़मर ने हैरत से देखा। छोटी को छः साल पूरे होने में अभी दो तीन महीने बाक़ी ही थे। इतनी समझ और माँ के लिए ऐसी हमदर्दी? क़मर का जी भर आया। वैसे बड़ी सिर्फ़ ग्यारह महीने बड़ी थी। दोनों आगे पीछे इतनी जल्दी हो गई थीं कि जुड़वां जैसी लगती थीं। पराठे का निवाला लेकर बड़ी लड़की ने अपनी नुक्ताचीनी की तलाफ़ी की, “कोई बात नहीं मम्मी, दही भी तो है, हम दही शक्कर के साथ भी खालेंगे।” क़मर ने शक्करदान उसके सामने सरका दिया जो वहीं मेज़ पर रखा था। फिर दोनों की प्लेट में खाना निकाल कर उठ गई।
“मम्मी तुम?”
“मैं पहले किचन साफ़ करलूं फिर नहाकर इत्मीनान से खाऊँगी।” सफ़ाई के कोई घंटा भर बाद वो ग़ुस्लख़ाने में दाख़िल हुई। नहाकर सारी की जगह शलवार क़मीस पहनी। उसने अपनी प्लेट में खाना निकाला तो नींद से आँखें झुकी जा रही थी। गर्मियों की सह पहर थी। एक घंटा हल्की झपकी, फिर उठकर बच्चियों का होमवर्क कराना, शाम की चाय के लिए कुछ तैयार करना, छः बजे अनीस आजाएगा उसके हवाले बच्चियों को करके वो बाज़ार जाएगी। रात के खाने में कुछ अच्छा पकना चाहिए। दाल, चावल, एक सब्ज़ी गोश्त या मुर्ग़ का सालन, रोटियाँ। कभी कभी गोश्त पकाने की जगह वो कबाब ले आती थी। अनीस शाज़-ओ-नादिर ही ख़रीदारी के लिए निकलता लेकिन खाने में कमी हो तो टोक ज़रूर देता था। एक वक़्त ही तो चैन से पूरा खाना खाने को मिलता है। वरना ऑफ़िस में तो वही सूखी रोटी, सूखी सब्ज़ी “कभी तुम भी कुछ ले आया करो” क़मर ने एक-आध बार ताना दिया तो उसने टका सा जवाब टिका दिया, “ये तुम्हारा डिपार्टमेंट है।” बस कभी कभी बीवी और दोनों बच्चीयों को स्कूटर पर बैठाकर हज़रत गंज ले जाकर आइसक्रीम खिला लाता था या कुछ फल ख़रीद लेता।
“आँ...” बड़ी लड़की क़मर की प्लेट में झाँकने लगी थी।
“हमको लौकी खिलाकर तुम क्या खा रही हो?” उसने मुतजस्सिस नज़रों से माँ की तरफ़ देखकर पूछा।
“मन-ओ-सल्वा खाओगी।” क़मर ने हंसकर कहा। “बेक़ूफ़ फ्रिज में परसों से दाल पड़ी थी। मैंने सोचा ख़ाके ख़त्म करूँ। तुम्हारे पापा तो फ्रिज में रखी दाल खाते नहीं। और तुम्हें हरी सब्ज़ी खानी चाहिए इसलिए लौकी बनादी।” लड़की इतना तवील लेक्चर सुनने से पहले साँप सीढ़ी के लूडो पर झुक गई थी। दाल उसे यूं भी सख़्त नापसंद थी। उससे अच्छी तो लौकी की सब्ज़ी थी।
मैं बिल्कुल अम्मां जैसी होती जा रही हूँ। क़मर ने हौल कर सोचा। कहीं लड़कियों के साथ उतनी ही सख़्तगीर भी न होजाऊं। 'इधर आओ।’ उसने दोनों को पुकारा। वो फ़ौरन पास आगईं। क़मर ने प्लेट हाथ से रख दी। उन्हें गोद में बैठा लिया, प्यार से सिर पर हाथ फेरा और दिल ही दिल में बोली, मेरे और तुम्हारे बीच इतना जनरेशन गैप नहीं होगा जितना मेरे और अम्मां के बीच था । भले ही उनकी तरह बासी खाना सुवारत लगाती फिरूँ।
“लूडो फिर खेल लेना, कुछ देर चलो चल कर सोते हैं। फिर होमवर्क और तब खेल।” उसने प्यार से दोनों को गोद से हटा दिया। छोटी इस साल अपर केजी ख़त्म करके स्टैन्डर्ड वन में आने वाली थी और बड़ी आचुकी थी। दोनों को होमवर्क मिलता था। अनीस तो सफ़ा हाथ झाड़ लेता, “तुम ट्रेंड टीचर हो। स्कूल में पढ़ाती हो, मैं नौ बजे से छः बजे तक ऑफ़िस करता हूँ। मेरे दिमाग़ में यूं भी ताक़त नहीं रह जाती।” अनीस इस बात पर बहुत ज़ोर देता रहता था कि वो नौ से छः तक ऑफ़िस करता है जब कि क़मर दो-ढाई बजे घर आजाती है और फिर उसे छुट्टियां भी बहुत मिलती हैं। जब देखो तब किसी न किसी वजह से स्कूल बंद।
“अरे तुम्हारा क्या है, ऐश हैं तुम्हारे तो, ऐश। दो महीने पूरे हमें न मिल जाएं गर्मी की छुट्टियां। अरे दस बीस रोज़ की भी मिल जाएं।” गर्मी की छुट्टियों भर वो तोते की तरह दोहराता रहता था।
बज़ाहिर ये सच भी था कि अनीस ने ये सोचने की ज़हमत शायद कभी नहीं की थी कि एक-बार घर वापस आ जाने के बाद उसे कुछ नहीं करना था। कभी-कभार तो उसे भी छुट्टी मिलती थी। फिर इतवार तो था ही, इसमें वो सोता था या दोस्तों के साथ काफ़ी हाउस जा बैठता। घर पर मज़े से टीवी देखता। चाय के अनगिनत कप पीता जो ज़ाहिर है क़मर ही बनाती थी। कभी कभी तो महसूस होता कि वो क़मर को तंग करने के लिए इतनी चाय पी रहा है। क़मर ने एक बहुत महंगी कंपनी का हैल्थ ड्रिंक ख़रीदा था। वो रात में बच्चयों को देती थी और उसी वक़्त एक कप बनाकर अनीस को भी। ख़ुद उसने कभी नहीं लिया। घर में दो तनख़्वाहें आरही थीं लेकिन फिर ख़र्च भी तो वैसे ही थे। सबसे बढ़कर तो बच्चियों का अंग्रेज़ी स्कूल। अगर वो भी मुलाज़मत न कर रही होती तो बच्चियाँ इस महंगे स्कूल में कभी नहीं जा सकती थीं। अनीस चाहता था कि उनके यहाँ एक बच्चा और हो। शायद इस बार लड़का हो जाए। मैं अपने बेटे के साथ फूटबाल खेलूंगा और क्रिकेट। वो बड़े अरमान से कहता था और उसे अपनी माँ और क़मर की माँ, दोनों बूढ़ियों की हिमायत हासिल थी। लेकिन क़मर अभी तक अड़ी हुई थी।
“तुम सबने मिलकर गारंटी ली है क्या कि इस बार बेटा ही होगा।” एक बार उसने अपनी फ़ित्री कठहुज्जती के साथ चिढ़कर कहा था, “अम्मां को एक बेटी के ब्याह में दाँतों तले पसीना आगया। मेरे पास दो हैं। तीसरी भी बेटी हो गई तो कहाँ ठिकाने लगाऊँगी।” लेकिन ये कहते हुए क़मर को शिद्दत से महसूस हुआ था कि अम्मां तो अम्मां इसमें पगली जमादारिन की रूह का भी कुछ हिस्सा हलूल करचुका है।
उस दिन क़मर का हाई स्कूल का रिज़ल्ट आया था इसलिए वो सुबह उसे अच्छी तरह याद थी। फ़र्स्ट डिवीजन का नशा अच्छी तरह याद था। इंटरमीडिएट के लिए बाहर न जा सकने, ब्वॉयज़ स्कूल में नाम लिखवाकर साइंस न पढ़ सकने की शदीद मायूसी अच्छी तरह याद थी और याद थी पगली जमादारिन जो आँगन में झाड़ू लगाते लगाते यकायक रुक कर झाड़ू के लाँबे डंडे पर ठुड्डी टिकाकर खड़ी हो गई थी और इंतहाई तास्सुफ़ के साथ एक हाथ की उंगली नाक पर रखकर बोली थी, “हाय रे दय्या, फिन बिटिया!” (या मालिक, फिर बेटी हो गई)
हाथ में अख़बार लहराते अब्बा और बुर्क़ा फड़काती अमीरन ख़ाला साथ साथ घर में दाख़िल हुए थे। अमीरन ख़ाला तो सलाम तक करना भूल गईं, “सुबह सुबह बिटिया हुई है शुकलाइन के यहाँ।” उन्होंने फूलती साँसों के दरमियान बताया। उनके साथ ही अब्बा ने तक़रीबन नारा लगाया, “लो बिटिया आगया फ़र्स्ट क्लास, कितना डरी हुई थीं तुम।” क़मर दौड़ कर अब्बा से लिपट गई। उन्होंने हौले से सिर पर हाथ रखा और अलग को हट गए। बच्चों को लिपटा चिमटाकर प्यार करना उस वक़्त के बड़ों का शेवा न था। सच पूछा जाये तो बराह-ए-रास्त प्यार का किसी भी तरह का इज़हार नहीं था। चलो जाओ नफ़िल नमाज़ अदा करो क़मर। अम्मां ने इतना ही कहा और अमीरन ख़ाला की तरफ़ मुतवज्जा हो गईं। शुकलाइन से उनकी बड़ी पटती थी, “ए हे तीसरी भी बेटी ही हो गई, कहाँ निमटाएंगे। उन लोगों के यहाँ तो तिलक में भारी भारी रकमें भी ख़र्च होती हैं।”
“हई है।” अमीरन ख़ाला ने बुर्क़ा उतार कर तख़्त पर रखते हुए कहा, “शुक्ला जी की अम्मां कहती थीं इस बार भी बेटी हुई तो उन्हें कुछ सोचना पड़ेगा। दरअसल ये तीसरी नहीं चौथी बेटी है। पहली दो-चार दिन की होके सौरी में ही ख़त्म हो गई थी।”
“अम्मां, हमारा फ़र्स्ट डिवीज़न आया है।” क़मर ने ज़च हो कर ज़ोर से पुकार कर कहा।
“जाहिल औरतें, वो पहले शुक्ला जी की बीवी का मातम तो करलें।” बड़बड़ाते हुए अब्बा बाहर चले गए।
अमीरन ख़ाला रिश्ते में अम्मां की बहन लगती थीं। उम्र में छोटी थीं इसलिए साली होने के नाते अब्बा के मुँह लग कर बोल लिया करती थीं। वैसे भी वो हड़बड़ हड़बड़ बोलने के लिए मशहूर थीं। तुनक के बोलीं, “हाँ भाई साहब कह लीजिए हम तो वाक़ई जाहिल ठहरे लेकिन क़मर से पहले हमारी आपा ने दो बेटे न जने होते तो हम आपसे पूछ लेते कि आप कितने आलिम फ़ाज़िल हैं और बेटे भी कैसे लायक़ कि अलीगढ़ में पढ़ रहे हैं।” फिर आवाज़ क़दरे नीची करके बोलीं, “एक ही लड़की है इसलिए कानों में तेल डाले बैठे हैं। अरे ज़्यादा छानिए मत। कहीं ख़ुदा-न-ख़ासता कर कराना खाएं।” अब्बा उनकी ज़द से बाहर निकल गए थे लेकिन अम्मां तो सब सुन रही थीं। बात बदलने को उन्होंने बटुए से दो रुपये निकाल कर पगली को मिठाई खाने के लिए दिए।
“चलो बिटिया के पास हुए की मिठाई तो खाए को मिली। सोचा था अब की शुकलाइन से चांदी की झाँझड़ लेंगे।” फिर अम्मां का दिया हुआ डली चूना हाथ के प्याले में लेती हुई बोली, “ठीक क़हत हैं बड़ी शुकलाइन, शुक्ला जी का चाहिए कि दूसरा ब्याह करलें। इतनी जमीन जायदाद गाँव में है। सब दामाद आके खाए जइहें। एक ठो बेटवा जरूरी है।” वो अपनी गिलट की झाँझरें बजाती चल दी।
“इस का नाम यूंही पगली थोड़ी पड़ गया। पागल तो हुई है, ख़ब्ती कहीं की।” क़मर ने ग़ुस्से से कहा।
“घर के पुराने लगे हुए नौकरों से इस तरह बात नहीं करते।” अम्मां ने झिड़का, “ख़्वाह वो जमादारिन ही क्यों न हो। अच्छा है जो सुना नहीं।”
“सुन लेती तो क्या करती?”
“कुछ नहीं करती, उसे तकलीफ़ होती तो तुम्हें गुनाह होता। पलट के जवाब देती तो तुम्हारी बेइज़्ज़ती होती।”
“अम्मां, तुम्हारे नज़दीक हम पगली से भी गए गुज़रे हैं।” क़मर ने पैर पटख़े, “मेहतरानी तुम्हें ज़्यादा अज़ीज़ है।”
“क्या हो गया है आजकल के बच्चों को।” अम्मां ने तास्सुफ़ से सोचा, “ये लड़की कहाँ खपेगी, इस क़दर बदज़बान।”
क़मर की “खपते खपते” उम्र शरीफ़ अट्ठाईस बरस हो रही थी और अम्मां को बुरे बुरे ख़्वाब आने लगे थे। बड़ी ख़ुश-फ़हमी थी अम्मां को, पढ़ाई ख़त्म होते ही शादी कर देंगी। लड़का अब हाज़िर हुआ कि तब, लड़का फ़ौरी तौर पर हाज़िर नहीं हुआ तो नौकरी तो होजाती। लड़कों में से एक ने अंग्रेज़ी में एम.ए किया था। चूँकि गोल्ड मेडल हासिल किया था इसलिए वहीं अपने ही डिपार्टमेंट में जगह मिल गई। दूसरे ने एम.कॉम किया था वो एल आई सी में नौकरी पा गया। इंटरव्यू के लिए बम्बई बुलाया गया था, आराम से चला गया, नासिक में पोस्टिंग हो गई, आराम से रह पड़ा। क़मर ने बॉक्स ऑफ़िस की मार्फ़त जहाँ दरख़्वास्त भेजी थी वो एक दूर उफ़्तादा शहर था। स्कूल में बोर्डिंग नहीं था। सेलेक्शन होजाने के बावजूद क़मर नहीं जा सकी। प्रिंसिपल ने कहा भी कि वो एक शरीफ़ घराने को जानते हैं वहाँ बतौर पेइंग गेस्ट रखवा देंगे लेकिन अब्बा, अम्मां दोनों ने सख़्ती से इनकार कर दिया। लड़की पढ़ रही है ये लोग समझते हैं लेकिन नौकरी करने के लिए अकेली लड़की न जाने कहाँ, किसके यहाँ रहती फिर रही है ये कोई समझने को तैयार नहीं होगा।
एकबार सरकारी मुलाज़मत मिली। इसमें तो और भी कोरदेह देहात में भेज दिया गया। क़मर ने ख़ुद इनकार कर दिया। वहाँ जाकर स्कूल देखने के बाद उसका दिल बैठने लगा था, “अब्बा हम ऑफ़िस की नौकरियों के लिए दरख़्वास्त दें?” एक दिन क़मर ने पूछा, “आख़िर हम ग्रेजुएट तो हैं ही।” अब्बा ने सिर्फ़ घूर कर देखा, कोई जवाब नहीं दिया। वो ख़शमगीं नज़रें बज़ात-ए-ख़ुद जवाब थीं।
मुल्ला की दौड़ मस्जिद। क़मर को आख़िर उसके अपने छोटे से शहर ने ही पनाह दी। वहाँ के एक प्राइवेट स्कूल में वो डेढ़ सौ रुपये माहवार पर प्राइमरी दर्जात की टीचर मुक़र्रर हुई। अम्मां उसके हाथ पर पच्चीस रुपये रखकर बाक़ी बड़ी पाबंदी से जमा कर दिया करती थीं और ख़ुश थीं कि लड़की घर पर ही है। कहीं बाहर नौकरी के नाम से उनकी जान निकला करती थी। लेकिन क़मर ने हार नहीं मानी थी। आस-पास मुनासिब जगह मिल गई तो किसी को एतराज़ न होगा। वो लखनऊ, इलाहाबाद, बनारस से कोई जगह निकली देखती जो उस की तालीम के मुताबिक़ होती तो पट से दरख़्वास्त भेज देती। तब अम्मां की वावेला का उस पर कोई असर न होता। एक दिन उसने बड़े मज़बूत लहजे में कहा था, “अम्मां भूल जाओ कि कोई आसमान से उतरने वाला है। इसलिए नौकरी तो ऐसी करने दो जो किसी माक़ूल स्कूल में माक़ूल तनख़्वाह के साथ हो। मैं यहाँ बुर्क़ा पहन के ज़ंग खाती रहूं? डेढ़ सौ पाकर तीन सौ पर दस्तख़त करूँ?”
