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पस-ए-दीवार

मोहम्मद हुमायूँ

पस-ए-दीवार

मोहम्मद हुमायूँ

MORE BYमोहम्मद हुमायूँ

    अबू मूसा मूसूई तिरमिज़ी के बारे में सय्यद अली बिन रज़ा हमदानी ने ये लिखा है कि वो अस्फ़हान के दार-उल-क़ज़ा में क़ाज़ी के मुआविन और कुल्लिया क़ानून में उस्ताद थे। आप उलूम-ए-फ़लसफ़ा में भी मुंफ़रिद तरीक़ा-ए-इस्तिदलाल रखते थे और इसी सबब फ़िक़्ह, क़ानून पर दस्तरस बेमिसाल रखते थे। अलावा-अज़ीं, वो उलूम-ए-हाज़िरा पर भी गिरफ्त-ए-बा-कमाल रखते थे और इस के साथ साथ इल्म-ए- नुजूम और इल्म-उल-आदाद में भी एक दर्जा फ़क़ीद-उल-मिसाल रखते थे। मज़ीद-बरआँ आप बज़िलासंज थे, फ़सीह थे और ज़बान-ए-बलीग़ बोलते थे लेकिन इन सबसे मुमताज़, उनका ख़ास्सा, उनका क़वी हाफ़िज़ा और उनकी हाज़िर जवाबी था।

    एक दिन आप से पूछा गया कि आया उनको भी कभी किसी ने लाजवाब किया है?

    आपने कुछ देर तवक़्क़ुफ़ फ़रमाया और फिर गोया हुए, “मुझे एक गदागर ने ला-जवाब तो ख़ैर किया क्या बिल्कुल मबहूत कर दिया जब उसने मुझसे पूछा कि क्या आदमी दिल के बग़ैर ज़िंदा रह सकता है।”

    “यानी दिल, बमानी उज़्व? जो यहाँ है।”

    “हाँ वही दिल जो सीने में धड़कता है। मैं जानता हूँ किसी को--- जो बग़ैर दिल के ज़िंदा है--- और उस से आपकी मुलाक़ात भी करवाऊँगा लेकिन क्या आप उसकी रूदाद सुनना पसंद करेंगे?’’

    “ऐ नेक मर्द ये ऐसा अम्र है कि ना-दीदा ना-शुनीदा लेकिन इन्साफ़ शर्त है कि आपका बयान सुनूँ और उस मर्द को देखूँ--- फिर फ़ैसला करूँ--- आप बयान शुरू करें, ना-चीज़ हमा-तन गोश है।”

    “या अबा मूसा तिरमिज़ी, तेरे ऊपर अल्लाह नूर के दरवाज़े खोल दे, मैं एक सिपाही ज़ादा हूँ और सुलतान आलीशान की फ़ौज में सालार था। बुनियाद उस क़िस्से की ये है कि क़दीम ज़माने में जब अरश कमान- गीर ने दमावंद के तमाम देव परी-ज़ादों को ज़िंदान में मुक़य्यद करा कर जहन्नम वासिल किया तो एक देव कि नाम उसका ख़र्संग पूरी था, उस ज़िंदान से बच निकला।

    सालों बीम-ओ-हिरास में ज़ेर-ए-ज़मीन रह कर जब उसने अपना सर उभारा तो दूर हमारे अमीर आलीशान, सैफ़ुद्दौला, मर्द-ए-मैदान, सुलतान केहान-ओ-अस्फ़हान-ओ-ईरान-ओ-जहान, फ़िदा उन पर मेरी जान, महमूद ग़ज़नवी का था जो उस वक़्त सोमनात में हिंदूस्तानियों की सरकूबी-ओ-गोशमाली में मसरूफ़ थे।

    देव ने उस मौक़ा को अपने तईं ग़नीमत जाना और उस मुक्का-ओ-ना-हंजार ने हर घर मिस्मार किया और फ़साद बेशुमार इस तौर मचाया कि जीना लोगों का अजीरन हो गया। उन ख़स्ता तनों, ज़बूँ हॉलों ने जौक़ –दर-जौक़ सुलतान के पास आकर उनसे इस देव की शिकायत इस तौर की कि उनकी आँखों से ख़ून रवां था। सुलतान को माइ-ए-ब-करम पाया तो उन्होंने अपनी ना-तवानी का रोना ख़ूब रोया और सुलतान से मदद की दरख़्वास्त की।

    जानना चाहिए कि सुलतान ख़लक़-उल-अल्लाह का दुख अपना दुख समझता था और यूं उस मग़रूर देव की सरकूबी का हुक्म सुलतान आलीशान ने हम सिपाहियों को दिया और मैंने तन-ए-तन्हा उसकी तामील का बेड़ा उठाया।

    अज़ीज़म जान लो कि मैं मुल्क-ए-फ़ारस का नामवर शमशीर-ज़न था और किसी भी मार्के से बग़ैर सुर्ख़रूई के नहीं लौटा था कि मेरी तलवार का एक वार लोहे और फ़ौलाद के क़ल्ब से गुज़र जाया करता था। जब इज़्न उस देव के क़त्ल का दिया गया, और मैंने, जो फ़रमान सुलतान पर मानिंद-ए-अयाज़-ओ-शेफ़्ता था और उनके हुक्म को अपना दीन-ओ-ईमान जानता था, उस हुक्म की तामील में कोई लम्हा ज़ाए ना किया और फ़िल-फ़ौर शुमाल में सिलसिला-ए-अलबुर्ज़ की राह ली जो उस बद-सिफ़त देव का मस्कन था।

    राह में हर्ज-मर्ज खींचता, महीनों की मुसाफ़त सुरअत से हफ़्तों में तय करा कर वहाँ पहुंचा और पहाड़ों की ज़ंजीर में उस इफ़रियत शरीर की तलाश शुरू की।

