पुराना शहर
पुराने शहर की फ़सीलें मुनहदिम हो चुकी हैं। शहर ज़रूर सलामत है। इस तरह नूर मुहल्ला और नूर मस्जिद ब-क़ैद-ए-हयात हैं। उन्हें लोग जानते हैं। बेगम नूर-ए-हयात को भूल गए हैं।
उसकी तो क़ब्र का निशान भी नहीं रहा। उसी ने ये मुहल्ला बसाया और छोटी सी इबादत गाह भी बना दी जिसकी मरम्मत की ज़िम्मेदारी अल्लाह रक्खा ने अपने चौड़े चक्के काँधों पर डाल ली। इस कार-ए-ख़ैर में अबदुर्रहमान फ़ारूक़ी शरीककार था। वो कूची फेर देता और अल्लाह रक्खा क़लई मंगवा लेता। यूं काम बन जाता और फिर साल भर के लिए छुट्टी हो जाती।
अल्लाह रक्खा ने कुछ सोच कर मेहतरानियों की गली के दहाने पर अपनी इम्पीरियल सोडा वाटर फ़ैक्ट्री की दाग़ बेल डाली। यहां गहमा-गहमी रहती। हफ़्ते में कम अज़ कम एक-बार कोई न कोई मेहतरानी जलाल में आती और किसी इख़्तिलाफ़ी मसले की बिना पर हमसाये से टक्कर लेती। फिर टकराव के मुज़ाहिरे को फ़ैसलाकुन बनाने और ट्रैफ़िक रोकने के लिए गली से निकल कर वो सड़कों के बीचों बीच आ जातीं। ख़ुदादाद ज़हानत और क़ुदरत के अता कर्दा तख़्लीक़ी जौहर की बदौलत निहायत फ़सीह-ओ-बलीग़ गालियां वज़ा करतीं। गालियों से दाल न गलती तो एक दूसरे के कपड़े फाड़ देतीं। फिर भी केथारसज़ न होता तो एक दूसरे पर चढ़ दौड़तीं और ऐसे ऐसे दावं-पेच काम में लातीं जिनका ज़िक्र कोक शास्त्र में भी नहीं मिलता।
अल्लाह रक्खा कभी बीच बचाव न करता। बस जी ख़ुश करता। अपनी सफ़ेद पोशी की हिफ़ाज़त करता जो सफ़ेद क़मीज़, सफ़ेद शलवार और एक रूमी टोपी पर मुश्तमिल थी। अपना इमेज उभारने के लिए वो हर इतवार की सुबह सफ़ेद जोड़ा ज़ेब-ए-तन करता। ये मामूल उम्र-भर रहा। बड़ा आदमी बनने के लिए वो सफ़ेद पोशी को ज़रूरी समझता और एक प्लान के तहत काम करता। क़िस्मत की बात है कि उसे तीन रुपये माहवार पर अस्तबल मिल गया और उसके साथ पंद्रह रुपये माहवार पर घोड़ों के मालीशिए भय्या जी को भी रख लिया।
अल्लाह रक्खा का क़द छोटा था। क़दआवर बनने की आरज़ू रखता थी। फुट रोल क़द बढ़ा न सकता था। मशीन हाथ से चलती थी। उसने अपने तूल-ओ-अर्ज़ से कहीं बड़ा साइन बोर्ड बनवाया। उस पर मोटे क़लम से उर्दू और अंग्रेज़ी में इम्पीरियल सोडा फ़ैक्ट्री लिखवाया। जब चमकता दमकता ये बोर्ड अस्तबल पर आवेज़ां किया गया और अल्लाह रक्खा के होंटों पर मोना लिज़ा से क़दर-ए-ज़्यादा मुस्कुराहट नुमूदार हुई, क़द-आवरी का नुस्ख़ा हाथ लगा, बाहर सड़क पर आराम कुर्सी रखवाई, पहलू में हुक़्क़ा रखा, अदाए नख़वत से कश लगाने और आने जानेवाले का रद्द-ए-अमल मालूम करने लगा।
हुक़्क़ा उसकी ज़िंदगी का जुज़्व-ला-एनफ़क था। उसकी आदत उसे अपने मरहूम बाप अल्लाह वसाया का हुक़्क़ा ताज़ा करते करते पड़ी। अपने बाप की याद ताज़ा रखने की ग़रज़ से वो अपना हुक़्क़ा आप ताज़ा करने लगा। एक तरफ़ उसने क़दामत पसंदी का सबूत दिया और दूसरी तरफ़ सोडा वाटर फ़ैक्ट्री क़ायम करके सनअती इन्क़िलाब से इस्तिफ़ादा किया। वैसे उसने सनअती इन्क़िलाब की पैदावार... लीद भरे तार और पेड्रो के सिगरेट को मुँह न लगाया। एक पैसे में दस सिगरेट क्या बुरे थे लेकिन किसी ने उसके दिल में ये बात बिठा दी:
यू रयाए ख़ुद ब-क़ालीनश मदह
बैज़क़ ख़ुद रा ब-फ़र्ज़ेनिश मदह
उसे समझा दिया गया कि फ़िरंगी सनअती इन्क़िलाब की बदौलत मशरिक़ से उभरने वाले सूरज के साथ ज़ेर-ए-हिरासत मुमालिक को बड़ी बेदर्दी से ज़ेर-ओ-ज़बर कर रहा है।
हुक़्क़े की गुड़गुड़ से उसे यूं महसूस होता जैसे वो उससे हमकलाम हो। ऐसे में वो गहरी सोच में पड़ कर मुस्तक़बिल के समुंदर में डूब जाता और देर तक डूबा रहता। इलाक़े का वाहिद सनअतकार था। लोग उसे और इम्पीरियल सोडा वाटर फ़ैक्ट्री के बोर्ड को रश्क और हसद के मिले जुले जज़्बात से देखते। पास से गुज़रने वाले सलाम ज़रूर करते। ख़ामोशी का दौरा शिद्दत इख़्तियार कर लेता तो उसे अपनी भी सुध-बुध न रहती, सलाम का जवाब कैसे देता? वैसे मैं वो किसी का सलाम मौसूल ही न करता।
अबदुर्रहमान फ़ारूक़ी उसे जज़्ब की कैफ़ियत से नजात दिलाने की ग़रज़ से लोहे की कुर्सी उठा कर लाने की बजाय घसीट कर लाता। ये तरकीब ग़ैर मुअस्सिर साबित होती तो हुक़्क़े की नली उसके हाथ से छीन लेता और उसकी मेहर-ए-खामोशी तोड़ देता।
अबदुर्रहमान फ़ारूक़ी उसका लँगोटिया यार था। सफ़ेद पोशी का भरम रखने की ग़रज़ से लोगों के मकानों में सफ़ेदी करता। उसे दानिश्वर बनने की भी धुन थी, चुनांचे अपने यार फ़ज़ल कबाड़िये की दुकान से नैरंग-ए-ख़याल, साक़ी और आलमगीर के पर्चे ख़रीद लाता। लाम अहमद के अफ़साने बड़ी रग़बत से पढ़ता।
अब दोनों में सिलसिला-ए-कलाम जारी होता...।
हुक़्क़ा पीता है तो हुक़्क़ा पिया कर! उसे ज़ाए न किया करो।
बलिया! मैंने इम्पीरियल सोडा वाटर फ़ैक्ट्री कुछ ज़ाए करने के लिए नहीं, कुछ हासिल करने के लिए बनाई है।
क्या बनाया है? क्या बनाएगा?
नूर मुहल्ला, ये तो अपना घर है... इधर टकसाली दरवाज़ा, अज़ीज़ थिएटर तक का इलाक़ा... उधर बाज़ार शेख़ुपुरियां, हीरा मंडी और भाटी दरवाज़ा फ़तह कर लिया है मैंने। मेरा पानी यहां लग जाता है।
केसरी और पंजाब सोडा वाटर फ़ैक्ट्री का मुक़ाबला कैसे करेगा?
इसी सोच में तो मैं गुम रहता हूँ।
गुम रहता है तो कहीं अपने आपको गुम न कर बैठना!
फ़ैक्ट्री न बनाता तो ज़रूर बर ज़रुर अपने आपको गुम कर बैठता। अब तो मैंने अपने आपको पा लिया है।
अबदुर्रहमान फ़ारूक़ी चुप हो जाता। वो इतना ज़रूर सोचता कि अल्लाह रक्खा जैसा कामिल बंदा क्या करेगा? फ़ैक्ट्री चलाना उसके बस का रोग नहीं। उसके लिए बड़े चुस्त चालाक, होशियार वेलदार बंदे की ज़रूरत है।
अल्लाह रक्खा का काम चल निकला। उसने पंजाब फ़ैक्ट्री और केसरी सोडा वाटर फ़ैक्ट्री की पर्वा नहीं की। सोडा, लेमन, केला, रोज़, जिंजर सभी क़िस्म का माल सप्लाई करने लगा। बंद गोली वाली बोतलें नौ आने दर्जन के हिसाब से देता। दुकानदार इकन्नी बोतल के हिसाब से बेचते। शाम की वटक से उसे दो अढ़ाई रुपये की बचत होती। रक़म ख़ासी बड़ी थी। वो रुपया बारह आने ख़र्च करता, बाक़ी अलमारी में रखता।
जब अस्तबल था तो बरकती उसकी सफ़ाई करती बल्कि सफ़ाई कम और नख़रा ज़्यादा करती। अल्लाह रक्खा को भली लगी। उसने दो रुपये माहवार पर रख लिया। वो बहुत ख़ुश हुई। अपने आपको दिलकश बनाने के लिए हर रोज़ एक पैसे का मीठा बनारसी पान खाती और दूसरे दिन दमड़ी का दनदासा मलती। हर इतवार को मल्हक़ा बाग़ की नहर पर जा कर कपड़े धोती और दोपहर तक सुखा लेती। उन्हें पहन कर गली और बाज़ार का चक्कर ज़रूर लगाती, हँसती-मुस्कुराती, अपने दाम बढ़ाती।
जूँ-जूँ फ़ैक्ट्री की सेल बढ़ी, बरकती और भय्या जी की तनख़्वाह बढ़ी। भय्या जी ये देखकर रंजीदा हुआ कि वो काम करते करते चूर हो जाता, उसकी तनख़्वाह तो बढ़नी चाहिए, बरकती की तनख़्वाह किस हिसाब से बढ़ती है? एक दिन उसने कह ही दिया: मियां! ये छोकरी क्या पाल रखी है? कौड़ी का काम नहीं करती और हर महीने महीने पैसे एँठ कर ले जावे है। काहे को?
भय्या जी! ये सियासत है। तू नहीं समझता।
सब समझूं हूँ मियां! झाड़ू कम लगावे है, नख़रा ज्यादा दिखावे है।
भय्या जी! कभी उसका मुखड़ा देख!
देखा है। घरवाली को देखता हूँ। बाहर ताँक-झांक नाहीँ करता हूँ औरत वो अच्छी जो खूंटे से बंधी होवे।
भय्या जी! उस का मुखड़ा धुला हुआ चांद है। पान खाती है तो बलियां लाल हो जाती हैं। पहले ही कम लाल नहीं। दानदासा मलती और दाँत मोतियों की तरह चमकाती है।
इतने में गामा लाली वाला वंद मोतियां दे दाने। हिस्स देते फल खड़वे गाना गाता आया और चिल्ला कर बोला:
मियां दोपहर का वेला आन लगा। कब पहुँचेगा पानी?
आता है पानी। भय्या जी ज़रा दिल लगी कर रहा था।
हम दिल लगी नाहीँ करत हैं। लाली वाले बावू! तू चल। डाला लेकर आता हूँ, भय्या जी ने मशीन की जानिब जाते-जाते कहा।
और तेरी ख़ैर होवे! कह कर गामा लाली वाला चला गया। भय्या जी डाला लेकर पीछे पीछे गया। एक दो डाले हों तो भय्या जी उठाकर ले जाता, ठेलिए में रखकर न ले जाता, जिसकी खड़ खड़ दूर तक एलान करती जाती कि भय्या जी आ रहा है।
मैदान ख़ाली हुआ। अल्लाह रक्खा अपने आपसे हमकलाम हुआ: क्या बे सुरा बंदा है। अच्छी चीज़ भी उसे बुरी लगती है।
इतने में काम करने वाली आगई और हमकलामी का सिलसिला टूट गया।
दरमियाने क़द की औरत... औरत से सवा थी। अल्लाह रक्खा को देखते ही मुस्कुराई। मुस्कुराहट और फिर जवानी की मुस्कुराहट, बड़ा मुअस्सिर हथियार था। अल्लाह रक्खा तो क्या, जिसे चाहती उस हथियार से मग़्लूब कर लेती बल्कि वो आप ही आप फ़तह हो जाता। दंदांसे ने होंट गहरे निसवारी कर दिये थे। मस्ती से लबरेज़ बड़ी बड़ी कजलाई आँखें चौ मुखियादार करतीं और देखने वाले चित्त हो जाते। भरपूर शबाब, कमर से ऊपर ज़ोर आवरी के दो निशान, चुन्नी ढलक ढलक जाती और शबाब मंज़र-ए-आम पर आ जाता। लंबे बाल दो गत्तों में तक़्सीम किए हुए, ग़ज़ब की शान-ए-रानाई थी। हर अज़ू साँचे में ढला हुआ था। अपने वक़्त की अफ़्रो दाएती थी।
अल्लाह रक्खा पर अपने बांकपन का वार करते हुए अंदर लेमन के डालों की तरफ़ चली गई। अंगूठे के ज़ोर से अद्धा खोला, पिया और अल्लाह रक्खा से बातचीत करने के लिए आ रही थी कि भय्या जी ख़ाली डाले लिए फ़ैक्ट्री में दाख़िल हुआ। उसके आते ही लबरेज़ बदन और शोख़ तेवरों वाली बरकती नौ दो ग्यारह हो गई। भय्या जी बदज़ौक़ सही, लेकिन अख़्लाक़ियात के मुआमले में खरा बंदा था। बद-अख़्लाक़ी उसे किसी क़ीमत पर गवारा न थी।
अल्लाह रक्खा कुर्सी और हुक़्क़ा लेकर सड़क पर आ गया और बरकती की बेबसी पर मुस्कुराया। भय्या जी ही ऐसा बंदा था जिस पर बरकती का वार ख़ाली जाता और वो पस्पा हो जाती।
भय्या जी ने डाले रखे और अल्लाह रक्खा के पास आया। बोला: मियां! क्या देवत है ये चुलबुली छोकरी? क्या बच्चा लेवत हो उससे?
अरे नहीं भय्या जी! सारा खेल पैसे का है। पैसा पल्ले हो तो थोड़ी बहुत दिल लगी कर लेनी चाहिए। नहीं तो जी ख़राब हो जाता है।
जी खराब होवे तो सादी करले बंदा। जीवन बिगाड़ देवत है ये छोकरी।
ना ना भय्या जी! कमर में हाथ डालने और मुँह चूमने से क्या बिगड़ता है उसका या मेरा?