एक दिन क़मर ने ऐलान किया, “कल हम लखनऊ जा रहे हैं। हमारा इंटरव्यू लेटर आया है। अर्शी ख़ाला के यहाँ ठहर जाएंगे स्कूल बहुत अच्छा है। शायद क़िस्मत साथ दे जाये।” अम्मां अब तक क़िस्मत पर शाकिर होने लगी थीं। ज़्यादा वावेला नहीं मचाई। लखनऊ पर तो अब्बा भी कुछ नहीं बोलते थे। वहाँ कई रिश्तेदार मौजूद थे।
तब ही वो अनहोनी हुई।
हस्ब-ए-दस्तूर कम्पार्टमेंट में घुसते ही क़मर ने बुर्क़ा उतार कर झोले में डालने के लिए उस की ज़िप खोली ही थी कि उसकी नज़र उस पर पड़ी। वो लाँबे क़द का, साँवला लेकिन जाज़िब-ए-नज़र नौजवान था जो उसकी तरफ़ देख रहा था। चेहरे पर संजीदगी के बावजूद उस की आँखों में क़मर की बुर्क़ा बैग में डालने की हरकत से निहायत महज़ूज़ होने वाली कैफ़ियत थी। क़मर सिटपिटा गई। वो नौजवान भी दूसरी तरफ़ को देखने लगा। कुछ देर बाद झिजकते हुए दो-चार जुमलों का तबादला हुआ। एक छोटे स्टेशन पर उसने चाय ख़रीदी तो एक कूज़ा क़मर को भी पेश कर दिया। लखनऊ के किसी बैंक में एकाऊंटेंट था। प्रतापगढ़ उसकी बीवी का मैका था। वो गोया अपनी ससुराल आया हुआ था।
“तो अहलिया वहीं रुक गईं?” क़मर ने चाय क़बूल करली थी और भर्ती का सवाल कर रही थी।
“उनकी दूसरी बरसी थी।” उसका चेहरा तारीक हो गया। (किसी कुँवारी के नसीब से ब्याही मरती है। एक बार अमीरन ख़ाला ने कहा था तो कठ हुज्जत क़मर हंस पड़ी थी। अगर मरहूमा का शौहर किसी बेवा से शादी करे तो, उसने अमीरन ख़ाला को छेड़ा था। बेवा से शादी कौन करे है जी? कुँवारी को जुड़ता नहीं मुतल्लक़ा और बेवा को बर कहाँ से जुड़ेगा। फिर उन्होंने कई क़िस्से सुनाए जिनमें पच्चास पचपन यहाँ तक कि साठ बरस के रंडवे पच्चीस, ज़्यादा से ज़्यादा तीस की लड़कियां लेकर आए थे। सब के नाम पते उन्होंने गिनवा दिए। झूटा जानो तो तस्दीक़ करलो।)
“ओह, माफ़ कीजिएगा।” क़मर गड़बड़ा गई।
“मैं सुबह नाशता करके नहीं चला था। मरहूमा की वालिदा ने कुछ पैक कर दिया है। आप शेयर करेंगी?” उसने अख़बार बिछाया और डिब्बा खोलते हुए क़मर से पूछा। डिब्बे में अंडे और पराठे थे और कुछ मिठाई भी। क़मर ने शाइस्तगी से इनकार कर दिया। वो यूनीवर्सिटी में लड़कों के साथ पढ़ चुकी थी। बातचीत में कोई झिझक नहीं थी लेकिन अजनबी मर्दों से बेतकल्लुफ़ होना उसका शेवा नहीं था। उसका माहौल ही कुछ ऐसा रहा था। फिर ये कि इस वक़्त उसके फ़रिश्तों को भी ख़बर न थी कि नाशता शेयर करने से तो इनकार कर दिया था लेकिन वो मरहूमा की वालिदा के दामाद को मरहूमा के साथ शेयर करने वाली थी।
बाक़ी सफ़र लगभग ख़ामोशी में कट गया। लखनऊ क़रीब आ रहा था तो उसने बैंक का कार्ड दिया। अगर आप लखनऊ में नौकरी करेंगी तो अपना एकाऊंट मेरे बैंक में खुलवा लीजिएगा।
क़मर हंस पड़ी, “आपके मुँह में घी शक्कर। नौकरी मिल गई तो ज़रूर खुलवाऊँगी।”
“प्रतापगढ़ में आप किस स्कूल में हैं?” क़मर ने झिजकते हुए नाम बता दिया। फिर बोली, “आप तो वहाँ सबको जानते होंगे?”
“मेरे सुसर तहसीलदार हैं। ट्रांसफ़र हो कर हाल में वहाँ आए हैं इसलिए मैं मक़ामी लोगों को नहीं जानता।” क़मर यकलख़्त हंस पड़ी।
“आप हँसीं क्यों?” उसने मशकूक अंदाज़ में भवें चढ़ाईं।
“हमारी एक अमीरन ख़ाला हैं। अम्मां उन्हें शहर खुबरू कहती हैं। वो बता रही थीं कि कोई मुसलमान तहसीलदार शहर में वारिद हुए हैं। उन्हीं को कह रही होंगी। दरअसल मुस्लिम अफ़सर कम ही आते हैं ना।”
“शहर खुबरू” पर वो भी ख़फ़ीफ़ सा मुस्कुराया,”ऐसी ख़वातीन तक़रीबन हर घर में होती हैं।” लखनऊ स्टेशन पर उतरते वक़्त वो ख़ासी बेतकल्लुफ़ी से गुफ़्तगू कर रहे थे।
कमरको नौकरी ये भी नहीं मिली लेकिन वो नौजवान बार-बार ज़ेहन में आता रहा। चार साल क़ब्ल शादी हुई थी। दो साल में बीवी चट-पट ख़त्म हो गई। रिक्शे से स्कूल जाते वक़्त कई बार नादानिस्ता तौर पर वो सोच बैठती कि शायद वो इंसान जिसने अपना नाम अनीस अहमद बताया था जो लखनऊ के एक बैंक में एकाऊंटेंट था और जिसकी बाईस साला बीवी शादी के दो बरस बाद ही गुज़र गई थी, शायद फिर दिखाई पड़ जाये। लेकिन दिखाई पड़ने से भी फ़ायदा क्या था। क्या वो नक़ाब उलट कर किसी मुस्लिम सोशल फ़िल्म की हीरोइन की तरह उसकी आँखों में आँखें डाल कर देख सकती थी।
भाईयों की शादी को अम्मां ने बहुत दिन टाला था लेकिन दोनों परदेस में थे। आख़िर उनकी शादियां करनी ही पड़ीं। अब बहन को लेकर कितने दिन बैठे रहते। फिर ऊंच नीच तो लड़कों के साथ भी हो सकती है ना। कमर की क़िस्मत पर तो जैसे ताला लग गया था। एक दिन अचानक एक ख़ातून वो ताला खोलने वारिद हुईं। दो दिन पहले क़मर का उठाईसवां साल मुकम्मल हुआ था। अम्मां ने इसकी दराज़ि-ए-उम्र की दुआएं मांगने के बाद आँसू भरी आँखों से इतना और कहा था, या मौला मुश्किल कुशा कितनी बार दुहराऊं?
ख़ातून क़दरे पुख़्ता उम्र, नक सिक से दुरुस्त ग़रारा पहने, बड़ी शाइस्ता और मुहज़्ज़ब थीं। उनके जाने के बाद अम्मां तो मारे ख़ुशी के पागल बनी जा रही थीं।
“लड़का दुहाजू है लेकिन कम उम्र है, बिल्कुल कँवारा लगता है। ए हे दुखिया की शादी को दो बरस ही तो गुज़रे थे। बाल बच्चा भी नहीं है, होता भी तो क्या था। कुआर कोटला तो बचा रहे चुनने से।” कमर का माथा बड़ी ज़ोर से ठनका। तस्वीर देखी तो दाँतों तले उंगली दबा ली। इत्तफ़ाक़ात सिर्फ़ फिल्मों में नहीं होते, हक़ीक़ी ज़िंदगी में भी रूनुमा होते हैं।
“अम्मां, हम उनसे मिले थे। जब हम लखनऊ जा रहे थे तब।” कहते हुए क़मर का चेहरा सुर्ख़ हो गया।
“मेल-मुलाक़ात है?” अम्मां का सारा एकसाइटमेंट काफ़ूर हो गया, “हे हे।”
“तुम्हारा दिमाग़ चल गया है अम्मां।” क़मर ने सारा लिहाज़ भुला दिया, उसे इस क़दर ग़ुस्सा आया। ऐसा भी नहीं था कि पसंद की शादियां सुनने में नहीं आरही थीं लेकिन जहाँ ऐसी किसी बात का सवाल ही न हो वहाँ बिलावजह की हे हे। शादी से पहले मातम। वो पैर पटख़ती चल दी लेकिन फिर कुछ ख़्याल करके पलटी। ख़रदिमाग़ वालिदैन का क्या ठिकाना। क्या पता अम्मां महज़ यही सोच के इनकार कर दें कि साहबज़ादी गुल खिलाती रही हैं। भला कहीं लड़की ख़ुद बर चुनती है।
“हम क़सम खाते हैं, हमारा इस रिश्ते में कोई दख़ल नहीं है। लेकिन एक बात ज़रूर कहेंगे कि रिश्ता बहुत अच्छा है। इनकार मत कर देना।” उसने बग़ैर आँखें मिलाए हुए कहा और कमरे में घुस गई।
जब क़मर ने कहा हम क़सम खाते हैं तो उसके लहजे में बड़ी काट थी। वो अम्मां पर ज़ाए नहीं हुई। उन्हें लड़की पर बड़ा तरस आया। शायद उसे ग़लत कटघरे में खड़ा कर दिया गया था। उन्होंने क़मर के पास जाकर उसके सिर पर हाथ रखा, “बेटा, हमें तुम पर भरोसा है। लेकिन हम जो भी कहते हैं उसके पीछे, तुम्हारी सबकी इज़्ज़त का ख़्याल दामनगीर रहता है। लड़की की इज़्ज़त से ज़्यादा नाज़ुक कोई शीशा नहीं।” क़मर ने आँखें पटपटाकर आँसू पिए।
हज्ल-ए-उरूसी में क़मर ने दूल्हा से पूछा, “आपने हमें ढ़ूंडा कैसे?”
“बहुत आसानी से।” दूल्हा ने मुस्कुराकर जवाब दिया, “आपके शहर में हमारी पहले ससुराल वाले तो थे ही। बड़ी आपा को वहाँ बहाने से भेज दिया। आपने स्कूल का नाम बताया था जहाँ आप पढ़ाती थीं। आपा वहाँ भी हो आईं। सारी मालूमात चुपके चुपके इकट्ठा कर लीं।”
“हमने आपकी तस्वीर देखी तो हक्का बक्का रह गए। प्रतापगढ़ की सड़कों पर अनजाने पर आपको ढ़ूंडा था। आपने हम पर बड़ा गहरा इम्प्रैशन डाला था। हमने अम्मां से कह दिया कि इस रिश्ते से इनकार न करें।” दूल्हा बहुत ख़ुश हुआ लेकिन कहीं किसी छट्टी हिस ने ख़बरदार भी किया। औरत को पहले दिन ही इतना बेतकल्लुफ़ नहीं होना चाहिए। अट्ठाईस, तीस की हो रही हैं, नौकरी कर रही हैं। खाई खेली न हों।”
“आपने पहले किसी को मेरा मतलब है, किसी मर्द को इस नज़र से देखा था?”
“आप यक़ीन करना चाहें तो करलें कि नहीं।”
“इतनी उम्र यूँही गुज़ार दी है?”
“यक़ीन करना चाहें तो करलें कि हाँ।”
“यूनीवर्सिटी कॉलेज, स्कूल?”
“जिन्हें मैं पसंद कर सकती थी उन्होंने मेरी तरफ़ नहीं देखा, जिन्होंने देखा वो मेरे मेयार के नहीं थे।”
“बाप रे।” अनीस ने सोचा, तो कुछ मुआमलात थे।
“क्या मतलब?”
“मतलब ये कि कुछ लोगों को आपने पसंद किया था।”
“जो चीज़ें मेरी पहुँच या बिसात से बाहर हों, उन्हें मैं दायरा-ए-ख़्याल में नहीं लाती। मुझे मालूम है मैं हीरे नहीं ख़रीद सकती। बल्कि मैं तो भारी सोना भी नहीं ख़रीद सकती। इसलिए मैं उसके बारे में सोचती भी नहीं। इस मौज़ू को यहीं छोड़ दीजिए। हमारी नई शादी हुई है हम बहस में क्यों पड़ें।” उसने बड़ी मीठी मुस्कुराहट के साथ शौहर को देखा।
“बोलती बहुत है।” अनीस ने सोचा लेकिन काफ़ी कुरेदने के बावजूद दुल्हन टस से मस नहीं हुई। ज़िद्दी भी मालूम होती है। उसने एक और राय क़ायम की और मौज़ू बदल दिया।
“बच्चों के बारे में आपका क्या ख़्याल है?”
क़मर गड़बड़ा गई। शादी तो हो नहीं रही थी बच्चों के बारे में कौन सोचता। थोड़ा तवक़्क़ुफ़ के बाद बोली... शादी से पहले... शायद कोई सोचता है क्या? उसे कोई माक़ूल जवाब नहीं सूझा था।
“अब तो शादी हो गई।” वो मुस्कुराया (कमबख़्त की मुस्कुराहट बड़ी संजीदा मुस्कुराहट थी इसलिए बहुत प्यारी)
“मेडिकल साइंस कहता है कि औरत का पहला बच्चा तीस साल से पहले होजाना बेहतर होता है।”
“मर्दों के लिए कोई उम्र नहीं...” शायद वो हंसी, “शादी की ही तरह, साठ बरस में भी करलेते हैं।”
“बाप रे, बड़ी बेतकल्लुफ़ हैं। बुज़ुर्ग इसीलिए औरतों को ज़्यादा पढ़ाने के हक़ में नहीं थे।” अनीस ने सोचा फिर बोला, “और कितने?”
“दो से ज़्यादा नहीं, बाई द वे, हमें लड़का-लड़की का कोईhang up नहीं।” कह कर क़मर ने इस मौज़ू को बंद कर दिया। इस तरह की बातों के लिए वक़्त पड़ा था। ये उसकी सुहाग रात थी। उसने मेहंदी रची हथेलियाँ दूल्हा के सामने फैलाईं, “हमारी अम्मां बेहद रिवायती ख़ातून हैं। कहती हैं सुहाग की मेहंदी बिल्कुल सादा होनी चाहिए कोई डिज़ाइन, फूल पत्ती कुछ नहीं।”
“आपने ज़िद नहीं की फूल बनवाने की।” वो हंसा और दुल्हन का हाथ थाम लिया।
“अम्मां के सामने हमारी ज़िद नहीं चलती, शायद ही कभी...”