    तीसरे हफ़्ते जब रूमाल का रंग सब्ज़ से सुर्ख़ हो गया तो मैं जान गया कि में उस पर-ग़ुरूर देव से बस थोड़ा ही दूर हूँ, मैंने अल्लाह का नाम लिया और पहाड़ के दामन में मूजिब अपने पीर-ओ-मुर्शिद अली बिन इब्राहीम बिन हुसैन के फ़रमाने के एक ख़ेमा, मख़्रूती ऐसा गाढ़ा जिसके दरवाज़े दो थे और उस पर दो अलम बुलंद किए जिन पर मर्क़ूम था।

    لَا حَولَ وَلَا قْوّۃَ اِلَّا باللَّٰہ

    ये इंतिज़ाम करा कर खे़मे से ज़रा दूर एक ग़ार में घात लगाए बैठा रहा और इसी तौर तीन रातें और तीन दिन बीत गए।

    चौथे दिन शाम को देव “मांस गंद मांस” कहता, एक मस्त गेंडे की मानिंद डोलता खे़मे के क़रीब आया और अपने नाख़ुन पंजे तेज़ कर कर खे़मे पर यूं मारने लगा कि जैसे उसे उस के तनाबों समेत बस उखाड़ने वाला है लेकिन वो मन्हूस सूरत देव जब जब खे़मे के क़रीब आता था पाक कलाम की बरकत से एक ग़ै-मरई क़ुव्वत उसे दूर धकेल देती थी।

    जब ये अम्ल मुतअद्दिद बार हुआ तो उस मलऊन का इज़्तिराब बे-हिसाब बढ़ा और यक-बारगी हालत-ए- इश्तिआल में इस क़ुव्वत से चिंघाड़ने लगा कि पहाड़ों में इर्तिआश पैदा हो गया, पत्थर लुढ़क गए, कमज़ोर ठिकाने लरज़ने लगे और ग़ार ढह गए और चटानों से चश्मे उबल पड़े और यूं सलमानी अँगूठी, जो उस ख़बीस की हिफ़ाज़त की ज़ामिन थी, उसकी उंगली से फिसल कर गिर पड़ी।

    मैं बस इसी इंतिज़ार में था, झट से बाहर आकर, उछल कर उसके सामने खड़े हो कर, तलवार के एक ही वार में उस मनहूस इफ़रीत का सर उसके धड़ से अलग किया और सजदा-ए-शुक्र बजा लाया।

    अँगूठी को याक़ूती फ़ित्राक में महफ़ूज़ करा कर मैंने सफ़र वापसी का शुरू किया मगर रास्ता भूल कर जंगल दो हज़ार में भटक गया। उस जंगल की अजीब हालत थी, घना ऐसा कि साँप भी लहरा के ना निकल सके, तारीक इतना कि सौ सूरज भी उसको मुनव्वर ना कर सकें, और काँटेदार ऐसा कि पूरा लश्कर ख़ून-आलूद कर दे, ग़रज़ जंगल कम अज़िय्यत ज़्यादा था।

    जा-ब-जा मूज़ी जानवर, शेर-ओ-पलंग, गर्गान गर-सिना, अज़दहे और मस्मूम हशरात, उस पर मुस्तज़ाद दरख़्तों की टहनियाँ बाहम सर जोड़े यूँ मिली थीं कि सरसराती हआ की रविश से आपस में सरगोशियाँ करती सुनाई देती थीं और यूं गुमान होता था गोया इफ़रीयतें, ज़हर-आलूद साँसें लेकर बस मुझ पर झपटना चाहती हूँ।

    बे-शक उस पर ख़ौफ़ माहौल से कमज़ोर दिल दहल जाएँ, बहादुरों का पिता पानी हो जाए, वो लर्ज़ा बर-अनदाम हो जाएँ, ग़श खा जाएँ, लेकिन मैं, जो सिपाही ज़ादा था, हर मुहिम में सरफ़राज़ था, मैंने हिम्मत ना हारी और चिल्ला काट कर नेक अर्वाह से रहनुमाई हासिल करा कर जंगल से निकल कर पहाड़ों के दामन में दरिया-ए-हज़ार के साथ साथ हफ़्तों चलता रहा और एक मक़ाम पर जब उसका पाट इतना नज़र आया कि उसे उ’बूर कर सकूँ तो मैंने दरिया में अपना घोड़ा डाल दिया और यूँ उसके दूसरी तरफ़ पहुंच गया।

    क्या देखता हूँ कि सामने एक शहर है। शहर क्या है एक आलीशान दुनिया है, साफ़-सुथरा, ऊंची दीवारें, हर जगह दरख़्त सर-सब्ज़, बाग़ात से पुर जिसमें ख़ूबानियाँ दिल-फ़रेब, ज़र्द-आलू मानिंद-क़ंद, आलू बुख़ारे ख़ुश-रंग, संगतरे आँखों की तरावट, सेब ख़ुशबू-दार, अंगूर अंगबीन सिफ़त कसरत से थे और उन दरख़्तों में ख़ुश-रंग-ओ-ख़ुश-इलहान तुयूर विर्द पाक नाम का करते हैं, और ताऊस ख़ुश-रंग परों वाले जा-ब-जा रसूलﷺ और उनकी ऑल पर दुरूद भेजते हैं।, मकान क्या जमील थे और लोग क्या ख़ूब-रू, नरम-ख़ू थे। ग़रज़ वहाँ शाह था, पीर था या फ़क़ीर था शक्ल से ख़ुश और पुर-तौक़ीर था।

    मैंने क़ियाम दो दिन का एक सराय में किया और ताज़ा-दम हो कर वहाँ से जाने की ठानी और साईस को हुक्म दिया कि घोड़े की ज़ीन कस दी जावे, जिसकी उसने एक सुलतानी दीनार के एवज़ फ़िल-फ़ौर तामील की। मैंने हथियार बाँधे, तलवार नियाम की, ख़ुद-सर पर लिया और सराए से निकल कर घोड़े के साथ साथ चलते हुए शहर की फ़सील की तरफ़ रवाँ हो गया, कि इस शहर में दस्तूर था कि फ़सील-ए-शहर में घुड़सवारी की ममानिअत थी।