भय्या जी अन्दर चला गया। समझ गया के मालिक से उलझने और रुस्वा करने का उसे हक़ नहीं। रम्ज़-ओ-कनाया का फ़न उसे आता न था। वो पर्दा डाले बग़ैर खरी बात करता।
अल्लाह रक्खा बड़ा उजला रहता और वटक भी खरी थी उसकी। हक़ीक़त पर पर्दा डालने के लिए उसने दानिस्ता हिसाब किताब के लिए मैली कुचैली कापी रखी थी। कापी लेकर वसूलियाँ करने चला गया।
हर दुकनदार अपनी अपनी बोली बोलता। गामां लाली वाले की तो बस एक ही रट थी: मियां! मेरी दुकनदारी न मार! बड़ी मुश्किल से अच्छा ठिकाना मिला है। अद्धेलिए ज़्यादा दिया कर, बोतलें कम!
एक ही बंदा है मेरे पास! तेरे हाथों को मेहंदी लगी है। आकर डाला ले जाया कर!
मियां! कभी मोक़या बने तो आ जाता हूँ। दुकान खुली छोड़कर डाला लेने नहीं जा सकता। ख़ाली थान देखकर जो चोरी नहीं करता वो भी करता है। अद्धे तीन बार चाहिये मुझे! बेशक पैसे पहले ले-ले!
ना। ये काम नहीं करता मैं। पेशगी लेता हूँ न उधार देता हूँ। सौदा नक़द ब नक़दी का!
कामिनी की और ही सोच थी। टिब्बी के दहाने पर दुकान थी उसकी। ख़ुशहाल थी। फ्रीलांसर थी। उम्र कच्छी हुई थी। जवानी ढल चली थी। फिर भी तनाबें खिची हुई थीं। कस थी बदन में। सांची के पान और क़ैंची के सिगरेट उसी से मिलते। बटी का डरबा उसने लाल ख़ां की ख़ातिर छोड़ा और उसकी दुकान पर आ बैठी। लाल ख़ां सौदा लेने जाता तो दुकान बंद न करता। कामिनी सँभाल लेती। वो तो दुकान वाले को भी सँभाल लेती जिसने अपने समेत दुकान उसके हवाले कर दी थी, लेकिन ता बिके? जब मौत का रेला आया तो वो उसे संभाल न सकी। वो ख़ुद डांवांडोल हो गई। टब्बी में उसका डरबा ख़ाली न रहा था। ख़ाली हो तब भी वो लौट कर वहां न जाती।
अल्लाह रक्खा को आते देखकर पुड़िया में रखे हुए दाम संदूकची से निकाले और सामने रख दिए। अल्लाह रक्खा ने पुड़िया उठाई, पैसे गिने और जेब में रख लिये।
मियां! मैं तेरे पैसों में बेईमानी नहीं करती।
कमली है तू भी। भूल चूक हो जाती है बंदे से।
मियां! एक बात है। तेरा बड़ा फयदा है इसमें। इतनी दूर फ़ैक्ट्री बनाई है। वहां दिन भर बैठा मक्खियां मारता होगा। अल्लाह वसाई का मकान ख़ाली होने वाला है। बड़ी कच्ची जगह है।
अल्लाह वसाई का नाम सुनकर वो चौकस हुआ। उसने पूछा, कहाँ जा रही है अल्लाह वसाई?
जाना कहाँ है? बराबर के बज़ार में चांद ख़ां मिठाई वाले की दुकान के सामने चबारा ख़ाली पड़ा है। जगह अच्छी है इससे। वहां जा रही है।
अच्छा।
ख़ाली होने वाला चबारा बिकाऊ है। बड़ी ठिकाने की थां है। आधे गाहक तेरे इसी इलाक़े के हैं। ले-ले ये चबारा। बैठां बैठक में फ़ैक्ट्री लगाना! ऊपर अपना डेरा जमाना!
अच्छा सोच लेंदे कामिनी! कारोबारी मुआमला है। सोच विचार के बाद ही फ़ैसला करता हूँ। फ़ैक्ट्री है फ़ैक्ट्री मज़ाख़ नहीं।
क्या सोचना है तुझे? गोल्डन चांस है, ये हाथ से निकल गया तो सारी उम्र सोचता ही रहेगा। अल्लाह वसाई ऊंचे चुबारे में चली जाएगी तू दादर के अस्तबल ही में पड़ा रहेगा।
खोते का भी सौदा करना हो तो बंदा फिर भी सोच विचार कर लेता है।
मत कर सोच विचार! यहां आएगा तो भरे मेले में आएगा। शराब के अद्धे-पव्वे आधी रात तक बिकते हैं यहां। सोडा मनों मुँह उठता है। तेरे आने से मुझे अरमान हो जाएगा।
हूँ।
फिर यहां आ कर तेरा जी लग जाएगा। कारोबार दूना हो जाएगा। फिर हंस कर बोली, तेरी ख़िदमत फ़ला करूँगी। तेरा पैसा मुझ पर हराम। पाई लूँगी तो पाई पाई रोज़ के रोज़ दूँगी। इलाक़ा अधी रात तक जगमग-जगमग करता है। अज़ीज़ ठेटर के आगे जो आठ, दस दुकानें हैं वहां भबके जलते हैं। यहां कोई भबका नहीं जलता। दिन ढलते ही नया दिन चढ़ता है। लैम्प, लाटीन, हरी केन और बिजली के आन्डे जलने लगते हैं। फिर ज़रा तवक़्क़ुफ़ किया और कहा, ले फड़! क़ैंची के सिगरट पी! आम लोग पेड्रो के सिगरट पीते हैं। खास खास लोग क़ैंची के सिगरट पीते हैं।
मैं सिगरट नहीं पीता। हुक़्क़ा ठीक है।
तू आ तो सई। हुक़्क़े का बंदोबस्त भी हो जाएगा।
इतने में दिलावर शेर फ़रोश आया और शक्ल दिखा कर चला गया।
वो बोली, अल्लाह रक्खा! ये जो शख़्श है ये मंडूवा टूटने तक दुकान खुली रखता है। फिर कभी कभी आधी आधी रात को आकर मेरा बोहा खड़काता है। कम ज़ात जुआरी कहीं का!
अल्लाह रक्खा को कामिनी की बातें अच्छी लगीं, खासतौर पर लल फ़ला वाली बात। आज उसने पहली बार उसकी दुकान पर इतनी देर तक बातें कीं और सुनीं वर्ना वो तो किसी से फ़ालतू बात न करता। पैसे लिये और अगली दुकान का रास्ता लिया। उसे कामिनी माक़ूल सियानी मालूम हुई। उसने उसका हुदूद-ए-अर्बा जाँचा। जब कामिनी ने पान बना के बड़ी अदा से उसे पेश किया तो अल्लाह रक्खा ने उसकी लाँबी लाँबी, पतली-पतली उंगलियों को देखा जिन पर कत्थे का पक्का लाल रंग चढ़ा था। वो हमीदा जुआरी न था वर्ना उंगलियां पकड़ कर धीरे धीरे मरोड़ता। उनके लम्स से दिल की धड़कन तेज़ करता। कोहनियों तक चढ़ा रक्खी थीं आसतीनें उसने साफ़ सुथरी चमड़ी अल्लाह रक्खा को भली लगी। अधेड़ उम्र की थी लेकिन उम्र के आसार अयाँ थे, नुमायां न थे। चेहरा बेदाग़ था। बातें करती, हँसती मुस्कुराती जाती। बहार के दिन अभी लद न गए थे। आँखों में सवेरा जाग रहा था। उसने इस अदा से अंगड़ाई ली जैसे जवानी को बेदार कर रही हो। औरत को इस आलम में देखकर उस मुक़ाम पर जा पहुंचा जहां हैरत के सिवा कुछ नहीं होता। बेख़ुद हो गया।
फ़ैक्ट्री के इंतिक़ाल का मसला सूदो ज़ियाँ की हुदूद से निकल कर दिल तक जा पहुंचा।
अल्लाह वसाई ने मकान छोड़ दिया। अल्लाह रक्खा ने रोक लिया। बात कल पुर्ज़े उखाड़ने की न रही, सोच में एक औरत कुलबुलाई। अल्लाह वसाई तो हर जगह अल्लाह वसाई थी। अल्लाह रक्खा की निस्बत कुछ नहीं कहा जा सकता, ये भी अल्लाह रक्खा हर जगह अल्लाह रक्खा ही रहेगा।
वो पहले भी हिसाब की मैली कुचैली कापी लेकर यहां आता, चवन्नियां अठन्नियां बटोर कर चला जाता। कामिनी ने भी कभी जाल न फेंका। ये तो सब तक़दीर का किया धरा था जो अपने वक़्त पर काम कर दिखाती है।
अल्लाह रक्खा ने नई मुतालागाह में क़दम रखा। नई दुनिया में आया।
नेकी और बदी के तूफ़ानों से खेलती हुई ये दुनिया गोरख धंदा थी। चारों खूंट भले मानुसों की माड़ियां थीं। छोटी छोटी कोठड़ियों के ऊपर कोठे थे। डेरादारनियों और टिकयाइयों के ठिकाने शुरफ़ा की हवेलियों से जुड़े हुए थे, लेकिन दीवारें आपस में बातें न करतीं। कोई दीवार न फाँदता, इधर उधर न झाँकता, हर एक को अपने काम से काम था। इस अद्म-ए-मदाख़लत ने अद्म-ए-तशद्दुद की सूरत इख़्तियार कर ली थी। तशद्दुद की नौबत आती तो नेकोकार नेकोकारों से लड़ते और बदकार बदकारों पर टूट पड़ते। दूध का दूध और पानी का पानी करने के लिए इलाक़े का थानेदार बीच में कूद पड़ता। इस कार-ए-ख़ैर के एवज़ नेकोकारों से बरा-ए-नाम और बदकारों से मन माना मेहनताना वसूल करता। बदकारों की कारगुज़ारी पेश-ए-नज़र रखकर थाने की नीलामी में बढ़ चढ़ कर बोली दी जाती। सहरा बदकारों के सर था जो थाने की मुस्तक़िल आसामियां थे।
दंगा फ़साद करने वाले पेशावर लोगों ने कभी अमन और क़ानून का मसला खड़ा नहीं किया क्यों कि थाने में पहुंच कर वो बड़ी बरख़ूददारी दिखाते, चुपचाप लंबे पड़ जाते, बिला तअम्मुल पुलिस के तारीख़ी छत्र खाते, हस्ब-ए-मामूल बिलबिलाते, चीख़ते, चिल्लाते, हस्ब-ए-मामूल पैसे देकर चले जाते और फिर अज़ सरे नौ पढ़ा हुआ सबक़ दोहराते और अल्लाह को प्यारे होने तक उसी उस्लूब से ज़िंदगी गुज़ारते जिसे वो तक़दीर बंधन कहते।
फ़ारूक़ी ने नक़्ल-ए-मकानी को ना पसंद किया। भय्या जी उसका हम-ख़याल था। दोनों ने मिलकर पेशगोई दाग़ी कि मियां पटड़ी से उतर गया है। वो दिन दूर नहीं कि फ़ैक्ट्री को ठिकाने लगाकर घर जा बैठेगा।
फ़ारूक़ी ने अख़्लाक़ी लेक्चर पिलाने की ठानी और कहा, यार अल्लाह रक्खा! ये क्या तू ने किया? गश्तियों के बाज़ार में आ गया। टिका टोकरी हैं औरतें यहां। लूट लेंगी तुझे और तू कुछ कर न सकेगा।
क़ब्ल अज़ीं कि मुआमला तूल पकड़ता अल्लाह रक्खा ने भय्या जी से कहा, हाथ वाली बोतल इधर ले आ! फ़ारुक़ी को पिला! इसने रात कोई ख़्वाब देखा है।
भय्या जी ताज़ा भरी हुई जिंजर की बोतल ले आया और फ़ारूक़ी के सामने रख दी।
कोई झूटा ख़्वाब नहीं देखा मैंने। मेरे ख़्वाब सच्चे होते हैं अल्लाह रक्खा! देख लेना!
सच्चे ख़्वाब देखता है तो बन जा सफ़ना पीर! यहीं फ़ैक्ट्री में बैठ कर हक़ हू कर! दरबार जाने से पहले बड़ी बड़ी औरतें तुझे सलाम करने आयेंगी। चढ़ावे में आधा तेरा आधा मेरा। सूँ रब दी! ग़रूर के घोड़ों पर सवार उन औरतों की अकड़ी तनी गर्दनें तेरे आगे झुक जाएँगी। बड़ी डरपोक होती हैं ये! पीर-फ़क़ीर की मार से मर जाती हैं। छोड़ कूची फेरने का काम! कोठी बना लेगा कोठे वालियों की मदद से।
फ़ारूक़ी ने बोतल मुँह से लगाने के लिए बराबर रखी हुई मेज़ से उठाई और हंसकर कहा, तू ने बात ही खो खाते में डाल दी अल्लाह रक्खा!