“मेरे सामने भी नहीं चलेगी।” उसने बात काटी। वही संजीदा मुस्कुराहट, वही गहरी आँखें।
“देखेंगे।” वो भी हंसी।
“आपको एक दिलचस्प क़िस्सा सुनाएं।”
“ज़रूर, आज आपका जितना जी चाहे बोलिए हम सुनेंगे। बाद की बाद में देखी जाएगी।” उस के लहजे में शरारत थी, “अम्मां की शादी के वक़्त उनके मायके में नौजवान रिश्तेदार औरतों ने एक रस्म की। उन्होंने अम्मां की मुट्ठी में एक अँगूठी बंद कराई और अब्बा से कहा मुट्ठी खोल कर अँगूठी निकालें। अम्मां धान पान सी थीं और सिर्फ़ सत्रह बरस उम्र। अब्बा को डर रहा होगा कि कहीं कलाई में मोच न आजाए। इसके लिए ज़्यादा ज़ोर-आज़माई न की होगी। नहीं खुलवा सके तो औरतों ने शोर मचाया कि दूल्हा कमज़ोर है दुल्हन हावी रहेगी। अब्बा ने बड़ी संजीदगी से कहा, खेल मज़ाक़ की बात और है जहाँ तक मुट्ठी खुलवाने का सवाल है तो कहिए अभी खुलवा दें। खुलवाइए, शोर बुलंद हुआ। अब्बा ने निहायत संजीदगी से कहा। फ़ातिमा बीबी मैं आपको आपके शौहर की हैसियत से हुक्म देता हूँ कि आप अपनी मुट्ठी खोल दें। गठरी बनी अम्मां ने पट से मुट्ठी खोल दी जिसमें अँगूठी चमचमा रही थी। महफ़िल पर सन्नाटा तारी हो गया (लेकिन शायद कहीं तफ़रीह भी सन्नाटे में गुम हो गई होगी) ये क़मर ने दिल में सोचा।
लम्हा भर को तो अनीस भी ख़ामोश रह गया। वो शायद इस 'पंच लाइन’ के लिए तैयार नहीं था। क़दरे तवक़्क़ुफ़ के बाद बोला, “हुक्म देने की मजाल तो नहीं, हाँ दरख़्वास्त है क़मर उ न्निसा बेगम कि हमारी दुल्हन की हैसियत से आप हमारे और क़रीब आजाएं।” इस बार उस की मुस्कुराहट बहुत गहरी थी और उसकी संजीदगी की जगह शरारत ने ले ली थी। क़मर शर्म से सुर्ख़ हो गई (और दूल्हा ने सोचा चलो इतना तो है कि लाज शर्म बिल्कुल ही बेच नहीं खाई है।)
अनीस की दरख़्वास्त अब कुछ हद तक हुक्म में बदलती जा रही थी और क़मर की वही मुर्गे की एक टांग कि तुमने गारंटी ली है कि हमारे यहाँ बेटा होगा।
“हमारे पड़ोस में वो थे न दिलशाद चचा। उनके यहाँ सातवीं भी बेटी ही हुई। लड़कियां तो लड़कियां माँ-बाप के चेहरे पर हमेशा यतीमी बरसती रही। ऊपर से चचा मरे तो दो बेटियां अभी बिन ब्याही रह गई थीं।
“हम सात के लिए तो नहीं कह रहे? तुम्हारे दिलशाद चचा से हमें क्या लेना देना।”
“तीसरी के लिए भी क्यों कह रहे हो? पालोगे? पालना तो हमें ही पड़ेगा?”
“अगर तीसरा बच्चा भी लड़की ही हुई तो हम उसे भैया को दे देंगे। भैया-भाबी तो लपक लेंगे घर के बच्चे को (अनीस के बड़े भाई लावल्द थे।)
“माफ़ करना, सुना है डाक्टरी मुआइने से नुक़्स भैया में ज़ाहिर हुआ था।”
अनीस भड़क गया, “यहाँ उसका क्या ज़िक्र है कि नुक़्स किस में था। बात तो टालो मत और उठा के फेंको वो अपनी गोलियों की शीशी। बेटा हुआ तो हमारा, लड़की हुई तो भैया-भाबी की।”
“हरगिज़ नहीं, मेरे जिस्म पर सिर्फ़ मेरा हक़ है। मेरी औलाद मेरी रहेगी। अगर मैंने तीसरा बच्चा पैदा किया भी तो लड़का हो या लड़की, उसे मैं ही रखूँगी तुम्हारी किसी बात से मैंने इनकार नहीं किया। हमेशा मुसालहत का रास्ता अपनाया। मुलाज़मत के अलावा सख़्त मेहनत करके टयुशन भी कर रही हूँ कि बच्चियाँ अच्छे स्कूल में पढ़ें। घर का मेयार ऊंचा रखने में मेरी मेहनत भी शामिल है। अब कहीं कुछ तो हो जो सिर्फ़ मेरा हो।” उसकी आवाज़ भर्रा गई थी। अनीस आख़िरी जुमले पूरे होने से पहले उठकर जा चुका था।
क़मरने गोलियों की शीशी नहीं फेंकी लेकिन कहीं कुछ था जो छन से उसके और अनीस के दरमियान टूट गया था। क़मर के तईं उसके अंदर एक सर्द-मुहरी घर कर गई थी जो बड़ी तकलीफ़देह थी। सब ठीक हो जाएगा, वक़्त के साथ सब ठीक होजाएगा, सोचते सोचते वक़्त यूंही गुज़रता रहा और कभी कुछ ठीक नहीं हुआ। अनीस ज़रा ज़रा सी बात पर झुंझलाता, ताने देता। उसके जिन कामों से हमेशा मुतमइन रहता था, उनमें भी ऐब निकालता। दाँत पर दाँत भींच कर क़मर बर्दाश्त करती रही। अम्मां क़मर को ततय्या मिर्च कहा करती थीं। लेकिन उसकी सारी तेज़ी अनीस की सर्द-मुहरी के सामने हवा हो गई थी। और अब तीसरे बच्चे के बारे में सोचने का वक़्त भी गुज़र चुका था।
घर में आज कल रोला मचा हुआ था। रिज़वाना ने प्लस टू का इम्तहान दे दिया था। बाप की ज़िद पर उसने साइंस ले लिया था। लेकिन अब परी मेडिकल इम्तहानों में बैठने से सफ़ा इनकार कर रही थी।
“हमें डाक्टर नहीं बनना।” बस मुर्गे की एक टांग।
“तो क्या बनना है? आजकल सिंपल ग्रेजुएट की कहीं खपत नहीं।”
“खपत तो इसकी भी है पापा। आजकल बहुत एवेन्यूज़ हो गए हैं लेकिन हाँ, हमारा एक टार्गेट है। हम इकनॉमिक्स और इंग्लिश लेकर ग्रेजुएशन करेंगे और उसके बाद ला पढ़ेंगे।”
लड़की वकील बनेगी। लोग सकते में आगए। उसे बाज़ रखने की एक पूरी मुहिम चल पड़ी। गाँव से अनीस की वालिदा आगईं पोती को समझाने। बड़े भाई और भाबी तो लखनऊ में ही रहते थे। ज़रा दूर रहा करते थे इसलिए कम आते थे लेकिन इधर कई दिन से रोज़ आरहे थे।
“बेटा, हमारे कोई औलाद तो है नहीं। एक अच्छा ख़ासा प्लाट ज़मीन का है। हम तो सोचते थे तुम डाक्टर बनोगी तो तुम्हें वहाँ नर्सिंग होम बनवा देंगे।”
“अब बड़े अब्बा आपके उस प्लाट को इस्तेमाल करने के लिए हम मर्ज़ी के ख़िलाफ़ डाक्टर बन जाएं? चलिए अच्छा उस पर हमारा दफ़्तर बनवा दीजेगा। रिज़वाना एडवोकेट का बोर्ड लग जाएगा।”
“रिज़वाना अहमद एडवोकेट से लड़के कानों पे हाथ लगाके भागेंगे।” बड़ी चची ने जल के कहा, वो अपनी इतनी क़ीमती ज़मीन देवर की औलादों को दिए जाने के ख़्याल से ही कबीदाख़ातिर होजाती थीं।
“अच्छा है न बड़ी अम्मां, लड़की से दूर ही रहेंगे।”
अब की दादी कूद पड़ी और निहायत नाराज़ हो कर, “क्या बुरी बातें मुँह से निकालती रहती है। अरे शादी ब्याह करना है कि नहीं। चलें वहाँ से। लड़की डाक्टर बन जाती है तो लड़के वाले दौड़ के हाथों हाथ ले जाते हैं।”
“हाँ, अब तो मुसलमानों में भी जहेज़ का इतना चलन हो गया है।” क़मर ने भी ठंडी सांस लेकर दबी ज़बान से कहा।
“और जहेज़ हो न हो, वकील लड़की के नाम पर तो लड़का वैसे भी न मिलेगा।” ये अनीस था। “लड़की की बात छोड़ो मियां।” बड़े भाई कह रहे थे, “हम जानते हैं कि हमारे एक दोस्त एडवोकेट हैं, अरे वही अली रज़ा, जानते होगे। उनकी लड़की की कहीं बात चलाई गई तो लड़के के वालिद ने कहा न भाई, वकील की बेटी न लाएंगे।”
“वही मुर्गे की एक टांग। सबकी तान शादी पर क्यों टूटती है।” रिज़वाना ने निहायत ख़फ़ा होके कहा, “नहीं करनी है हमें शादी।”
“मुर्गे की एक टांग तुम्हारी कि दूसरों की, आख़िर तुम क्यों अड़ गई हो वकालत पे।”
“हमें इसमें दिलचस्पी है और हम समझते हैं कि हमारे अंदर सलाहियत भी है। अच्छा ग्रेजुएशन तो करने दीजिए उस के बाद बहुत कुछ है। जर्नलिज़्म करलेंगे। यू.पी.ए.स.सी दे लेंगे। कहीं न आए तो बी.एड करके आपकी तरह झक मारेंगे। स्कूल में पढ़ाएंगे मास्टराइन बन के।” उसके लहजे में इस्तिहज़ा था। क़मर को कहीं बहुत तकलीफ़ पहुंची। ‘मास्टराइनें अगर तुम्हें न पढ़ाएं तो तुम आगे आगे इतना कूदोगी कैसे।’ उसने दिल ही दिल में कहा लेकिन ऊपर से पुरसुकून रही। ये मकालमे एक दिन की बात नहीं थे। कई दिन से चल रहे थे।
आख़िर लोगों को हार माननी पड़ी। रिज़वाना का यूनीवर्सिटी में आर्टस फैकल्टी में दाख़िला हो गया। और लोगों को मज़ीद हार यह माननी पड़ी कि इन तीन सालों में उसे ब्रेन वाश करने की सब कोशिशें बेकार रहीं। उसने बी.एड के बाद अलीगढ़ में ला कोर्स ज्वाइन कर लिया। क़मर की सास रहती तो बाराबंकी के गाँव में थीं लेकिन अक्सर आती रहतीं और जब आतीं रिज़वाना को लेकर क़मर को बातें सुनाकर जातीं। लड़की को बहुत आज़ादी दे रखी है और पढ़ाओ अंग्रेज़ी स्कूलों में। ये किरंटान, उन्होंने हमारी तहज़ीब का सत्यानास कर दिया है। माँ बाप बेफ़िक्र हैं लड़की दनदनाती घूम रही है। फिर उन्हें अचानक ख़्याल आता कि 'बाप’ कह कर वो अपने बेटे को भी बेटी को बिगाड़ने में मुलव्वस कर रही हैं इसलिए जल्दी से बोलीं, “अब बाप बेचारा करे भी तो क्या। वो तो दिन भर घर से बाहर रहता है। बच्चों की तर्बीयत तो माँ का काम है। उन्हें ग़लत रास्ते पर चलने से रोकना भी माँ का ही काम है। और ये छोटी फ़ित्नी। अरी तु क्या करने वाली है री इमराना।”
“मॉस कॉम (Mass com) दादी।” छोटी फ़ित्नी ने नेल फाइल से नाख़ुनों को घिस कर हस्ब मर्ज़ी शेप देते हुए निहायत इत्मीनान से जवाब दिया।
ये आजकल की लड़कियां कितने इत्मीनान से अपना कैरीयर तै कर रही हैं और कितना वाज़ेह मक़सद ज़ेहन में रहता है। हो सकता है सब का न भी होता हो लेकिन अच्छे स्कूलों से जो लड़कियां पढ़ कर निकल रही हैं उनमें से ज़्यादातर निहायत साफ़ सोच रखती हैं। और लड़के भी तो। हमारे तो अम्मां अब्बा बस स्कूलों में नाम लिखवाकर बेफ़िक्र होजाया करते थे। न कभी होमवर्क देखें न ये सोचें कि बच्चे करेंगे क्या। बस बे नथे बैल की तरह बी.ए, एम.ए करलो, फिर लड़के जूतीयां चटख़ाईं नौकरियों के लिए और लड़कियां शादी के इंतज़ार में घर में सूखें। हमने लाख चाहा था कि साइंस पढ़ लें लेकिन हमारे शहर में लड़कियों के स्कूल में था ही नहीं और हाई स्कूल के फ़ौरन बाद अम्मां क़तई बाहर भेजने को राज़ी नहीं थीं।
अरे यहाँ जो पढ़ रही हैं वो घास खोद रही हैं क्या। उनकी यही एक दलील थी। दरअसल वो इस फेरे में थीं कि इंटर के बाद क़मर की शादी हो जाएगी। शादी न होने पर मजबूरी में ग्रेजुएशन के लिए इलाहाबाद भेजा। दूर की जगह नौकरी के लिए नहीं जाने दिया। क़मर ने नज़रें उठाकर इमराना को देखा और सोचती रही कि मॉस कॉम का कोर्स तो लखनऊ में है ही नहीं। एल.एल.बी यहाँ होते हुए भी रिज़वाना अलीगढ़ चली गई तो उन साहबज़ादी को तो बाहर जाना ही है। दिल्ली जाएंगी और क्या। कहीं बम्बई न चल दें। उसका दिल जैसे हिचकोले खाने लगा। बम्बई तो भाई हमें बर्दाश्त न होगा।
रिज़वाना ने अलीगढ़ से ख़त लिखा था। क़मर की जान जल गई। कितनी बार कहा कि अंग्रेज़ी में ख़त मत लिखा करो। ठीक है तुम्हारी माँ पढ़ी लिखी है, अंग्रेज़ी दां है लेकिन अगर अब हम लोग भी आपस में अंग्रेज़ी इस्तेमाल करने लगें तो उर्दू का क्या होगा। ठीक कहती हैं अनीस की माँ कि अंग्रेज़ चले गए, हम लोगों को छोड़ गए। मारे ग़ुस्से के जी चाहा ख़त वापस लिफ़ाफ़े में डाल के उसे भेज दे लेकिन तजस्सुस और बेटी की मुहब्बत ग़ालिब आगई। सारी ज़िंदगी तो माफ़ करते करते ही गुज़र रही थी। उसने ख़त पढ़ना शुरू कर दिया। मुख़्तसर ही था। बस दो पैरा ग्राफ़। आख़िर तक पहुंचते पहुंचते क़मर के जिस्म में कुछ सन सन करने लगा। तरद्दुद, घबराहट, अंदेशे। क्या बेटीयों की पैदाइश पर थाली-कटोरा पीटने और बेटीयों की पैदाइश पर मुँह लटकाने वाले लोग हक़ बजानिब होते हैं? वो काग़ज़ हाथ में पकड़े, ख़ला में देखने लगी।
रिज़वाना ने लिखा था। बम्बई की एक लॉ फ़र्म में बड़ी अच्छी मुलाज़मत मिलने के पूरे इमकानात हो गए हैं। बस रसमियात पूरी करनी हैं। वो इंटरव्यू के लिए बम्बई जा रही है। बम्बई? अकेले? और अगर नौकरी मिल गई तो कहाँ रहेगी? कैसे रहेगी? अलीगढ़ में तो कॉलेज का अपना गर्लज़ होस्टल था दूसरे कहीं तहतुश-शुऊर में एक मौहूम सी उम्मीद थी कि वहाँ मुसलमान लड़के बहुत हैं शायद कहीं वकालत पढ़ने वाले को हमपेशा लड़की पसंद आजाए। लेकिन बम्बई?That big bad metro? उसे चक्कर सा आने लगा।
“किस का ख़त है?” अनीस ने क़रीब आकर पूछा, “फ़िक्रमंद क्यों लग रही हो?”