    चलते चलते में एक सुनसान गली से गुज़रा जिसके अंदर किसी भी मकान का दरवाज़ा नहीं खुलता था और वहाँ यकायक मेरी नज़र एक फ़क़ीरनी पर पड़ी जिसने चादर अपने गिर्द इस तरीक़ से ओढ़ रखी थी, कि उसका बदन पूरा ढका हुआ था, चेहरे पर उदासी थी, उसकी आँखें ज़मीन में पेवस्ता थीं और उसके सामने कासा-ए-गदाई नीम पर धरा था।

    मैंने अज़-राह-ए-एहसान एक सिक्का नुक़रई सुलतानी जेब से निकाला और उसकी तरफ़ उछाल दिया और मुहिम की कामियाबी में गुम और अपने सुलतान की दाद का मुंतज़िर, उस ज़न गदा से आहिस्ता-आहिस्ता दूर चलता गया। मेरे हैरत की इंतिहा ना रही जब मैंने देखा कि वही सिक्का, जो मैंने एक लम्हे पहले उसकी तरफ़ उछाल दिया था, हुनूज़ मेरे हाथ में मौजूद था।

    मुझे शाएबा हुआ कि शायद सिक्का फेंकने में वहम हुआ होगा सो मैं रुका, घोड़े की गर्दन पर हाथ फेरा जिस पर वो हल्की आवाज़ में हिनहिनाया, अपनी स्याह चमकीली आँखें हिलाईं और ब-तौर-ए-निशानी, कि मेरा मुतीअ है, सर झुकाया और अपने सुम ज़मीन पर बहुत आहिस्ता मारे।

    मैं मुड़ा और लौट कर उसके क़रीब पहुंचा और दोबारा ध्यान से एक निशान-ज़दा सिक्का, उस ज़न गदा पर नज़रें जमाए उसकी तरफ़ उछाल दिया। अब की बार मैंने सिक्का उसके कासा-ए-गदाई में ना सिर्फ गिरते देखा बल्कि उसकी आवाज़ भी सुनी। मैंने तब अपने हाथ को देखा और उसमें सिक्का ना पा कर, ये तसल्ली की कि सिक्का बिला۔शुब्ह मेरे हाथ में नहीं था, घोड़े की तरफ़ चलना शुरू किया।

    दफ़अतन मुझे हाथ में कुछ महसूस हुआ और मैं हक्का-बक्का रह गया। देखा कि वही निशान-ज़दा सिक्का अब भी मेरे हाथ में मौजूद था। मुझे कुछ ख़ौफ़ सा महसूस हुआ अब मैंने आँखें मल मल कर जागते होने की गवाही ली।

    अज़ीज़म ये एक चौड़ी गली थी जो पोख़्ता ईंटों से बनी थी और सीधी हरगिज़ ना थी बल्कि आगे और पीछे एक कमान सूरत यूँ मुड़ती जाती थी कि अतराफ़ से अंधी हो जाती थी जबकि उसकी दीवारें इतनी ऊंची थीं कि आसमान ब-मुश्किल दिखाई देता था।

    शाम का वक़्त हुआ चाहता था एक तरफ़ मैं और दूसरी तरफ़ वही ज़न गदागर एक दीवार के साथ ओढ़नी में लिपटी सर झुकाए बैठी थी, और हम दोनों और मेरे घोड़े के अलावा उस गली में कोई भी ज़ी-नफ़स ना था। गली के बीच वास्ते निकास आब के एक लकीर नुमा नाली थी, जिसमें हल्की रफ़्तार से साफ़ पानी बह रहा था जिसकी आवाज़ यूँ रही थी जैसे कोई लोहे को रेती से घिसा रहा हो। मेरे ऊपर ख़ौफ़ तारी हो गया।

    मैंने तेज़ साँसों और धड़कते दिल से इरादतन अपनी तलवार के दस्ते पर हाथ रखा और ख़ंजर-ए-सुलतानी को जो मेरी कमर के साथ बंधा था मस किया और तसल्ली की कि मेरे हथियार मेरी पहुंच में हैं और उसके बाद मैंने ग़ौर किया कि क्या यह सेह्र है या नज़रबंदी और उस ज़न गदागर का मक़सद क्या है या ये बेचारी मुसीबत की मारी भी ख़ुद भी किसी सेह्र के क़हर में गिरफ़्तार है।

    मैंने इरादा ये किया कि उससे कलाम करूँ और हक़ीक़त उस अम्र की जाऊँ कि किस बाइस सिक्का मेरे हाथ लौट कर आता है और उस में क्या रम्ज़ पोशीदा है और उस सेह्र का मक़सद क्या है।

    गुफ़्तगू का इरादा मुसम्मम बाँध कर मैंने जब उसकी तरफ़ चलना शुरू किया तो वो उठी और अपना हासिल दरयूज़ा उठा कर मुख़ालिफ़ सिम्त चल दी और मैंने उसका तआक़ुब किया। चलते चलते गली ख़त्म हो गई और मैं, मेरा घोड़ा और वो ज़न-गदा एक छोटे से मैदान में आगए जिसके उस तरफ़ सामने एक दीवार थी, कि मानिंद फ़सील-ए-शहर थी मगर बे-दर थी और सुरय्या से बुलंद और ख़्याल से वसीअ और तवील-तर थी।

    वो ज़न-गद एकदम उस दीवार के सामने रुक गई और फिर हैरत से मेरी पुतलियाँ फैल गईं जब दीवार से एक रौशनी दहकती कुछ ऐसी निकली कि असर से जिसके दीवार में एक क़द-ए-आदम शिगाफ़ आनन फ़ानन नुमूरदार हुआ और वो साहिरा उसमें दाख़िल हो कर नज़रों से ओझल हो गई।