बलिया! तू अपने आपको समझता है न कारोबार को। मैं समझता हूँ कारोबार क्या होता है।
तू क्या समझता है? ये गश्तियाँ तुझसे ज़्यादा समझती हैं। तुझसे भी बड़े बड़े कारोबारी उनकी मुट्ठी में होते हैं। कारोबारी लोग हमें लूटते हैं, ये कारोबारी लोगों को लूटती हैं, कौन बड़ा हुआ फिर? तू अकेला है और गशतियों के हीटर के हीटर हैं यहां।
छोड़ यार! क्या बातें ले बैठा है सुब्ह सुब्ह। गशतियाँ तो अभी सोई पड़ी हैं।
फ़ारूक़ी ने बोतल पी। हुक़्क़े की गुड़गुड़ शुरू हुई।
अल्लाह रक्खा नई दुनिया में आ गया था। जो क़दम उठा अब वापस न जा सकता था।
सामने भीड़ी गली... उसने अच्छी तरह देखी। यहां गुनाहों का कीचड़ तेज़-रौ नाली बहाकर ले जाती। नाली बुलंदी से पस्ती की तरफ़ बहती। क्या लोग और क्या यहां की औरतें, बुलंदी से पस्ती की तरफ़ जातीं। उनके गुनाहों का बचा खुचा लावा मेहतरानी और माशकी साफ़ कर देते। गली को भी धो कर साफ़ कर देते। गली धुल कर यूं चमक उठती जैसे किसी मेहमान-ए-ख़ुसूसी की आमद आमद हो। जवान मुटियारें आतीं, शोख़ी दिखातीं, डालफ़िन की तरह शरारतें करतीं। जल्द ही जवानी ढल जाती। जूं जो गर्दूं उम्र की घड़ियाँ घटाता तूं तूं चेहरों की लिपाई पुताई बढ़ती। अल्लाह रक्खा कमाल-ओ-ज़वाल के ये तमाशे देखने लगा।
धंदा तो दिन चढ़े शुरू होता, लेकिन हाऊस फ़ुल ज़वाल-ए-आफ़ताब के बाद होता। सरेशाम गली में भीड़ हो जाती और तिल रखने की जगह न रहती। चुहलों और गालियों का बयक वक़्त मज़ा लूटने वाले हुल्लड़ मचाते। मुर्ग़ियां डरबों से बाहर आ जातीं। फिर जैसे मजमागीर तमाशा दिखा कर साँप पिटारियों में डाल लेता और बरसर-ए-मतलब आता तो भीड़ छटने लगती उसी तरह दिल पिशोरी करने वाले माँ-बहन की गालियों से तवाज़ो करवा के लुत्फ़ अंदोज़ हो कर रुख़्सत हो जाते। सच्चे गाहक बिलख़ुसूस सफेदपोश और आने वाली सुहागरात के लिए रीहर्सल करने वाले डरबों की मुर्ग़ियों और चौबारों की कबूतरियों की तरफ़ लपकते। आधी रात के लगभग अपने अपने दिलों को दिन भर का हिसाब देकर यूं चारपाई पर जा पड़तीं जैसे दम तोड़ गई हो।
अल्लाह रक्खा के शाम का वक़्त बहुत अहम होता क्यों कि उस वक़्त वो दुकनदारों से वसूली करता। उसके अंदुरूनी श्लोके की जेबें चेहरा शाही रूपों और अठन्नियों चवन्नियों से भरी होतीं। उनकी हिफ़ाज़त ज़रूरी थी। पहले गली के दुकनदारों से वसूली करता। साथ साथ तमाशा भी देखता जाता। अस्तबल छोड़कर वो घाटे में नहीं रहा।
फ़ारूक़ी ने साफ़ साफ़ कहा, अल्लाह रक्खा! तू कारोबार करने नहीं, आक़िबत ख़राब करने यहां आया है। मैं इस शैतानी काम में तेरा कैसे साथ दे सकता हूँ? तेरी तबाही में मेरा नहीं, इन गशतियों का हाथ होगा जो तुझे चिमटने की कोशिश करती रहती हैं।
तूं दुम की दुम ही रहेगा यार!
अल्लाह रक्खा अकेला हुजूम को चीरता चीरता और वसूली करता करता गली में से चला जाता। सफेदपोश और सेठ बनने का भूत हर दम अपने ऊपर सवार रखता। फिर भी बंदा बशर था। लल्ला फ़ल्ला वाली बात भूला न था। एक रात शैतान ने उसे आन घेरा और वो कामिनी का दरवाज़ा खटखटाने की नियत से उधर गया लेकिन सरापा शैतान दिलावर शेर फ़रोश बल्कि सरफ़रोश दीवानावार दरवाज़ा भड़ भड़ा रहा था। अल्लाह रक्खा लौट आया। उसकी क़िस्मत में कामिनी भी न थी।
क़िस्मत मेहरबान थी। सेठ बनने का मन्सूबा कामयाब हो रहा था। अभी गली से जी नहीं भरा था कि वो एक क़दम और बढ़ा। बड़े बाज़ार में थाने से कुछ ही दूर, हाफ़िज़ होटल के बराबर सिनेमा की बैरूनी इमारत में एक हाल ख़ाली हुआ जो उसकी मौजूदा जगह से दुगना तिगुना था। किसी से मश्वरा किए बग़ैर उसने फ़ैक्ट्री उखाड़ कर यहां लगा दी।
हस्ब-ए-दस्तूर तमाम दुकानदारों की तरह अलस्सुब्ह आजाता। भय्या जी उससे पहले आकर फ़ैक्ट्री खोल कर कुर्सी बाहर थड़े पर जमा देता। लंबी मेज़ और कुर्सियाँ साफ़ कर देता। दारां मेहतरानी थड़ा और फ़र्श साफ़ करती। ये शोख़ शरारा बरकती का बदल थी।
अल्लाह रक्खा और हुक़्क़ा दोनों का नाम एक साथ लिया जाता। सेठ बनने के लिए सोच का जाल बुनता रहता। दिन भर बिजली चमकती, शोले उसके पास से गुज़रते और उसकी सोच में रख़्ना डालते।
छोटे गेटर से निकल कर बड़े गेटर में आगया... काविश के बग़ैर, कोशिश के बग़ैर! क़िस्मत के काम तो फिर ऐसे ही होते हैं।
जो सुना सुनाया था, हक़ीक़त बन कर सामने आया। सुनी सुनाई दास्तानों के असल किरदार दर्याफ़्त हुए। टिब्बी के पहलू में बैठ कर ख़्वाब ही देखे थे, अब वो ख़्वाब जीते जागते दिखाई दिये। बाली (बाद अज़ां हर हाईनेस इक़बाल बेगम आफ़ ख़ैरपुर) ईदन बाई अखियां वाली, ईदन बाई हसियाँ वाली, इनायत बाई ढेरो वाली, ख़ुरशीद बाई हुज्रो वाली... ये बड़े बड़े नाम हैं। हुज्रो घराने का नाम तो अल्लाह रक्खा ने भी सुन रखा था। उसे पता था कि उस घराने के लोग मुल्क ही नहीं मुल्क से बाहर भी मामूर हैं। वो उनसे तअल्लुक़ तो क़ायम न कर सकता ताहम उन्हें देख सकता था। बड़े कलचर्ड थे ये लोग। हीरा मंडी उसका कारोबारी मर्कज़ ही नहीं मुहल्ला भी था। उसकी फ़ैक्ट्री से कुछ दूर एक तरफ़ थाना था, दूसरी तरफ़ मस्जिद और मदरसा नोमानिया था जिसे वो हर सालाना जलसे में चंदा देता। मदरसे की दीवार के बराबर वज़ीर बाई का डेरा था। उससे तो हर रोज़ सार-ए-राह मुलाक़ात हो जाती। दो चार जुमलों का तबादला भी हो जाता। तमंचा जान जो हाफ़िज़ होटल के बिल्कुल सामने रहती थी, बाहर निकलती न थी। नियती सुनियारिन से भी उसका तआरुफ़ हुआ... सभी शाइस्ता औरतें थीं। ताऊस-ओ-रुबाब की जान थीं जो उस वक़्त तक बदन का तक़द्दुस बरक़रार रखतीं जब तक गाहक दहलीज़ पर सजदा न करता और मुँह माँगे दाम क़दमों में न रखता।
इन वफ़ा ना शनास मख़्लूक़ तक पहुंचने के लिए बेहयाई, बेबाकी और मुख़य्यर तब्ई ऐसे औसाफ़ ज़रूरी थे। अल्लाह रक्खा इस मुआमले में तक़रीबन सिफ़र था। अल्लाह रखा तो बलंद नज़री से कोसों दुर था, आँखों में आँखें डाल कर बुलंदो बाला कोठों के मकीनों से वो क्योंकर गुफ़्तगू करता। उसकी छोटी छोटी आँखें उस का सर ऊंचा न होने देतीं। फिर मुख़य्यर तब्ई तो क़तअन रास न थी उसे। कैसे यूं अशर्फ़ियां लुटाता जैसे उसकी ना हों, कोठे वालियों की हों। इस तरह तो वो क़यामत तक बड़ा आदमी न बन सकता।
ये क्या कम था कि हर जुमेरात को वो एक रुपये के धेलों से लदा फंदा प्याला लेकर बैठ जाता। फ़क़ीर आते और धेला धेला लेकर चले जाते। झिड़कें भी साथ कहते। फ़क़ीरों की फ़क़ीरी इस तरह बरक़रार थी।
वो इम्तिहानगाह में आ गया था। सब लोग उस जैसे न थे। कोठे पर वही जाते जो आँखें बंद कर के आते और ख़ुशी ख़ुशी अंधे कुँवें में ढह जाते। यहां से उनकी लाश ही बरामद होती।
वो यहां का गोरख धंदा समझ गया कि पैसा ही कारसाज़ है, ख़ुदा है यहां का औरत बिकाऊ माल है। पैसा ख़त्म, खेल ख़त्म। पैसे के ज़रिये हर कोई जल्वे ख़रीद सकता था। मुहब्बत और वफ़ा जैसी अनमोल चीज़ें भी क़ाबिल-ए-फ़रोख़्त थीं। जब तक पैसा चलता, उनका दिखावा भी चलता।
वो औरतों को शौक़ से देखता। बाली ईद का चांद थी। रात को मुजरा ख़ाने में बैठती जिसके आगे वसीअ दालान था। दरवाज़ा खुल जाता। ताज़ा हवा और राहगीरों की नज़रें यहीं से अंदर जातीं। अल्लाह रक्खा भी दरवाज़े के पास से गुज़रता तो मुजराख़ाने में क़ालीन पर जल्वा-अफ़रोज़ बाली पर नज़र डालता जाता। ये इस इलाक़े का फिरिंज बेनिफिट था।
पानी के हवाले से नौ गज़े की क़ब्र का इलाक़ा अल्लाह रक्खा की अमलदारी में था। आगे केसरी सोडा वाटर फ़ैक्ट्री का इलाक़ा था। अपने इलाक़े की मख़्लूक़ से तअल्लुक़ पैदा होता गया लेकिन ये तअल्लुक़-ए-ख़ातिर न था। अल्लाह रक्खा को हुज्रो और ढेरो ख़ानदान की औरतें अच्छी न लगतीं जो उसे कभी घास न डालतीं। वैसे भी वो कम ही बाहर निकलतीं और निकलतीं तो बड़ी बेनियाज़ी से गुज़र जातीं। अल्लाह रक्खा तो क्या वो तो किसी नज़रबाज़ की नज़रों का जवाब न देतीं। तमंचा जान का तो ये हाल था जैसे बज़्ज़ाज़ हटा के दुकानदार क़ीमती ज़री की कामदार साड़ियां कपड़े में लपेट कर रखते। वो भी अपनी चार दीवारी में लिपटी रहती...बड़ी बड़ी हवेलियों वालियाँ किसी की तरफ़ न देखतीं। सब उन्हें देखते।
सेठ बनने के अज़्म से लदे फंदे और सफ़ेद पोशी के बोझ तले दबे हुए अल्लाह रक्खा के लिए जीना अज़ाब था। चलती फिरती हूरें सामने आती रहतीं और वो तिलमिलाता रहता। बिल-आख़िर गुलज़ार बाई, उसकी बहन सरदार बाई, वज़ीर बाई और मुतवस्सित तबक़े की औरतों से अलैक सलैक होने लगी। उन्हें वो अपने लिए मौज़ूं समझता। कभी कभी उनके कोठों पर चला जाता है। वो उसकी आँखों में आँखें डाल डाल कर देखतीं... शायद कि उतर जाये तिरे दिल में मेरी बात! क्या अजब कि उसका दिल पिघल जाये और वो दिन भर की कमाई उनके क़दमों में डाल दे लेकिन वो तो बस थाली में से पान उठा कर मुँह में रखता और चेहरा शनासी उसमें धर देता, बातें करता और कपड़े झाड़कर लौट आता। जहां तक गाने का तअल्लुक़ था वो फ़ैक्ट्री के थड़े पर बैठे-बैठे सुब्ह को, तलीम के वक़्त और नमाज़ इशा के बाद सुन लेता। रात को मुजराख़ाने सुर-ताल के सर चश्मे बन जाते। दर्मियान में हुक़्क़े क़ी मौसीक़ी उसका जी बहलाती।
गुलज़ार बाई जिसे अपनी लबरेज़ जवानी, नीलगूं और जिन्सी दिलकशी पर नाज़ था उसे गज़ंद पहुंचाती रहती। कभी दर्ज़ी, कभी लांडरी वाले, कभी पान-फ़रोश और कभी ख़्वांचा-फ़रोश को सौदे के पैसे वसूल करने के लिए भेज देती। अल्लाह रक्खा हीले बहाने तो करता लेकिन उनके बुलंद बाँग तक़ाज़ों और गुल ग़पाड़े से बचने के लिए दाम देने ही पड़ते। आख़िर इज़्ज़तदार और मुअज़्ज़िज़ बंदा था। वो बाज़ार में टुट पुंजिया कहलाना न चाहता। हीरा लांडरी वाला उसके पास फ़ैक्ट्री पर न जाता बल्कि जब वो पानी की वसूली कर के नौ गज़े से पलटने लगता तो वो सामने आ जाता... उसके हिलों-बहानों की काट यूं करता, क्या कहेगी गुलज़ार बाई कि सेठ के पास धुलाई के दो रुपये भी नहीं।
नहीं होते किसी वक़्त पैसे।
अब तो वसूली की है, अब तो पैसे दे!
ख़ाक वसूली की है।
दाम लेने के लिए हीरा लांडरी वाला कभी ऊंची आवाज़ से न बोलता। वो जानता था कि दलील में तलवार की काट है। अल्लाह रक्खा को अपनी इज़्ज़त का पास है। लेत-ओ-लाल करेगा तो उसकी इज़्ज़त के परख़चे उड़ जाएंगे सर-ए-आम। वो जेब में हाथ डालता और रुपया डेढ़ निकाल कर उसके हवाले करता।
मक्खीचूस होते हुए भी उसे मक्खीचूस का ताना गवारा न था। दस रुपये कमाता, एक ख़र्च करता, बाक़ी बचाता। बचत में से कभी-कभी कटौती कर लेता और उससे बाज़ार की तितलियों को नवाज़ता। उसकी पहली कोशिश तो ये होती कि लेमन की एक बोतल ही से परवानए राहदारी मिल जाये लेकिन ऐसी अहमक़ कोई न थी जो एक बोतल पर रिझ जाये। वो तो एक-आध मीठे बोल से बोतल डकार जातीं और इतना कह कर चल देतीं: कदी साडे वेल वी आएं सजना!
वज़ीर बाई ख़ास वज़ा की औरत थी। दो वडेरों के दर्मियान रहती थी। एक जानिब इनायत बाई ढेरो वाली का डेरा था, दूसरी जानिब ख़ुरशीद बाई हुज्रो वाली की हवेली थी। दीवार के बराबर मदरसा नोमानिया था। दो-चार क़दम पर मस्जिद थी। रवादारी के सीमेंट से उनकी जड़ें एक दूसरे से जुड़ी थीं, मज़बूत-ओ-मुस्तहकम थीं। एक को दूसरे से सरोकार न था। कुफ़्र और इस्लाम में ख़ूब निभ रही थी।
बाई पंजाबी और उर्दू दोनों ज़बानें रवानी से बोलती। पंजाबी में ज़रा ज़्यादा रवानी थी। उर्दू में शाइस्तगी क़ायम रखती, बड़े तकल्लुफ़ और वक़ार से लफ़्ज़ों की मार देती। गले पर छुरी फेरती तो हंस हंस कर पंजाबी में गुफ़्तगू करती। उर्दू और पंजाबी में जो लिसानी फ़र्क़ है उसे वो बख़ूबी समझती। जानती थी कि उर्दू में शाइस्तगी है तो पंजाबी में बे-साख़्तगी है। बड़ी सुलझी हुई औरत थी... हाज़िर जवाब, पुरकशिश और पुरगो। साफ़ सुथरे और मुहज़्ज़ब गाहक को पसंद करती लेकिन कारोबार में बुरे-भले, लीचड़-कीचड़ सभी से वास्ता पड़ता।
अल्लाह रक्खा को वज़ीर बाई अच्छी लगती। उसकी अदाओं से वाक़िफ़ हो चुका था लेकिन अल्लाह रक्खा के पास पैसा था, दिल न था। दरिया दिली कहाँ से आती? अदा फ़रोशी की क़ीमत न मिलने पर वज़ीर बाई को वो कैसे अच्छा लगता?