उसने ख़त शौहर की तरफ़ बढ़ा दिया।
“दिमाग़ ख़राब हो गया है लड़की का। अलीगढ़ जाने दिया तो और पर निकल आए।” अनीस सख़्त नाराज़ हुआ था। मर्दों को शायद एक ही जज़्बे का इज़हार करना बहुत अच्छी तरह आता है, ग़ुस्सा। न परेशानी न घबराहट न मुहब्बत। लेकिन क्या ये नाराज़गी मुहब्बत का ही मज़हर नहीं थी? मुहब्बत का और सरोकार का? लड़की के तहफ़्फ़ुज़ की फ़िक्र, उसकी इज़्ज़त आबरू की फ़िक्र। उसका घर बसाने की फ़िक्र, पढ़ लिख लिया, इस लायक़ हो गईं कि ज़रूरत पड़े तो अपने साथ चार और लोगों की कफ़ालत करलें। अब भैया अपने घर-बार की होजाओ। फिर जो जी चाहे करो। क़मर दिल में बकती झकती रही।
अभी ईमेल और फेसबुक का ज़माना कुछ दूर था। मोबाइल ख़ाल-ख़ाल लोगों के पास थे। इसलिए रिज़वाना ने अपनी दोस्त मीरा को भी ख़त लिखा जो लखनऊ में ही थी, रिज़वाना की हम उम्र थी लेकिन दूसरे बच्चे की माँ बनने वाली थी।
“मैंने मम्मा से कह दिया है बम्बई जा रही हूँ इंटरव्यू के लिए। वहाँ मेरे एक क्लास फ़ेलो के चचा-चाची हैं। दो दिन उन्हीं के यहाँ ठहरुँगी। अगर मुलाज़मत मिल गई तो वही पेइंग गेस्ट के तौर पर रहने का इंतज़ाम भी करादेंगे। मुझे मालूम है पापा घूम घूम कर मुझे और मम्मा दोनों को बुरा-भला कह रहे होंगे। मम्मा दुआएं मांगेंगी शायद मन्नत भी मान लें कि नौकरी न मिली तो हज़रत शाह मीना की दरगाह पे जाके चादर चढ़ाके आयेंगी। पता है मीरा, मम्मा पक्की वहाबी थीं। वहाबी तू नहीं जानेगी, बस यूं समझ ले जो लोग पीर-फ़क़ीर, दुआ-तावीज़ वग़ैरा में यक़ीन नहीं रखते। लेकिन जब से मैं और इमराना घर से बाहर निकले हैं वो ये सब करने लगी हैं अपनी दानिस्त में पढ़ी लिखी, मेरी रोशन ख़्याल माँ। क़सम से मीरा मुझे उनमें और नानी में ख़ास फ़र्क़ नज़र नहीं आता।”
“अच्छा ये बता इतनी जल्दी दुबारा कैसे फंस गई। और अगर इस बार भी बिटिया हुई तो क्या करेगी? संजय का क्या ख़्याल है? उसकी अम्मां ने पिछली बार कितना वावेला मचाया था। इस बार कहीं संजय भी अम्मां के साथ मिलकर तुझे पीटेगा तो नहीं दुबारा बेटी पैदा करने पर?”
मीरा ने जवाब दिया, “रश्क आता है तेरे ऊपर, जा घूम छुट्टा सांड बन के। रहा अम्मां और नानी में फ़र्क़ तो मुझे बड़ी हंसी आई। मेरी अम्मां बनारस हिंदू यूनीवर्सिटी से इकनॉमिक्स में एम.ए हैं। पापा खाना खाते होते हैं तो गर्म फुलका प्लेट में डालती हैं फिर बीच से आधा खाया फुलका हटाकर कि ठंडा हो गया होगा, जल्दी से दूसरा लाके डालती हैं। बचा हुआ आधा उठा के अपनी प्लेट में रख लेती हैं फिर बैठ के वो दो-तीन आधे-आधे टुकड़े प्रसाद समझ के खा जाती हैं (प्रसाद समझ के, मैं कह रही हूँ) पीर-फ़क़ीर, तावीज़-गंडा करती घूमती हैं। तुम मुसलमान तो हिंदुओं के साधू संतों के पास जाते नहीं। अम्मां तो सीधी हज़रत शाह मीना के यहाँ पहुँचती हैं। दिल्ली गई थीं तो मेरी शादी संजय से हो जाए, इसके लिए हज़रत निज़ाम उद्दीन मन्नत मान के आई थीं। उनकी रेंज ज़्यादा वसीअ है।
हम कुछ नहीं मानते हैं फिर भी लगता है कि कहीं कुछ हुआ तो? हमने भी मंगल को हनुमान मंदिर जाना शुरू कर दिया है। इस बार बेटा हो जाएगी तो फ़ैमिली मुकम्मल हो जाएगी, झंझट से बचेंगे, वरना एक बार फिर... बच्चे पल जाएं तो हम भी कुछ करें। बड़ा ग़ुस्सा आता है। अम्मां ने मास्टर्ज़ की डिग्री ली लेकिन हमें बी.ए का इम्तहान देने से पहले ब्याह दिया कि बड़े घर का इंजीनियर लड़का मिल रहा था। हम ऐसे गए गुज़रे थे। फिर न मिलता क्या। मगर चल ठीक ही है जो हो रहा है। दो-चार साल बाद ज़रूर हम कुछ करेंगे। जा तेरा कल्यान हो। तुझे नौकरी मिल जाये। बोल तो जाके हम हनुमान जी से तेरे लिए भी प्रार्थना कर आएं। मगर बड़ी मुश्किल हो जाएगी अगर क़मर चाची ने हज़रत शाह मीना के यहाँ जाके धागा बांध दिया। हिंदुस्तान-पाकिस्तान वालीTussle हो जाएगी, हाहाहा। और हाँ, बग़ैर ठोके बजाए शादी के लिए हाँ मत कीजिओ। ऐसी क़िस्मत कम होती है कि संजय जैसा मेमना मिल जाये। (वैसे माँ जी आई हुई होती हैं तो वो भी ख़ासा शेर बना रहता है)
क़मर ने बेटी को लिखा, “बेटा, हर चीज़ का वक़्त होताहै, तालीम हो गई, नौकरी कहीं नहीं जाएगी। तुम तो प्रैक्टिस भी कर सकती हो। लखनऊ में अच्छे अच्छे वकील पापा की जान पहचान में हैं। अब शादी होनी चाहिए, रिश्ते सामने हैं। एक ख़ुशगवार, अज़दवाजी ज़िंदगी से ज़्यादा सुकून बख़्श और कुछ नहीं। धन-दौलत से भी ज़्यादा दिल का सुकून अहम है। सारी तहक़ीक़ें सारे सर्वे उसी मग़रिब से आते हैं जिसकी तालीम से तुम मुतास्सिर हो। तो तुमने पढ़ा ही होगा कि कई सर्वे हुए हैं और नतीजा यही सामने आया है कि कँवारे, तलाकशुदा और रंडवे शादीशुदा लोगों की बनिस्बत कम उम्र पाते हैं। कभी सोचा कि क्यों? इसलिए कि जोड़ा बनाकर रहने में जो तमानियत-ए-क़ल्ब मिलती है वो उम्र तक बढ़ा देती है। छोटे छोटे झगड़े, ऊंच नीच, सब के बावजूद। तो बेटा घर आ जाओ। हमने सोचा था हमारी शादी देर से हुई हम बेटी की शादी वक़्त से करेंगे। तुम हमसे ज़्यादाPrivileged Position पर हो। देर तुम ख़ुद करा रही हो। एक तो तुम्हारी ये वकालत...”
रिज़वाना ने यहाँ तक पढ़ कर ख़त उठाकर किताब तले दबा दिया। कितना बोलती हो मम्मी। कितना दिमाग़ चाटती हो। इंटरव्यू हो चुका था और निहायत तशफ़्फ़ी बख़्श। उसने अंगड़ाई ली और मीरा को फिर ख़त लिखने बैठ गई।
“मम्मा अधकचरी मालूमात लेकर मेरा दिमाग़ ख़राब करती रहती हैं। उनसे कोई पूछे उनकी अज़दवाजी ज़िंदगी कितनी ख़ुशगवार गुज़री? वो ख़ुशगवार किसे कहती हैं? मुझे दिल के लायक़ लड़का मिला तो क्या शादी नहीं करूँगी? बम्बई जाने और मर्दों के बीच मर्दों वाली नौकरी करने को वो वूमन्ज़ लिब क़रार दे रही हैं। मैं क्या बम्बई के साहिल पर नंगी हो कर दौड़ लगाने वाली हूँ। मेरा इरादा अपनी ब्रा जलाने का भी क़तई नहीं है। ब्रा से सपोर्ट पाकर फिगर और ख़ूबसूरत होजाता और सेक्सी लगता है, मम्मा से कहूं? हार्ट-अटैक होजाएगा। हाहाहा। और मम्मा को एक बात से और हार्ट-अटैक हो जाएगा। मैं समीर के साथ पिक्चर देखने गई थी।
समीर नाम मुसलमानों में भी होता है लेकिन वो तेरा जात भाई है, हिंदू तो है ही, ब्रह्मन भी है। मज़ीद हा हाहा। लेकिन तू भी ऐसी वैसी बात न सोचना। मेरा इरादा तेरी भाबी बनने का कतई नहीं है। मम्मा की समझ में किसी लड़के और लड़की की ऐसी दोस्ती हरगिज़ नहीं आएगी जिसमें वो... अरे वही... मर्द औरत वाला मुआमला न हो। समीर और मैं अच्छे दोस्त हैं। वैसे वो भी कह रहा था कि माँ को फ़ोन करके कह दूं कि रिज़वाना के साथ एक बेहूदा सी अंग्रेज़ी फ़िल्म देखकर आया हूँ तो वावेला मचाके रख देंगी। लौंडियों के साथ घूमना होता है वह भी मियां मुसलमान। वो वेजिटेरियन हैं, कर्मकांडी सनातन धर्मी। बसंत की ख़बर नहीं। बेटा एक बार अशोका में जाके बीफ खा के आया था। एक नंबर हरामी। और हाँ, उन्होंने इलाहाबाद से हिन्दी में ऑनर्ज़ किया है। महादेवी वर्मा की फ़ैन हैं। अरे यार ये महादेवी वर्मा कौन हैं? ज़रा मैं भी पढ़के देखूं। कभी मुलाक़ात हुई तो कॉमन टॉपिक तो होगा बात करने को। अरे जाहिल की बच्ची। बच्चे की जिन्स तो हमल ठहरते ही तै होजाती है। अब ये तू हनुमान जी से क्या प्रार्थना करती घूम रही है। वो क्या करेंगे? लँगोट धारी, ब्रह्मचारी, उन्हें क्या, तू बेटी जन कि बेटा।”
मीरा ने जवाब में लिखा, “समीर वही न जो अभी यूपी एससी की तैयारी कर रहा है। तू उस का नाम पहले भी ले चुकी है। होने वाली सास के बारे में ख़ासी मालूमात इकट्ठा कर रखी है। अच्छी बहू बनेगी। ज़्यादा दिक़्क़त नहीं होगी। बेटी लाना आसान होता है, बेटी देना मुश्किल। सभी जात, बिरादरियों में यही फंडा है। क़मर चाची और अनीस चाचा को ज़्यादा दिक़्क़त हो जाएगी ये सोच के रहना। समीर की अम्मां तेरे मुँह में पंचामृत डाल के शुद्धि कराएंगी। ज़रा ध्यान रखना गोबर और गोमूत्र भी पंचामृत में आते हैं और महादेवी वर्मा को तू क्या समझेगी, उन्हें तो मैं भी न समझ पाई, हाँ अपनी हमनाम मीरा को जानती हूँ... जो ऐसा जानती प्रीत किए दुख होए, नगर ढंडोरा फेरती मत प्रीत करियो कोए।”
“तेरी तो ऐसी की तैसी।” रिज़वाना ने हंसकर ख़त तह करके चाय के कप से दबाकर मेज़ पर रख दिया। वो इंटरव्यू में कामयाब रही थी। फ़र्म ने जवाब दिया था कि थर्ड आवर मुकम्मल होने के बाद वो वहाँ आकर ज्वाइन कर सकती है। वो बेहद ख़ुश, कामयाबी के नशे में सरशार अलीगढ़ वापस आई थी और तनदही से पढ़ाई में जुट गई थी। मीरा बाई तुम्हारे वक़्त में लड़कियां वकालत नहीं पढ़ा करती थीं वरन ज़हर भेजने वाले राना जी का गला दबा देतीं। तुम्हें इश्क़-ए-हक़ीक़ी परेशान करता न इश्क़-ए-मजाज़ी। मज़े से हमारी तरह दनदनाती फिरतीं कि हम सिर्फ़ अपने आपसे इश्क़ करते हैं। अरे ज़रा रुको तो। हाँ थोड़ा मम्मा से, ज़रा सा पापा से, थोड़ा सा उस इमराना की बच्ची से और एक पाव बचा के रखा है उसमें नानी दादी और मीरा का हिस्सा है और उस बेहूदा समीर का भी मगर अभी हमें ऐसा इश्क़ किसी से नहीं है कि हम कहें प्रीत किए दुख होए। उसने ख़ुशी से किलकारी मार कर बिस्तर पर एक लोट लगाई और क़ानून की मोटी सी किताब थप् से बंद की जो वो देर से पढ़ रही थी।
उस दिन क़मर सारे दिन इतना परेशान रही थी कि शाम को उसे सिर दर्द की गोली खानी पड़ी। अनीस ऑफ़िस से अभी नहीं आया था। उसने चाय के बर्तन ट्रे में लगाए, नाशते का इंतज़ाम किया और ऊन सलाइयां उठाकर आराम कुर्सी पर नीम दराज़ हो गई। अनीस का स्वेटर निस्फ़ मुकम्मल हो चुका था। जाड़ों की आमद आमद थी। फ़िज़ा में बड़ी प्यारी सी ख़ुनकी थी और गुलाबी जाड़ों की ख़ुशबू।
जाड़ों का अगर रंग हो सकता है तो यक़ीनन उनकी ख़ुशबू भी हो सकती है। वो ज़ेहनी परागंदगी के बावजूद मुस्कुरा पड़ी। हाँ ख़ुशबू होती तो है। हरे धनिए की, ताज़ा हरी सब्ज़ियों की जो गर्मियों में उनका होजाती हैं, रात भर पक कर सुबह सुबह तैयार होने वाली निहारी की, भूबल में भुनती शकर क़ंदियों की। और रंग-ओ-बू ही नहीं, जाड़ों की तो आवाज़ भी होती है। कड़क कड़क करके दाँतों तले टूटती गज़क और रेवड़ियों की, मूंग फलियों और चिलग़ोज़ों की, गहराती शाम में दूर बजते किसी दर्द भरे नग़मे की, ठंडी यख़ रातों में सरसर करके आती हवा की और बुज़ुर्गों की शफ़क़त भरी डाँट की कि सर ढको, सर से ठंड ज़्यादा असर करती है और उस पर बच्चों और नौजवानों की ही ही ठी ठी की कि कहाँ की ठंड कौन सी ठंड।
उसका दिल यकलख़्त एक बेवजह उदासी से भर उठा। जाड़ों का रंग गुलाबी था लेकिन आस-पास आवाज़ें नहीं थीं। आवाज़ें तो इंसानों से होती हैं। वो क़ुलक़ुल-ए-मीना जैसी हंसी कहाँ थी, दादी की कहानियां कहाँ थीं, उनकी हमाक़त भरी बातों और कभी कभी की बेजा डाँट के बावजूद उनके सायादार वजूद का एहसास कहाँ था? बच्चे कहाँ थे और जवान कहाँ ग़ायब हो गए थे?