    मैंने अब पीछे पलटना शेवा-ए-मर्दानगी और रविश-ए-सिपाहीयाना के ख़िलाफ़ जाना और तलवार पर हाथ रखकर उस शिगाफ़ की तरफ़ बढ़ा जो अभी तक इस रौशनी के ज़ेर-ए-असर दहक रहा था लेकिन उस नूर-नुमा रौशनी में हरारत नाम को ना थी।

    मैं भी बग़ैर सोचे उस ज़न पर सेह्र की तक़लीद में उस रोज़न-ए-रौशन में दाख़िल हो कर दीवार पार कर गया।

    दीवार के उस तरफ़ क्या देखता हूँ कि एक वसीअ सब्ज़ा-ज़ार है, जिसके बीच में एक क़सर पुर-वक़ार है, जो हज़ार सुतूनों पर ईस्तादा है और सामने उसके मुर्ग़-ज़ार है। हर सुतून में चार मिशअलें दो ऊपर दो नीचे धड़ धड़ यूँ जलती हैं कि पूरा महल बुक़्आ नूर बना, रात की तारीकी में मानिंद-ए-बदर चमकता है।

    मैं अंगुश्त ब-दंदाँ खड़ा देर तक उस मंज़र से महज़ूज़ हुआ लेकिन फिर उस ज़न गदा का ख़्याल आया और आहिस्ता से महल की तरफ़ बढ़ा और उसके अंदर दाख़िल हुआ।

    हर-सू ऐसी ख़ामोशी थी कि अपनी बे-तरतीब साँसों की आवाज़ तक सुनाई देती थी। ग़रज़ बुलंद सुतूनों और दरवाज़ों की भूल-भुलय्यों से गुज़र कर आगे संग-ए-मरमर का एक बड़ा सेहन देखा जिसके बीच में एक फ़व्वारा था। हर-सू ख़ामोशी थी और पानी की आवाज़ किसी बड़ी आबशार की तरह माहौल पर हावी थी।

    उस फ़व्वारे का अजीब मंज़र था कि मशअलों की रौशनी में लम्हा-ब-लम्हा रंग यूं बदलता था कि गाहे ख़ून-ए-रंग सुर्ख़, गाहे सब्ज़ और गाहे ज़र्द हो जाता था। गाहे इतना ऊंचा हो जाता था कि आसमान को छू ले और फिर यक-दम बंद हो जाता था। सेहन से आगे एक दरवाज़ा सुनहरी नज़र आया, जिसके क़रीब जब मैं गया तो वो ख़ुद-ब-ख़ुद खुल गया।

    उस सहर के कारख़ाने के दबदबे से दम-ब-ख़ुद मैं बे-इख़्तियार महल के क़ल्ब के अंदर घुसता चला गया और फिर दो एक राह-दारियों से गुज़र कर ख़ुद को एक मुस्ततील नुमा वसीअ कमरे में पाया जिसके अतराफ़ में आठ-आठ और आगे पीछे चार-चार सुतून थे। बीच में उस कमरे के एक हौज़ ऐसा था कि शफ़्फ़ाफ़ आसमानी रंग पानी से पुर था जिसकी सतह पर गुलाब की सुर्ख़ पत्तियाँ बिखरी पड़ी थीं और जिनसे इत्र रिस-रिस कर बाहर निकल रहा था और उसके असर से माहौल मुअत्तर था।

    तब मैंने जब ग़ौर से देखा तो क्या देखता हूँ कि तालाब के पेंदे में मुनक़्क़श तस्वीरें मर्द-ओ-ज़न की यूँ बनी थीं कि जब लहरें पानी की उस तालाब में हिलती थी तो गोया तस्वीरें भी अठखेलियाँ करती नज़र आती थीं और उन पर गुमान ज़िंदा इंसानों का होता था।

    फिर जो सामने निगाह की तो देखा कि हौज़ के एक तरफ़ एक सीढ़ी दार मुस्ततील चबूतरा था जिस पर क़ालीन-ए-इस्फ़हानी बिछा था और जो उस कमरे के ऊपर छत को देखा तो नज़ारा किया कि छत में तीन गुंबद थे जिनका दरमियानी गुंबद बड़ा और साथ उसके जसामत में निस्फ़ दो और गुंबद थे। उन तीनों पर भी तस्वीरें मर्द-ओ-ज़न बरहना की उस महारत से बनाई गई थीं कि गोया बस अब बोलें।

    सारे माहौल में ऊद-ओ-अंबर और इत्र की मिली जुली ख़ुशबू थी और मैं मख़मूर-ओ-मस्हूर उस पर सेह्र नज़ारे में यूँ गुम हो गया कि दुनिया व-मा-फ़ीहा की ख़बर रही।

    यकायक मुझे कुछ सदा सुनाई दी और फिर दरवाज़ा खुला और वो ज़न गदा उस कमरे में दाख़िल हुई। उसके क़दमों में साइक़ा सिफ़त सुरअत थी, चेहरे पर बशाशत थी और उसके बाल खुले थे। मैंने एक सुतून की ओट ली कि नज़रों से उसकी पोशीदा रहूँ।

    उस साहिरा ने मुँह ही मुँह में कुछ कहा और यकायक छत में एक शिगाफ़ नुमूरदार हुआ और चार फ़रिश्ता-नुमा मख़्लूक़ एक तख़्त मुरस्सा और ज़र्रीं, जिसमें लगे याक़ूत और मरजान झिलमिला रहे थे और जिस पर एक ताज तिलाई, जिसमें फ़ीरोज़ा और नीलम और अक़ीक़ के नग जड़े थे, और एक जाम सुर्ख़ शीराज़ी शराब का भी पड़ा था, आहिस्ता-आहिस्ता नीचे ले आए और वो तख़्त उन्होंने कमाल-ए-महारत से चबूतरे पर ऐसे रख दिया, कि शराब भरे जाम में हल्की सी जुंबिश भी आई।

    अब जब ग़ौर से देखा तो उस तख़्त पर एक लिबास-ए-फ़ाख़िरा रेशमी भी था, जिसकी लंबाई उस ज़न गदा के जिस्म को ढाँप ले और उस लिबास पर सुर्ख़-ओ-सब्ज़ रंग के फूलों की गुलकारी हुई थी।

