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हारता चला गया

सआदत हसन मंटो

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सआदत हसन मंटो

MORE BYसआदत हसन मंटो

    स्टोरीलाइन

    एक ऐसे व्यक्ति की कहानी है जिसे जीतने से ज़्यादा हारने में मज़ा आता है। बैंक की नौकरी छोड़ने के बाद फ़िल्मी दुनिया में उसने बे-हिसाब दौलत कमाई थी। यहाँ उसने इतनी दौलत कमाई कि वह जितना ख़र्च करता उससे ज़्यादा कमा लेता। एक रोज़ वह जुआ खेलने जा रहा था कि उसे इमारत के नीचे ग्राहकों को इंतज़ार करती एक वेश्या मिली। उसने उसे दस रूपये रोज़ देने का वादा किया, ताकि वह अपना धंधा बंद कर सके। कुछ दिनों बाद उसने देखा कि वह वेश्या फिर खिड़की पर बैठी ग्राहक का इंतेज़ार कर रही। पूछने पर उसने ऐसा जवाब दिया कि वे व्यक्ति ला-जवाब हो कर ख़ामोश हो गया।

    लोगों को सिर्फ़ जीतने में मज़ा आता है लेकिन उसे जीत कर हार देने में लुत्फ़ आता है।

    जीतने में उसे कभी इतनी दिक़्क़त महसूस नहीं हुई लेकिन हारने में अलबत्ता उसे कई दफ़ा काफ़ी तग-ओ-दो करना पड़ी। शुरू शुरू में बैंक की मुलाज़मत करते हुए जब उसे ख़याल आया कि उसके पास भी दौलत के अंबार होने चाहिऐं तो उसके अ’ज़ीज़-ओ-अ’का़रिब और दोस्तों ने इस ख़याल का मज़हका उड़ाया था मगर जब वो बैंक की मुलाज़मत छोड़ कर बंबई चला गया तो थोड़े ही अ’र्सा के बाद उसने अपने दोस्तों और अ’ज़ीज़ों की रुपये पैसे से मदद करना शुरू कर दी।

    बंबई में उसके लिए कई मैदान थे मगर उसने फ़िल्म के मैदान को मुंतख़ब किया। इसमें दौलत थी, शौहरत थी। इसमें चल फिर कर वो दोनों हाथों से दौलत समेट सकता था और दोनों ही हाथों से लुटा भी सकता था। चुनांचे अभी तक इसी मैदान का सिपाही है।

    लाखों नहीं करोड़ों रुपया उसने कमाया और लुटा दिया। कमाने में इतनी देर लगी जितनी लुटाने में। एक फ़िल्म के लिए गीत लिखे,लाख रुपये धरवा लिये। लेकिन एक लाख रूपों को रन्डियों के कोठों पर, भड़वों की महफ़िलों में, घोड़ दौड़ के मैदानों और क़िमार ख़ानों में हारते हुए उसे काफ़ी देर लगी।

    एक फ़िल्म बनाया। दस लाख का मुनाफ़ा हुआ। अब इस रक़म को इधर उधर लुटाने का सवाल पैदा हुआ। चुनांचे उसने अपने हर क़दम में लग़्ज़िश पैदा कर ली। तीन मोटरें ख़रीद लीं। एक नई और दो पुरानी जिनके मुतअ’ल्लिक़ उन्हें अच्छी तरह इल्म था कि बिल्कुल नाकारा हैं। ये उसने घर के बाहर गलने सड़ने के लिए रख दीं, जो नई थी उसको गैराज में बंद करा दिया। इस बहाने से कि पेट्रोल नहीं मिलता।

    उसके लिए टैक्सी ठीक थी। सुबह ली, एक मील के बाद रुकवा ली, किसी क़िमार ख़ाने में चले गए। वो अढ़ाई हज़ार रुपये हार कर दूसरे रोज़ बाहर निकले, टैक्सी खड़ी थी। उसमें बैठे और घर चले गए और जान-बूझ कर किराया अदा करना भूल गए। शाम को बाहर निकले और टैक्सी खड़ी देख कर कहा, “अरे नाबकार, तू अभी तक यहीं खड़ा है... चल मेरे साथ दफ़्तर। तुझे पैसे दिलवा दूं...” दफ़्तर पहुंच कर फिर किराया चुकाना भूल गए और...