अनीस के कभी कभार आ निकलने वाले वालिदैन अब ज़्यादा बूढ़े हो कर गाँव में ही महदूद हो कर रह गए थे। अब्बा का इंतिक़ाल हो चुका था। अम्मां को तो बेटी के यहाँ का पानी पीना भी गवारा नहीं था। एक दोबार दो-चार रोज़ के लिए आई थीं कि अज़ीज़ अज़ जान बेटी को घर शौहर और बच्चों के साथ ख़ुश देख लें, देख लिया। बस अब मिलना है तो क़मर जाके मिल आए वो तो बेटों तक के घर जाके रहने को तैयार नहीं थीं। बस ज़च्चगी जापे निमटा देतीं, हफ़्ता दस दिन यूं भी जाके रह आतीं कि बेटों के यहाँ बार-बार जाने या हफ़्ता दस दिन रह आने में कोई क़बाहत नहीं थी। किससे कहे और क्या कहे। रिज़वाना ने बेहद समझाने और बाप के नाराज़ होने के बावजूद बम्बई जाकर मुलाज़मत करने का फ़ैसला कर लिया था। वैसे अनीस के ज़्यादा नाराज़ होने पर उसने ये वादा ज़रूर किया था कि वो कोशिश करेगी कि बम्बई छोड़कर दिल्ली या फिर (बादल नख़्वास्ता) लखनऊ आजाए लेकिन फ़िलहाल तो ज्वाइन करना ही है।
किसी दोस्त की मार्फ़त एक कुंबे में पेइंग गेस्ट बन कर रहने का इंतज़ाम भी कर लिया था। ये एक पारसी कुंबा था। अधेड़ से कुछ आगे बढ़ती उम्र के वालिदैन और उनकी पाँच औलादें जिनमें दो जवान लड़के थे। क़मर ने जिस दोस्त की मार्फ़त का ज़िक्र किया था वो ख़ुद भी लड़का ही था। समीर अल्लाह जाने हिंदू था कि मुसलमान। अब ये नाम ऐसा दोरुख़ा है कि कुछ पता नहीं चल रहा, काश कोई अच्छा मुसलमान लड़का हो। लड़के की मार्फ़त इस मदद की बात तो की लेकिन उसका नाम क़मर अनीस से छुपा ले गई थी, कह दिया रिज़वाना का ख़त कहीं गुम हो गया है। ये रिज़वाना इतनी ज़िद्दी क्यों है? ज़िद्दी और बदतमीज़। क्या मेरी परवरिश में कहीं कोई ग़लती हुई है? सोचते और कुर्सी आगे पीछे झुलाते हुए क़मर ने आँखें बंद करलीं।
अम्मां मेरे लिए भी यही कहती थीं कि मैं ज़िद्दी और बदतमीज़ हूँ। शायद ख़ुद से यही सवाल भी करती होंगी कि क्या उनकी परवरिश में कहीं कोई ग़लती हुई थी। मैंने बी.एड करने की ज़िद की थी। बी.ए के बाद घर बैठे रहने से इनकार किया था। बाल कटवा दिए थे। एक मोटे लड़के से जो अम्मां-अब्बा के हिसाब से बाक़ी और पहलुओं से 'सही’ मैच था शादी से इनकार किया था, शलवार की मोहरियां तंग की थीं और क़मीस का घेर कम करके आस्तीन उड़ा दी थीं और टेडी तो नहीं लेकिन लगभग टेडी लिबास पहना था।
क़मर यकलख़्त हंस पड़ी। एक बार वो छुट्टियों में घर आई तो उसने झाड़ पोंछ कर सिलाई मशीन निकाली। तेल डाल कर उसे दिन भर को छोड़ दिया। अम्मां ख़ुश हुईं कि बेटी कुछ सिलाई पुराई करने जा रही है। काफ़ी दिन से कह रही थीं कि भाईयों के लिए पाजामे सी दे लेकिन दूसरे दिन क़मर क़ैंची और अपने कई जोड़े लेकर बैठी तो बड़ी टेढ़ी टेढ़ी नज़रों से अम्मां ने उसे देखा।
“उई बीवी क्या करने जा रही हो? मैं तो समझी नया कुछ सीना है।”
“अम्मां हमारे कपड़े बड़े झोला जैसे हैं, शलवार के पाइंचे इतने चौड़े नहीं पहने जा रहे हैं। हमें बड़ी ख़िफ़्फ़त होती है क़मीसें भी इतनी लाँबी चौड़ी नहीं रह गईं।”
“तो?”
“तो क्या अम्मां, काट के शलवार की मोहरियां ज़रा कम कर देंगे और क़मीसों को भी छाँट देंगे और अम्मां अब हम दो जोड़े कपड़े इलाहाबाद में दर्ज़ी से सिलवाएंगे। तुम हमारे कपड़े सीती हो या हम ख़ुद सीते हैं तो साफ़ पता चलता है कि घर के सिले हुए हैं, फिटिंग का नाम नहीं।”
“जो जी चाहे करो, बस आपे में रहना। लिबास में नंगापन न आए वरना हमसे बुरा कोई न होगा।”
क़मर ने ग़ुस्से में क़ैंची पटख़ी, “हर चीज़ में उल्टा ही सोचती हो। अब नंगापन कहाँ से आगया।”
“हाँ देखा न नंगापन। सुना बग़ैर आस्तीनों की क़मीसें पहनी जा रही हैं और साड़ी के ब्लाउज़ भी।”
क़मर ग़ुस्सा भूल कर सन्नाटे में आगई। एक क़मीस की आस्तीन उसने भी उड़ादी थीं। अच्छी तरह छुपाकर रखना होगा। यहाँ पहनने का तो सवाल नहीं लेकिन भनक न लगे कि इलाहाबाद में पहन रही है। कॉनवोकेशन के मौक़े पर एक सहेली से मांग कर लिपिस्टिक लगा ली थी और अम्मां के सामने उसका ज़िक्र कर दिया था कि सहेलियों ने कहा क़मर लिपिस्टिक लगाके बहुत अच्छी लग रही है तो अम्मां होल गईं कि कुँवारी लड़की और लड़कों के बीच में होंटों में लाली लगाके घूमी।
हम न जाने कितनी बातों से नज़रें चुराते रहे। लड़कियों ने जीन्ज़ पहनना शुरू की । अंग्रेज़ी स्कूलों में वैसे भी यूनीफार्म स्कर्ट ब्लाउज़ ही थी, प्लस टू तक अठारह बरस की लड़कियां स्कर्ट बलाउज़ पहन कर जाती रहीं। लड़कियां लड़कों से घुल मिलकर बात करती थीं लेकिन हमने हाय हाय नहीं मचाई। अब तो लड़के लड़की का फ़र्क़ ही मिट गया है। एक हम थे। बग़ल में लड़का आके बैठ गया तो जल्दी से सिमट गए। मालूम हो कि ख़ा ही तो जाएगा। अब लौंडों से अबे तबे करके बातें हो रही हैं। हम समझते थे अम्मां कम पढ़ी लिखी हैं, हम पढ़ लिख गए हैं। उन्हें छोटी छोटी बातों से प्रोब्लम होजाता है मगर हमारे लिए जो छोटी छोटी बातें थीं वो अम्मां के लिए बड़ी थीं और जो बातें आज हमें बड़ी लग रही हैं वो हमारी बेटीयों के लिए छोटी हैं।
रिज़वाना कहती है दिल्ली और लखनऊ में फ़ासिला है ही कितना और मम्मी हम दो लड़कियों के साथ फ़्लैट ले के रह रहे हैं। ज़रा पैसे आजाएं फिर मोबाइल ले लेंगे जब चाहना बात कर लेना, इतना हौलती क्यों हो? हौलें क्यों नहीं। दिल्ली, फिर वहीBig bad metro۔ रिज़वाना के फाईनल इम्तहान ख़त्म होने और बम्बई जाकर मुलाज़मत ज्वाइन करने के दरमियान कोई पंद्रह-बीस दिन का वक़फ़ा था। लड़की इस वक़फ़े में घर आरही थी एक आख़िरी कोशिश करली जाएगी। अरे भाई वकालत पढ़ ली अब कुछ दिन घर में रह लो। यहीं प्रैक्टिस कर लेना। किसी वकील से अटैच होजाना। अगरचे ये वकालत की प्रैक्टिस निहायत गड़बड़ मुआमला था फिर भी (बम्बई) जाकर अकेले रह कर किसी लॉ फ़र्म में नौकरी करने के मुक़ाबले में तो बहुत बेहतर था।
चाय की प्याली क़मर के हाथ में काँपने लगी। क्या रिज़वाना सुनेगी? क्या अपने कैरियर के मुक़ाबले में वालिदैन के जज़्बात और एक ऐसा मुस्तक़बिल जिसमें शादी अज़हद ज़रूरी हो उसे मंज़ूर होगा।
माँ की तवील गुफ़्तगू रिज़वाना ने ख़ामोशी और सब्र के साथ सुनी। इतने सब्र से कि क़मर को हैरत होने लगी कि ये वही रिज़वाना है। ज़रा की ज़रा ख़्याल आया कि इसकी तबीयत तो ख़राब नहीं? शायद सुस्त हो रही है। वो न किसी पर झुँझलाई न जवाब दिया। इत्मीनान से नाख़ुन घिस कर, हाथ फैलाकर, मख़रूती नाज़ुक उँगलियाँ तकती रही, जब क़मर ख़ामोश हो गई तो उसने नज़रें उठाकर माँ को देखा और बड़ी संजीदगी से कहा, “मम्मा, तुम्हारी ये इस रिकार्ड पर अटकी सूई जगह से कभी हटेगी या नहीं?” और ख़ामोशी से उठकर अपने कमरे में चली गई। कुछ देर बाद बाहर निकल कर उसने ऐलान किया, “हम जा रहे हैं मीरा से मिलने। दोपहर का खाना उसके साथ खाएंगे। मगर शाम के लिए कुछ इंतज़ाम करके मत रखना आज पूरा डिनर हम बनाएंगे। आज तुम आराम करलो, ख़ुदा हाफ़िज़।” उसने माँ के जवाब का इंतज़ार भी नहीं किया। पर्स झुलाती बाहर निकल गई।
मीरा इंतज़ार ही कर रही थी। दौड़कर लिपट गई। अचानक रिज़वाना बड़ी ज़ोर से चौंकी।
“अरी मीरा, तेरा तो सातवाँ या आठवाँ महीना ख़त्म होने पर होना चाहिए था, क्या हुआ? ये, ये...” उसने बड़ी परेशानी के साथ मीरा के पेट की तरफ़ इशारा किया।
“सब्र, रिज़वाना, ज़रा सब्र।” मीरा ने हाथ उठाकर कहा, “सब ख़ैरियत है। ज़रा दम ले-ले और बैठ।” रिज़वाना बैठ गई। उसका चेहरा मुतरद्दिद था।
“तीन महीने हुए कि मैंने एम टी पी करा दी, चौथा महीना था।”
“एम टी पी करा दी, क्या मतलब?” रिज़वाना ने मज़ीद परेशान हो कर पूछा।
“अल्ट्रासाऊंड कराया था, बेटी थी।”
“तेरा दिमाग़ ख़राब हो गया था क्या री मीरा?” रिज़वाना सकते की कैफ़ियत में थी।
“सास और संजय दोनों का दबाव था।”
“और तू दबाव में आगई? पढ़ लिख कर गधे पर लाद दिया।” रिज़वाना बेहद ख़फ़ा थी।
“तुझसे अच्छी तो मेरी मम्मा हैं। एक जनरेशन पहले उन्होंने दो बेटियां पैदा करके कह दिया कि ठीक है बेटियां सही लेकिन अब और नहीं। तू भी तो ये कर सकती थी, या ज़्यादा से ज़्यादा एक तीसरी बार ट्राई कर लेती।”
“शायद क़मर चाची पर इतना दबाव नहीं पड़ा था। तुम्हारे पापा का कोई बिज़नएस एम्पायर भी नहीं था जिसके लिए लड़के की चाह हद पार करती। और फिर हमारे यहाँ ये मुखाग्नि वाला चक्कर भी तो है। मुँह में आग नहीं दी तो मोक्ष नहीं मिलेगा।”
“और अगली बार भी कोख में बेटी आई तो?”
“देखती हूँ कितनी बार अबॉर्शन कराएंगे। एक बार के लिए और रज़ामंद होजाऊंगी और वो आख़िरी बार होगा। फिर भी बेटी हो तो हो।”
“एक बार और? मीरा तेरी तो इमेज ख़राब हो रही है। मैं तो तुझे बड़ा आईडियल मानती थी।” मीरा हंसी। इस “अहिरवा” के Fiasco के बाद भी?”
“वो बात और थी। तू ने ख़ुद ही समझ लिया था कि उस ‘अहिरवा’ के साथ तेरा कोई फ्यूचर नहीं है। फिर घरवालों को क्यों नाराज़ किया जाये। घूम फिर के तफ़रीह करके वापस आगई थी खूंट पर। सच मीरा, अगर तेरी मुहब्बत सच्ची होती तो तू उसे छोड़ने वाली नहीं थी।”
एक ज़माना था मीरा को चार घरा आगे वाले पड़ोसी का बेटा बहुत पसंद हुआ करता था। रही पड़ोसी के बेटे की बात तो वो तो यहाँ तक कह रहा था कि मीरा तैयार हो तो वो ख़ामोशी से निकाल ले जाएगा। फिर शादी करके आके बड़ों के पैर छूलेंगे। लेकिन मीरा को मालूम था लड़का यादव था। उनके घर में अम्मां के हिसाब से कोई भी बात गड़बड़ होती तो अम्मां फट से कहती थीं हैं न अहिर, भैंस चरानेवाले, तमीज़ कहाँ से आएगी। अफ़सर बन गए तो क्या। और दे गर्वनमेंट रिज़र्वेशन। नाअह्ल आन आन के कुर्सी पे बैठ रहे हैं, और तो और एक बार ट्रेन बहुत लेट हो गई तो अम्मां ने कहा कि ये कम ज़ात नीच ज़ात बड़े ओहदों पर चढ़े बैठे हैं, हर महकमे का भट्टा न बैठे तो क्या हो। कोई खटिक, कोई अहिर रेल हाँक रहा होगा। अब चला रहा है उसे भैंसा गाड़ी की तरह। मीरा नाराज़ होने के बावजूद हंसी के मारे लोट गई थी। तसव्वुर किया कि रेल के आगे भैंस जुती हुई है। अरे यहाँ तो मुल्क के आगे ही भैंस जुती हुई है। चल रहा है हचर मचर।
उन दिनों रिज़वाना बड़ी परेशान रहा करती थी। जाने मीरा पे क्या रिएक्शन हो। लेकिन मीरा बहुत जल्दी सँभल गई थी। कुछ घरवालों को भी समझ में आरहा था, इसलिए इतनी तनदिही से रिश्ता लाने में जुटे और यूं फट से शादी तै की कि ग्रेजुएशन तक पूरा नहीं होने दिया। मीरा को सोचने समझने का मौक़ा ही नहीं मिला, फिर भी ख़ुश रही। शौहर अच्छा मिला था। घर वाले भी ठीक थे। लेकिन अभी जो हाल में मीरा ने ख़त में लिखा था कि अपनी हमनाम मीरा को जानती हूँ जो कह गई थी जो ऐसा जानती... तो रिज़वाना को कहीं कुछ खटकता हुआ सा महसूस हुआ था।
“मीरा सच बताना क्या तू सीरियस थी?”
“पुरानी बात हो गई छोड़ उसे। वो बता, वो मेरा जात भाई, वो कहाँ तक पहुँचा?” मीरा ने बात पलट दी।
“माई फ़ुट मीरा, अब तू भी।” फिर वो यकलख़्त ख़ामोश हो गई।
उसे एक बार रंजना श्रीवास्तव ने बताया था कि उन लोगों के हलक़े में एक बड़ा स्मार्ट सा मुसलमान लड़का था, सलमान क़ुरैशी। वो कह रहा था, यार, मुझे रिज़वाना बहुत पसंद है लेकिन क्या करूँ।She is Sameer’s gal रिज़वाना बहुत ख़फ़ा हुई।
फिर दो एक बार वो समीर के घर जा निकली थी तो उसकी मम्मी मिलीं तो ख़ंदापेशानी से लेकिन बेटे से बोलीं, “ज़रा सँभल के चलना। लड़की मुसलमान है और घर तक चली आरही है हमें तो घबराहट हो रही है।”
“क्यों अम्मां, आई एस आई की एजेंट लग रही है, जो घबराहट हो रही है।”
“औंधी खोपड़ी तेरी, अरे बात आगे मत बढ़ा। रिश्ता तोड़ो तो दुख होवे, जोड़ो तो जग हँसाई।”
“उस रिश्ते से आगे कुछ सूझता है अम्मां? एक रिश्ता दोस्ती का भी तो होता है।”
“लड़के लड़की में कोई दोस्ती नहीं होती। सलाम दुआ से आगे हो रहा है तो फिर वही होता है जो भगवान ने गढ़ा है। स्त्री पुरुष का रिश्ता। हम कोई जाहिल झपट नहीं हैं, पढ़े-लिखे हैं।”
“पढ़-लिख के गधे पे लाद दिया।” समीर मुँह ही मुँह में भुनभुनाया और आके पूरे डायलॉग रिज़वाना को सुनाए। ख़ूब ही तो हंसा, फिर चिढ़ाने के लिए बोला, “तो रिजवाना डार्लिंग तो आगे क्यों न वही रिश्ता हो जाए जो भगवान ने गढ़ा है स्त्री पुरुष का रिश्ता। (समीर की माँ रिज़वाना को रिजवाना कहती थीं)
“चुप क्यों हो गई?” मीरा ने पूछा।
“कुछ नहीं, सोच रही थी कि समीर की माँ में और तुझमें क्या फ़र्क़ है। मर्दों और औरतों के दरमियान अफ़लातूनी दोस्ती का तसव्वुर अभी तक हिंदुस्तान में पैदा नहीं हो सका है।” उस के लहजे में नाराज़गी थी।
“पाकिस्तान और बंगला देश में भी नहीं।” मीरा मुस्कुराई, “मेरी एक बंगलादेशी फ्रेंड है।” रिज़वाना ने बात काट दी।
“एक ही घर में लोग रह रहे हों और दीवारें उठाकर आँगन बाँट दो तो लोग बदल जाएंगे क्या? सारा कुछ तो एक ही है। जब बात करो उसमें पाकिस्तान घुसा देगी, बंगला देश को ले आएगी। बजरंगी हो गई है क्या या दुर्गा वाहिनी में शामिल हो गई है।” रिज़वाना और ज़्यादा ख़फ़ा हुई।
बजरंगी पर मीरा ज़ोर से हंसी, “क्या अब हम पॉलिटिक्स डिस्कस करेंगे?”