    अज़ीज़म तब उस फ़रिश्ता सिफ़त मख़्लूक़ ने उसका लिबास-ए-गदागरी उतारा और कमाल -ए-एहतियात उसे लिबास-ए-फ़ाख़िरा पहनाया और फिर उसके सर पर ताज-ए-ज़र्रीं रख दिया और उसके सामने दस्त-ब-दस्ता निगाह-ए-रू ब-ज़मीं खड़े हुए। उस लिबास शाही में, जो उसके जिस्म पर पूरा ऐसा आया कि उसके अंग-अंग को अपनी आग़ोश में ले-ले और उसकी तमाम कोसों को नुमायाँ करे, उस साहिरा का जिस्म ऐसे दमकता था जैसे ताज में याक़ूत, जाम में शराब, ख़त्म में नीलम, और समान में ज़ोहरा।

    फिर उस साहिरा ने शराब से कुछ चखा और उन सब से एक ज़बान अजीब-ओ-नामानूस में कलाम किया और जब सबने उसका कलाम समाअत किया तो उनमें से एक सात फ़र्शी सलाम करके गया और सानियों बाद उसके सामने मौसमी और ग़ैर मौसमी फल पेश किए जिसमें से उस नाज़नीन साहिरा ने अनार और सेब को चखा और अंगूर से इज्तिनाब किया।

    दफ़्अतन कहीं से बरबत की आवाज़ आई और यूँ माहौल-ए-ग़िना से मस्हूर, शराब से मख़्मूर हो गया।

    बैत

    साक़ी-ब-जल्वा दुश्मन-ए-ईमान-ओ-आगही

    मुतरिब ब-नग़्मा रहज़न-ए-तम्कीन-ओ-होश अस्त

    फिर उस साहिरा ने अपनी आँखें बंद कीं और उस जाम-ए-बादा से पैहम इस्तिफ़ादा किया। ये मामला कुछ देर चलता रहा, मय-नोशी से शुग़्ल होता रहा और मैं अब तक उस सेह्र की हक़ीक़त से यकसर बे-ख़बर खड़ा देखता रहा।

    फिर उस नाज़नीन ने लिबास-ए-फ़ाख़िरा उतारा और उर्याँ हुई और ना-चीज़ ने आँखें नीची कीं कि फ़क़ीर में उसके जिस्म को देखने की ताब नहीं थी लेकिन ग़ज़्ज-ए-बसर ता कुजा?

    बैत

    वा कर दिए हैं शौक़ ने बंद-ए-नक़ाब-ए-हुस्न

    ग़ैर-अज़-निगाह अब कोई हाइल नहीं रहा

    उसके बाल पिंडलियों तक लम्बे थे, जिसने उसके औरात को ढाँप रखा था और पूरा बदन उसकी तारीकी में मानिंद-ए-क़ुर्स-ए-माह दमकता था और आँखों में उस साहिरा की बला की चमक थी।

    फिर उस माह-ए-लिक़ा ने हौज़ में उतरने से पहले अपने पाँव की उँगलियों से पानी की हरारत को महसूस किया, और सर एक अदा-ए-रज़ा से ऐसे हिलाया जैसे उसकी हिद्दत से मुतमइन हो गई हो और फिर धीरे से हौज़ में यूँ उतर गई कि पानी में हल्का-सा भी इर्तिआश आया।

    जब पानी की बुलंदी उसके दोष तक आगई, तो उसने फ़ित्नों से पुर-बदन को पानी में हल्की जुंबिश दी, कुछ देर फिरती रही और फिर आँखें बंद करके साकित खड़ी रही। मैं उस नज़ारे की ताब ला सका और दफ़अतन अपने लिबास की क़ैद से आज़ाद हो गया और पानी में आहिस्ता से उतर कर उसकी तरफ़ बढ़ा।

    अपनी तरफ़ आता देख कर उसने तबस्सुम किया और हाथ खोल कर मुझे अपने हाथ और कुछ अपनी मख़्मूर आँखों, जिनमें मस्ती बरस रही थी, के इशारे से अपनी तरफ़ बुलाया और में कि जो उस रुख़-ए-ताबां के सेह्र में गिरफ़्तार था उसकी तरफ़ बढ़ता गया... बग़ैर किसी तरद्दुद के।

    क़रीब पहुँच कर उसे आग़ोश में लेकर वास्ते बोस-ओ-कनार के अपनी तरफ़ खींचना चाहा कि यकायक उसकी आँखें ख़ून-ए-रंग सुर्ख़ हुईं और उसने मुझ से अलग हो कर क़दरे दूर फेर कर मुँह ही मुँह में कुछ कहा और पानी पर फूँक दिया और इससे पहले कि मैं समझता, मेरे गिर्द हौज़ का पानी इस तौर सुरअत से मुंजमिद हो गया कि मेरे तन की हड्डियाँ चटख़ उठीं।

    बैत

    ना-गहान आन जवी समीन यख़-ब-बस्त

    इस्तख़वान आन जवान दर-तन-शिकस्त

    बांग-ए-ज़द वा बर-तक़दीर मन

    वा बर-फ़रियाद बी तासीर मन

    फिर उस मक्कार औरत ने अपना बायाँ हाथ बढ़ाया और उसके हाथ की हिद्दत से मेरे सीने पर पड़ी बर्फ़ पिघल गई और उसने अँगूठे से मेरी छाती को दबाया, और छाती के दरमियान से बाएं तरफ़ अपना पंजागाड़ कर मेरा धड़कता दिल नोच निकालने की जतन करने लगी और मैं मानिंद-ए-माही बे-आब तड़पने लगा... मुझे अपने सीने में दर्द महसूस हुआ... साँस रुकने लगी और फिर उसने अपने हाथ को एक झटका दिया।