    ऊपर तले दो तीन फ़िल्म कामयाब हुए जितने रिकार्ड थे सब टूट गए। दौलत के अंबार लग गए। शोहरत आसमान तक जा पहुंची। झुँझला कर उसने ऊपर तले दो-तीन ऐसे फ़िल्म बनाए जिनकी नाकामी अपनी मिसाल आप हो के रह गई। अपनी तबाही के लिए कई दूसरों को भी तबाह कर दिया। लेकिन फ़ौरन ही आस्तीनें चढ़ाईं जो तबाह हो गए। उनको हौसला दिया और एक ऐसा फ़िल्म तैयार कर दिया जो सोने की कान साबित हुआ।

    औरतों के मुआ’मले में भी उनकी हार-जीत का यही चक्कर कार फ़रमा रहा है। किसी महफ़िल से या किसी कोठे पर से एक औरत उठाई। उसको बना संवार कर शोहरत की ऊंची गद्दी पर बैठा दिया और उसकी सारी निस्वानियत मुसख़्ख़र करने के बाद उसे ऐसे मौक़े बहम पहुंचाए कि वो किसी दूसरे की र्गदन में अपनी बाहें हमायल कर दे।

    बड़े बड़े सरमायादारों और बड़े बड़े इश्क़ पेशा ख़ूबसूरत जवानों से मुक़ाबला हुआ। सर-धड़ की बाज़ियां लगीं। सियासत की बिसात बिछीं लेकिन वो इन तमाम ख़ारदार झाड़ियों में हाथ डाल कर अपना पसंदीदा फूल नोच कर ले आया। दूसरे दिन ही उसको अपने कोट में लगाया और किसी रक़ीब को मौक़ा दे दिया कि वो झपट्टा मार कर ले जाये।

    उन दिनों जब वो फ़ारस रोड के एक क़िमारख़ाने में लगातार दस रोज़ से जा रहा था, उस पर हारने ही की धुन सवार थी। यूं तो उसने ताज़ा ताज़ा एक बहुत ही ख़ूबसूरत ऐक्ट्रस हारी थी और दस लाख रुपये एक फ़िल्म में तबाह कर दिए थे। मगर इन दो हादिसों से उसकी तबीयत सैर नहीं हुई थी। ये दो चीज़ें बहुत ही अचानक तौर पर उसके हाथ से निकल गई थीं। उसका अंदाज़ा इस दफ़ा ग़लत साबित हुआ था, चुनांचे यही वजह है कि वो रोज़ फ़ारस रोड के क़िमार ख़ाने में नाप तौल कर एक मुक़र्ररा रक़म हार रहा था।

    हर रोज़ शाम को अपनी जेब में दो सौ रुपये डाल कर वह पवन पुल का रुख़ करता। उसकी टैक्सी टखियाइयों की जंगला लगी दूकानों की क़तार के साथ साथ चलती और वो जा कर बिजली के एक खंबे के पास रुक जाती। अपनी नाक पर मोटे मोटे शीशों वाली ऐ’नक अच्छी तरह जमाता। धोती की लॉंग ठीक करता और एक नज़र दाएं जानिब देख कर जहां लोहे के जंगले के पीछे एक निहायत ही बदशक्ल औरत टूटा हुआ आईना रखे सिंगार में मसरूफ़ होती ऊपर बैठक में चला जाता।

    दस रोज़ से वो मुतवातिर फ़ारस रोड के इस क़िमार ख़ाने में दो सौ रुपया हारने के लिए रहा था। कभी तो ये रुपये दो तीन हाथों ही में ख़त्म हो जाते और कभी इनको हारते हारते सुबह हो जाती।