“बिल्कुल नहीं करेंगे इसलिए कि हम इतने दिन बाद उसके लिए नहीं मिले हैं। लेकिन मीरा इस बार मैंने पाकेट मिनी से बचा बचा के दो खिलौने ख़रीदे थे, मेरा बैग देख। एक तेरी बिटिया के लिए और दूसरा होने वाले बच्चे के लिए। तेरा पेट देखकर तो मैं सन्नाटे में आगई। तू ने इसकी इत्तिला भी नहीं दी थी। सच बताना मीरा कोई guilt feeling नहीं हुई? सदमा नहीं हुआ?”
“रिज़वाना ज़ख़्म मत कुरेद। हमने कुछ सोच कर जैसे नीरज यादव को छोड़ा था, उसी तरह इस बच्चे को भी। और बच्चा कहना नहीं चाहिए, वो सिर्फ़ एक foetus था।” फिर क़दरे तवक़्क़ुफ़ के बाद बोली, “तुझसे तो बहुत पुराना रिश्ता है। तेरी न निहाल में ही तो मम्मी के चाचा थे जिनके यहाँ चौथी बेटी हुई तो दादी ने शुरू ही से धमकी देनी शुरू की थी कि अगली बार बेटी हुई तो वो चाचा की दूसरी शादी कराएंगी। लेकिन चलो मामा हो गए। विनय मामा, छटी औलाद फिर बेटी ही हुई। दादी का इसरार था कि कम अज़ कम दो बेटे ज़रूर हों। ख़ैर, चलो एक तो आगया था मुँह में आग लगाने वाला। इसलिए मम्मी की चाची बच गईं। अब मैं तो पाँच और छः की लाइन लगाने से रही।”
रिज़वाना हंसी। मम्मी जब मैके के क़िस्से सुनाती हैं तो उसमें दो बहुत दिलचस्प किरदार होते हैं एक पगली जमादारिन और एक अमीरन ख़ाला। कहाँ के लोग कहाँ मिल जाते हैं। तेरी मम्मी की चाची को मेरी मम्मा शुक्लाइन चाची कहा करती थीं। उनकी चौथी बिटिया पर पगली जमादारिन ने बड़े तास्सुफ़ का इज़हार किया था। मीरा भी हंसी, “चौथी बेटी पैदा करने वाली औरत है ही इस लायक़ कि मेहतरानी भी उस पर तरस खाए। 72ई. में अबॉर्शन को क़ानूनी इसलिए भी बनाया गया कि लोग लड़के की चाह में लड़कियों की लाइन लगाते चले जाते हैं।”
“और हम इक्कीसवीं सदी में दाख़िल होने वाले हैं।” रिज़वाना ने लुक़्मा दिया।
“मगर हम जी रहे हैं अठारहवीं सदी में। उसे न तुम बदल सकती हो न मैं।”
“मैं तो बदल लूँगी, तू शायद डरपोक है। तेरी बेटी बदलेगी।” रिज़वाना के लहजे में सरज़निश थी।
मीरा ज़ोर से हंसी, “तेरी बिरादरी तो और बैकवर्ड है। एक तू हीbond बनी फिर रही है। हाँ अभी तेरे यहाँ दुल्हनें जलाई नहीं जा रहीं और ज़ात को ले के भी इतना रौला नहीं मचता।”
“हाँ दुल्हनें जलाई नहीं जातीं, यकतरफ़ा तलाक़ देकर घर भेज दी जाती हैं। खड़े घाट तीन तलाक़ को ले के तुम जितनी नुक्ताचीनी करलो लेकिन ये फ़ायदा ज़रूर है कि जान बख़्श दी जाती है। अब अगर किसी लायक़ हो तो खा-कमालो। ज़्यादा ख़ुशक़िस्मत हो तो दूसरा भी शायद मिल जाये वरना अम्मां-अब्बा पर बोझ बनो, भाई-भावज की चाकरी करो, जूतीयां भी खाओ। रही ज़ात तो अशराफ़िया की चार ज़ातों सय्यद, शेख़, मुग़ल पठान पर इतना रौला नहीं मचता। सय्यद की बेटी जोलाहा घर लाके देखे तो सही।”
“फिर भी ज़ात को लेकर honour killing नहीं है, जलाकर मार देने से तो ये option बेहतर लगता है। औरत जाहिल हुई तो झाड़ू बर्तन करेगी। मरी नहीं तो किसी तरह जी लेगी। ज़िंदगी हर हाल में मौत से अच्छी लगती है।”
“लोग ख़ुदकुशी भी तो करते हैं?”
“कठ हुज्जत वकीलनी, ख़ूब अच्छी तरह जानती है कि वैसा extreme हालात में कभी कभी ही होता है और ये लोग नॉर्मल नहीं रह जाते जो अपनी जान ले लेते हैं। समीर ख़ुदकुशी की धमकी दे रहा है क्या?” उसने ख़फ़ा हो कर कहा। रिज़वाना क़हक़हा मार के हंसी, “मम्मा जानना चाह रही थीं कि वो मुसलमान है कि हिंदू। हम सफ़ा टाल गए इसलिए नहीं कि हिंदू कहने पर हमें कोई झिजक थी मगर मम्मा का सस्पेन्स क़ाइम रखने में बड़ा मज़ा आरहा है।”
“रही बदतमीज़ की बदतमीज़, बेचारी क़मर चाची।”
“अरे हम तो बहुत शरीफ़ हैं। बिल्कुल मम्मा बल्कि नानी की जनरेशन से ताल्लुक़ रखते हैं। असल तो वो इमराना बम फोड़ने वाली है। वो अनुराग का मुआमला ज़रा सीरियस होता जा रहा है।”
मीरा खाना लगवाने के लिए उठने लगी थी। उसने चलते चलते ज़रा ज़ोर से कहा, “हमें भी कुछ ऐसा ही लग रहा था। जब पिछली बार अम्मू से मिले थे तो उसके पास अनुराग के अलावा कोई टॉपिक ही नहीं था। अज़ीज़ के यहाँ से मटन दोप्याज़ा मंगवा लिया है और मटरपुलाव ख़ुद बनाया है, चलेगा?”
“दौड़ेगा, दौड़ेगा।”
मीरा खाने की बहुत शौक़ीन थी। उसके अपने घर में लोग वेजि टेरियन थे लेकिन ससुराल में मर्द गोश्त खाते थे। शादी से पहले मीरा चख चुकी थी लेकिन घर में किसी से बताया नहीं था। वो जब भी क़मर चाची के यहाँ आती और बिरयानी पकि होती तो गोश्त की बोटियाँ हटाकर चावल लेकर खाया करती थी। फिर एक दिन धीरे से उसने एक छोटा सा टुकड़ा मटन का भी लिया। भर पेट बिरयानी खाकर बोली, “चाची, पता नहीं ये वेजिटेरियनिज़्म कहाँ से आगया। अब देखो न इतनी मज़ेदार चीज़ से इतने लोग महरूम हैं। हमारी अम्मां तो परेशान रहती हैं कि हम आपके यहाँ हर वक़्त बैठे रहते हैं, ज़रूर गोश्त ख़ाके आएंगे। आर्य तो गोश्त खाया करते थे।”
“आर्य तो पता नहीं क्या-क्या खाते थे लेकिन तू तो चुप ही रह।” क़मर हंस पड़ी।
“हमारा मतलब ये चाची कि ये सारी food habits हैं इनका धरम से क्या लेना देना है। अगर है तो इंसानों ने ही जोड़ा है।”
“तुझे गोश्त खाना है तो खा, बकरे क्यों गिन रही है।”
रिज़वाना गर्मी की छुट्टी में घर आई हुई थी। मीरा की शादी तै हो चुकी थी। वो दोनों काफ़ी वक़्त साथ गुज़ार रही थीं। घूम घूम कर ख़रीदारी कर रही थीं।
“चाची, अम्मां के सामने बोल मत दीजिएगा कि हम यहाँ आके बिरयानी उड़ाते हैं।”
दरअसल दोस्ती लड़कियों में ही ज़्यादा थी। क़मर का नानिहाल और मीरा की माँ का दादी हाल एक ही शहर में था। शुक्लाइन को अम्मां जानती थीं। अब्बू और शुक्ला जी में जान पहचान थी लेकिन ख़वातीन में आना-जाना बहुत कम था। अब यहाँ लखनऊ में लड़कियों में इतनी दाँत काटी दोस्ती हो गई थी। मीरा की शादी बहुत जल्दी तै कर दी गई थी। वैसे क़मर का ख़्याल था कि अच्छा ही है। रिज़वाना की वजह से वो परेशान रह रही थी। उन्हें भी नाथ दिया जाता तो अच्छा था।
“एक तो तुम्हारी अम्मां से मुलाक़ात ही छट्टे छः माहे होती है। दूसरे ये कि किसी चोरी में दो लोग शरीक हों तो दोनों डरे रहते हैं कौन किसका राज़ खोलेगा।”
“आप चोर कहाँ से हो गईं?” मीरा क़हक़हा मार कर हंस पड़ी।
“क्यों... हमारे ऊपर तुम्हारा धरम भ्रष्ट करने का इल्ज़ाम नहीं लगेगा?”
“हमने आपकी पतीली से चुराकर बिरयानी खाई। आप तो मना करती ही थीं।” वो फिर हंसी।
मीरा का मिज़ाज ही ऐसा था। क़मर उसे क़ुलक़ुल-ए-मीना कहा करती थी। हँसती है तो लगता है चांदी की थाली पर चांदी के कंचे लुढ़क रहे हैं। सुबह सुबह गोमती के किनारे हनुमान मंदिर में पूजा आरती होती है और दूर से घंटों की आवाज़ आती है तो लगता है मीरा हंस रही है।
“क़मर चाची!”
“हाँ, बोलो बेटा।” क़मर के लहजे में इतनी मुहब्बत थी कि रिज़वाना जल भुन गई।
“मम्मा, कभी हमसे भी ऐसा मीठा बोल लिया करो।”
“तुम मीरा की तरह तमीज़दार बन जाओ।”
“क़मर चाची, अभी तो हम क़तई तमीज़ की बात नहीं कर रहे। हम आपको बता रहे हैं कि हमें लफ़्ज़ चोर निहायत फ़न्नी (Funny) लगता है, बिलावजह हंसी आती है। और अगर ये लफ़्ज़ आपके हवाले से इस्तेमाल करें तब तो हाहाहा...” वो इतनी ज़ोर से हंसी कि अनीस कमरे से बाहर आगया।
“क्या हो रहा है लड़कियो!”
मीरा जल्दी से दुबक गई।
“नमस्ते चाचा।” उसने चेहरा संजीदा बना लिया और उठकर अनीस के पैर छूए। वो वापस लौट गया। तीनों ख़वातीन ख़ुश गप्पियों में मसरूफ़ हैं। इमराना के इम्तहान नहीं हुए थे, वो कमरे में पढ़ रही थी। चलते चलते पलट कर बोला, “ज़रा धीरे से हँसो अम्मू पढ़ रही है।”
मीरा ने होंट काटे, फिर धीरे से बोली, “चाची, हम बड़े ख़ुशक़िस्मत हैं।”
“क्यों?” रिज़वाना ने तेवरियाँ चढ़ाईं, “बी.ए करते से उठाकर शादी कर दी जा रही है और ये ख़ुशक़िस्मत हैं।”
“बी.ए तो हम कर ही लेंगे। एम.ए भी करेंगे। इसके बाद भाड़ भी झोंकेंगे। फ़िलहाल ख़ुश-क़िस्मत इसलिए कि हमारी ससुराल में गोश्त खाया जाता है। मतलब मर्द खाते हैं। प्लेट में से झूटन हमें भी मिल जाया करेगी।” वो मसरूर लहजे में बोली।
“हे हे बच्ची, तू झूटन क्यों खाएगी। बुरी बातें मुँह से नहीं निकालते।” क़मर ने ख़ालिस अपनी अम्मां के अंदाज़ में कहा।
“मम्मा डोंट बी सिल्ली।” रिज़वाना ने कहा, “मम्मा सारा मज़ाक़ चौपट कर देती हैं।”
“मज़ाक़ नहीं, सिल्ली तो है। अरे औरतें गोश्त नहीं खातीं तो फिर हम चुपके से प्लेट से उठाकर ही ख़ा सकेंगे ना। हाँ, साथ में चौक जाके टुंडे के कबाब उड़ा आएं या किसी होटल में खालें वो अलग बात है।” क़मर ने कहा।
“बहुत से घरों में औरतें गोश्त नहीं खातीं, मर्द खाते हैं।”
“मगर औरतों को उनके लिए बनाना पड़ जाता है। हमारी एक दोस्त की चाची नाक पर कपड़ा रख के डोई के डंडे से गोश्त धोती थीं और बनाकर रसोई से हट जाती थीं। उनके हस्बेंड को रात के खाने में तो चाहिए ही चाहिए।”
“लेकिन मेरी एक काइस्थ दोस्त कह रही थीं कि उनके ख़ानदान में सुहागन औरतों को थोड़ा सा गोश्त ज़रूर खाना होता था, हफ़्ते में कोई दो दिन।”
“सुहागन को क्यों बेवा को क्यों नहीं और कुँवारी को?”