    नागाह, जैसे मैं उस मंज़र से उछल कर बाहर गया और मैंने अपने आपको उसी गली में घोड़े के साथ उसी ज़न गदा के सामने खड़ा पाया लेकिन अब उसकी चादर मेरे हाथ में थी और सिक्का ज़मीन पर खनखना रहा था जैसे लम्हा ही तो हुआ हो जब मैंने सिक्का की तरफ़ फेंका था। मुझे कुछ समझ नहीं आया और यूँ लगा जैसे मैं कुछ मुद्दत ख़्वाब या आलम-ए-मदहोशी में रहा हूँ लेकिन उस औरत के चीख़ने पर कुछ लोग वहाँ जमा हो गए और उसने रोते-रोते सबको मेरी दस्त-दराज़ी का हाल अहवाल सुना दिया, वावेला मचाया और ग़श खा कर बेहोश हो गई।

    लोगों ने मुझे दफ़अतन शानों, साक़ों, टाँगों और बाज़ुवों से इस तौर पकड़कर जकड़ लिया कि हिलने की कोई सबील मुझे मिली और फिर दो सिपाही, मुस्तैद, चाक़-व-ओ-चौबंद चार हथियार बांधे मुझे, ज़ंज़ीरों में जकड़ कर, क़ाज़ी के पास ले गए। मैं हुनूज़ उस हर लम्हा बदलती सूरत-ए-हाल से गोया गुंग था कि इस्तिग़ासा ने क़ाज़ी से मेरे क़ैद करने की दरख़ास्त की कि मैंने उस औरत से दस्त-दराज़ी करने की कोशिश की थी। क़ाज़ी ने मेरी तरफ़ देखा और मुझसे इस्तिफ़सार किया।

    अजनबी मर्द तू अपनी सफ़ाई में क्या कहता है?

    मैंने सार अमाजरा मिन-ओ-अन बता दिया, जिस पर अदालत में लोगों ने नागवारी का इज़हार किया और कहा।

    मक्कार और झूठे शख़्स ये क्या माफ़ौक़-उल-फ़ितरत कहानी सुनाता है, बेहूदा गुफ़्तारी करता है, उस फ़क़ीरनी को तो हम मुद्दतों से जानते हैं, उसी शहर में बस्ती है और यहाँ उसी गली में कई सालों से भीक माँगती है।

    मैंने क़ता-ए-कलामी की और उनको टोका जिस पर क़ाज़ी का चेहरा ग़ज़ब से दहकने लगा।

    अजनबी नौजवान तू अपने तईं हमें पंघोड़े में अँगूठा चूसता बच्चा समझता है? हम सिर्फ़ मुद्दई के होश में आने का इंतिज़ार करते हैं और फिर अपना हुक्म सादिर करते हैं कि फिर इस क़िस्म का ठठा करने की किसी को जुरअत हो। ब-ख़ुदा इस शहर में औरतों की इज़्ज़तें महफ़ूज़ रहेंगी।

    हुज़ूर-ए-वाला, इंसाफ़ तो तब हो जो कोई उस दिवार तक मेरे साथ चले और आँखों से देखे उस क़सर को और उस मलऊना के सेह्र के कारख़ाने को और अगर ये सब कुछ हो, तो बंदा जो सज़ा आप कहें मिन-ओ-अन क़बूल करे।

    अपने ताबूत में आख़िरी कील ठोक के मैंने कह तो दिया लेकिन मुझे शक सा हुआ कि हो सकता है मुझे इश्तिबाह हुआ हो, मुमकिन है मैं फ़रेब-ए-नज़र का शिकार हुआ हूँ लेकिन अपने सीने में शदीद दर्द के एहसास से मुझे यक़ीन था कि दिवार के पीछे जाकर उस क़सर को देख कर क़ाज़ी को कुछ यक़ीन तो जाएगा और उस कटनी और पुछल पीरी को मस्लूब कर दम लेगा।

    क़ाज़ी ने मुझे दो गिराँ डील सिपाहियों के साथ, ज़ंज़ीरों में पाबंद उसी रास्ते पर दिवार की तरफ़ भेज दिया। हम चलते-चलते उसी गली से गुज़र कर उस मक़ाम पर पहुँचे जहाँ मुझे तवक़्क़ो थी कि उस दिवार को देख कर सिपाह और क़ाज़ी को मुतमईन करूँगा लेकिन मेरी हैरत की इंतहा रही जब मैंने देखा कि वहाँ कोई सरया आसार दीवार नहीं थी बल्कि वहाँ तो बंजर ज़मीन थी, हद निगाह तक। हाँ इस ज़मीन में जाबजा हल्का-सा उभार था जैसे शायद किसी ज़माने में दिवार रही हो।

    सिपाहियों ने जब ये माजरा देखा तो मुझे दिर्शती से लौट चलने को कहा और अब जब में दोबारा क़ाज़ी के सामने आया और उसने पूरी हिकायत सिपाहों से सुनी तो मेरी बात सुने बग़ैर मुझे ज़िंदान में डालने का हुक्म दिया कि मुद्दई की कहानी सुनने के बाद ही मुझे सज़ा देने का सोचेगा।

    उस ज़िंदानी सूरत-ए-हाल से दो-चार मेरी हालत-ए-ग़ैर हो गई। तीन दिन बाद में क़ाज़ी के सामने दोबारा पेश हुआ और अबकी बार वही गदागर ज़न, लिबास गदा में मल्बूस खड़ी थी।

    क़ाज़ी ने उस औरत से माजरा पूछा तो उस औरत ने कहा,

    मुझे कुछ याद नहीं शायद अंधेरा था, शायद कुछ तुंदी बाद में थी कुछ मेरे सोच में, और यूँ मेरी चादर उसके हाथ में आगई होगी और में समझी कि इसने खींची है, ऐन-मुम्किन है मैंने मामला समझे बग़ैर वावेला मचाया हो, मुझे कुछ इल्म नहीं और मुझे ये मर्द बे-क़सूर दिखाई देता है।