अल्लाह रक्खा आता जाता रहता, वो मुस्कुरा कर ख़ैर मक़्दम करती रहती, लेकिन जब पाँच-सात बार आने के बाद उसने पाँच-सात रुपये भी ख़र्च न किए और उर्दू नवाज़ वज़ीर बाई की कारोबारी शाइस्तगी रंग न लाई तो ठेट पंजाबी पर उतर आई। उसने पूछा, क्या करेंगा ऐसी कमाई नाल? कुर्सी ते बैठा बैठा सिक जाना ईं। तूं ते पासा वी नईं मोड़दा।
कारोबार ते फ्रिंज ही होनदा है।
मेरा कारोबार इंज नहीं होनदा। दिल खोल, खेसा खोल!
मैं केहड़ा कुछ करना होनदा है।
अब तो वज़ीर बाई जलाल में आई और बोली, काले मुँह वाले ने क्या मुँह काला करना?
अल्लाह रक्खा ने बज़ाहिर बुरा न माना और हंसकर चला गया। मुजराख़ाने का माहौल साफ़ हो गया।
बड़े उस्ताद जी ने कहा, बी-बी! ऐसी सख़्ती न किया करें! कौन जाने कब पत्थर मोम होता है?
ये सारी उम्र पत्थर रहेगा।
फिर भी मुंहतोड़ जवाब देना ठीक नहीं।
ये तो नर्मी सर पेड़ है। पहले ही मंदा है। इस मुफ़्त बर का जी कैसे बहलाऊँ?
मजबूरी है बी-बी।
उस्ताद जी! उसे तो इतनी तमीज़ नहीं कि मुँह में पान रखकर रंडी के डेरे पर नहीं आना चाहिए। वो तो मेरा पान भी नहीं खाता कि कहीं एक रुपया न देना पड़े।
गंदा बंदा है। क्या करें? बाज़ार में बैठे हैं। डेरा भी है काम से तआम है।
ना उस्ताद जी! इस फोके बंदे से हमें काम नहीं।
वज़ीर ख़ुद ही डेरा चलाती थी। ख़ुद ही रंडी थी, ख़ुद ही नायिका। उस्ताद जी सलाहकार थे।
वज़ीर बाई ने बे-एतिनाई बरती... कारोबारी हरबे के तौर पर नहीं अल्लाह रक्खा उसके नज़दीक कंडम माल था। गो उसके लिए वो फोका था लेकिन अपने लिए वो बड़ा ठोस था। अल्लाह रक्खा को सेठ बनना था और कोठों पर जानेवाले रईस कंगाल बन जाते हैं। ये क़िस्से रोज़ देखने में आते। अह्ल-ए-दिल की जन्नत में यही कुछ होता। वो अगर मुँह का ज़ायक़ा बदलने के लिए वज़ीर बाई के कोठे का रुख़ करते तो वो समझता कि उसका अपनी पड़ोस पर हक़्क़-ए-शुफ़आ है। सेठ बनने वाला ऐसी ही सोच रखता है।
चंद दिन गुज़र गए। अल्लाह रखा के दिल पर बाई ने जो लफ़्ज़ी चोट लगाई थी, उसका दर्द जाता रहा।
वज़ीर बाई मुजराख़ाने में बैठी थी। ग्राहक का इंतिज़ार था। ये इंतिज़ार बड़ा कर्बनाक होता। मौत और गाहक का वक़्त मुक़र्रर नहीं। गाहक आए न आए, आधी रात तक बैठी रहती, गाहक की आस लगाए। सीढ़ियों के ऊपर आने की आवाज़ आई। पैंतरा बदल कर सीधी हुई ताकि आने वाले का ख़ैर मक़दम करे। अल्लाह रक्खा नुमूदार हुआ। सामने आकर बैठ गया। कलफ़दार इस्त्री शुदा सफ़ेद बुर्राक़ पोशाक ज़ेब-तन थी। स्याह सफ़ेद का मालिक नज़र आ रहा था। सफ़ेद कपड़ों की वजह से चेहरे की स्याह रंगत और भी नुमायां हो गई। वज़ीर बाई ने सिगरट का धुआँ मुँह पर मारा। झुलसे हुए चेहरे को देखा और फिर कहा, कपड़े ते बड़े चिट्टे धोते नीं, मुँह वी ड्राई कलीन करा लेना सी।
कपड़े में सिवाए नीं ते मुँह अल्लाह ने बनाया ए।
तेरे नाल मैच करन वालियाँ परले बज़ार विच हो गियां नीं।
अल्लाह रक्खा उठकर चला गया।
वज़ीर बाई की ज़बान की काट जूं की तूं रही। तंज़-ओ-मज़ाह का ये शहकार अपनी फ़ित्रत से इन्हिराफ़ न करता। बुरी तरह डसा गया था, उसने वज़ीर बाई को अपनी अमलदारी से ख़ारिज कर दिया। दिल तो पहले ही ताबे था अब और भी ताबे हो गया। वैसे उसने दिल को ख़ासा नाकारा बना रक्खा, अब वज़ीर बाई के हवाले से रही सही कसर भी निकाल दी।
बड़ा नाम था इम्पीरियल सोडा वाटर फ़ैक्ट्री का इलाक़े में। ऐसा गया गुज़रा तो न था अल्लाह रक्खा कि कोई उसकी तरफ़ तवज्जो ही न दे। धीरे धीरे बशर्त-ए-उस्तुवारी मंज़िल ब मंज़िल मारता चला गया। मेल-जोल का दायरा मुतवस्सित तबक़े में बढ़ता गया। वो ख़ुद मुतवस्सित तबक़े में से था। ये तबक़ा उसके अंदर तक धँस गया था और उसका नज़रिया ये था कि बेशक लखपति हो जाओ, रहो मुतवस्सित तबक़े में, उसकी मख़लूक़ के अंदाज़ से ज़िंदगी सूखी गुज़रेगी।
चोखा पैसा बना लिया उसने लेकिन कुर्सी न बदली, लंबी मेज़ न बदली। वो आप भी न बदला। उस समेत सब कुछ कबाड़िये का माल लगता। पहले भी आठवें दिन कपड़े बदलता था, अब भी आठवें दिन बदलता था। पहले भी हाफ़िज़ के होटल दूनी का खाना खाता था, अब भी खाता था। लाहौरी के तनूर पर कभी न गया जहां दो पैसे में पेट भरता था... दो पैसे की ये डबल दो रोटियाँ और दाल का प्याला मुफ़्त।
वो किसी को देखने न जाता। आप ही दिन सोई औरतें सज-धज से निकलतीं और उसके सामने आ जातीं। उसे तो आँखों का ज़ाविया भी बदलना न पड़ता। वो एक ही नज़रिया, एक ही ज़ाविया नज़र रखता। थड़े पर बैठा बैठा पूरी हीरा मंडी का नज़ारा कर लेता। रही सही कसर उस वक़्त निकल जाती जब वो मैली कुचैली कापी लेकर वसूली के लिए दुकानों पर जाता। नज्जो बाई को भी उसने चलते फिरते वक़्त देखा। बड़ी मुनफ़रिद औरत थी। नाज़ुक इंदाम थी, तर्शे हुए आज़ा थे, जिन्सी कशिश ग़ज़ब की थी। जी चाहता कि हँसती मुस्कुराती हेलन आफ़ ट्रॉय सामने खड़ी रहे और उसे देखते ही रहो। तमाशाइयों की तरसती हुई नज़रें चीरती गुज़र जाती। अल्लाह रक्खा ने उसे हैरत से देखा तो हैरत के दरिया में डूब गया। ऐसे में अनलहक़ का नारा दाग़ा जाता है। लेकिन वो तो बिल्कुल कोरा था इस मुआमले में। उसके पास अना थी ना हक़ था। उनके बग़ैर ही ज़िंदगी गुज़ारता।
वो क्या जाने हैरत और अनलहक़ का रिश्ता?
प्यार वाले उसके पास आते, वो प्यार वालों के पास जाता लेकिन प्यार और पैसे के रिश्ते से बे-तअल्लुक़ हो कर। उसमें उसकी सलामती है। एक दिन की कमाई के एवज़ महीने भर का प्यार चाहता। गुलज़ार बाई ही उसे निमटती। एक दिन की कमाई हथियाई और सातवें आठवें दिन चीख़ने चिल्लाने लगती बल्कि वो क्या चीख़ती चिल्लाती, पान-सिगरेट, दूध-दही वाले और दूसरे तीसरे क़र्ज़ख़्वाह चीख़ते चिल्लाते, जिससे अल्लाह रक्खा के सर में दर्द हो जाता और उसका इमेज ख़तरे में पड़ जाता तो वो उनके मुतालिबे औने-पौने पूरे कर के पीछा छुड़ाता।
प्यार वाले प्यार की दुकानें सजाते...प्यार के गाहक आते...और ब-क़द्र-ए-ज़र्फ़ या ज़र प्यार ले लेते... अल्लाह रक्खा कभी मुस्तफ़ीद होता लेकिन संभल संभल कर।
हीरा मंडी में आकर अल्लाह रक्खा ख़ासी हद तक खुली किताब हो गया लेकिन हिसाब किताब की मैली किताब की मैली कुचैली कापी हमेशा बंद ही रही। लाहौर के बारह दरवाज़ों और तेरहवीं मोहरी में से हीरा मंडी समेत दो दरवाज़े और मोहरी उसके तसल्लुत में थी और फिर एक हीरा मंडी उसकी बाक़ी सल्तनत पर भारी थी। यहां की तो मिट्टी भी सोने के भाव बिकती। सोहा बाज़ार के जौहरी यहां आकर अपना सारा ज़ाती सिफ़ाती जौहर बेच डालते, औरतों को सोने-चांदी से लाद देते और अंजामकार सोहा बाज़ार का रुख करने की बजाय यहां के चांडूख़ानों में भटकते फिरते। यहां तो वही आता जो जान-बूझ कर झूटी अदाओं, वफ़ाओं और झूटे प्यार का तलबगार होता और खोटी जिंसों की हर क़ीमत पर सस्ता समझता। अल्लाह रक्खा में धोका खाने का ये वस्फ़ ही न था। उसके अंदर ऐसी तिजोरी थी जब वो मौज में आता और कोई तूफ़ानी मौज उसे आ लेती तो वो हवा निकालने के लिए तिजोरी का ज़रा की ज़रा के लिए पट खोलता।
उसने जो नपे तुले अंदाज़ से पर पुर्जे़ निकाले तो अबदुर्रहमान फ़ारूक़ी पहले से ज़्यादा घबराया। क़ाज़ी को शहर का ग़म खा रहा था, फ़ारूक़ी को इम्पीरियल सोडा वाटर फ़ैक्ट्री का। जूँ-जूँ अल्लाह रक्खा की फ़तूहात का सिलसिला बढ़ा, औरतों की आमद-ओ-रफ़्त बढ़ी। अब वो उनसे बिला तकल्लुफ़ कलाम करता। फ़ारूक़ी नैरंग-ए-ख़याल और साक़ी पढ़ पढ़ कर अनपढ़ न रहा था। अल्लाह रक्खा के मुक़ाबिल वो स्कॉलर बन गया था। हर पर्चा अलिफ़ से ये तक पढ़ता। लाम अहमद की कहानियों का आशिक़ था। फ़ज़लदीन कबाड़िये से गाढ़ी छन्ती थी उसकी। कहानियों और ड्रामों के मुताले के बाद कामेडी और ट्रेजडी के अंजाम से अच्छी तरह आगाह हो गया। बंदों और क़ौमों के ज़वाल-ओ-कमाल और ताऊस-ओ-रुबाब के कारनामों का पता चल गया उसे। गो अल्लाह रक्खा प्राइमरी फ़ेल था ताहम उसका तजुर्बा बहुत ज़्यादा था और वो तजुर्बे की दानिश से मालामाल था। बहरहाल फ़ारूक़ी को अपने इल्म की रौशनी में अल्लाह रक्खा की सूरत-ए-हाल तशवीशनाक दिखाई दी। उसने भाँप लिया कि अल्लाह रक्खा तूफ़ानी लहरों की जानिब पेशक़दमी कर रहा है। आख़िर उसने एक दिन कह ही दिया अल्लाह रखा, बच! ये औरतें नहीं, विश कन्याएं हैं।
वो क्या होती हैं?