“कुँवारी को भी नहीं।” क़मर हंसी।
“मगर क्यों?” रिज़वाना झुँझलाई।
“मेरी मत मारी गई जो मैं तुम लड़कियों के सामने ये बात ले बैठी। बात में बात निकल गई तुम कठ हुज्जतों के सामने। ज़रूरी नहीं हर बात तुम जानो।”
“चल रिज़वाना, मेरे लिए चिकन की साड़ियां लेनी हैं, चौक चलते हैं।” मीरा ने बात ख़त्म करते हुए पर्स टटोला।
“हाँ पैसे रख लिये हैं।”
दोनों ख़ुश-ओ-ख़ुर्रम लड़कियां उठ खड़ी हुईं। मीरा के बाल बहुत घने और लाँबे थे। उठते हुए उसने घनी लाँबी चोटी पीछे फेंकी तो उसका दिलकश मसरूर चेहरा क़मर के दिल पर नक़्श हो गया। अल्लाह सबकी बेटियों को ख़ुश रखे। कैसी मासूम बच्ची है और अल्लाह मेरी बेटियों के लिए भी जल्द ही ऐसे लड़के मुहय्या कर दे कि हम ख़ुशी ख़ुशी उनका ब्याह कर दें।
मीरा के घर वाले ख़ासे पैसे वाले थे। पहली बेटी की शादी कर रहे थे इसलिए हैसियत से भी बढ़कर ख़र्च कर रहे थे। उन दिनों लड़कियों में एक फ़ैशन चल निकला था कि ज़ेवर नहीं पहनेंगी, नाक नहीं छिदवाएंगी। सिंदूर डालेंगी तो छुपाकर मांग के अंदर एक नन्ही सी बिंदी लेकिन मीरा आज के फ़ैशन में नहीं बही थी। उसे ये सब बहुत पसंद था। “शादी के बाद तो हम छमक छल्लो बन कर रहेंगे।” वो ज़ेवर ट्राई कर रही होती तो कानों के झुमक हिलाती हाथों में सोने के कंगन बजाती। थिरक थिरक के सब दिखाती और पूछती, “ये कैसा लग रहा है।” साड़ी के पल्लू को सर पर लेती। कभी कभी घूँघट भी निकाल लेती। वहीं दूकान में ही सारी नौटंकी होजाती। इमराना को जब मौक़ा मिलता था वो भी साथ लग लेती थी। मीरा का घूँघट और आगे खींच कर बहुत बूढ़ी आवाज़ बनाकर कहती, “ज़रा ठीक से पर्दा करो बहू, सामने सुसर बैठे हैं। अम्मां ने क्या सिखा के भेजा है।” सामने सुसर बैठे हैं कहते हुए एक-बार तो उसने कुहनी मार कर लल्लू लाल बिमल किशोर की मशहूर दूकान में गद्दी पर बैठे हुए थुलथुले सेठ जी की तरफ़ इशारा कर दिया था। मीरा हंसते हंसते वहीं लौट गई। साथ बैठी ख़रीदार औरतें पलट पलट कर उसे देखने लगीं।
लल्लू लाल बिमल किशोर वालों ने मीरा का शादी का लहंगा राजस्थान से गोटे का काम कराके मंगाया। मीरा ने डिज़ाइन ख़ुद तैयार करके उसका स्कैच उन लोगों को दिया था। जब जोड़ा बन के आया तो फ़ौरन ही पहन के बैठ गई। फिर भर हाथ चूड़ियां पहन के कुन्दन का टीका लगाके कमरे से निकली तो माँ ने एक दो हत्थड़ उसकी पीठ पर मारा और दूसरा अपने माथे पर।
“अरी बेशर्म पहले से पहले जोड़ा चढ़ा लिया। अप शगुन होता है।”
मीरा ने दोहत्थड़ की क़त्तई परवा न की, हालाँकि लगा ज़ोर से था, “अरे मम्मी हम ट्रायल ले रहे थे और देख रहे थे दूल्हन बन के कैसे चपनडुख़ लगेंगे। मम्मी ऐसा मर्दाना हाथ है तुम्हारा। अच्छा मारलो, मारलो। फिर हम नंदरानी मिश्रा की बहू बन जाएंगे तब मार के देखना। बड़ी दबंग सास हैं हमारी।”
“शुभ शुभ बोल। ये तुझसे किस ने कह दिया कि नंदरानी मिश्रा बड़ी दबंग हैं।”
“अरे हमें सब ख़बर है। पूरी रिसर्च करली है हमने। बड़ी बहू को तो जलाने की कोशिश भी कर चुकी हैं।”
“हे हे लड़की, भगवान से डर। सच है कलजुग आया है। पहले सासें बहुओं पर दोश लगाती थीं अब बहूएं।” लेकिन सच बात तो ये है कि इस वक़्त मीरा की मम्मी दिल ही दिल में डर गई थीं। कहाँ से ऐसा सुन लिया लड़की ने, ज़रा पता लगाएं। लेकिन सारी रीत रस्में पूरी करके सगाई तक हो चुकी थी। उन्होंने टोह लेनी शुरू की। सगाई ही तो हुई है। अगर ख़ानदान में ऐसी कोई अफ़वाह भी है तो मीरा के पापा से कहना होगा। मीरा दिल ही दिल में हंस हंसकर लोटें लगाती रही।
रखब दास के यहाँ कुन्दन का पूरा सेट आर्डर कर दिया गया। कुन्दन के ज़ेवर मीरा को बहुत पसंद थे। उसकी नानी ने उसके लिए कश्मीर से शाहतूष की शालें मंगवाईं। चांदी का डिनर सेट दिया गया। रिज़वाना के घर से शादी में सब लोग शरीक हुए।
“अरे दुल्हन बीबी, ज़रा शर्म करलो।” मीरा के ज़्यादा छमछम करने पर रिज़वाना ने मस्नूई ख़फ़गी से आँखें निकाल कर उसे कुहनी मारी थी।
“जल मत”,उसने घूँघट उठाकर कहा, “तेरी शादी जल्दी ही कराएंगे।” पास खड़ा दूल्हा भी हंस पड़ा। मीरा की कोई बहन नहीं थी, वो इकलौती लड़की थी। दूल्हा ने ख़ुशदिली से रिज़वाना और इमराना को सालियाँ तस्लीम कर लिया। मीरा की मम्मी ने जूता चुराई की रक़म में मीरा की चाचा, मामा की लड़कियों के साथ उन दोनों बहनों का बराबर का हिस्सा लगाया।
रुख़्सत होते वक़्त मीरा ने घूँघट ज़रा लम्बा खींच लिया था और क़दरे झुके शानों के साथ उस के अंदर मुँह छुपाके यूं खी खी खी करती हिल रही थी कि लोग समझे वो रो रही है। सिर्फ़ रिज़वाना को बक़ौल ख़ुद उसके “ये कमीनापन मालूम था।” बाद में उसने कहा था, “अरे कौन सी रुख़्सती, कहाँ की रुख़्सती। डाली गंज से उठ के डालीबाग चले आए। ससुराल वाले भी डर के रहेंगे। बहू को मायके भागने में पलभर भी न लगेगा। ये भी नहीं कि स्टेशन से पकड़ कर वापस ले आए। रोने की बात ही नहीं रह गई थी। और सुन रिज़वाना, जल मत जाइयो। हमारे ससुराल वालों ने याक़ूत का सेट चढ़ाया है।”
“जले हमारी जूती।” रिज़वाना चिढ़ गई, “देखा नहीं था क्या बरी पे।”
बच्ची बहुत जल्दी हो गई थी लेकिन इससे पहले मीरा ने बी.ए मुकम्मल कर लिया था। फिर कुछ दिन के लिए उसकी पढ़ाई में ब्रेक लग गया। गरचे ससुराल वालों का कहना था कि वो उसे पढ़ाई से रोक नहीं रहे हैं। वो ख़ुद ही घर गृहस्ती और बच्चे में लग गई है। सुसर का बहुत बड़ा प्रिंटिंग प्रेस था। उसमें भी हाथ बटाने लगी थी।
“अरी मीरा तो लखनऊ जैसे शहर में है। ज्वाइंट फ़ैमिली में रह रही है बच्ची को सास देख लेंगी। आगे की पढ़ाई करले।” रिज़वाना की देखा देखी या अज़खु़द मीरा को भी क़ानून पढ़ने का बड़ा शौक़ था।
“अरे तू लॉ करले ना। लखनऊ में तो है ही।”
“लॉ और मैं?” वो ज़ोर से हंसी थी। अभी मैं एक किताब पढ़ रही थीPlain Tales From British Raj उसमें लिखा था कि सोलहवीं सदी के वस्त में जब लड़कियां जहाज़ में भर भर कर शौहरों की तलाश में ब्रिटिश इंडिया आया करती थीं तो उन्हें सिर्फ़ दो बातें सिखाई जाती थीं। चार छः शाम को पहनने के अच्छे लिबास रख लेना कि दिलकश नज़र आओ और ज़्यादा अक़लमंद और तेज़ तर्रार बनने की कोशिश मत करना इसलिए कि मर्दों को ज़्यादा ज़हीन और ज़्यादा तालीम याफ़्ता बीवीयां क़त्तई पसंद नहीं हैं।” इस एटीट्यूड में कोई तब्दीली नहीं आई है। मेरे शौहर और ससुराल वालों को बी ए से ज़्यादा तालीम याफ़्ता बहू की क़त्तई ज़रूरत नहीं और लॉ अरे बाप रे...” उसने आँखें फैलाईं, “वो तो तू ही कर कि अभी ऊंट पहाड़ तले नहीं आया है।”
“अरे तो तुझे म्यूज़िक का इतना शौक़ था। सीख भी चुकी है, वही ज्वाइन करले। भातखंडे संगीत विद्यालय मौजूद है।”
“और फिर चौक में जाके बैठ जाऊं उमराव जान अदा बन के।” मेरा का लहजा तल्ख़ हो उठा।
रिज़वाना हक्का बक्का रह गई। मीरा मुँहफट थी और अल्लहड़ भी जो मुँह में आए बकती रहती थी लेकिन ये ज़रा कुछ ज़्यादा हो गया था।
“मर, जो जी चाहे कर।” अब रिज़वाना ने मीरा जैसी प्यारी, ज़िंदगी से भरपूर लड़की और उस से भी ज़्यादा ये कि एक अज़ीज़ तरीन सहेली से सचमुच तो नहीं कहा था कि मर।
रिज़वाना को बम्बई की इस लॉ फ़र्म में काम करते कई साल हो चुके थे। लोगों के पास अब मोबाइल फ़ोन आगए थे। रिज़वाना ने नंबर देखकर कहा कितनी बार कहा मम्मा से कि ऑफ़िस के औक़ात में फ़ोन न किया करें। पता नहीं क्या बात है अब उन्हें भी एक मोबाइल लेकर देना पड़ेगा कि ज़्यादा ज़रूरत हो तो मैसेज कर दें। उसने फ़ोन बंद कर दिया। लेकिन दुबारा रिंग आया तो उठाना ही पड़ा। क़मर चहको पहको रो रही थी। रिज़वाना के पैरों तले ज़मीन खिसक गई, “क्या बात है मम्मा?”
“मीरा... मीरा नहीं रही।”
“क्या?”
“मीरा नहीं रही रिज़वाना।”
रिज़वाना वहीं धप से ज़मीन पर बैठ गई। फाइल उसके हाथ से गिर पड़ी जो वो खड़ी हो कर पलट रही थी। इसके दिमाग़ की नसें फटने लगीं। मीरा की बच्ची ऑप्रेशन से हुई थी फिर एक इस्क़ात कराया था। फिर ऐसा ही कुछ हुआ होगा और सारी जदीद सहूलियात के बावजूद केस बिगड़ गया होगा। वरना मीरा तो बड़ी सेहतमंद लड़की थी, और उम्र क्या, यही तीस एक साल।
“मीरा ने ख़ुदकुशी की है।” क़मर ने हिचकियों के दरमियान कहा।
रिज़वाना दूसरे ही दिन हवाई जहाज़ से लखनऊ पहुँच गई। दिल्ली से अम्मू भी आगई थी। लोग मीरा के फूल चुनने गुल-ए-लाला गए हुए थे (लखनऊ वालों की सितम ज़रीफ़ी: शमशान गुल-ए-लाला है और क़ब्रिस्तान ऐशबाग)
मीरा तो बस इतनी ही पढ़ी लिखी थी कि शौहर के मुँह को न आसके लेकिन साथ ही फ़र्राटे से अंग्रेज़ी बोल कर उसकी इज़्ज़त-अफ़ज़ाई का सबब भी बने। वो बेहद सुघ्घड़ गृहस्तिन थी गरचे उसने कभी घर पर काम नहीं किया था और उन्नीस बरस की उम्र में खाते-पीते घर की कौन सी लड़की काम करती हुई जाती है। लेकिन जब वो बहू और बीवी बनी तो उसे साल भर भी न लगा घर सँभालने में। उसने नौकरों के बावजूद किचन सँभालना भी सीख लिया। उसकी सास ने ‘नॉन वेज’ का चूल्हा अलग कर दिया था। वहाँ वो शौहर के लिए गोश्त और मुर्ग़ के नित नए पकवान बनाती, जिनके लिए उसने खाना पकाने का एक कोर्स ज्वाइन किया था, फिर बर्तन ख़ुद मांज कर अलग कर देती इसलिए कि उसकी सास को एतराज़ होता था कि कहारिन इधर के बर्तन मांझ कर फिर उधर वही हाथ लगाएगी।
वो इतनी कम उम्र लड़की इतनी समझदार कि सास के सामने गोश्त नहीं खाती थी। चुपके से शौहर की प्लेट से उठाकर खालेती थी। “गोश्त पके तो टेबल पर लाने की इजाज़त नहीं है इसलिए कमरे में ही खाते हैं हमारे तो छक्के पंजे। हम ख़ूब उड़ाते हैं। मम्मी को हमारा गोश्त खाना पसंद नहीं है। कहती हैं गोश्त खाने से लड़कियां एग्रेसिव (Aggressive) होजाती हैं।” वो मुँह छुपाकर ख़ूब हंसी “ख़ुद तो प्याज़ लहसुन तक नहीं खाती हैं फिर चंडी का अवतार क्यों बनी रहती हैं।” उसने ठी ठी ठी ठी शुरू की।
“बंद कर ये पागलों वाली हंसी।” कहने को तो कह दिया लेकिन रिज़वाना ख़ुद उसके साथ हँसने लगी थी, “अच्छा ये बता फिर तू खाती कैसे है? दो बार खाती है क्या? सास-सुसर के साथ टेबल पर तो बैठना होता होगा।”
“ये आम तौर से देर से खाते हैं। उससे पहले थोड़ा ड्रिंक भी करते हैं। इसलिए हम टेबल पर बैठ कर थोड़ा सा चख कर, कुछ लपाडगी करके उठ जाते हैं और बिरयानी, दोप्याज़ा दिखाई पड़े तो हम तो भरे पेट पर खालें।” वो फिर हंसी।
“और ये तू गँवार की तरह उन, उन्हें, वो क्या करने लगी है। मंगनी के बाद तो संजय, संजय यूं करती थी जैसे संजय न हुआ छोटा भाई हुआ।”
“मम्मी को नापसंद है। पहले हमने उनके सामने नाम लेना बंद किया लेकिन अकेले में नाम लेते रहने से आदत नहीं छूट रही थी। मुँह से निकल ही जाता था तो सास-सुसर, आए-गए, चाचा-चाची सब घूरने लगते थे। अब भाई हमें नंदरानी मिश्रा की बड़ी बड़ी आँखों से बहुत डर लगता है। हमने कहा छोड़ भाई, टंटा ख़त्म। क्या फ़र्क़ पड़ता है। रहेगा तो शौहर ही नाम में क्या रखा है।”
उसने उन छोटी छोटी बातों में भी बड़ों की पसंद नापसंद का ख़्याल रखा था। (या उससे रखवाया गया था)।
क्या हुआ? क्यों हुआ? कैसे हुआ?
लोग बाग बहुत दिन बात करते रहे। रिज़वाना ने छुट्टियां सँभाल कर रखी थीं इसलिए तेरहवीं तक रुक गई थी। एक दिन उसकी छोटी सी बेटी का मुँह देखकर इतना ग़ुस्सा आया कि उसका जी चाहा कस-कस के झापड़ लगा के मीरा का बैज़वी, गोरा चेहरा लाल कर दे (फिर अपने ख़्याल के इंतहाई दर्जे के बेतुकेपन पर अपना ही मुँह पीट लिया) इस बच्ची का तो ख़्याल किया होता। बढ़ती उम्र वाले माँ-बाप का ख़्याल किया होता। ख़ुद सारे दुखों से बेनियाज़ हो गई। मगर ऐसे कौन से दुख थे। ऐसा कौन सा पागल कर देने वाला लम्हा ज़ेहन पर हावी हो गया था जो इंसान की बुनियादी कमज़ोरी, उसकी ज़िंदा रहने की ख़्वाहिश को कुहनी मार मार कर पीछे धकेल दे। मीरा की हम उम्र कज़न ने कई बातें बताईं जो कहीं जिगसा पज़ल् (jigsaw puzzle) के टुकड़ों की तरह मिलकर एक तस्वीर उजागर करती दिखाई दे रही थीं।
“हमसे तो उसने कभी कुछ नहीं कहा जान्हवी। हम तो बचपन से उसके राज़दार थे। ज़रा सा भी शक होता कि उसके दिमाग़ में क्या चल रहा है तो कुछ करते। उसने मौक़ा ही नहीं दिया।” रिज़वाना रोने लगी थी।
“कहा तो हमसे भी कुछ नहीं रिज़वाना दीदी। हम बस आते-जाते, मिलते-जुलते कुछ समझ रहे थे और कभी कभी दो स्तरों के दरमियान, दो शब्दों के पीछे लिखी लिखाई पढ़ने की कोशिश करलेते थे। आप तो यहाँ थीं नहीं। कभी कभी ही आती थीं।” उसने बात जारी रखी।
“मीरा आगे पढ़ना चाहती थी। उसकी इजाज़त नहीं मिली। कहा बी ए करा तो दिया अब और क्या करना है। म्यूज़िक क्लास करने चाहे वो मना, थिएटर आर्टस ग्रुप ज्वाइन करना चाहा तो पूरा वबाल ही खड़ा हो गया। किसी ज़माने में उसके बानी, जब वो नौजवान थे, एक ऐंगलो इंडियन लड़की के साथ सात साल घूमे, फिर उसे छोड़कर एक ख़ुद से पंद्रह बरस छोटी, किसी रजवाड़े की लड़की से अचानक शादी रचा ली। उस लड़की के दादा बंदूक़ लेकर उन हज़रत का इंतज़ार करते थे कि दिखाई दें तो सीधे शूट कर दें। लेकिन फिर लड़की के यहाँ बेटा हो गया तो माफ़ी तलाफ़ी हो गई। अब ये बूढ़े हो गए थे लेकिन नंदरानी मिश्रा समझती थीं कि थिएटर आर्टस ग्रुप लफंगों का अड्डा है।”
रिज़वाना ख़ामोशी से सुनती रही। मीरा की बड़ी ख़ूबसूरत आवाज़ थी। इंटरमीडिएट तक उसने बाक़ायदा म्यूज़िक सीखी भी थी। घर की तक़रीबों में, सहेलियों की महफ़िलों में वो ख़ूब गाती।
“फिर?”