    ग्यारहवें रोज़ बिजली के खंबे के पास जब टैक्सी रुकी तो उसने अपनी नाक पर मोटे मोटे शीशों पर वाली ऐ’नक जमा कर और धोती की लॉंग ठीक करके एक नज़र दाएं जानिब देखा तो उसे एक दम महसूस हुआ कि वो दस रोज़ से इस बदशक्ल औरत को देख रहा है। वो हस्ब-ए-दसतूर टूटा हुआ आईना सामने रखे लकड़ी के तख़्त पर बैठी सिंगार में मसरूफ़ थी।

    लोहे के जंगले के पास कर उसने ग़ौर से उस अधेड़ उम्र की औरत को देखा। रंग स्याह, जिल्द चिकनी, गालों और ठोढ़ी पर नीले रंग के छोटे छोटे सूई से गुँधे हुए दायरे जो चमड़ी की स्याही में क़रीब क़रीब जज़्ब हो गए थे। दाँत बहुत ही बदनुमा, मसूड़े पान और तंबाकू से गले हुए। उसने सोचा, इस औरत के पास कौन आता होगा?

    लोहे के जंगले की तरफ़ जब उसने एक क़दम और बढ़ाया तो वो बदशक्ल औरत मुस्कुराई। आईना एक तरफ़ रख कर उसने बड़े ही भोंडेपन से कहा, “क्यों सेठ रहेगा?”

    उसने और ज़्यादा ग़ौर से उस औरत की तरफ़ देखा जिसे इस उम्र में भी उम्मीद थी कि उसके गाहक मौजूद हैं। उसको बहुत हैरत हुई। चुनांचे उसने पूछा, “बाई, तुम्हारी क्या उम्र होगी?”

    ये सुन कर औरत के जज़्बात को धक्का सा लगा। मुँह बिसोर कर उसने मराठी ज़बान में शायद गाली दी। उसको अपनी ग़लती का एहसास हुआ। चुनांचे उसने बड़े ख़ुलूस के साथ उससे कहा, “बाई, मुझे माफ़ कर दो। मैंने ऐसे ही पूछा था लेकिन मेरे लिए बड़े अचंभे की बात है। हर रोज़ तुम सज धज कर यहां बैठती हो। क्या तुम्हारे पास कोई आता है?”

    औरत ने कोई जवाब दिया। उसने फिर अपनी ग़लती महसूस की और उसने बग़ैर किसी तजस्सुस के पूछा, “तुम्हारा नाम क्या है?”

    औरत जो पर्दा हटा कर अंदर जाने वाली थी रुक गई, “गंगूबाई।”

    “गंगूबाई, तुम हर रोज़ कितना कमा लेती हो?”

    उसके लहजे में हमदर्दी थी। गंगूबाई लोहे के सलाखों के पास गई, “छः-सात रुपये... कभी कुछ भी नहीं।”

    “छः-सात रुपये और कभी कुछ भी नहीं।” गंगूबाई के ये अलफ़ाज़ दुहराते हुए उन दो सौ रूपयों का ख़याल आया जो उसकी जेब में पड़े थे और जिन को वो सिर्फ़ हार देने के लिए अपने साथ लाया था। उसे मअ’न एक ख़याल आया, “देखो गंगूबाई, तुम रोज़ाना छः-सात रुपये कमाती हो। मुझसे दस ले लिया करो।”

    “रहने के?”

    “नहीं... लेकिन तुम यही समझ लेना कि मैं रहने के दे रहा हूँ।” ये कह कर उसने जेब में हाथ डाला और दस रुपये का एक नोट निकाल कर सलाखों में से अंदर गुज़ार दिया, “ये लो।”

    गंगूबाई ने नोट ले लिया लेकिन उसका चेहरा सवाल बना हुआ था।

    “देखो गंगूबाई, मैं तुम्हें हर रोज़ इसी वक़्त दस रुपये दे दिया करूंगा लेकिन एक शर्त पर।”

    “सरत?”