तूने न तो उनकी कहानियां पढ़ी हैं, न देखकर उन्हें पहचानता है। विश कन्याएं वो होती हैं जिन्हें बचपन से ज़हर पिलाया जाता है। उनके होंटों और ज़बान में ज़हर भरा होता है। जिसे डस लें वो पानी नहीं मांगता। अल्लाह रक्खा तू ने जानते-बूझते हुए भी अपना तजुर्बा खोटा किया है।
तरदीद मुहाल थी। बात सोलह आने सच थी। रंडी पैदा होते ही कोठे के ज़हरीले माहौल में पलती है। उसकी तो घुट्टी में ज़हर होता है। अल्लाह रक्खा के होंट काँपे और उन पर मोनालिज़ा से क़द्र-ए-ज़्यादा मुस्कुराहट नुमूदार हुई। हुक़्क़ा पीने और तवानाई इकट्ठी करने लगा। आख़िर तबीयत रवां हुई तो बोला, फ़रुक़ी! तू बहुत भोला बल्कि भोला है। बलिया! कारोबारी बंदा हूँ। ये औरतें कुछ भी हों, मुझे चार नहीं सकतीं। उन कौम को ठप दूँगा।
अल्लाह रक्खा! बड़ा बोल न बोल! मारा जायेगा। ये नागिनें हैं, नागिनें। लोग उन्हें दूध पिलाते हैं पूजते हैं पर ये उन्हें, अपने पुजारियों को डसने से नहीं रहतीं। बुलाकी शाह के पास लाखों की जायदादें रहन पड़ी हैं उनके डसे हुए लोगों की। वो ख़ुदाई ख़ार फिर रहे हैं और ये दनदनाती, ख़रमस्तियाँ करती फिरती हैं।
अल्लाह रक्खा पहले की तरह मुस्कुराया और ज़्यादा मज्ज़ूबियत से हुक़्क़ा पीने लगा। फ़ारूक़ी ने ताबड़तोड़ हमला किया, बड़े बड़े खुर्रांट, नामी गिरामी नौसरबाज़, माने हुए चार सौ बीस उनके सामने हीच हैं। अगर तिकड़ी में एक तरफ़ तुझे और तेरी फ़ैक्ट्री को और दूसरी तरफ़ हीरा मंडी की औरत को रखें तो तेरा और फ़ैक्ट्री का नाम-ओ-निशान न रहेगा।
अल्लाह रक्खा उठा। मुक़फ़्फ़ल डिस्क खोल कर और हिसाब किताब की मैली कुचैली कापी निकाल कर बोला, फ़रुक़ी! जदते कर ये कापी सलामत है, कोई ख़तरा नहीं मुझे।
ख़तरा टल गया जो फ़ारूक़ी की शक्ल में रूनुमा हुआ था। कापी संभाल कर वो वसूली के लिए चला गया।
भय्या जी ने अलग दुनिया बसा रखी थी। मशीन बिजली से चलती। खटाखट बोतलें भरतीं। कभी कभी बोतल टूटती तो धमाका सा होता। शीशे के टुकड़े इधर उधर बिखर जाते। भय्या जी के कान पर जूं न रेंगती। वो इस शोर में पूरबी गीत गाता। उसकी तनख़्वाह बढ़ गई थी। बेफ़िकरी से ज़िंदगी गुज़र रही थी उसकी।
अबदुर्रहमान फ़ारूक़ी ने कहा, भय्या जी! तू ने क्यों चोंच बंद करली है? मियां क्या कर रहा है, तुम कुछ कहते ही नहीं।
तनखाह मिलती है अपुन को जिस काम की वो करत हैं। जिसकी तनखाह नहीं मिलती वो हम नाहीँ करत हैं। मियां! बड़ा सियाना है। चमड़ी चली जाये, दमड़ी न जाये।
फ़ारूक़ी चुप हो गया और हुक़्क़ा पीने लगा। चंद दिन अमन से गुज़र गए। फिर एक दिन नीती सुनियारी इधर से गुज़री। बड़ी धांसू औरत थी। ज्वाला-मुखी का लपकता हुआ शोला थी। बदन रेशम और गुलाब था। हाथ लगाए बंदा तो फिसल कर गिर पड़े और फिर उठ न सके... बुलंद क़ामत, सुर्ख़ी पोडर से बेनियाज़, सजरी सजीली, शादाब माशूक़ा... दाँतों की सफ़ेद चमकदार लड़ी में सोने का एक दाँत। अल्लाह रक्खा ने उसे देखा तो बे-इख़्तियार कहा, सुब्हान-अल्लाह!
फ़ारूक़ी ने फ़ौरन फ़ैसला दिया: भय्या जी! तेरा मियां गया। कौन उस औरत की ताब झील सकता है। लाखों में एक है। पूरी हीरा मंडी में इस जैसी औरत नहीं। पोर पोर जवानी और हुस्न से भरपूर है।
अपुन की बला से। मियां जाने और ये गसतियाँ जानें। अपुन को बोतलें भरने से काम।
फ़ारूक़ी जो रिसाला पढ़ते पढ़ते अल्लाह रक्खा की नज़रबाज़ी पर नुक्ताचीं हुआ था, फिर रिसाला पढ़ने लगा।
अल्लाह रक्खा ने नीती सुनियारी को देखा, नीती सुनियारी ने फ़ारूक़ी को देखा। नीती सुनियारी सैल-ए-सह्र थी जो गुज़र गई। मेक-अप के बग़ैर दुश्मन ईमान-ओ-आगही थी। सुरमे, काजल और इत्र का फुलेल का शौक़ ज़रूर रखती लेकिन सुर्ख़ी पोडर के क़रीब न फटकती। जिसे क़ुदरत ने ऐसे दिल आवेज़ नैन नक़्श दिये हों, उसे सुर्ख़ी पोडर से क्या सरोकार।
अल्लाह रक्खा नई अक़लीम हुस्न-ओ-रानाई में आया तो उसने टिब्बी से मुँह मोड़ लिया जहां टिकयाइयाँ डरबों में बैठतीं और छोटी छोटी कारगाहों में रह कर रोज़ी कमातीं, अपना और अपने दलों का पेट भरतीं, जल्द जलद अपना आप गंवा तीं, चार दिन गली में शोख़ी और शरारतें बिखेरतीं और फिर उनकी चांदनी अंधेरे की लपेट में आ जाती। जूँ-जूँ वक़्त गुज़रता गया, लिपाई पुताई बढ़ने लगी। बड़े बाज़ार की बात ही और थी। चाहतें तो वक़्त को क़ाबू में रखतीं। कमाल-ओ-ज़वाल का अमल बलमपत लय में होता। सहमे सहमे दत्त गुल खिलाता। कभी कभी उसे गुल खिलाने का मौक़ा ही न मिलता। नीयती सुनियारी ऐसी औरतें वक़्त के धारे के ऊपर से गुज़रतीं।
अल्लाह रक्खा को एक दिन वक़्त की इस बेक़ाबू शहज़ादी का क़ुर्ब मयस्सर हुआ। इस दिन वो तरशी बाँहों वाली महीन क़मीज़ पहन कर आई तो जलवा छनछन कर निगाहों से टकराने लगा। उसने सरसरी नज़र से अल्लाह रक्खा को देखा और फिर फ़ारूक़ी से रुजू करते हुए कहा: मियां! तेरा यार हर वक़्त रिसाले पढ़ता है, बड़ा पढ़ाकू लगता है।
अपना नाम सुनकर फ़ारूक़ी चौंका। लहज़ा भर के लिए उसने नीयती सुनियारी को देखा और फिर रिसाला पढ़ने लग गया।
बाऊ जी! हम भी इस दुनिया में हैं। ये ख़त पढ़ कर सुनाव क्या लिखा है दिल जानी ने। बंबई गया है कमाई करने।
फ़ारूक़ी ने नज़रों से नज़रें मिलाए बग़ैर सुनियारी से ख़त ले लिया जिसमें नीयती सुनियारी के हुस्न-ओ-जमाल का ज़िक्र था। इस सोहनी मन मोहिनी की तो गुलू को कहीं नक़ल भी नहीं मिली थी, ग़रीब-उद-दयार को। फुलजड़ियाँ ही फुलजड़ियाँ थीं। आधा ख़त फ़िल्मी गानों के छांटे हुए शेरों से भरा था। फ़िराक़ की जलन और क़र्ब का ज़िक्र था। आख़िर में लिखा था: जी करता है उड़ कर आ जाऊँ लेकिन कैसे आ जाऊँ? सौदे कर रखे हैं। उधर तेरी मुहब्बत का सौदा कर रक्खा है। पंद्रह बीस दिन नबेड़ा नबीड़ी में लग जाएंगे। तीन सौ रुपये का मनीआर्डर कर रहा हूँ।
असल बात मनी आर्डर की थी। उसी के हवाले से वो गुलू से प्यार करती थी। मनी आर्डर का मुज़्दा सुनने के बाद उसने ख़त लेकर रख लिया। अल्लाह रक्खा से कहा: मियां! तीन दिन तो लग ही जाएंगे मनी आडर के आते आते। तब तक क्या करूँगी? सेठ जी तीस रुपये दो! मनी आडर आते ही रक़म उतार दूँगी।
शहज़ादी! धेले की वटक नहीं हुई।
मियां! संदूकड़ी खोल! बड़ा माल है उसमें।
बड़ा मंदा है आजकल।
क्यों, आग लगी है कहीं कि काल पड़ा है। संदूकड़ी में से निकाल माल! मैं टलूँगी नहीं।
बी-बी! संदूकड़ी में कुछ होता तो ज़रूर देता।
मुझे कुछ पता नहीं, तीस रुपये चाहियें मुझे।
इकट्ठे तीस।
चल पंजी निकाल।
ये देख! हाथ जोड़ता हूँ। शाम को वसूली करूँगा तो दे दूँगा।
मियां, मैं मलूके में हाथ डाल कर निकाल लूँगी।
इस सर्द जंग ने तूल खींचा तो अल्लाह रक्खा ने बीस रुपये देकर जान छुड़ाई।
नीयती सुनियारन ने बीस रुपये चेहरा-ए-शाही लिए और पल्लू में बांध लिए और कहा, तीस की जगह बीस दे कर अल्लाह रक्खा तू ने दस कमाए हैं।
अबदुर्रहमान फ़ारूक़ी ने सब कुछ सुना लेकिन देखा कुछ नहीं। नीयती सुनियारी को उसका ये तर्ज़-ए-अमल बहुत बुरा लगा। उसे देखने को तो एक ज़माना तरसता है। इसकी ये मजाल कि नीयती सुनियारी को घास न डाले। बात करना तो दूर की बात है, देखना भी गवारा नहीं। फ़ारूक़ी पर झपटी, चिमट कर उसकी चुम्मी ली और फिर इस ज़ोर से काटा कि वो बिलबिला उठा। फिर बोली, नीयती सुनियारी हूँ मैं बाऊ! बड़े बंदे ताबेदार हैं मेरे। क़ाफ़ की परी मुझे देखने आती है। सजना! मेरे चौबारे पर आना।
फुर्ती से थड़े से उतरी और ग़ायब हो गई।
अल्लाह रक्खा ख़ूब हंसा। बोला, फ़र्रूक़ी! देख लिया उससे आँख न मिलाने का नतीजा? तुझे पलीद कर गई है। जा कर मुँह धो बल्कि सारा बदन धो! यूं चिमटती है बंदों से।
फ़ारूक़ी परंने से गाल पोंछने लगा जिसमें वो परियों की परी दाँत गाड़ गई थी। बोला, अल्लाह रक्खा! छोड़ ये जगह! आने वाली थां पर चल! बच जाएगी तेरी जान। ये औरतें संसार की तरह मुँह खोले रहती हैं हर ववक़्त।
फ़र्रूक़ी! पच्चास रुपये की औरत बीस रुपये में महंगी नहीं। टूट में हो तो सौदा इसी तरह होता है।
लानत भेज इस सौदे पर!
बीस रुपये देकर अल्लाह रक्खा को नीयती सुनियारी के कोठे की चाबी मिल गई। उसे उसने अपनी फ़तह जाना।
अब वो ख़ुद को बड़ा आदमी समझने लगा। कारोबार बढ़ा फैला, हीरा मंडी में उसका रसूख़ हो गया। जी मैं आई कि रईसी जगह ताँगा बना कर लोगों पर अपनी हैसियत का सिक्का जमाए। अबदुर्रहमान फ़ारूक़ी से ज़िक्र किया तो उसने कहा, अल्लाह रखा! जो कुछ तू है, जैसा क़ुदरत ने तुझे बनाया है वैसा बना रह! सुखी रहेगा।
फ़र्रूक़ी! तू तो बस वही रहेगा देने के तनूर से टके की दो रोटियाँ और मुफ़्त की दाल खाने वाला! इकन्नी में दो वक़्त पेट भर लेता है। इसी लिए हड हराम है। काम करता नहीं।
अल्लाह रक्खा! में तेरी तरह लखपति हो जाऊं तब भी ऐसा ही रहूँगा, जैसा अब हूँ। बड़ा मज़ा है इस हाल में। कोई ग़म, कोई फ़िक्र नहीं, कोई पेच नहीं, कोई गुंजल नहीं।
तुझे कुछ करना नहीं, कुछ बनना नहीं, तेरा तरीक़ा तेरे लिए ठीक है। मेरे लिए नहीं। बेअक़ल! रईसी ताँगे पर बैठ कर सैर करेगा तो दिमाग़ अर्श पर होगा।
मैं फ़र्श पर ही ठीक हूँ। दो वक़्त रावी पर जाता हूँ। इससे अच्छी सैर कोई नहीं।
रिसाले पढ़ पढ़ कर तो चूड़ हो गया है।
मैं रईसी ताँगे के हक़ में नहीं। काम बढ़ गया है और ठेले से काम नहीं चलता। घोड़ा रीहड़ा क्यों नहीं बना लेता।
अल्लाह रक्खा ने हुक़्क़े के दो चार कश लिये। कुछ देर सोचा और फिर कहा, यार फ़र्रूक़ी! तू ने समझा तो अपनी हैसियत से है पर बात ठीक है। रईसी ताँगे से तो निरा ख़र्चा ही ख़र्चा है। रीहड़ा ठीक है।
रईसी ताँगे की बात तमाम हुई। सामने से रईसी घराने की बुलंद क़ामत, बुलंद नज़र गोरी चिट्टी औरत आई जिसने तंग मोहरी की शलवार और पूरी आस्तीनों वाली क़मीज़ पहन रखी थी। अंदाज़ घरेलू था। ख़ुद ब नफ़स-ए-नफ़ीस आई थी। मुलाज़िम के बस का काम न था। बोली, अल्लाह रक्खा! सोडे का डाला अंदर भेजना!
भेजता हूँ बी-बी!
अल्लाह रक्खा ने भय्या जी से कहा, बी-बी के यहां सोडा दे आ! भय्या जी ने हुक्म सुना लेकिन सुनी अनसुनी करी। अल्लाह रखा ने दोबारा ऊंची आवाज़ से कहा, भय्या! दे आ सोडा!