“फिर उसने चार माह का हमल गिरवाया। इसका उसे बहुत रंज था। आख़िर दूसरा बच्चा ही तो था। फिर भी हंसकर झेल ले गई लेकिन जब दूसरा हमल गिरवाया गया, वो भी धोके से जिसमें शौहर, सास-सुसर, डाक्टर सब शामिल थे, तो उसे शौहर के शामिल होने से बहुत सदमा पहुँचा।”
“धोके से मतलब?” रिज़वाना सख़्त हैरान थी।
“एक टेस्ट के बहाने उसे बेहोश कर दिया गया था। डाक्टर ने उसे यक़ीन दिलाया कि अंदर बच्चे की growth रुक गई थी। इसलिए फ़ौरी इस्क़ात ज़रूरी हो गया था। ज़हर फैलने का डर था। बाद में तो जिरह करने से सब ज़ाहिर ही हो गया। मीरा ने शौहर को ख़ूब लताड़ा। उस की बंद ज़बान खुल गई थी। सास के सामने चीख़ने चिल्लाने लगी थी। ये सारा कुछ मुझे टुकड़ों में मालूम हुआ। कुछ यहाँ से कुछ वहाँ से। आपको जिस तरह बता रही हूँ इस तरह नहीं।”
“बात ज़्यादा बिगड़ती तो मीरा अलैहिदगी इख़्तियार कर सकती थी। आख़िर जान देने की क्या तुक थी। जान्हवी, तूही बता।” रिज़वाना हाथ मलने लगी थी।
“अलैहिदगी की तजवीज़ मैंने रखी थी जब मुझे ये मालूम हुआ था कि संजय अब उस पर हाथ छोड़ने लगा है। लेकिन मीरा के घरवालों ने उसे फ़ौरी तौर पर रद्द किया। दादी ने कहा, लड़की को इतनी ज़बान नहीं चलानी चाहिए, जो हुआ सो हुआ। अब क्या घर गृहस्ती और सुहाग फूंकेगी। शायद इसीलिए उसने ख़ुद अपनी जान फूंक कर सबसे इंतिक़ाम लिया।”
“लगता है पहले की सारी दादियों की तर्बीयत एक ही एकेडमी में हुआ करती थी।” रिज़वाना ने ज़हर ख़ंदा के साथ कहा, “हमारी दादी बताती हैं कि उनके सुसर यानी पापा के दादा के एक तवाइफ़ से मरासिम थे। वो लखनऊ की नामी गिरामी तवाइफ़ बद्र-ए-मुनीर थी। पहला फ़ख़्र तो इसी बात का था कि बद्र-ए-मुनीर बुलाने पर उनके घर भी आजाती थी। वो मरदान ख़ाने में बैठती और दादी अपने हाथ के मशहूर पराठे सेंक सेंक कर शामी कबाबों के साथ काबों पर क़ाबें भिजवातीं रहतीं। पापा के दादा की बेशतर दौलत उन्हीं बद्र-ए-मुनीर और उनकी बहन पर निछावर हुई। हत्ता कि कुछ न रहा तो बीवी की पहुँचियाँ दे आए। वो ग़म-ओ-ग़ुस्से के साथ उठ खड़ी हुई। अब कैसा ग़म और क्या ग़ुस्सा। मीरा... मीरा। यूं हारना चाहिए था क्या?”
जान्हवी ने जितना कुछ बताया था उसके अलावा भी पता नहीं क्या-क्या होता रहा था। पिछली बार जब रिज़वाना मीरा से मिली थी तो उसे महसूस हुआ था कि बार-बार ख़ुशमिज़ाजी का नक़ाब सरक कर अंदर से एक और चेहरा झांक रहा है। तब तक वो सारे ‘एपीसोड’ हो चुके रहे होंगे लेकिन उसने कुछ बताया नहीं था। चलते वक़्त बोली थी, “क़मर चाची और अनीस चाचा के दबाव में आकर ब्याह मत करना रिज़वाना। जब जी चाहे और जब सही आदमी मिले तभी करना। और ये ज़रूर बात कर लेना कि तुम्हें कितनी औलादें पैदा करनी हैं और कब।”
“मम्मी को अब भयानक ख़्वाब आने लगे हैं। वो अम्मू भी टस से मस नहीं हो रही। अटकी हुई है अनुराग पर। मम्मी को मालूम हो चुका है। उनका कहना है कि पापा को मालूम हुआ तो एक और “आनर किलिंग” की ख़बर मीडिया में आजाएगी, वैसे अम्मू को ज़्यादा फ़िक्र नहीं। दोनों साथ काम करते हैं। शामें इकट्ठी गुज़ारते हैं।”
“हमारे घर तो आनर किलिंग का ख़तरा महज़ ज़ात अलग होने से हो गया था, धर्म की तो बात ही छोड़। माँ और दादी को भयानक ख़्वाब आने लगे थे। इसलिए जल्दी से जल्दी जो लड़का पकड़ में आया, उससे ब्याह दिया।”
वो हंसी, “वैसे देखा जाये तो लड़का देखने में अच्छा कमाऊ, पढ़ा लिखा, जात बिरादरी ऊंची। अब हमें भी और क्या चाहिए था? तो बता रिज़वाना एक औरत को कुछ और चाहिए क्या?”
मीरा की माँ ने रिज़वाना से बताया हम एक दिन समधन जी के सामने कह बैठे, “भगवान समझे उस अहिरवा से न वो ज़िंदगी में आता न हमें मीरा की शादी की इतनी जल्दी होती। थोड़ा रुक गए होते तो रिश्तों की क्या कमी थी। दरअसल इस दूसरे अबॉर्शन के बाद हमारी हँसती बोलती बेटी को चुप लग गई थी और वह कमज़ोर भी बहुत हो गई थी। दवाएं, टॉनिक, सब उठाके फेंक देती। नॉनवेज खाती थी वो छोड़ दिया। इसलिए समधन जी से मुलाक़ात हुई और इसके बावजूद उन्होंने मीरा की शिकायतें शुरू कीं तो हमें आगया ग़ुस्सा। इसीलिए शास्त्रों में ग़ुस्से को चार बड़ी बुराइयों में गिना गया है। आदमी की मत मारी जाती है। हम जो वो अनर्गल बोल गए तो समधन जी के कान तो ख़रगोश के कानों से भी लम्बे हो गए। अब लाख हम लीपा पोती करें लेकिन उन्होंने जा के शक का बीज दामाद जी के दिमाग़ में बो दिया। वो अहिर कौन था, कब था। अब कहाँ है, अब भी मिलता है क्या। दरअसल उन्हें मीरा के इल्ज़ाम से अपना बचाओ करने के लिए ब्रह्मास्त्र हाथ लग गया। सरासर हमारी ग़लती से।
मीरा इल्ज़ाम लगाती थी कि उसे धोका देकर चौथे महीने के आख़िर में जीते जागते बच्चे को मारा गया। वो डाक्टर का नाम सामने लाने की धमकी देने लगी थी। यूं चुप रहती थी लेकिन ग़ुस्से का दौरा पड़ता तो... शायद वो हमें ये सब बताती भी न लेकिन उस दिन उसने अपना ग़ुस्सा हम पर उतारा, “अम्मां, तुम्हारी ज़बान क़ाबू में क्यों नहीं रहती। अब बताओ अपने दामाद और उसकी चंडी माता को कि वो कौन था, कब था और कहाँ है। तुम्हीं को मालूम होगा, हमें तो ख़बर नहीं।”
“फिर सुना दामाद हाथ छोड़ने लगे थे। हम तो जानें इसलिए कि उसकी ज़बान बंद रहे।”
“और उसने अपनी ज़बान हमेशा के लिए बंद करली। और चाची इसमें उसके ससुराल वालों का ही नहीं आप सबका भी हाथ है। आप सब जो पढ़े लिखे हैं, आला ख़ानदान हैं।” लेकिन रिज़वाना ने भी अपनी ज़बान बंद ही रखी। सोच के रह गई, जो आप ही मर रहा हो उसे मार के क्या मिलेगा। मीरा ने ज़िंदा रहने का फ़ैसला किया होता तो उन लोगों से लड़ने की सोची जा सकती थी। औरतों की ये नस्ल तालीम से बेबहरा नहीं थी। मीरा की माँ, ख़ुद उस की अपनी माँ, मीरा की सास। और मर्द तो ख़ैर तालीम याफ़्ता थे ही लेकिन ये कैसी तालीम थी कि एक साइंस ग्रेजुएट ने बीवी को इसलिए मारा था कि उसने दूसरी बार भी बेटी पैदा की थी। साइंस पढ़ कर भी उसे ये नहीं मालूम था कि बेटी या बेटा मर्द की देन होता है। ये मम्मा ने बताया था, और साथ ही जोड़ दिया था,
ये सन्74 की बात है। इस वक़्त हमल में बच्चे की जिन्स पता करना और इस्क़ात कराना आम नहीं हुआ था। वरना वो लड़की यूं मार न खाती, हाँ बच्ची जो पैदा हुई वो मार दी गई होती। नंदरानी मिश्रा की दलील इस सिलसिले में कुछ अलग ही थी जो मीरा ने पहले इस्क़ात के बाद हंस हंसकर रिज़वाना को बताई थी, औरत के जिस्म के अंदर जो कैफ़ियत होती है वही ये ताय्युन करती है कि औरत का बीज मर्द के ऐक्स क्रोमोसोम क़बूल करता है या वाई, इसके लिए औरत ही ज़िम्मेदार है।
“ये आप ने कहाँ पढ़ा मम्मी? किसने बताया आपको?” मीरा ने सास से मुलाइमियत से पूछा था।
“हम नोटिस नहीं बनाते फिरते कि तुम्हें रेफ़रेंस दें। तस्दीक़ करना चाहती हो तो अपने तौर पर रिसर्च करलो।” उन्होंने रुखाई से जवाब दिया था और मीरा को बड़ी बड़ी आँखों से घूरती, कठ हुज्जत क़रार देती उठ खड़ी हुई थीं। और उसके ऑफ़िस में लोग कम तालीम याफ़्ता थे क्या? सब वकील। कई तो तजुर्बेकार घाघ भी। मुजरिम को मासूम बनादें मासूम को मुजरिम। जब से रिज़वाना ने उम्र के तीसवें साल का केक काटा था, बेशतर उसका हवाला ओल्ड मेड, कह कर देने लगे थे। एक बार किसी ने कमेंट किया था, यार खाई खेली लगती हैं। अब ऐसी मासूम भी नहीं जैसा पोज़ करती हैं।
“कूल्हे ख़ासे भारी हैं। ऐसे कूल्हों का मतलब है कि हर तजुर्बे से गुज़र चुकी हैं।” जवाब मिला, एक शादीशुदा हमकार ने बराह-ए-रास्त प्रोपोज़ किया था। पस-मंज़र में दी जाने वाली मूसीक़ी के तौर पर वो निहायत लतीफ़ पैराए में ये बताते चले आरहे थे कि बीवी से उनके ताल्लुक़ात सही नहीं हैं। बग़ैर नाम बताए उन्होंने ही रिज़वाना पर की जानेवाली छींटाकशी का भाँड फोड़ा था। कुछ इधर उधर से कुछ बिलवास्ता तब्सिरों से उसे ख़ुद भी पता चलता रहता था और वो चौमुखी लड़ाई लड़ती रहती थी। उसी लतीफ़ पैराए, उसी बिलावास्ता इज़हार के ज़रिए।
“मुझे अपनी ज़िंदगी की राहें मुतअय्यन करने का पूरा हक़ है।” उसने मज़बूती के साथ अपने आपसे कई बार कहा था और उस पर क़ाइम थी। यहाँ तक कि उस वक़्त भी जब कुछ लोगों ने ये इशारा किया कि जिस लड़की के साथ वो फ़्लैट में रह रही है उसके साथ उसके लेज़बियन तअल्लुक़ात हैं।
“छी, घिन्न आती है हमें।” रिज़वाना ने कहा था तो उसकी दोस्त हंसी थी।
“इतनी सी बात से घिन्न आने लगी। ओखल में सर दिया है तो मूसल के धमके खाने सीखो।” वो मिज़ाज में मीरा जैसी लगती थी। हंसोड़, हर बात को चुटकियों में उड़ाने वाली। अपने आप में मगन। रिज़वाना ने सोचा था।
उस साल लखनऊ में ठंड मामूल से ज़्यादा पड़ी थी। कोहरे से सरेशाम अंधेरा छा जाता। कई दिन से सूरज नहीं निकला था। मीरा की माँ के यहाँ से आने के बाद रिज़वाना को लग रहा था एक ठंडा अंधेरा उसके वजूद में भी उतर आया है। मीरा की माँ ने जो कुछ कहा था, उन ठंडे उदास लम्हों में रिज़वाना ने उसे क़मर के साथ बाँटा।
“दुनिया अब ज़्यादा पेचीदा हो चुकी है और अपनी सारी तालीम और सारी तकनीकी तरक़्क़ी के बावजूद ज़्यादा सफ़्फ़ाक और बेरहम। अब लड़कियां बोल रही हैं। पहले बोलती नहीं थीं। कोतवाल के बेटे से आँख मटक्का होने पर जिस पहले लड़के के हाथ लगने पर बादशाह अपनी बेटी ब्याह देता उसके साथ ख़ामोशी से ज़िंदगी गुज़ार देती और मर खप कर जन्नत पहुँच जाया करतीं।” क़मर ने लम्बी सांस खींच कर लम्बी बात की। फिर दोनों माँ-बेटी कुछ अर्से ख़ामोश रहीं। अँगीठी के कोयलों पर राख की परत मोटी होने लगी थी। क़मर ने उसे लोहे की तीली से कुरेदा (उसे हीटर की जगह अँगीठी जलाना ज़्यादा अच्छा लगता था) और बात का सिरा दुबारा पकड़ा।
“हम और तुम्हारे पापा, दोनों ने अब तुम्हारी और इमराना की ज़िंदगी में दख़ल देना बंद कर दिया है। लेकिन शायद तुम्हें मालूम नहीं कि लोग हमें क्या-क्या सुनाते रहते हैं। एक दिन एक टीचर ने हमें सुनाकर स्कूल में कहा, “लड़कियां पढ़ लिख कर कमाने लगें तो माँ-बाप बेफ़िक्र हो कर बैठ जाते हैं कि बर भी ख़ुद ही ढूंढ लाएंगी। उस काले कोसों दूर बम्बई से यहाँ आ जाओ तो कम अज़ कम घर में आराम और इत्मीनान से रहोगी तो। लखनऊ कोई देहात तो नहीं।”
“हाँ इस घोंसले में बड़ी आफ़ियत है। माँ-बाप हैं, उनकी शफ़क़त का तहफ़्फ़ुज़ है। लेकिन मम्मी इस दुनिया में हम जैसे भी बहुत हैं। पराए फटे में टांग न अड़ाने वाले। अपनी आज़ादाना ज़िंदगी ऐसे उसूलों के तहत गुज़ारने वाले जिनसे दूसरों को नुक़्सान न पहुंचे। तुम अट्ठाईस बरस की हो गई थीं तो नानी ने सोचा था कि तुम्हारी शादी अब न होगी। फिर हुई न। हम इकत्तीस बरस के हो गए हैं तो तुम भी उसी तरह सोच रही हो। कितनी तरक़्क़ी हुई तुम्हारी तालीम की वजह से? सिर्फ़ दो तीन साल की? मम्मा, शादी इज़ नाट दी एंड आफ़ दी वर्ल्ड, कोई ऐसा मिल गया जिसके साथ पूरी ज़िंदगी गुज़ारने का दिल चाहा तो ज़रूर करेंगे। फ़िलहाल तो परसों की फ़्लाइट का टिकट बुक है। वापस जा रहे हैं। हमारी फ़िक्र मत किया करो मम्मा...” उसकी आँखें दूर ख़ला में कुछ देखने लगी थीं। अँगीठी पर जमी राख की परत मोटी हो गई थी और क़मर के दिल पर जमी बेचैनी की भी।
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