    “शर्त ये है कि दस रुपये लेने के बाद तुम खाना-वाना खा कर अंदर सो जाया करो... रात को मैं तुम्हारी बत्ती जलती देखूं।”

    गंगूबाई के होंटों पर अ’जीब-ओ-ग़रीब मुस्कुराहट पैदा हुई।

    “हंसो नहीं। मैं अपने वचन का पक्का रहूँगा।”

    ये कह कर वो ऊपर क़िमार ख़ाने में चला गया। सीढ़ियों में उसने सोचा मुझे तो ये रुपये हारने ही होते हैं। दो सौ सही एक सौ नव्वे सही।

    कई दिन गुज़र गए। हर रोज़ हस्ब-ए-दस्तूर उसकी टैक्सी शाम के वक़्त बिजली के खंबे के पास रुकती। दरवाज़ा खोल कर वह बाहर निकलता। मोटे शीशों वाली ऐ’नक में से दाएं जानिब गंगूबाई को आहनी सलाखों के पीछे तख़्त पर बैठी देखता। अपनी धोती की लॉंग ठीक करता जंगले के पास पहुंचता और दस रुपये का एक नोट निकाल कर गंगूबाई को दे देता। गंगूबाई उस नोट को माथे से छू कर सलाम करती और वो एक सौ नव्वे हारने के लिए ऊपर कोठे पर चला जाता। इस दौरान में दो तीन मर्तबा रुपया हारने के बाद जब वो रात को ग्यारह बजे या दो तीन बजे नीचे उतरा तो उस ने गंगूबाई की दुकान बंद पाई।

    एक दिन हस्ब-ए-मा’मूल दस रुपये दे कर जब वो कोठे पर गया तो दस बजे ही फ़ारिग़ हो गया। ताश के पत्ते कुछ ऐसे पड़े कि चंद घंटों ही में एक सौ नव्वे रूपों का सफ़ाया हो गया। कोठे से नीचे उतर कर जब वो टैक्सी में बैठने लगा तो उसने क्या देखा कि गंगूबाई की दुकान खुली है और वो लोहे के जंगले के पीछे तख़्त पर यूं बैठी है जैसे ग्राहकों का इंतिज़ार कर रही है। टैक्सी में से बाहर निकल कर वह उसकी दुकान की तरफ़ बढ़ा। गंगूबाई ने उसे देखा तो घबरा गई लेकिन वो पास पहुंच चुका था।

    “गंगूबाई ये क्या?”

    गंगूबाई ने कोई जवाब दिया।

    “बहुत अफ़सोस है तुमने अपना वचन पूरा किया... मैंने तुमसे कहा था... रात को मैं तुम्हारी बत्ती जलती देखूं... लेकिन तुम यहां इस तरह बैठी हो।”

    उसके लहजे में दुख था। गंगूबाई सोच में पड़ गई।

    “तुम बहुत बुरी हो।” ये कह कर वो वापस जाने लगा।

    गंगूबाई ने आवाज़ दी, “ठहरो सेठ।”

    वो ठहर गया। गंगूबाई ने हौले-हौले एक एक लफ़्ज़ चबा कर अदा करते हुए कहा, “मैं बहुत बुरी हूँ। पर यहां चांगली भी कौन है? सेठ तुम दस रुपये दे कर एक की बत्ती बुझाते हो... ज़रा देखो तो कितनी बत्तियां जल रही हैं।”

    उसने एक तरफ़ हट कर गली के साथ साथ दौड़ती होई जंगला लगी दुकानों की तरफ़ देखा। एक ख़त्म होने वाली क़तार थी और बेशुमार बत्तियां रात की कसीफ़ फ़िज़ा में सुलग रही थीं।

    “क्या तुम ये सब बत्तियां बुझा सकते हो?”

    उसने अपनी ऐ’नक के मोटे मोटे शीशों में से पहले गंगूबाई के सर पर लटकते हुए रोशन बल्ब को देखा। फिर गंगूबाई के मटमैले चेहरे को और गर्दन झुका कर कहा, “नहीं, गंगूबाई नहीं।”

    जब वो टैक्सी में बैठा तो उसकी जेब की तरह उसका दिल भी ख़ाली था।

    स्रोत:

    نمرودکی خدائی

      • प्रकाशन वर्ष: 1952

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