दे आएँगे। जीजे के लिए बोतलें भर लें।
मामे हीर के! पहले डाला दे आ! बड़े घर की बाशा ज़ादी है। ख़ुद चल कर आई है।
अपुन सब जानत हैं। ये गस्तियाँ तुम पर रोब गाँठ सकती हैं, हम पर नाहीं।
कुंजरा! उसने सुना तो हुल्या टेट कर देगी।
हम उसके आसिक नाहीँ जो हुल्या टेट कर देगी। सुन ले बेसक।
आख़िर भय्या जी मान गया। उसने डाला उठाया और जाते-जाते बोला, दम धेल दिया नहीं। मुफ़्त माल देकर कितनी खुसी होती है मियां को।
भय्या जी बेचारा कुँवें का मेंढ़क, क्या जाने रईसों के ठाट। बी-बी बड़ी ऊंची शय थी। उसका चल कर आना ही बड़ी बात थी। इतने में अल्लाह रक्खा का इमेज बन गया। सोडे के डाले की क्या बात थी? उसका ख़र्चा ही क्या था जो एक डाले का ख़सारा परेशान करता उसको।
दो बरस में बुड्ढे दरिया के पुल तले से दो सैलाब गुज़रे और ज़ोर दिखा गए। अल्लाह रक्खा की सोच भी बदली। वो भी ख़ासी हद तक ज़ोर-आवर हो गया। उस पर भी सैलाब के वार हुए। उजले कपड़े, मैले दिल वालियाँ खोटा माल खरे दामों बेचती फिरतीं... कजले की धार, नैनों की कटार, हाथों में गजरे, मुखड़े सजरे, क्या बहार थी। थी। सजी संवरी औरतें टोलियां बना बना कर वक़्फ़े वक़्फ़े से गुज़रती थीं... अल्लाह रक्खे पर क़यामत बन के न टूटतीं। दिल की तरह उसकी आँखें भी बुझ गईं। सैक़ल किए हुए बदनों से रौशनी न फूटती।
वो मगन था एक की बजाय दो मशीनें हो गईं। बंगाली बाबू और छोटे का इज़ाफ़ा हुआ।
अबदुर्रहमान फ़ारूक़ी को दुख हुआ कि सोडे के डाले की आमद-ओ-रफ़्त दाख़िल-ए-मामूल हुई। उसने कहा, अल्लाह रक्खा! ये औरतें रियासतें हज़म कर जाती हैं। इम्पीरियल सोडा वाटर फ़ैक्ट्री क्या चीज़ है उनके आगे! ये दो-धारी तलवारें कटारें सर क़लम कर देती हैं।
अल्लाह रक्खा ख़ूब हंसा। दो-धारी तलवारें कटारों वाली बात उसे अच्छी लगी। रिसाले पढ़ते पढ़ते फ़ारूक़ी को अच्छे अच्छे जुमले अज़बर हो गए थे। दो-धारी तलवारों कटारों की न तो गुज़रगाह बदली जा सकती थी न उन्हें गुज़रने से रोका जा सकता था। इन्ही से तो सारी बहार थी। जब उनकी टोलियां गुज़रतीं तो फ़ारूक़ी मराक़बे में चला जाता और रिसाला पढ़ने लगता।
अल्लाह रखा के लिए कारोबार के साथ साथ दिल बहलाने का सामान मयस्सर था। अड्डा भागवान साबित हुआ था। ताहम वो ज़ेर-ए-दाम लाने वाली औरतों को ज़ेर करने और उन पर फ़तह पाने का आर्ज़ूमंद न था। फ़ातिह बनने से उसे क्या मिलता? वो फ़ातेह बनने वालों का हश्र देख चुका था। ये हटीली कटीली औरतें अपने हुक़ूक़ की ख़ातिर मर्दों को शिकस्त-ए-फ़ाश देने के लिए आख़िरी दम तक लड़तीं और उन्हें शिकस्त-ए-फ़ाश देकर रहतीं। इस शिकस्त-ए-फ़ाश का जीता जागता नमूना साईं फ़ज़ल शाह था जो हुक़्क़े के कश लगाने आने जाने लगा था। साईं ने दौलत औरतों पर लुटाई, जायदाद बुलाकी शाह के पास रहन रखी और फिर छुड़ाने की नौबत न आई। जिनके लिए अपना ठाठ ठिकाने लगाया वो ठाठ से रहने लगीं।
अल्लाह रक्खा में इलाक़े का माहौल रच बस गया था। लेकिन हस्ब-ए-आदत, मस्ती और ख़रमस्ती उसके मिशन का हिस्सा न था। अब तो कुछ-कुछ बोसीदा भी हो गया था। दौलत और नख़रे का चौखा ख़ज़ाना आ गया था उसके पास। औरतों को जान पहचान गया और उनकी फ़तूहात देख चुका था। बा'ज़ सीनियर औरतों से सलाम-ओ-कलाम का शरफ़ भी हासिल हो गया था। औरतों के नाज़-ओ-अंदाज़ में मुबालग़ा आराई का नक़्शा भी देख चुका था। लखपती बनने की आरज़ू लहजा ब-लहजा शदीद होती जाती। अब वो अपनी शक्ल-ओ-सूरत की ख़ामी भी भूल गया क्यों कि इस शख़्सियत पर चेहरा शनासी की आब-ओ-ताब चढ़ गई थी। चलते-फिरते ख़ूबसूरत इश्तिहार तबाही की दावत देते। वो फ़ाख़्ताओं का हमला हुक़्क़े के कश से रोक लेता।
सावन सभी के लिए सुहाना होता। हलचल मचती। औरतें कोठों से उतरतीं, महीन मलमल के कुरते पहन कर। बाग़ों में उनके लिए झूले पड़ जाते। झूले झूलतीं, मल्हारें गातीं, बूँदा-बाँदी से मलमल के महीन कुरते पिंडों से चिमट जाते और अंधे भी सजाखे हो जाते। अल्लाह रक्खा बूँदा-बाँदी से बचने के लिए फ़ैक्ट्री के अंदर चला जाता जिसके दोनों दरवाज़ों पर काठ के किवाड़ों के बाहर जाली वाले किवाड़ लगे थे। अंदर छोटा सा बल्ब मशीनों के पास लगा था। यहां मशीनों की खटाखट थी। बोतलें भर्ती जातीं। फ़िराक़िया गीत थे भय्या जी के और दोनों पर हावी हुक़्क़े की गुड़गुड़ थी। मौसीक़ी उसके दिल की आवाज़ थी। उसमें चांदी के सिक्कों की झनकार थी। ये झनकार बड़ी सुरीली, बड़ी दिलकश और सह्र आफ़रीं थी। उसे तो वो हर वक़्त सुनना चाहता। ये उसकी जान थी, ख़्वाब थी, ज़िंदगी थी। इसी में रईस आज़म की तख़्ती झिलमिलाती दिखाई देती। ये मंज़िल की निशानदही करती। कभी कभी अपने माज़ी पर नज़र डालता तो हंस देता। उसने अस्तबल से इस बाज़ार तक चार क़दम को जो फ़ासिला तय किया वो उसके बस का रोग न था। न दिल था उस के पास, न जुरअत-ए-रिंदाना थी कि उस बाज़ार का रुख करता। ये तो बस चहर शाही की कशिश थी जो उसे उधर ले आई। फिर भी चार क़दम उसने चार साल में उठाए।
वक़्त नाज़ुक था। साईं फ़ज़ल शाह की आमद-ओ-रफ़्त बर वक़्त साबित हुई। साईं फ़ज़ल शाह बर्बादी की आख़िरी मंज़िल तय कर के शाही से गदाई तक आगया था और अब तकिया साबिर शाह में रात गुज़ारता था। दिन भर गदाई सफ़र यानी आवारागर्दी करता था। अल्लाह रक्खा उरूज की आधी मंज़िल सर कर चुका था। उसने पज़ीराई की तो साईं फ़ज़ल शाह दिन में दो-चार चार बार आने और देर देर तक उसके पास बैठने लगा। साईं हर रोज़ किताब-ए-ज़िंदगी का नया वर्क़ उलटता और अल्लाह रक्खा की आँखें खोलता:
बंदिया! मेरी कहानी ओलड़ी नहीं वैसी है जैसी हीरा मंडी के अवांड गवांड में रहने वालों की होती है। तरले ले-ले कर परेमरी पास की और चार बंदों में बैठने के लैक़ हुआ। हुक़्क़े के लिए खांसी का दौरा पड़ा। फिर बोला, हयाती ऐसी गुज़री जैसे बनेरी होती है। चोखा रुपया घर आता था। शाही ख़र्च था। किसी शय की लोढ़ थोड़ न थी। क़ज़ा आई, बाप अल्लाह को प्यारा हुआ। जैदाद मिली। माल मिला तो नशा चढ़ा। आगे तो समझ ले मियां अल्लाह रक्खा! उन गश्तियों ने क्या हाल किया मेरा!
अब ख़ुश है साईं?
ख़ुश ही ख़ुश हूँ, पर एक सिल ए। आधी हीरा मंडी फ़तह करली थी। बड़ा तजुर्बा हो गया है। पाँच-दस हज़ार कहीं से मिल जाते तो बाक़ी भी फ़तह कर लेता, पर कहाँ? किसी ने धेला नहीं दिया।
अपना माल गंवा के दूसरे का माल कैसे मिलता गँवाने के लिए?
न सही जो नहीं मिला। जो कुछ हुआ ठीक है। पर बादशाह! तुझे नसीहत है मेरी। तू गढ़ बीचों बीच आन फंसा है। गश्तियों से बचना। शैतान की चंडी होती हैं। आपको और फ़ैक्ट्री को बचाना उनसे।
साईं फ़ज़ल शाह की किताब-ए-ज़िंदगी ज़ख़ीम और सच्ची कहानियों से मामूर थी। उसके क़िस्से ने अल्लाह रक्खा को बहुत कुछ सिखाया। वैसे अब तक उसके यहां हर सुब्ह और हर शाम एक सी थी। उम्र एक डगर पर चल रही थी कि यकायक ज़लज़ला आया और वो भी दिन के वक़्त। एक झटके में तारे नज़र आए लोगों को। पूरी हीरा मंडी को इस फ़ैक्ट्री समेत झिंझोड़ गया। कमज़ोर और पुराने धुराने मकान टूट-फूट गए। पुख़्ता मकानों में भी कहीं न कहीं दराड़ें ज़रूर आईं। उनमें रहने वालों के दिल भी ज़्यादा हिल गए। ख़ुदा याद आया। मस्जिदों की रौनक़ बढ़ी। वीरान मस्जिदें भी आबाद हो गईं। लोग धड़ा धड़ तौबा-तौबा करने और ख़ुशू-ओ-ख़ुज़ू से सज्दारेज़ होने लगे। कर्दा और नाकर्दा गुनाहों का बोझ टालने लगे। अल्लाह रक्खा जैसे लोग जिन्होंने गुनाहों की सिर्फ़ आँच चखी थी, कान पकड़ने लगे। सोए या सुलाये हुए ज़मीर जाग पड़े। अलबत्ता चन्नन दीन अलोचा जो रात-दिन मारा मारा फिरता था, एक एक मकान की ईंटें गिनता रहता था, बहुत ख़ुश हुआ। जिन मकानों पर नज़्ला ज़्यादा गिरा था वो फ़ौरन उसकी गिनती में आ गए और वो मालिकों को फ़ौरन मकान औने-पौने ठिकाने लगाने और क़ीमती जानें बचाने का मश्वरा देने लगा। माई सोबां जो अपनी जवाँ बेटी के सर छुपाए जद्दी पुश्ती बोसीदा मकान में रहती थी उसका हाल बुरा हुआ। मकान के खन्डर होने में एक आँच कसर रह गई। चन्नन दीन अलोचा उसकी मदद को पहुंचा और बोला, आपां वढी! भूचाल आया रब की मर्ज़ी से। बंदा क्या कर सकता है। बड़ा अफ़सोस ए। तेरे मकान का तो खोपड़ ही हिल गया है। अब तो बस एक झटके की मार है। बेच दे!
ना भरा ना! जद्दी पुश्ती जेदाद बेचने के लिए नहीं होती।
खन्डर हो जाएगा मकान, फिर क्या करेगी?
देखा जाएगा। अल्लाह बना देगा। मैं बाप-दादा की इज़्ज़त नहीं बेचती।
जा माई सोबां! भेड़ी है तेरी क़िस्मत। अक़ल की बात समझती ही नहीं।
बाप-दादा की इज़्ज़त बेचने का मश्वरा देने वाला चन्नन दीन अलोचा मायूस हो कर चल दिया। ज़लज़ले की बदौलत चन्नन दीन अलोचा के लिए ख़ासी तादाद में मकान क़ाबिल-फ़रोख़्त हो गए थे। माई सोबां के लिए बात इज़्ज़त-ए-नफ़्स की थी और ग़रीब का सरमाया उसकी इज़्ज़त-ए-नफ़्स था। पैसे वालों को इज़्ज़त-ए-नफ़्स की फ़िक्र नहीं होती।
सोबां ने ज़ेबां को आवाज़ दी जो कोठे पर चढ़ी ज़लज़ले की तबाह कारियों के साथ साथ उन लौंडों का भी जायज़ा ले रही थी जिनसे उसके मुआशक़े तो नहीं, इशारे ज़रूर चल रहे थे। माँ की आवाज़ सुनी तो बोली: आती हूँ माँ! बनेरे की ईंटें समेट लूं।
बनेरे पर टांगें लटकाए बैठी थी। उसे समेटने और सिमटने का ढंग कब आता था?
जब तीन-चार बार आवाज़ें पढ़ें तो यूं इज़हार-ए-ग़ज़ब करती आई जैसे बहुत बड़े काम से उसे हटाया गया हो। आते ही बोली: माँ! ज़रा ऊपर जा कर देख! कितने मकान उधड़े हैं। हमारी मुंडेर भी टूट गई है।
इसी लिए तो तुझे बुलाया है। मुंडेर नहीं धिए! हम टूट गए हैं।
अल्लाह की मर्ज़ी! हमारा तो कोई क़ुसूर भी नहीं। फिर जाने हम पर अज़ाब क्यों टूटा?
अल्लाह ने कुछ नहीं किया कमलिए! हमारे अमल ही ऐसे हैं। चन्नन दीन अलोचा आया था, मकान बेचने को कह गया है।
तू ने मुझे उस वक़्त क्यों न बुलाया। मैं उसकी मूँछें पकड़ कर यूं खींचती कि चीख़ उठता। क्या हुआ है हमारे मकान को? सौ रुपये किसी से मिल जाएं तो इसकी मरम्मत हो जाएगी और ये पहले से भी ज़्यादा पुख़्ता हो जाएगा।
कौन देगा इतनी बड़ी रक़म हमें?
मैं ला कर दिखाती हूँ।
बस-बस बक-बक ना कर! आराम से बैठ! फ़ारूक़ी से बात करती हूँ। बड़ा नेक और ख़ुदातरस बंदा है। बराबर की गली में हमारे बड़ों के ज़माने से रह रहा है।
हूँ, उसका तो घर चील को घोंसला है। आप ही चील है अपने घूँसे की।
देख लेती हूँ।
दरवाज़ा बंद करवा के अबदुर्रहमान फ़ारूक़ी के यहां गई जिसके बड़े एक ज़माने से यहां आबाद थे। फ़ारूक़ी लंबी तान के सोया पड़ा था। उसके दिल में रात-दिन को कोई तसव्वुर न था। दिन को सोना और रात को जागना उसका दस्तूर था। बेचारी सोबां देर तक दस्तक देती रही। आख़िर आँखें मलता उठा।
आ आपा! ख़ैर तो है?
ना बेटा! ख़ैर नहीं।
आजा अंदर!
अंदर चली गई और चारपाई पर एक जानिब बैठ गई।
भरावा! हम तो उजड़ पजड़ गए हैं। तरेड़ आ गई है मकान में।
आपा! शुक्र कर अल्लाह का। जान तो बची।
शुक्र तो हर-दम अदा करते हैं। पर देख नाँ फ़ारूक़ी भाई? बिना मरम्मत रहना ठीक नहीं उस घर में। सौ रुपये का सरबन्द हो जाये तो मरम्मत करा लूँ।
सौ रुपये का सुनकर फ़ारूक़ी मराक़बे में चला गया। बड़ी रक़म थी। वो सोबां की मुश्किल के इलावा इस परेशानी के बारे में भी सोचने लगा जो हर घर में जवान लड़की पैदा करती है। ज़ेबां प्राब्लम थी माँ के लिए और फ़ारूक़ी उस प्राब्लम से आगाह था। इस वक़्त फ़ारूक़ी के नज़्दीक मरम्मत तलब मकान और ज़ेबां एक मसले की जुड़वां कड़ियाँ थीं। घर ढह गया तो अक़ब नंगी हो जाएगी। ज़ेबां यूंही चिझड़ी छांट रही तो न जाने क्या गुल खिलाए।
अच्छा बहन! मैं हीला करता हूँ। बंद-ओ-बस्त हो गया तो बताता हूँ तुझे आके।
सोबां घर चली गई। फ़ारूक़ी ताला लगा कि बल्कि सिर्फ़ अड़ा के अल्लाह रक्खा के पास गया।
अस्सलामु अलैकुम।
वाअलैकुम अस्सलाम।
यार अल्लाह रक्खा! एक मसला है। सबबी आन पड़ा है। ग़ौर से सुनना। क्या ख़बर इसमें तेरी भलाई का कोई रस्ता हो।
बात कर!