    क़ाज़ी ने बहतेरा पूछा लेकिन वो औरत अपने बयान पर डटी रही। क़ाज़ी ने दांत पीसे लेकिन फिर सोच कर उससे दिवार के बारे में इस्तिफ़सार किया तो उस औरत ने यकसर ला-इल्मी का इज़हार किया और फिर जब इस्तिग़ासा का कोई दावा नहीं रहा तो क़ाज़ी ने मुझे बरी कर दिया लेकिन तीस दिन तक मेरे शहर से बाहर जाने पर क़दग़न लगाई मुबादा ख़ातून को कुछ याद आजाए और मुक़दमा अज़-सर-ए-नौ खोलना पड़ जाये। मेरी जान में जान आई। सीने का दर्द भी रफ़्ता-रफ़्ता कम हो चला था।

    मैं अगरचे क़ानून के पंजों से आज़ाद हो चुका लेकिन हुनूज़ इस शश-ओ-पंज में गिरफ़्तार रहा कि उस शाम क्या हुआ और उस औरत ने क्यों मेरा दिल निकालने की सई की, और की भी या नहीं और फिर उस औरत का शहवत अंगेज़ बदन कुछ ज़ेहन पर ऐसा छा गया कि तीस दिन बाद भी उस शहर से निकला और तह तक उस मामले कि पहुँचने की कोशिश में लग गया।

    एक दिन दिल में ख़्याल ऐसा आया कि चाहा इस पर रम्ज़-ए-औरत का तआक़ुब करूँ। मैंने भेस बदला और लिबास एक फ़क़ीर का पहन कर इस कमान नुमा गली में उस से दूर बैठ कर लेकिन एक कोने में आईना मख़फ़ी लगा कर उस पर नज़र रखी।

    जब दिन बीत गया और शाम को उस औरत ने अपना दरयूज़ा रोज़ उठा कर गली में चलना शुरू किया तो मैंने भी कुछ फ़ासिला रखकर उसके पीछे चलना शुरू किया।

    वो घरों से दूर एक झोंपड़ी नुमा मकान में दाख़िल हुई और मैंने बहुत देर तक उसका इंतिज़ार किया लेकिन वहाँ से ना निकली। क़िस्सा मुख़्तसर ये सिलसिला तीन हफ़्ते चला और वो हमेशा उस झोंपड़ी में ही रही। मैंने एक दिन हिम्मत कर के उस झोंपड़ी के दर्ज़ से देखा तो उसे वहाँ सोते हुए पाया।

    मुझे कुछ शक अपने ज़हन और इस पूरे वाक़े पर हुआ और ब-तौर कफ़्फ़ारा एक दिन एक पीरज़न को साथ ले के उसके घर गया और उस से दरख़ास्त-ए-निकाह की उसने हैरत का इज़हार किया और पस-ओ-पेश के बाद साठ अशर्फ़ियों के महर पर मान गई और मैंने फ़िल-फ़ौर दो गवाह बुला कर इस कार-ए-नेक को अंजाम दिया।

    निकाह हुआ और मैंने ज़िंदगी के मज़े लूटे कि ना तो इस बीवी में कोई नुक़्स-ए-जिस्मानी देखा और ना रुहानी बल्कि इस अंगबीन बदन को पुर हलावत पाया और होंट मिस्री की डलियाँ।

    क़िस्सा मुख़्तसर हमने वहाँ से कूच किया और मैंने इस्फ़िहान में काम बज़्ज़ाज़ का शुरू किया जिसमें रज़्ज़ाक़ ने बरकत ऐसी डाली कि हर-सू मेरे नाम का डंका बजा। तिजारत ने दिन दुगुनी रात चौगुनी तरक़्क़ी की और एक दौर ख़ुशहाली का यूँ देखा कि अल्लाह ने मुझे क़सर रहने को फ़राहम किया और खाने के बर्तन सोने और चांदी के। एक तमन्ना दिल में औलाद की रही पर वो पूरी ना हुई लेकिन इस नाज़नीन की सोहबत में शुक्र रब का बजा लाता रहा।

    सालों बाद उस शहर का रुख दुबारा किया और बीवी को साथ लेकर उन गलीयों में गया जिनको देखकर उसने इज़हार-ए-हैरत किया। मैंने उस रात दुबारा तफ़सील के साथ पूरा वाक़िया सुनाया लेकिन उसने मुझे दीवाना बतलाया और उसे मेरा वहम क़रार दिया।

    मुझे क़रार ना था सो मैंने रक़म ख़तीर एक मुअम्मार को दी कि जो ना सिर्फ होनहार था बल्कि फ़न-ए-तामीर में भी होशयार था कि वास्ते मेरे इस नक़्शे पर एक दीवार-ए-सुरय्या आसार इस ज़मीन पर बना दे और इस दीवार के उस तरफ़ एक क़सर हज़ार सतून, मशालों वाला बिल्कुल उसी तर्ज़ पर बना दे। दिल में ख़्याल ये बाँधा कि अब अपनी बीवी के साथ वहाँ रहूँगा और इसी हौज़ में सोहबत किया करूँगा और इस बाइस एक तमानीयत अमीक़ क़ल्ब को हासिल हो गई और मेरी ख़ुशी का कोई ठिकाना ना था।

    चंद महीनों में एक क़सर शानदार मोजिब फ़रमाने के उस मुअम्मार ने तैयार करवा दिया जिसमें सतून हज़ार थे और मिशअलें ऊद की हर-सू धड़ धड़ जलती थीं कि रात पर गुमान दिन का हो। सेहन इस क़सर का संगमरमर का था और दरवाज़े तमाम संदल के थे लेकिन एक दरवाज़ा सोने का भी बनाया

    दीवार में एक शिगाफ़ क़द-ए-आदम ऐसा बनाया की जो ग़ौर करो तो ही दिखाई दे और उसके पीछे मिशअलें ख़ास ऐसी लगाऐं कि रोशनी का गुमान हो। यूँ इस क़सर को तैयार देखा तो ख़ुशी से फूले ना समाया, उस दिन शाम को अपनी बीवी को साथ चलने को कहा।

    “कहाँ जाना है, इतनी रात गए?”