भूंचाल से सोबां का मकान तरेड़ खा गया। आप ही तरेड़ी गई है। सौ रुपया माँगती है।
तेरा क्या ख़याल है?
ज़कात निकाल!
बस-बस।
आज अगराई करलूं! रक़म ले लेना!
बात इतनी नहीं। आगे की भी है।
कैसे?
ऐसे कि सोबां की जवान लड़की है ज़ेबां। परी है परी। क़समिया कहता हूँ। जवाब नहीं उसका। कब तक कंजर ख़ाने में डांवां डोल फिरेगा? हक़ हलाल की कर! अल्लाह बच्चा दे दे तो तेरा वारिस बने।
यार फ़ारूक़ी! तू क्यों नहीं कर लेता। तेह चाली में ज़र्दे, क़ोर्मे और पुलाव की देगें पक जाएँगी। दो-तीन तोले का ज़ेवर और चार-पाँच जोड़े वरी के। सौ रुपये के अंदर अंदर पूरा काम हो जाएगा। तेरा सारा ख़र्चा मैं कर दूंगा।
नहीं-नहीं, अभी नहीं। शादी ब्याह बड़ी रिझ से करता है बंदा। जिस दिन सोना बनाया पहला काम यही करूँगा। मेरी बात न कर! सोना बनेगा जब बनेगा। तेरा बड़ा अच्छा चांस, गोल्डेन चांस। पज के सोहनी ऐ लड़की।
वैसे कैसी है? मतलब ये कि चाले कैसे हैं उसके?
लड़की वैसी है जैसी कुँवारी लड़कियां माँ-बाप के घर होती हैं। शादी के बाद उन्हें कंट्रोल करना ख़ाविंद की ड्यूटी होती है। अभी माँ के कंट्रोल में है। सच्ची है।
ज़ात क्या है?
तुझसे घट नहीं।
लड़की मैंने देखी है। चंगी है। बात चला...
बात क्या चलानी है। तू कोई मामूली बंदा नहीं। टपके का फल है। हाँ कर, लड़की तेरी झोली में। तीन मरले का मकान है। साथ टब्बा है। उसे पर्दा करवा। मकान और टब्बा लेकर ठाट से हवेली खड़ी कर! रईस बन कर रह!
लड़की वाली बात पक्की हो गई तो ज़मीन का सौदा भी कर लेंगे।
फिर एक साथ दोनों सौदे ही मकाऊँ? ज़मीन के साथ लड़की को भी समेट।
अल्लाह रक्खा ने हुक्क़े क़ी नड़ी मुँह में रखी और सर हिला कर फ़ारूक़ी की पैकेज डील मंज़ूर की।
उसने साईं फ़ज़ल शाह से मश्वरा किया तो उसने कहा, अच्छी बात है मियां! घर की मुर्ग़ी दाल बराबर। इन गश्तियों से तो लख वार चंगी है। ये तो नोच नोच कर बंदे को लहूलुहान कर देती हैं। गोलीमार उन्हें।
अल्लाह रक्खा ने वटक के रुपये फ़ारूक़ी को थमाए, फ़ारूक़ी ने सोबां को घर बुला कर दीये और कहा, आपा! ध्यान से बात सुन! अल्लाह ने तेरी सुन ली है। भूंचाल तेरी क़िस्मत बदलने के लिए आया है।
ख़ैर होवे, क्या बात है?
फ़रिश्ता मिल गया है तेरे भागों, अल्लाह रक्खा फ़ैक्ट्री वाला।
बुला रब उसके कारोबार में बरकत डाले!
बरकत ही बरकत है आपा। मैंने उसे ज़ेबां से कलमा पढ़ाने को कहा है। तू हाँ कर तो मैं उसे राज़ी करलूंगा।
बेटा! ज़ेबां से तो बात करलूं। मेरा और कौन है जिससे सलाह लूं।
आपा ! अल्लाह रक्खा कोई मामूली बंदा नहीं। चलता हुआ कारोबार है।
ज़रा कच्छी उम्र का बंदा है।
फ़ारूक़ी ने ज़ोरदार क़हक़हा मारा और कहा, तू भी पुराने ख़याल की निकली! उम्र की क्या बात करती है। ये देख वेला कैसा जा रहा है। बड़ा बुरा वक़्त आगया है। ऐसा रिश्ता कहाँ मिलेगा तुझे? उधर ख़ाली ज़मीन पर मलबा पड़ा है। इधर लड़की मलबा हो रही है। उम्र गुज़ारेगी रिश्ता ढ़ूढ़ने में? अच्छे रिश्तों का तो सदा से काल है। तेरे घर में मर्द कोई नहीं। आले-दिवाले लचर रहते हैं। झटपट फ़ैसला कर!
हूँ।
हूँ नहीं, हाँ कर! बंदा हाथ से निकल गया तो सारी उम्र पछताएगी। अल्लाह रक्खा बड़ा अच्छा बंदा है। क़दर करने वाला है। ज़मीन का मलबा और लड़की का मलबा दोनों को ले लेगा। चोखा पैसा है उसके पास। शर्तें बता!
शर्तें कैसी भरावा? ज़मीन लड़की के लिए रख छोड़ी है। वो ले-ले, पंजाह रुपये मरला।
पंजाह रुपये मरला! ख़ुदा का ख़ौफ़ कर आपा! तीन रुपये मरला तो ठट्ठी मल्लाहां में ज़मीन ली है करमदीन ने। वैसे उसके पास पैसे की कमी नहीं। लड़की के साथ जिस भाव कहेगी ज़मीन ले लेगा। लड़की, मकान और मलबे समेत बात कर!
वरी देवे अपनी हैसियत मूजिब। हक़ महर सालिम दे पंज सौ नक़द। मलबे की बात कर दी है। मकान के सत सौ अलग से देवे।
आपा! रातों रात मालदार हो जाएगी तू। सौदा महंगा है पर हो जाएगा।
भरावा! तेरी मेहरबानी। तेरा हक़ पहचानती हूँ।
मेरा कोई हक़ नहीं। बस ख़ुदा वास्ते का सौदा है मेरा।
अल्लाह तुझे ख़ुश रखे।
बात पक्की हो गई। अल्लाह रक्खा ने मकान और मलबे समेत लड़की को भी समेट लिया। लड़की खन्डर होने से बची। उसने अपनी शान-ओ-शौकत दिखाने के लिए एक मंज़िला मकान की बजाय तीन मंज़िला हवेली खड़ी करली। उसके लिए टहका दिखाना ज़रूरी हो गया था। अब वो चाहता था कि जब हवेली से बाहर क़दम रखे तो क़दम क़दम पर सलाम करने वाले हों।
सोबां की क़िस्मत जागी। लहर बहर हो गई घर में। मुरझाई हुई बेवा शादाब हो गई।
अल्लाह रक्खा को हसीनतरीन मुटियार मिल गई। नीयती सुनियारी का नेम-उल-बदल थी। वो हैवी वेट थी, ये लाईट वेट। बिजली भरी थी अंग अंग में। नाज़-ओ-अदा का मफ़हूम समझती थी। मुस्कुराने, रूठ जाने, एतिनाई और बे-एतिनाई के मौक़ा-ओ-महल से आश्ना थी। कसी हुई जवानी! उसने सहेलियों से बहुत कुछ सीखा। माँ से बहाना कर के सहेलियों के साथ दो-चार बार सिनेमा देख आई। सिनेमा बहुत बड़ा ज़ेवर-ए-तालीम था। मंझी हुई थी। घर के अंदर चलती फिरती मोरनी थी जो सूदो ज़ियाँ से बेनियाज़ थी।
उम्र के फ़र्क़ ने मियां-बीवी को एक सतह पर न रहने दिया। ये फ़र्क़ अल्लाह रक्खा के माल और उसकी रुपया उगलने वाली फ़ैक्ट्री से दूर न हो सका। जोड़ी ने चंद महिने यूं गुज़ारे जैसे जन्नत में झूले पड़े हों और दोनों महकती हुई हवाओं में हिलकोरे ले रहे हों। ताज़ा हवा के झोंके उनके बदनों को सहलाते और जी बहलाते। ख़्वाबों की ख़ुशबू थी जो उन्हें मस्त कर गई। अल्लाह रक्खा अब बदल गया।
उसने फ़ैक्ट्री अबदुर्रहमान और बंगाली बाबू की निगरानी में दी। ज़ेबां के पास रहने लगा। छोटा हर-रोज़ आता, फ़ैक्ट्री का हाल अहवाल सुनाता और फिर घर के काम कर के चला जाता।
फ़ैक्ट्री चलती रही लेकिन गाहक तंग करने लगे। मालिक की ग़ैरमौजूदगी के बाइस वो समझने लगे कि फ़ैक्ट्री लूट मार की चीज़ है। कभी माल उठाते, कभी पैसे मार लेते। रफ़्ता-रफ़्ता अल्लाह रक्खा का नशा टूटने लगा और वो गाहे-गाहे फ़ैक्ट्री में जाने लगा।
ज़ेबां का नशा टूटा। खड़ी जवानी का तोड़ नई हवेली न था। वो मौक़ा ब मौक़ा आबो हवा की तब्दीली के लिए बारी पर जाती, चिक़ उठाती और जल्वे फ़िज़ा में बिखेरती। आख़िर माँ ने तंग आकर उसे टोक ही दिया: कुड़िये! होश की दवा कर! पुरानी लत छोड़! बारी पर मत जाया कर! चिक़ उठाना ठीक नहीं। ख़ुदा का शुक्र अदा कर! चंगा ख़सम मिला है तुझे।
मैं क्या करती हूँ बे बे! इतनी बड़ी तो हवेली है। बां बां करती है। जी घबराता है तो ज़रा बाहर की ख़बर ले लेती हूँ। बस इतनी सी बात है सारी।
नादान न बन! तू बड़े आदमी की बीवी है। उसने तुझे शहज़ादी बना के रखा है।
अल्लाह रक्खा हुआ जो मालदार बंदा। मैं शहज़ादी हूँ तो उसने शहज़ादी बना के रखा है।
ये पान-सिगरट वाले की दुकान पर जो लौंडे कट्ठे होते हैं, क्या रखा है उनके पास? ये लुच्चे-लफ़ंगे मुशटंडे ख़रमस्ती करना तो जानते हैं, घर बनाना नहीं जानते। मत देखा कर उनकी तरफ़! अल्लाह का शुक्र है। घर बैठे बिठाए हज़ार नियामतें मिली हैं तुझे। फिर वो तेरे नाज़ उठाता है। ताबेदारी करता है।
हुँह।
माँ ने अच्छी तरह ऊंच नीच समझाई लेकिन उसे ऊंच-नीच की तरफ़ देखने की देरीना बीमारी थी। बाज़ ही न आई अपनी हरकत से।
हवेली में रहते हैं ठाट से। अल्लाह रक्खा की दौलत और इज़्ज़त में शरीक हैं। इज़्ज़त और शराफ़त की बड़ी क़ीमत है। माँ उसे समझाती ही रहती लेकिन जवानी की आंधी के सामने लड़की ठहर न सकी। उसके अंदर तूफ़ान मचलता रहा और वो चाहती कि इस तूफ़ान को निकलने की आज़ादी मिले। वो हो और ख़रमस्तियों की दुनिया। हर लम्हा ख़रमस्तियों में डूबा हुआ हो। ख़रमस्तियों के साथ जागे, जिए और सोए। कोई लम्हा ख़रमस्ती से ख़ाली न हो।
शादी ने अल्लाह रक्खा को बदल के रख दिया। ये नया अल्लाह रक्खा से मुख़्तलिफ़ था। कुक्नुस अपनी ही ख़ाक से जी उठा। लेकिन वह ख़रमस्ती के साथ साथ फ़ैक्ट्री भी जाने लगा। ख़ासा वक़्त बल्कि ज़्यादा से ज़्यादा वक़्त ज़ेबां के पास रह कर गुज़ारता और उसके क़ुर्ब की हरारत से अपने आपको गर्माता। रईस-ए-आज़म बनने वाला था। एक आँच की कसर रह गई थी। उधर अबदुर्रहमान की कीमियागरी में भी एक आँच की कसर रह गई थी। दोनों कठाली में अपना अपना तजुर्बा कर रहे थे।
ऊंची हवेली की बुलंद क़ामत बीबी को पता चला कि अल्लाह रक्खा ने ब्याह कर लिया है तो बोली: उड़ गया अल्लाह रक्खा। अब वो किसी के काम का नहीं रहा।
अल्लाह रक्खा को जब महसूस हुआ कि वो रईस-ए-आज़म बनने को है और फिर नई-नवेली दुल्हन का साथ भी था, वो अब अठवारे में दो मर्तबा कपड़े-बदलने लगा। रही बेगम, तो बड़ी टस थी उसकी। उसे हर तरह ख़ुश रखने की सई करता। हफ़्ते में तीन बार सिनेमा ले जाता, लाहौर की तारीख़ी इमारतों की सैर करवाता, लौरंस गार्डन और शिमला पहाड़ी में हवाख़ोरी के लिए जाता।
शाला मार बाग़ उसके लिए सेहत अफज़ा साबित हुआ और उसने उसे अपने मिज़ाज के लायक़ जाना। यहां कुशादगी थी, रवीशें थीं, बाग़ों के क़ते थे, बुर्ज थे, सीढ़ीयां थीं। दौड़ धूप की खुली छूट थी, औरतें आज़ादी से सांस लेती थीं। बुर्क़ा उतार देतीं और दौड़ लगातीं। मर्द और औरतों को एक दूसरे को देखने पर किसी नौअ की पाबंदी न थी औरतें चहचहातीं, चिल्लातीं, बड्कें मारतीं, मुस्कुराने हँसने और क़हक़हे लगाने से फ़िज़ा इंतिहाई ख़ुशगवार हो जाती। ज़ेबां दौड़ें लगाती, अल्लाह रक्खा तेज़-क़दम उठाता और दौड़ने से शरमाता था। थक जाती तो पांव लटका कर चबूतरे पर बैठ जाती।
बाहर जाती तो वन सोने कपड़े ज़ेब-ए-तन करती। तेरी मेरी मर्ज़ी और दिल की प्यास के जोड़े ज़रूर पहनती लेकिन अल्लाह रक्खा की मौजूदगी के बाइस न दिल की प्यास बुझती, न किसी से तेरी मर्ज़ी की बात होती। फिर भी पंखुड़ी बन कर ख़ूब फिरती।
अल्लाह रक्खा उसे नित-नए कपड़े सिलवा कर देता। पॉलिश, मख़मल, तनज़ेब, किम-ख़्वाब, मख़मल और मौसम के लिहाज़ से दर्जनों मलबूसात से ट्रंक भर दिया लेकिन वो अपनी चहेती बीवी को क़ाबू न कर सका, अलबत्ता बीवी ने उठकर काठी डाल दी।
सोबां ने उम्र के मसले को ज़्यादा संजीदगी से नहीं लिया। ये कोई ऐसी बात न थी। सतरे बहतरे चौदह-चौदह, पंद्रह-पंद्रह साल की लड़कियों से शादी कर लेते। अल्लाह रक्खा के पास दौलत थी जिसके सामने उम्र का मसला कोई अहमियत न रखता था ताहम हक़ीक़त तो फिर हक़ीक़त थी और गुल खिला रही थी। सौदा अबदुर्रहमान फ़ारूक़ी ऐसे नेक दिल बंदे के ज़रिये हुआ। उसकी नीयत बख़ैर थी, ये और बात है कि ज़ेबां की नियत बख़ैर न थी।
अल्लाह रक्खा की ज़बरदस्त ख़्वाहिश थी कि कम-अज़-कम एक बेटा तो मिल ही जाये जो उसका नाम बरक़रार रखे और इम्पीरियल सोडा वाटर फ़ैक्ट्री को कैलाश सोडा वाटर फ़ैक्ट्री और पंजाब फ़ैक्ट्री के दर्जे तक पहुंचाए लेकिन उसका खरा सिक्का खोटा हुआ जा रहा था।
हवेली के ऊंचे-ऊंचे और बड़े बड़े कमरे इस तौर सिकुड़े कि वो खुल कर सांस भी न ले सकता। बड़े-बड़े दरीचों में से हवा और धूप खुल कर आती लेकिन वो अंदर से सिमट कर रह गया, उसका दम घुटने लगा। जवानी और दौलत का मिलाप देर तक चलता नज़र न आया। ज़ेबां वक़्त से पहले ही जवाब दे गई। ऐसा तो बाज़ार में कभी न हुआ। साईं फ़ज़ल शाह की मिसाल सामने थी। जब तक वो खकल न हुआ, किसी औरत ने उसे छोड़ा नहीं बल्कि जब वो खकल हुआ तब भी कोठी दारनियों ने उसे सीढ़ियां चढ़ने और मुजराख़ाने में आने से न टोका।
औरत ज़िंदगी देती है, ज़िंदगी लेती नहीं। वो अक्सर फ़ारूक़ी से कहता, घर को गोशा-ए-आफ़ियत समझता जहां ज़िंदगी और तवानाई का चशमा उबलता।
अल्लाह रक्खा को अपनी ऊंची बहुत नीची लगी। बड़ी टहकेदार हवेली। अपना इमेज उसी के ज़रिये बढ़ाया उसने लेकिन घर में कलकल होने लगी... हर लहज़ा अपनी मर्ज़ी, बात बात पर ज़िद, ज़बान दराज़ी, अल्लाह रक्खा जिस एहतिराम और मुक़ाम का तलबगार और मुस्तहिक़ था वो उसे न मिला। उम्र में अलग अलग, मुतालिबे और और, हौसले और हिम्मतें ग़ैर यकसाँ फ़ासले बढ़ते गए। उन्हें समेटना सुकेड़ना और यकजा बल्कि यकजान करना ख़्वाब हो गया। अब वो घर से दिल बर्दाश्ता हो गया और अज़ाब से बचने के लिए ज़्यादा वक़्त फ़ैक्ट्री में गुज़ारता।
उसने अबदुर्रहमान फ़ारूक़ी से कहा, यार! किस जहन्नुम में धकेल दिया तू ने? चंगी नेकी की है।
अल्लाह रक्खा! कसम खा के कहता हूँ, मुझे उन लोगों का पता न था।
यार! औरत घर बनाती है, बिगाड़ती नहीं, ये बिल्कुल पटरेल निकली है।
फ़ारख़ती दे दे!
अल्लाह रक्खा हुक़्क़ा पीने लगा।
अबदुर्रहमान फ़ारूक़ी वहां से उठा और सीधा हवेली पहुंचा। दरवाज़े पर ज़ेबां चप उठा, दनदासा मल रही थी। अबदुर्रहमान ने कहा, कुड़िये! तीन मंज़िला हवेली में ग़ुस्लख़ाना कोई नहीं। दनदासा मलने को यही जगह रह गई है।
इस जगह में क्या ख़राबी है?
माँ! कहाँ है?
चाचा! ख़ैर तो है?
कोई ख़ैर नहीं।
जा फिर अंदर बैठी है माँ।
अबदुर्रहमान फ़ारूक़ी अंदर गया तो बुढ़िया को तप चढ़ा था और दवा की शीशियां पास मेज़ पर धरी थीं।
आपा! तू बीमार पड़ी है और ख़बर ही न दी तू ने।
भरा! क्या ख़बर दूं तुझे। लड़की रोग बन गई है।
ये तो अच्छा नहीं हुआ।
क़िस्मत दग़ा दे गई है। नाज़ नेअमत से पाला था उसे। जवान किया कि घर बसाएगी। घर में रहेगी। ये हवा में उड़ने लगी।
इस पतंग की टांगें तोड़ नहीं तो...
सोबां ने फ़ारूक़ी के मुँह पर हाथ धरा और आबदीदा हो कर कहा, मैंने बड़ों की इज़्ज़त भी बेच दी। घर गया, लड़की हाथ से निकल गई। मैं तो मारी गई।
अबदुर्रहमान मायूस हो कर चला गया।
पहले ज़लज़ला आया तो सोबां के घर में तरेड़ आगई। अब ज़लज़ला आया तो हवेली की जड़ें हिलने लगीं। फंदा गले में पड़ा, कसा जा रहा था तबले की तनाबों की तरह। थाप पड़ी तो चीख़ें निकलीं लेकिन ये चीख़ें कोई सुन न सका, सुन न सकता था... अल्लाह रक्खा बिखर गया। घर की इकाई टूट-फूट गई। दीवाना हो गया। ज़ेबां उसकी दौलत में बक़ाइमी होशो-हवास शरीक रही, उसकी ज़िंदगी में शरीक न हुई। अबदुर्रहमान फ़ारूक़ी ने बंगाली बाबू के तआवुन से कारोबार सँभाल लिया लेकिन अल्लाह रखा को कौन सँभालता?
वो अब भी उजले कपड़े पहनता लेकिन उसके सामने उजाला नहीं था। वो डोल गया, डगमगा रहा था। डोलने डगमगाने का अमल जल्द ही शुरू हो गया। फ़ारूक़ी बिल-उमूम गैरहाज़िर रहता। ऐसे में आता कि अल्लाह रक्खा से मुलाक़ात न हो। वो उससे आँखें न मिला सकता। नदामत में डूबा रहता। ता-बके? एक दिन टाकरा हो ही गया फ़ैक्ट्री में आकर।
अल्लाह रक्खा ने कहा, यार तुम मिलते ही नहीं।
कहाँ मिलूँ? फ़ैक्ट्री का अड्डा ही न रहा।
मेरा कोई अड्डा नहीं रहा औरत ने मेरा अड्डा तोड़ डाला। उसने मुझे तोड़ दिया। तुम भी मुझे छोड़ गए। तुम भी पैसा चाहते हो, ले लो!
पैसा बड़ी बेकार शय है अल्लाह रक्खा! मुझे इस वाहियात शय की ज़रूरत नहीं।
तुम्हारे हवाले फ़ैक्ट्री की है। उसकी तो ठीक से देख-भाल करो!
मैं शर्मिंदा हूँ अल्लाह रक्खा! मैं धोका खा गया।
नहीं यार, ये सब क़िस्मत की हेराफेरी है। मैं रस्ता भूल गया... पैसे का टहका था। मैं समझा कि पैसा सारे काज संवारेगा लेकिन पैसा फ़ेल हो गया। मैंने पैसे पर भरोसा किया, दिल के झांसे में आ गया। दिल के फ़ैसले खोटे होते हैं।
वो ऐसा बीमार ना था औरत का डंग लगा था। ज़िंदगी में पहली बार उसकी आँखों में आँसू झलके। वो सोच ही न सकता था कि ऐश-ओ-आसाइश की ज़िंदगी औरत को अच्छी नहीं लगेगी जो हूर थी, चुड़ैल बन गई। वो तो उसके हर-रोज़ ताज़ा ब ताज़ा नख़रे उठाता।
ये तो मुझे तोड़ने-फोड़ने के लिए आई थी। कम ज़ात ने औलाद भी न दी मुझे।
अल्लाह रक्खा! मुझे माफ़ कर दो!
क्या माफ़ करना, क्या न करना, होनी हो कर रहती है। बाज़ार वालियाँ भी ऐसा नहीं करतीं। पैसे का लिहाज़ करती हैं।
अल्लाह रक्खा डाक्टर के यहां चला गया। फ़ारूक़ी धीरे-धीरे हुक़्क़ा पीने लगा। सोच में पड़ा था। उसने इस खेल पर अल्लाह रक्खा को लगाया था। साईं फ़ज़ल शाह भी आगया। फ़ारूक़ी ने हुक्क़े की नड़ी उसकी तरफ़ फेर दी।
मेरे यार बादशाह का क्या हाल है फ़ारूक़ी?
बुरा हाल है। आधी सदी उसने पाई पाई जोड़ने में गुज़ारी। शानदार हवेली खड़ी की। सुख की ज़िंदगी गुज़ारने का वक़्त आया तो औरत टकरा गई।
जानता हूँ अल्लाह रक्खे को फ़ारूक़ी। उसकी जिंदड़ी हनीरी तुफान न थी। बलमपत लय की मौसीक़ी थी। ठुमरियों ने उसका कुछ न बिगाड़ा औरत ले डूबी उसे। साईं फ़ज़ल शाह ने इस बात पर ख़ूब क़हक़हे लगाए और फिर बोला, प्यारे! बज़ार वाली भी औरत होती है। हिसाब-किताब रखती है। क़नून पर चलती है। ज़िंदगी गुज़ारी और तज़ुर्बा न किया। मस्ती ख़रमस्ती न की। मौज मेला न किया। पैसा बनाने में लगा रहा।
अल्लाह रक्खा डाक्टर से दवा लेकर आगया। चुरमुर हो रहा था। साईं फ़ज़ल शाह उसकी तरफ़ देखकर बोला, यार क्या हुआ है तुझे? ज़नानी से मार खा गया घर की मुर्गी। बज़ार वाली से मार खाता तब भी कोई बाथ थी। होश में आ! भला-चंगा है तू। किस शय की लोढ़ थोड़ है तुझे। अधि सदी जवानी मारी, बखेड़ा किया, उसे डूब देगा? वाह बई वाह। हछा मर्द है तू। लत्तर मार। पैरों की जती का खोपड़ ख़राब हो गया है। कढ दे घर से उसे खा-मखाह जान को रोग लगाया है तू ने। डाक्टरों के पास तेरा इलाज नहीं। तेरा इलाज मैं करूँगा।
कर फिर साईं लोग!
करूँगा सच्चे साईं की मदद से। बड़े धक्के खाए हैं, मारें खाईं हैं गश्तियों की। फिर भी जीवनदे फिरते हैं।
सस बड़ी बीमारी है।
पहले अपना इलाज कर, फ़िर उसे भी वेख़ लेना।
बातों का सिलसिला शुरू हुआ तो ख़त्म होने को न आता। वन सोने मश्वरे हुए। भांत भांत की तरकीबें और तदबीरें ज़ेर-ए-बहस आईं। उधर सोबां ज़िंदगी और मौत की कश्मकश में मुब्तला थी। मौसमी बीमारी थी पर ज़ेबां के तौर-तरीक़े ने उसे और भी बीमार कर दिया। उसने एक-बार फिर ज़ेबां को समझाया, धीए, कमलिए, वेख़। मैंने पूरे पंद्रह विरहे बड़े ओखे काटे हैं। अल्लाह बख़्शे तेरे अबे को, बड़े ऐश कराए थे उसने। कदी मेरी बात नहीं टाली। जान छिड़कता था मेरे ऊपर। पर अल्लाह की मर्ज़ी। उसने बुला लिया। मैं बेवा हो गई। ख़ुदा किसी ज़नानी को बेवा न बनाए।
इसकी आँखों में आँसू आगए। ज़ेबां ने सर झुका लिया।
तेरी ख़ातिर मैंने दूजा व्याह नहीं किया। मैं कवी जी कच्ची तो नहीं थी। तेरी तरह सोहनी थी, पर मैं बेवा रही। तंगी तुर्शी में हयाती बता दी। अब अल्लाह के फ़ज़ल से तुझे चंगा बंदा मिला है। शहज़ादी बन के रहती है। बत्ती दंदाँ में से जो बात निकालती है उस घड़ी पूरी कर देता है। बता क्या इरादा है तेरा?
कोई इरादा नहीं मेरा माँ।
सोबां ने बेटी को बड़े जज़्बे से प्यार किया। टप टप आँसू गिरे। बोली, सोहनी धीए! फिर तू घर में जी क्यों नहीं लगाती? क़दर क्यों नहीं करती घर वाले की? उसे सरका साईं क्यों नहीं समझती? कौन होगा ऐसा मेहरबान जैसा वो है। ये घर तेरा है। इसे आबाद रखना तेरा काम है। मैं क्या कर सकती हूँ। बस दुआ दे सकती हूँ। मैंने तेरे लिए बुरा नहीं किया। अच्छा साथी मिला है। घर को घर वाले को सानबो! ये घर जन्नत है। ये छुटा तो बर्बाद हो जाएगी। पचतावेगी। अगे तेरी मर्ज़ी। मेरे दिन तो पूरे हुए।
सोबां चुप हो गई। अपना आख़िरी फ़र्ज़ पूरा कर चुकी थी। ज़ेबां उसके चेहरे को देखने लगी जो फीका पड़ गया था। इतने में फ़ारूक़ी आगया। हाथ में काग़ज़ था। बोला, कुड़िये ये लिख़्त सांभ! तलाक़ दी है अल्लाह रक्खा ने और ज़बानी कहा है, जो कुछ ले जाना है, बेशक ले जा और हवेली ख़ाली कर दे!
सोबां की आँखें फटी की फटी रह गईं। सांस तेज़ तेज़ चलने लगा। ज़ेबां पानी लेने दौड़ी। सोबां की घमबीर आवाज़ में चीख़ निकली और दम पार हो गया। फ़ारूक़ी सर झुकाए, इन्ना लिल्लाह पढ़ते पढ़ते लौट गया।
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