    “ए मेरे आँखों की क़रार तुम चलो। आज तुम गदागर और मैं सिपाही ज़ादा बन कर रात को शहर की सैर करेंगे।”

    उसने त'अज्जुब तो किया लेकिन मेरे इसरार पर लिबास गदा-ज़न का पहना और मैं उसे गलीयों से गुज़ारता उस दीवार के सामने ले आया।

    “ये दीवार कहाँ से आई, यहाँ तो कोई दीवार नहीं थी।”

    मैंने कहा कि नेक बख़्त तुम अंदर तो दाख़िल हो, इस दीवार के। वो मूजिब मेरे इसरार के इस रौज़न में दाख़िल हो गई और जब उसने इस आलीशान क़सर को देखा तो फ़रहत का इज़हार किया और जब मैंने उसे ये बताया कि ये महल उसी का ही है तो इस की हैरत की इंतिहा ना रही।

    हम चलते चलते सेहन से गुज़र कर उस हौज़ में पहुँच गए। फिर मैंने ताली बजाई और चार कनीज़ें आईं जिन्हों ने इसका लिबास-ए-गदाई उतारा और उसे लिबास-ए-फ़ाखिरा पहनाया। मैंने उस के बदन की तरफ़ देखा।

    बैत

    उसने पहना तो उस के क़ामत पर

    जाम-ए-हुस्न बे-शिकन आया

    मैंने उसे फल मौसमी और ग़ैर मौसमी पेश किए जिसमें उसने अनार से और कुछ सेब से चखा और मैंने एक मख़फ़ी बरबत नवाज़ को इशारा किया कि ग़िना से माहौल को दहका दे।

    इस के बाद हम दोनों हौज़ में उतर गए और कनीज़ों से कामिल तख़्लिया तलब किया जो फ़िल-फ़ौर फ़राहम किया गया।

    “क्या बेहतर होता अगर तख़्त भी हुआ और ताज भी हो।”

    “तेरी सोहबत में हम पागल हुए जाते हैं, तख़्त-ओ-ताज का भी इंतिज़ाम किए देता हूँ ज़रा हौज़ में कुछ देर रहीं।”

    वो मान गई और हम देर तक इस हौज़ में खेलते रहे और बातें करते रहे फिर मैंने उसे आग़ोश में लिया और बोसा लेकर क़सद सोहबत का किया कि ऐन उसी वक़्त उस की आँखें ख़ून रंग-ए-सुर्ख़ हुईं और उसने मुझ से अलग हो कर क़दरे दूर पेर कर मुँह ही मुँह में कुछ कहा और मेरे गिर्द हौज़ का पानी दुबारा इसी तौर सुरअत से मुंजमिद हो गया कि मेरे तन की हड्डियाँ चटख़ा उठीं।

    फिर उस मक्कार और मनहूस औरत ने अपना बायाँ हाथ बढ़ाया और मेरे सीने पर पड़ी बर्फ़ को पिघला, अंगूठे से मेरी छाती को दबाया और अपना पंजा मेरी छाती में गाड़ कर कुछ देर मेरी छाती के परत टटोलती रही और फिर यक-दम मेरा धड़कता दिल नोच निकाला।

    ऐन उसी वक़्त छत में शिगाफ़ नमूरदार हुआ और चार कनीज़ें अब फ़रिश्ता शक्ल बन कर साथ एक मुरस्सा तख़्त के जिस में याक़ूत और मरजान जड़े थे नीचे उतरीं, उसे लिबास-ए-फ़ाखिरा दुबारा पहनाया और सर पर एक ज़रीन ताज क़ीमती नगों वाला रखा और एक ना-मानूस ज़बान में गुफ़्तगु की। फिर फ़रिश्तों की जिलौ में वो ज़न पुर-असरार तख़्त पर जलवागर लिबास-ए-फ़ाखिरा में मलबूस, सर पर ताज पहने, मेरा धड़कता दिल हाथ में पकड़े छत की तरफ़ बुलंद हुई और निगाहों से ओझल हो गई।

    मेरे गिर्द यकदम मंजमिद पानी रवाँ हो गया और मैं छाती छुपाए वहाँ से निकल आया।

    अबू मूसा तिरमिज़ी ने अपनी किताब अजीब 'अजीब-उल-'अजाइब। में लिखा है कि मैंने उस फ़क़ीर की पूरी बात सुनी और उसका नाम दरयाफ़त किया जो उसने हुस्न-ए-असफ़हानी बतलाया और तब मुझे उसकी कहानी पर यक़ीन हो चला क्योंकि सुलतान आली मक़ाम का एक सिपाही, जिसका नाम हसन असफ़हानी था, दमावंद के किसी देव को मारने के मुहिम पर मामूर बरसों से लापता था। उसकी दिल वाली बात पर अलबत्ता मुझे अब भी यक़ीन ना था। मैंने उसके सामने अपने शक का इज़हार किया तो उसने अपना गिरेबान खोला।

    मैंने देखा तो दंग रह गया कि वाक़ई उसके सीने में एक बड़ा सुराख़ था और अगरचे वहाँ अंदाम तनफ़्फ़ुस तो थे, जो साँस की तासीर से हिल रहे थे,, तमाम शिरयानें और वरीदें मुकम्मल हालत में थीं, और इसका दौरान-ए-ख़ून उसके मजरूह बदन में मुस्त'इदी से रवाँ-दवाँ था लेकिन उसकी छाती के अंदर जहाँ ग़िलाफ़ में दिल होना चाहीए, नापैद था। मैंने उसकी हालत-ए-ज़ार पर सद बार इस्तिग़फ़ार पढ़ी और यूँ मुझे इस पूरे माजरे पर यक़ीन गया कि किसी इन्सान के लिए ये भी मुमकिन है कि वो दिल के बग़ैर ज़िंदा रहे।

    الھم احفظنا من کل بلا الدنیا و عذاب الاخر

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